गुरुवार, 23 जून 2016

यात्रा संस्मरण मेघालय मई 2016


न्यू जलपायीगुड़ी से गुवाहाटी के लिये हम लोग सरायघाट एक्सप्रेस में सवार हो चुके थे । भोर होने के साथ ही ट्रेन में भिखारियों, लोकल वेण्डर्स और किन्नरों की जैसे बाढ़ आ गयी थी । जनरल बोगी बन चुके ए.सी. कोच में कामाख्या से झाल-मूड़ी बेचने वाले भी सवार हो गये, कटे प्याज़ की बद्बू से ए.सी. कोच गन्धायमान हो गयी, सारे यात्री धन्य हुये । हमने इस धमाचौकड़ी के लिये स्थानीय रेलवे अधिकारियों को मन ही मन धन्यवाद दिया जिनके कारण अपनी दुनिया में खोये हम पुनः सजगता के साथ जगत की सांसारिकता से रू-ब-रू हो सके ।
गुवाहाटी पहुँचते-पहुँचते साढ़े ग्यारह बज गये, जो ट्रेन समय से पूर्व चल रही थी अब पर्याप्त लेट होकर अपनी स्वाभाविक स्थिति को प्राप्त हो चुकी थी । स्टेशन से बाहर आये तो पता चला कि माननीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र दामोदर मोदी जी के आगमन की व्यस्तता के कारण शिलांग के लिये कोई वाहन उपलब्ध नहीं है । कई घण्टे भटकने के बाद एक कैब हमें शिलांग ले जाने के लिये तैयार हुयी । चार बजे तक हम शिलांग में थे ।
शाम को हम मेघालय की राजधानी शिलांग की सड़कों पर घूमने निकले । यह एक नन्हा सा शहर है जहाँ पुलिस बाज़ार के आसपास शहर की व्यापारिक गतिविधियाँ संचालित होती हैं । ख़ूब गन्दी सड़कों के दोनो ओर मांस की दुकानों, बेतरतीब लगी सब्ज़ी और फलों की दुकानों एवं भीड़ भरे बाज़ार में स्किनी टाइट जींस पहने युवतियों-किशोरियों के रेशमी बालों को हल्के से सहलाने शहर में घुस आये बादलों के अतिरिक्त कुछ और आकर्षक नहीं लगा । गन्दगी और सिगरेट पीने के मामले में सिक्किम के विपरीत यहाँ सभ्यताबोध का अभाव नज़र आया । दो किशोर एक मॉल में घुसते समय भीड़ के बीच धड़ल्ले से धुआँ उड़ाये जा रहे थे । हमें तुरंत अपना रास्ता बदलना पड़ा ।  
शिलांग में हमें तीन दिन रुकना था । दूरदर्शन शिलांग के उद्घोषक डॉ. अकेला भाई पूर्वोत्तर में हिंदी और देवनागरी लिपि के प्रचार-प्रसार के पुनीत अभियान में वर्षों से लगे हुये हैं । पूर्वोत्तर की खासी जैसी कई जनजातीय बोलियाँ रोमन लिपि अपना चुकी हैं, डॉ. अकेला भाई के अनुसार स्थानीय बोलियों के लिये देवनागरी सर्वाधिक उपयुक्त लिपि है । पूर्वोत्तर हिंदी अकादमी के तत्वावधान में आयोजित त्रिदिवसीय “राष्ट्रीय हिंदी विकास सम्मेलन” में पूरे भारत से आये एक सौ से भी अधिक साहित्यकारों और चिंतकों को पूर्वोत्तर भारत में देवनागरी के प्रोन्नयन हेतु चिंतन-मनन हेतु आमंत्रित किया गया था । यह सम्मेलन देश भर के हिंदी साहित्यकारों को एक मंच पर लाने का सार्थक प्रयास तो था ही, पूर्वोत्तर से शेष भारत को भावनात्मक दृष्टि से जोड़ने का एक अनुकरणीय एवं पुनीत कार्य भी था । पूर्वोत्तर