सोमवार, 28 मार्च 2016

लगी हुयी है आग

युद्ध

महाभारत का युद्ध
अभी समाप्त नहीं हुआ है ।
अभिमन्यु आज भी चक्रव्यूह में घिरा है
और भीष्म महामण्डलेश्वर हो गया है ।
पाण्डव कहीं अज्ञातवास पर हैं, 
कृष्ण ने अपनी भूमिका बदल दी है
और जनता चौपाई गा रही है –
कोउ नृप होहि हमैं का हानी .. 
  
ग़रीब साम्यवाद की अमीर ख्ख़्वाहिशें

कन्हैया ग़रीब है
बेहद ग़रीब है
वह ग़रीबी को भगाना चाहता है
ग़रीबों के लिये लड़ना चाहता है
लड़ाई के लिये देश-विदेश जाना चाहता है
आँगनबाड़ी में काम करने वाली उसकी माँ
एक-एक पाई जोड़कर
हवाई जहाज की टिकट की व्यवस्था करती है ।
कन्हैया
अब आसमान में उड़ता है
अपने नारों में लाल रंग भरता है ।
दोस्तो !
साम्यवाद की शुरुआत
कुछ इसी तरह होती है
जो कुछ समय बाद
थ्येन-ऑन-मन चौक पर
लाल रंग में ख़त्म हो जाती है ।   

एक हिंदू की मौत

भारत की राजधानी में
एक डॉक्टर की हत्या होती रही
और पड़ोसी सहिष्णु बन गये ...
क्रूर हिंसक तमाशे पर
समाज की निर्विकारिता
और अ-प्रतिक्रिया ने
शिक्षा को उसकी औकात बता दी ।
संस्कृति
कटघरे में खड़ी हो गयी
और लोग होली मनाने
घरों में दुबक गये ।
मामला एक डॉक्टर का था
जो न तो दलित था और न मुस्लिम
इसलिये
चिंता की कोई बात नहीं
जाइये .....
आप भी सो जाइये
रात बहुत गहरी हो चली है ।          

हैरानी

केसरिया इनका, लाल उनका,  हरा हमारा ....
ऊपरवाला हैरान है
रंग बनाते समय
यह तो कभी सोचा ही नहीं !

ग़नीमत है
कि झगड़े रंगों में नहीं
रंगे हुये लोगों में हैं ।

बटवारा

पहचान बट गयी
धर्म बट गये
महापुरुष बट गये
रंग बट गये
वेश बट गये
देश बटना शेष है एक बार फिर ।
असुर शक्तिशाली हैं
और बेचारी प्रजा को भरोसा है
कि होने ही वाला है कोई अवतार
शेष लोग प्रतीक्षारत् हैं
देखने के लिये
देश को बटता हुआ
एक बार फिर ।
क्या भारत

सचमुच एक चेतनाशून्य देश हो गया है !   

गुरुवार, 17 मार्च 2016

वैश्विक संस्कृति एवं वैश्विक समाज – एक यूटोपियन थॉट


भारत में वामपंथी चिंतन की जड़ें मार्क्स, लेनिन, स्टालिन और माओवाद से पोषित होती रही हैं । वामपंथी विचारधारा की नयीपौध तैयार करने के उद्देश्य से उच्च शैक्षणिक संस्थानों के उपयोग ने एक नये युग का सूत्रपात किया है । दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय और कोलकाता के जादवपुर विश्वविद्यालय इसमें अग्रणी रहे हैं । जे.एन.यू. का चिंतन अपने विस्फोटक स्वरूप के कारण कई बार चर्चा में आता रहा है । उसकी इस विशिष्टता के कारण हम उसे “जेनुयाई चिंतन” कहना चाहते हैं । जेनुयाई चिंतन को भारतीय चिंतक विरोधाभासी चिंतन मानते हैं । किंतु किसी निष्कर्ष पर पहुँचने से पूर्व जेनुयाई चिंतन के कुछ प्रमुख बिन्दुओं पर तार्किक विमर्श करना उचित होगा । इस चिंतन के प्रमुख आधार तत्व हैं –
      मानव-मानव में कोई भेद नहीं होता इसलिये जाति, धर्म या अन्य किसी आधार पर विश्वमानवसमाज का वर्गीकरण असमानता और शोषणजनक होने से निन्दनीय और त्याज्य है ।
      ईश्वर एक अवैज्ञानिक विचार है जिसका कोई प्रामाणिक अस्तित्व नहीं है । ईश्वर की अवधारणा व्यक्ति को भाग्यवादी बनाती है जिससे वह अपने दुःखों के लिये सत्ता और समाज की व्यवस्था को नही बल्कि किसी अदृश्य शक्ति को उत्तरदायी मानकर अपने साथ होने वाले अन्याय को बिना किसी विरोध के स्वीकार कर लेता है ।
      धर्म एक ऐसी अवधारणा है जिसकी मानव को उसके व्यावहारिक जीवन में कोई आवश्यकता नहीं होती । दूसरी ओर धर्म समाज को विखण्डित करता है और व्यक्ति को पाखण्डपूर्ण कर्मकाण्डों में उलझा देता है ।
      भैंस और बकरी की तरह मनुष्य भी अपने आप में एक जाति है इसके अतिरिक्त मनुष्य की अन्य कोई जाति या उपजाति हो ही नहीं सकती ।
      मानव की एक ही जाति है इसलिये उसका केवल एक ही समाज है । एक ही समाज होने कारण उसकी एक ही संस्कृति है और एक ही राष्ट्र है । मानव समाज का वर्गीकरण अवैज्ञानिक होने से स्वीकार्य नहीं है ।
      मनुष्य का स्वाभाविक अधिकार पूरी धरती पर है इसलिये वैश्विक राष्ट्र की अवधारणा ही नैसर्गिक है । विभिन्न राष्ट्रों की अवधारणा का मूल शासन और शोषण करने की प्रवृत्ति में स्थित है इसलिये यह अन्यायपूर्ण होने से अग्राह्य है ।
      राष्ट्रवाद युद्धों की पृष्ठभूमि तैयार करता है जिसमें निर्बलजन, जो कि सदा ही शासित होते हैं, अन्यायपूर्ण हिंसा और मृत्यु के शिकार होते हैं । राष्ट्रवाद एक ऐसी चाल है जो शासकों को शासन और शोषण करने के लिये सतत सुरक्षा उपलब्ध करवाती है ।
      सबल और दबंग व्यक्ति ही शासक बनने के लिये संघर्ष करते हैं जिनमें निर्बलों का दुरुपयोग किया जाता है । शासन का उद्देश्य आम आदमी की समस्यायोंका समाधान करना नहीं बल्कि सत्ता की आवश्यकताओं को बनाये रखना होता है । इससे एक ऐसे तंत्र का विकास होता है जो शोषणमूलक सत्ता की रक्षा करता है ।
      सम्पूर्ण धरती के मनुष्य एक ही वैश्विकपरिवार के सदस्य हैं, मनुष्यों का केवल एक ही वैश्विकसमाज है, मनुष्य की केवल एक ही वैश्विकसंस्कृति है, पूरी धरती पर केवल एक ही वैश्विकराष्ट्र है ।


            यह चिंतन जेनुयाई संस्कृति के पुरोधा उच्चशिक्षित शिक्षकों का है जिसके प्रति नई पीढ़ी का आकर्षण बढ़ता ही जा रहा है । इस चिंतन को एकबारगी ही नकार देने की अपेक्षा इस आकर्षण के कारणों पर मंथन करने की आवश्यकता है । ईश्वर और धर्म के अस्तित्व की उपेक्षा करने वाला वामपंथ और जेनुयाई चिंतन विज्ञान और वैज्ञानिक प्रमाणों पर ही भरोसा करना चाहता है इसीलिये ये लोग बारम्बार विज्ञान की बात करते हैं ।  यहाँ हम सबसे पहले वैज्ञानिक प्रमाणों की वैज्ञानिकता पर ही चिन्तन करना उचित समझते हैं ।