एवं शेष भारत के साहित्यकार परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित कर सकें इसलिये डॉ. अकेला भाई ने सभी के एक साथ रहने की व्यवस्था की थी । यह एक मेले के उत्सव जैसा था जहाँ हमें नीमच के साहित्यकार प्रमोद रामावत जी, कानपुर से प्रकाशित होने वाली मासिक पत्रिका नव निकष के सम्पादक डॉ. लक्ष्मीकांत पाण्डेय जी, त्रिपुरा की हिंदी साहित्यकार श्रीमती सुमिता धर बसु ठाकुर जी, गुवाहाटी की श्रीमती जयमती नर्जरी जी, आगरा के प्रोफ़ेसर अमी आधार निडर जी, हाँगकाँग के चिंतक व लेखक श्री देश सुब्बा जी आदि लोगों से मिलने और उन्हें समीप से जानने का अवसर प्राप्त हो सका । देश सुब्बा जी ने विश्व भर में फैले आतंक के सन्दर्भ में “भयवाद” के सिद्धांत का सूत्रपात करते हुये अंग़्रेज़ी में कई पुस्तकें लिखी हैं जिन्हें हिंदी में अनूदित करने का कार्य शिलांग की डॉ. श्रीमती अरुणा उपाध्याय जी कर रही हैं । साहित्यकारों की भीड़ में हमारी आँखें गुवाहाटी निवासी श्रीमती हरकीरत हीर जी को खोजती रहीं किंतु पता चला कि उन दिनों वे पहाड़ छोड़कर तराई की गर्मी में पसीने से तर-बतर हो रही थीं ।
उस दिन हम गोस्वामी जी के कमरे में बैठे थे कि तभी मधुर स्वर की स्वामिनी श्रीमती जयमती जी अपने घर के बने तिल के लड्डू ले कर आयीं, उनका यह अपनत्व अच्छा लगा । वे हमें लड्डू खिलाकर गयी ही थीं कि त्रिपुरा की सुमिता ने कमरे में प्रवेश किया । गोस्वामी जी ने उनके कोकिल कण्ठ की प्रशंसा करते हुये उनसे एक गीत सुनाने का आग्रह किया जिसे बिना किसी नखरे के सुमिता ने स्वीकार कर लिया । उनकी सरलता, मधुर वाणी और बच्चों जैसे सरल स्वभाव ने हमें भी आकर्षित किया । सुमिता की चाल ऐसी जैसे बिहू नृत्य का पदसंचलन हो ।
शिवस्वरूप को अकेला भाई का आतिथ्य बहुत अच्छा लगा, विशेषकर भोजन । सम्मेलन का अंतिम दिन पर्यटन को समर्पित था । अकेला भाई हमें चेरापूंजी ले जाने वाले थे । सुबह के स्वादिष्ट नाश्ते के बाद साहित्यकारों के समूह ने प्रस्थान किया । मार्ग में कई स्थानों पर रुकते और मेघालय के प्राकृतिक सौन्दर्य को मन-मस्तिष्क पर अंकित करते हुये हम हाथी प्रपात की ओर बढ़ चले । एक दिन पूर्व ही यहाँ प्रधानमंत्री जी का आगमन हुआ था इसलिये भरपूर प्राकृतिक सौन्दर्य के बाद भी नकली फूलों के कई गमले वहाँ सजाये गये थे । जैसा कि हर जगह होता है, हमने यहाँ भी पर्यटकों को प्रकृति से बतियाते या उसका अहर्निश गायन सुनते नहीं देखा । सभी लोग विभिन्न मुद्राओं में अपने और अपने परिवार के फ़ोटो लेने में व्यस्त दिखायी दिये ।