            वामचिंतन दृष्टव्य भौतिकजगत और इन्द्रियग्राह्य अनुभूतियों के अतिरिक्त सत्ता के अन्य किसी अस्तित्व को नकारता है । इसलिये यहाँ हम व्यक्त(मैनीफ़ेस्ट) के पूर्व एवं पश्चात् की अव्यक्त(अनमैनीफ़ेस्ट) स्थिति की वैज्ञानिकता पर चिंतन नहीं करेंगे । किंतु वैज्ञानिक प्रमाणों की अल्प उपलब्धता और पारस्परिक वैज्ञानिक खण्डनों से उत्पन्न अनिश्चय एवं विरोधाभास की स्थिति के कारण भौतिक जगत के वे बहुत से तथ्य जो प्रश्नों के घेरे में हैं, क्या अस्तित्वविहीन मान लिये जायेंगे ?
            भौतिक जगत सीमित है, उसकी ग्राह्यता और भी अधिक सीमित है और उसकी वैज्ञानिकता के प्रमाण तो अत्यल्प हैं तो क्या सम्पूर्ण भौतिक जगत के अस्तित्व को अस्वीकार  कर दिया जाना उचित होगा ? चलिये, अब हम प्रामाणिकता की बात करते हैं । भौतिकवादी लोगों द्वारा सीमित भौतिक जगत के सीमित वैज्ञानिक प्रमाणों के लिये आधुनिक वैज्ञानिक विश्लेषणजन्य परिणामों को ही मान्य किया जाता है । किंतु ऐसा करते समय वे एकांगी परिणामों के स्वाभाविक दोषों को भी आमंत्रित करते हैं । मनुष्य की अपनी सीमायें हैं, वह जगत से ऊपर नहीं है, उसी का एक भाग है इसलिये उसका सर्वज्ञाता होने का विश्वास ही अवैज्ञानिक है । भौतिक जगत की भौतिकविश्लेषणात्मक प्रक्रिया ही विघटनात्मक होती है तब उससे प्राप्त परिणामों पर विश्वास कैसे किया जा सकता है ? कहीं न कहीं, कभी न कभी आप्तोपदेशों और ऐतिह्य प्रमाणों पर भरोसा करना ही पड़ेगा । ब्राउनियन मूवमेण्ट को कक्षा 10 वीं के कितने छात्रों ने प्रत्यक्ष देखा है ? फ़ोटॉन्स को कितने भौतिकशास्त्रियों ने देखा है ? ब्लैक होल्स को किसने देखा है ? माइटोकॉंडियल फ़ंक्शन्स, ब्रेन और जीन्स के गूढ़ रहस्य को कितना प्रत्यक्ष किया जा सका है ? किंतु क्या हम इन सब पर भरोसा नहीं करते ? हममें से हर व्यक्ति ने इसका प्रत्यक्ष नहीं किया है फिर भी हम सब इन पर भरोसा करते हैं क्योंकि अन्य लोगों ने इस पर भरोसा किया है । अन्य लोगों ने भरोसा इसलिये किया है क्योंकि उन तथ्यों पर कई वैज्ञानिकों ने भरोसा किया है । और यही तो आप्तोपदेश और ऐतिह्य प्रमाण है । तब ऋषियों के आप्तोपदेश के प्रति इतना दुराग्रह क्यों है ?
            हम सब जानते हैं कि प्रयोगशालाओं के विश्लेषणात्मक परिणाम सदा एक जैसे नहीं होते । उनमें प्रायः भिन्नता और अपूर्णता की सम्भावनायें बनी रहती हैं । तब यह सब कितना वैज्ञानिक है ? क्या ऐसी वैज्ञानिकता संदेह से परे है ?
            दृष्टव्य जगत की विविधतायें इसे जटिल बनाती हैं, इस जटिलता के रहस्य को जान पाना मनुष्य के वश की बात नहीं है । हम भौतिक विज्ञान के न्यूनतम अंश को ही जान सके हैं । इसलिये जेनुयाई भौतिकवाद की वैज्ञानिकता एकांगी होने से अव्याप्त दोष से ग्रस्त है ।   

अभी हमने जेनुयाई चिंतन के भौतिकवाद और उसके वैज्ञानिक पक्ष पर चिंतन का प्रयास किया जिसका सारांश यह कि वैज्ञानिक प्रमाणों और उनकी व्याख्या के लिये मनुष्य की सीमायें व क्षमतायें बहुत सीमित हैं । भौतिक जगत् के सभी रहस्यों को जान पाना और वैज्ञानिक प्रमाणों के आधार पर उनकी व्याख्या कर पाना अभी पूरी तरह सम्भव नहीं हो पाया है किंतु अपनी इस सीमा के कारण हम भौतिक जगत के शेष अज्ञात रहस्यों की सत्ता और अस्तित्व की उपेक्षा नहीं कर सकते । ऐसा करना सत्य को नकारना होगा इसलिये कई बार हमें सत्य को ज्ञात भौतिक प्रमाणों के अतिरिक्त अन्य प्रमाणों के आधार पर जानने और मानने के लिये कोई मार्ग खोजना होता है । पराभौतिक एवं मनोवैज्ञानिक प्रमाणों के आधार पर ऐसे मार्ग खोजे जाने के प्रयास विश्व की सभी सभ्यताओं में न जाने कबसे होते आये हैं । आशय यह है कि किसी तथ्य और उसके अस्तित्व को वैज्ञानिक प्रमाणों के अभाव में असत्य घोषित कर दिया जाना एक अ-वैज्ञानिक आचरण है ।

जेनुयाई चिंतन के अनुसार मानव-मानव में कोई भेद नहीं होता इसलिये जाति, धर्म या अन्य किसी आधार पर विश्वमानवसमाज का वर्गीकरण असमानता और शोषणजनक होने से निन्दनीय और त्याज्य है । यदि हम उनके इस कथन की वैज्ञानिक व्याख्या करें तो पायेंगे कि यह एक बहुत बड़ा वैचारिक छल है जिसे बड़ी कुशलता से परोसा गया है । हम मानते हैं कि “मानव” अन्य प्राणियों से भिन्न गुणों वाली एक भिन्न प्रजाति है, इस प्रजाति में कोई भेद नहीं किंतु भौगोलिक स्थितियों एवं वातावरण के कारण उनके रहन-सहन, भोजन, चिंतन और आचरण आदि में विविधतायें पायी जाती हैं । उनकी क्षमता, सहनशीलता और दक्षता आदि में भी विविधता पायी जाती है । मानव रक्त के चार समूह होते हैं, कोई आवश्यक नहीं कि एक समूह का रक्त दूसरे समूह के रक्त के प्रति सहनशील हो । ब्लड-ट्रांस्फ़्यूजन से पूर्व ब्लड-ग्रुप की मैचिंग में हुयी असावधानी से किसी की मृत्यु सम्भव है । अंगप्रत्यारोपण के अनुभव हमें बताते हैं कि एक मनुष्य का अंग दूसरे मनुष्य के लिये उपयुक्त हो भी सकता है और नहीं भी । सेल्युलर रिज़ेक्शन एक सामान्य घटना है जिससे आज हम सभी परिचित हो चुके हैं । कुछ प्रकार की जेनेटिक व्याधियाँ विशेष प्रकार के एथिकल समूहों में ही मिलती हैं, सभी में नहीं । सिकलसेल और थैलेसीमिया जैसी व्याधियाँ कुछ जाति समूहों और रेसेज़ में ही पायी जाती हैं । ये वैज्ञानिक तथ्य यह प्रमाणित करते हैं कि एक ही प्रजाति होते हुये भी मनुष्य का शरीर और मन विविधताओं का भण्डार है जिसके कारण कई प्रकार के स्वाभाविक वर्ग अपने अस्तित्व में आते हैं । तथापि सामाजिक सुविधाओं एवं अधिकारों को लेकर उनमें कोई विभेद किया जाना अन्यायपूर्ण है । इसीलिये हम आरक्षण को भी मनुष्य के विकास मार्ग का अवरोध मानते हैं । वहीं हमें यह भी स्वीकार करना होगा कि सब धान बाइस पसेरी नहीं तौला जा सकता । हम मनुष्य के सामाजिक-राजनैतिक वर्गीकरण का विरोध करते हैं किंतु स्वाभाविक क्षमताओं, दक्षताओं और रुचियों के कारण उनमें वर्गीकरण होना एक स्वाभाविक घटना है ।
जेनुयाई चिंतन ईश्वर और धर्म को लेकर अपने हठीले स्वभाव के लिये जाना जाता है । ईश्वर की सत्ता को नकारने के पीछे उनके अपने तर्क हैं किंतु भारतीय चिंतन (जिसे वे परम्परावादी चिंतन कहकर हेय दृष्टि से देखने के अभ्यस्त हैं) ईश्वर के अनादि, अनंत, अखण्ड, निर्विकार, निर्गुण और सनातन स्वरूप को स्वीकार करता आया है । ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति और विलय की घटनाओं ने हमें मैटर और इनर्जी के पारस्परिक वैज्ञानिक सम्बन्धों के चिंतन के लिये सदा ही प्रेरित किया है । भौतिक विज्ञान की दृष्टि से इनके पारस्परिक रूपांतरण के सत्य को स्वीकारा जा चुका है । भारतीय चिंतनपरम्परा ‘व्यक्त’ और ‘अव्यक्त’ के मध्य एक निश्चित वैज्ञानिक सम्बन्ध की व्याख्या करती है । यह व्याख्या हमें अभिभूत करती है, हमें किसी इन्द्रियातीत परम व्यवस्था के अस्तित्व को स्वीकारने के लिये तैयार करती है । किंतु भारतीय मनीषा यहाँ भी हठ करती प्रतीत नहीं होती, व्यक्त-अव्यक्त को समझने के लिये यदि आपके पास कोई अन्य सिद्धांत है तो आप उसकी व्याख्या करने और स्वीकारने के लिये स्वतंत्र हैं ।
धर्म को लेकर मनुष्य समाज में कई धारणायें हैं । कुछ इसे अफ़ीम के रूप में देखते हैं तो कुछ इसे विज्ञान के रूप में भी देखते और स्वीकार करते हैं । धर्म का पाखण्ड उसे विकृत बनाता है जबकि नैसर्गिक स्व-भाव का बोध उसे आचरणीय बनाता है । गुड़ का मीठा होना उसका धर्म है, ब्लैक होल का तीव्र गुरुत्वाकर्षण उसका धर्म है, ब्रह्माण्डीय पिण्डों का परिभ्रमण उनका धर्म है, ब्राउनियन मूवमेण्ट पदार्थ का धर्म है, शांति और सुख के लिये प्रयत्न करना मनुष्य का धर्म है । क्या धर्म का यह स्वरूप अफ़ीम प्रतीत होता है ?
हम सिद्धांतों और शब्दों की भ्रामक और जानबूझकर मिथ्या व्याख्यायें करते रहे हैं । भारतीय चिंतन “स्व” “भाव” को धर्म मानता है । यह धर्म किसी भौतिक पिण्ड के अस्तित्व के लिये अपरिहार्य है । ग्रीष्म ऋतु में प्यास लगना शरीर का धर्म है । ग़र्मियों में हल्के और सफ़ेद कपड़े पहनना और सर्दियों में भारी और रंगीन कपड़े पहनना किसी क्षेत्र विशेष के लोगों का धर्म है । मर्यादित स्वतंत्रता हम सबका धर्म है । अनुशासन समाज का धर्म है । एकता राष्ट्र का धर्म है । और बन्धुत्वभाव का आचरण विश्व का धर्म है । दूसरे के धर्म को बाधित किये बिना अपने अस्तित्व को सात्विक तरीके से बनाये रखना धर्म है । और ऐसे धर्म का पालन न करना ही अधर्म है । दूसरों के धर्म पालन के मार्ग में अवरोध उत्पन्न करना अधर्म है ।
समाज को धर्म विखण्डित नहीं करता, कर ही नहीं सकता । समाज को जो विखण्डित करता है वह है हठ, विचार थोपने की उग्रता और स्वयं को सर्वश्रेष्ठ मानते हुये अन्य लोगों को हेय समझते हुये उनका उपहास करने की प्रवृत्ति ।