शिलांग भ्रमण के पश्चात् हम लोग चेरापूंजी जिले की ओर बढ़े । यहाँ की संकरी और रोमांचक हाथी गुफा में छत से टपकते पानी में घुले चूने से निर्मित आकर्षक पाषाण आकृतियों को जी भर निहारने के बाद भी जी नहीं भरा । हम वहाँ एक दिन रुकना चाहते थे किंतु समय की बाध्यता ने हमें हटक दिया । गर्वीले पर्वतों के वक्ष पर बने मनोहारी रास्तों से होते हुये हम आगे बढ़ चले । हमने चेरापूंजी में पहाड़ की चोटी पर स्थित वन विभाग के साढ़े पाँच हेक्टेयर में विस्तृत थांग्खारंग पार्क से घाटी में झाँकने के रोमांच के साथ-साथ नीचे घाटी में फैली नदी के उसपार बांग्लादेश और भारत के बीच स्थूल सीमारहित काल्पनिक सीमा की पीड़ा का भी अनुभव किया । अकेला भाई हम सबके लिये भोजन के पैकेट्स, मीठे पेय और पानी की बोतलें साथ ही लाये थे । हमने शिवस्वरूप और सुमिता के साथ पार्क के प्रवेश द्वार के पास घास पर बैठकर भोजन किया । शिवस्वरूप अब तक अकेला भाई के भोजन और आतिथ्य के कायल हो चुके थे ।
चेरापूँजी के अधिकांश मार्ग से होते हुये अल्हड़ हिमानी मेघों को पर्वत चोटियों से अठखेलियाँ करते देखना अद्भुत अनुभव था । हिमानी मेघ कभी हमारे आगे होते तो कभी हमारा पीछा करते से प्रतीत होते, वे कभी हमारे ऊपर उड़ते हुये गर्व से हमें निहारते तो कभी नीचे घाटियों में लुकाछिपी करते दिखायी देते और हद तो तब हो जाती जब वे अचानक नीचे उतरकर हमें अपने आगोश में भर कर चुम्बनों की झड़ी लगा देते । हम शरमाते हुये बाहर से अन्दर तक भींगते रहने के सिवाय और कुछ नहीं कर सकते थे ।  
पूरे रास्ते मेघालय की पर्वत श्रृंखलायें अल्हड़ किशोरी सी हमारे साथ भागती रहीं और मेघ जी भर–भर शरारतें करते रहे । हमें मेघों की शरारतें अच्छी लग रही थी, वे हमें बरस पड़ने की धमकी भी देते जा रहे थे । यूँ हम उनकी हर शरारत के लिये तैयार थे किंतु वे नहीं बरसे और केवल गप्पें भर मारते रहे । हमें उनका यह अन्दाज़ भी अच्छा लगा । मेघालय के आशिक़ मिज़ाज़ मेघ हमें लूटते जा रहे थे और हम ख़ुशी-ख़ुशी लुटते जा रहे थे .. इस वादे के साथ कि हम फिर-फिर आते रहेंगे ... बस, यूँ ही लुटते रहने के लिये । 




मेघालय के नन्हें-मुन्ने 


भीड़-भाड़ राह बाट जोहते खड़ी देश की लली  


आसमान का ओढ़ दुशाला पथ पर सोया पीनेवाला । 
हुआ बेख़बर इस दुनिया से सपनों में खोया मतवाला ॥  


हँसी-ठिठोली करते बादल, झुके देखने तेरी पायल  


चेरापूँजी के पथ पर साथ-साथ चलते ये बादल 


हाथी गुफा की भीतर का एक दृष्य 


शीतल-निर्मल झरता जल 


दूर नदिया के पार अपने कट गये हिस्से बांग्लादेश को निहारते लोग 


दो देशों के बीच ऐंठन भरी एक खुली सरहद 


सरहद की खिल्ली उड़ाता वृक्ष ... 
खींच लो सरहदें ... एक दिन कुछ नहीं छोड़ेंगी ये सरहदें ! 

1 टिप्पणी:

  1. नमस्कार। बहुत सुन्दर चित्रण। बधाई। आशा करता हूँ भविष्य में भी आपका सान्निध्य मिलेगा।

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टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.