हम स्वीकार करते हैं कि धर्म और ईश्वर को लेकर अभी तक जितनी भी व्याख्यायें की गयी हैं उन्हें परवर्ती कालों में विकृत किया जाता रहा है । यह भी मनुष्य का एक स्वभाव है, स्थानीय स्तर पर समाज और वृहत स्तर पर राष्ट्र इस प्रकार के नकारात्मक स्वभाव को अनुशासित करने का प्रयास करते रहते हैं । क्या हम इन प्रयासों को आवश्यक नहीं समझते ? वस्तुतः व्यक्ति और समाज बहुत ही जटिल व्यवस्थाओं के बीच अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिये बाध्य होते हैं । यह जटिलता ही हमें सहनशीलता, सद्भाव और सहकारिता के लिये प्रेरित करती है ।   

शनिवार, 12 मार्च 2016

जे.एन.यू. काण्ड

ख़ूनी ख़ंज़र के रखवाले लेने आये आज़ादी
गाली दे-दे माँग रहे वे जाने कैसी आज़ादी ॥
आग लगाकर घर में मेरे कहते दे दो आज़ादी
बन्दी है घर में ही उनके डरी-डरी सी आज़ादी ॥
गाँव का उनके हाल अज़ब सब आये करने बरबादी
सहमा-सहमा सच रहता है झूठ ने ले ली आज़ादी ॥
गरियाने की देवों-पुरुखों को उन्हें चाहिये आज़ादी
लिये कामिनी चौराहों पर नंग-नाच की आज़ादी ॥
मुझे बता दे इतना कोई ये कहाँ मिलेगी आज़ादी
जहाँ से उनको उठा के दे दूँ उनके मन की आज़ादी ॥
टुकड़े-टुकड़े कर घर मेरा बाँट रहे वे आबादी
आज़ादी हैरान देखकर असली-नकली आज़ादी ॥
स्मृति ग्रंथ जलाकर बोले यहाँ नहीं है आज़ादी
आतंकी को हीरो मनवाने माँग रहे हैं आज़ादी ॥  
रोज-रोज इनके करतब से घायल होती आज़ादी
मिथ्यारोपों की झड़ी लगा बोले यही है आज़ादी ॥
साम्यवाद से ब्याह रचाया मनबसिया है शहज़ादी
कश्मीरी पंडित को बेघर कर माँग रहे हैं आज़ादी ॥
हिंदू है किरकिरी आँख की, अरबी-चीनी दादा-दादी  

ख़ुद को कहते मूल निवासी माँग रहे हैं आज़ादी ॥  

गुरुवार, 10 मार्च 2016

राष्ट्रवाद की वैचारिक छिछियाहट

Lecture series on Nationalism – Prabhat Patnaik on “What it means to be National?” (09.03.2016)  # Stand with JNU
आज प्रभात पटनायक का भाषण सुना ...

राष्ट्रवाद पर बोलते हुये उन्होंने बताया कि भारतीय राष्ट्रवाद पश्चिमी उपनिवेशवाद की प्रतिक्रिया से उपजा राष्ट्रवाद है । आज का भारतीय राष्ट्रवाद पूँजीवाद का महिमामण्डन करता है, जबकि पश्चिमी राष्ट्रवाद की पृष्ठभूमि भारत से भिन्न है ।
पटनायक जी मृत्युदण्ड के विरोधी हैं भले ही वह कितना भी बड़ा अपराधी क्यों न हो । इस तरह उन्होंने वाम-आदर्शवाद के अनुरूप एक आमआदमी के मन में मानवता के रक्षक बनकर और जघन्य अपराधियों के मन में मुक्तिदाता बनकर अपनी बौद्धिक प्रतिभा की छाप छोड़ने का प्रयास किया है । वे राष्ट्रवाद को बीफ़ खाने और आतंकवादियों के समर्थन के मौलिक अधिकार से जोड़ने के पक्षधर नहीं हैं ।
वामपंथी एक बात बहुत दमदारी से कहते हैं –  “कुछ लोगों ने राष्ट्रवाद की अपनी परिभाषा बनायी है । उनकी बात और उनके सिद्धांतों को स्वीकार करना ही राष्ट्रवाद है और स्वीकार न करना ही राष्ट्रद्रोह है ।”

आज राष्ट्रवाद की कई परिभाषायें सामने आ रही हैं, और जिस रूप में आ रही हैं उससे यह आभास होने लगा है कि राष्ट्रवाद एक बहुत गन्दी बात हो गयी है, इतनी गन्दी कि अब एक ख़ूनी क्रांति होनी ही चाहिये
हमारा राष्ट्रवाद ... तुम्हारा राष्ट्रवाद ... उनका राष्ट्रवाद ...। भारत में कई राष्ट्रवाद आपस में युद्ध के लिये तैयार हैं । ईंटभट्टे पर काम करने वाला मज़दूर भकुआया खड़ा है ....यह राष्ट्रवाद क्या इतना ख़तरनाक मुद्दा है .... कि लोग इतने उत्तेजित हो रहे हैं !
वैचारिक छिछियाहट के साथ वामपंथी और उच्च शिक्षित जेनुयाई जनता से शिकायत कर रहे हैं ...देखो देखो ...मैं बीफ़ खाता हूँ तो ये मुझे राष्ट्रद्रोही कहते हैं, मैं मृत्युदण्ड का विरोध करता हूँ तो ये भगवायी मुझे राष्ट्रद्रोही कहते हैं, मैं पुलिस और सेना के जवानों से स्त्रियों के बलात्कार का विरोध करता हूँ तो ये फासीवादी लोग मुझे राष्ट्रद्रोही कहते हैं, मैं बापू के हत्यारे की पूजा नहीं करता हूँ तो ये संघी मुझे राष्ट्रद्रोही कहते हैं .... । क्या हमें बोलने की आज़ादी नहीं है ? क्या हम अपने दिल की सच्ची बात कहने का अधिकार नहीं रखते ?

संसद पर आक्रमण करने वाले और देश की सम्प्रभुता को चुनौती देने वाले षड्यंत्रकारियों को दिये जाने वाले मृत्युदण्ड को मानवाधिकार का उल्लंघन मानने वाले किंतु युद्ध में होने वाली सैनिक हत्याओं पर मौन रहनेवालों को बुद्धिवादी माना जाय या बौद्धिकशूद्र !
वैश्विक समाज और न्याय की वकालत करने वाले लोग, जो झीरमघाटी में सैनिकों की नृशंस हत्या कर उनके शवों पर नृत्य करने वाले माओवादियों के विरोध में एक शब्द नहीं कहते, उनकी बौद्धिकता को क्या संज्ञा दी जाय ! ये लोग मृत्यु-मृत्यु में इतनी विभेदक दृष्टि क्यों रखते हैं ? क्या उन्हें सबसे पहले युद्धों के विरुद्ध ही नहीं खड़े होना चाहिये ?
भारतीय राष्ट्रवाद के बारे में अपने पूर्व लेख मैं पहले भी कह चुका हूँ कि यह किसी प्रतिक्रिया का तात्कालिक परिणाम नहीं है, बल्कि “भारतीय राष्ट्रवाद अपने स्वाभाविक भौगोलिक विस्तार, विकसित सांस्कृतिक चेतना, भिन्न-भिन्न दार्शनिक सिद्धांतों की स्वीकार्यता, आध्यात्मिक चिंतन एवं उत्कृष्ट मानवीय मूल्यों की रक्षा के प्रति सजगता को केन्द्र मान कर स्वाभाविकरूप में विकसित हुआ है । इस राष्ट्रवाद में सत्तालिप्सा का स्वार्थ नहीं अपितु वैचारिक विरोधाभासों के होते हुये भी एक स्वाभाविक जनचेतना है । इसमें अपने जीवनमूल्यों के प्रति स्वाभिमान है, लोककल्याण के प्रति निष्ठा की भावना है और अपनी सांस्कृतिक चेतना के प्रति सम्मान का भाव है ।”
पटनायक जी ने हिटलर और गांधी के राष्ट्रवाद की चर्चा की । महोदय जी ! भारतीय राष्ट्रवाद हिटलर और गांधी से सहस्रों वर्ष पूर्व ही विकसित हो कर प्रतिष्ठित हो चुका था ।

आज मैं देश के सभी नागरिकों से ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया के लोगों से कहना चाहूँगा कि “एकांगी चिंतन” और “अर्धसत्य” बुद्धिवाद का वह संकट है जो सत्य और लोककल्याण की हत्या कर देता है । साम्यवाद एक ऐसा ही बुद्धिवाद है । इस लाल जादू से सावधान रहिये !  

शनिवार, 5 मार्च 2016

J.N.U. में “गांधी का देश”

भाषण का विषय – “गांधी का देश” ; वक्ता – दिल्ली वि.वि. में हिंदी के प्रोफ़ेसर अपूर्व आनन्द ; मंच संचालन – जानकी नायक । संचालिका के संबोधन की भाषा – अंग्रेज़ी ; हिंदी प्रोफ़ेसर की भाषा – नेहरूइक हिन्दुस्तानी
स्थान – जे.एन.यू. परिसर ; दिनांक – 4 मार्च 2016 ; भाषण की कुल अवधि 1 घण्टा 15 मिनट ; जानकी नायक ने अपूर्वानन्द का परिचय देते हुये बड़े गर्व से बताया कि उन्होंने उमर ख़ालिद का “हार्ट टचिंग इण्टरव्यू” लिया था ।

हिंदी के प्रोफ़ेसर अपूर्वानन्द ने उर्दू ज़ुबान में अपनी तक़रीर पेश करने से पहले बताया कि उन्होंने कुछ लोगों की चिंता में 11 दिन 11 रातें कुछ लोगों के साथ गुज़ारी हैं तब उन्हें अचानक पता चला कि कन्हैया को ज़मानत मिल गयी है जिससे उन्हें ख़ुशी से ज़्यादा राहत का अहसास हुआ । व्यंग्य के धनुष पर कटाक्ष के बाण छोड़ते हुये
अपूर्वानन्द की तक़रीर के तरीके और विषय ने मेरे मन में गुरु की गुरुता पर सवाल खड़े किये । ख़ैर, जब सारे तीर चलाये जा चुके तो शरविहीन हुये गुरु जी ने गांधी का पोस्टमार्टम करना शुरु किया । हम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान करते हुये गुरु जी के भाषण का स्वागत करते हैं इस प्रतिफल की आशा में कि वे भी हमारी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को स्वीकार कर लेंगे । प्रस्तुत हैं अपूर्वानन्द के कुछ तीर आप सबके लिये –

भाषण का प्रारम्भ कन्हैया और उसकी ज़मानत के किस्से से हुआ । गुरु जी ने कन्हैया पर लगाये गये आरोपों को “बौद्धिकता और विवेक पर हमला” निर्णीत किया । कार्ल मार्क्स के हवाले से कह गया कि उन्होंने “भौतिक यथार्थ को एक ख़्याल में तब्दील करने” की बात की थी इसलिये जे.एन.यू. को एक ख़्याल में तब्दील हो जाना चाहिये क्योंकि यही ख़्याल दुनिया को बदल कर रख सकता है ।

गुरु जी ने कन्हैया को ज़मानत देने वाली जज साहिबा पर शरसन्धान करते हुये फरमाया कि जब उन्होंने कुछ विद्वानों से अंतरिम ज़मानत के बारे में जानकारी चाही तो उनके एक जजमित्र द्वारा इसे “इन्नोवेशन” बताते हुये ज़ूडिशियरी में इस नितांत नयी पहल के लिये कन्हैया को मुबारकवाद देने का सुझाव दिया गया । जज महोदया का जमकर परिहास बनाते हुये गुरु जी ने यह प्रमाणित कर दिया कि उनके पास अभिव्यक्ति की पूरी आज़ादी है और वे न्यायपालिका का सम्मान न करने के लिये भी स्वतंत्र हैं । उनकी आज़ादी देखकर हमको यह समझने में बड़ी कठिनाई हुयी कि वह कौन सी आज़ादी है जो उनके पास नहीं है और वे किस आज़ादी के लिये जंग जारी रखना चाहते हैं ?
कटाक्षसत्र जब कुछ मद्धिम हुआ और तक़रीर में गम्भीरता के पुट का प्रवेश हुआ तो दिसम्बर 1931 में प्रेमचन्द के प्रकाशित एक आलेख का उल्लेख करते हुये इलाहाबाद और लख़नऊ वि.वि. के दीक्षांत समारोहों में सी.वी. रमन और राधाकृष्णन के भाषणों के प्रमाण प्रस्तुत किये गये जिसमें राष्ट्र, क्रांति और छात्रधर्म के बारे में इन दोनो वक्ताओं के परस्पर विरोधी वक्तव्यों का पोस्टमार्टम किया गया । बताया गया कि गांधी बहुत ईमानदार राष्ट्रीय नेता थे जिन्हें आग से खेलने और बहुत सारे आश्रम खोलने का शौक था और यह भी कि गांधी की मुस्कराहट दुष्टता से भरी हुयी होती थी । गांधी के हवाले से भारत के लोगों द्वारा “पाकिस्तान ज़िन्दाबाद” का नारा लगाने में कोई हर्ज़ न होने की वकालत की गयी । इतिहास को खंगालते हुये जे.एन.यू. के शोधार्थियों को बताया गया कि गांधी के अनुसार एक ही नारा ऐसा था जो सबके लिये अनिवार्य होना चाहिये था और वह था “आल्लाह-हो-अकबर” किंतु “वन्दे मातरम” और “भारत माता की जय” जैसे नारों के लिये गांधी ने सोच कर निर्णय करने की बात कही थी जबकि अपने अगले नारे “हिंदू-मुसलमान की जय” के लिये वे पूरी तरह सहमत थे ।
राष्ट्र के बारे में गांधियन थॉट की झलक प्रस्तुत करते हुये गुरु जी द्वरा बताया गया कि गांधी राष्ट्र की भावना से परे “देस” और “वतन” के लिये लड़ रहे थे । गांधी की व्यवस्था में स्पष्ट कहा गया था कि आज़ाद भारत में मुसलमानों के सरपरस्त हिंदू नहीं रहेंगे । जबकि ज़िन्ना के हवाले से यह स्पष्ट किया गया कि “मुस्लिम का प्रतिनिधित्व केवल मुस्लिम ही” कर सकता है । गांधी ने अफ़्रीका में रहते समय अपने किसी मित्र से यह ज्ञान प्राप्त किया था कि जब शक़ की बात हो तो हमेशा अल्पसंख्यक का ही पक्ष लेना चाहिये बहुसंख्यक का नहीं । गांधी कहते थे कि भारत में हिंदू मुसलमानों के बड़े भाई नहीं हैं, दोनो के समान अधिकार हैं । गांधी की हत्या करने वाला व्यक्ति ब्राह्मण वर्ण से सम्बन्धित है और गांधी ने भारत में गोवध पर प्रतिबन्ध लगाये जाने को अनुचित माना था ।  


हमारी प्रतिक्रिया – हम कुछ नहीं कहेंगे सिवाय इसके कि जब देश इतने बड़े वैचारिक संकट से गुज़र रहा हो तो किसी प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय के शिक्षक से व्यंग्य और कटाक्ष के स्थान पर हमें गम्भीर चिंतन की अपेक्षा थी । यह इसलिये भी आवश्यक है कि इस उत्तेजनापूर्ण वातावरण में व्यंग्य और कटाक्ष से स्थिति को और भी अनियंत्रित करने में तो मदद मिलती है किंतु किसी सकारात्मक समाधान की बिल्कुल भी नहीं । क्या हम नई पीढ़ी को “सीख” के नाम पर यही सब देना चाहते हैं ?