बुधवार, 20 जुलाई 2016

धर्म को कोई नाम न दो


धर्म के सन्दर्भ में बात करें तो पायेंगे कि मनुष्य का आचरण या तो धर्मसम्मत होगा या फिर धर्मविरुद्ध । आचरण को लेकर होने वाले विवाद धर्म और अधर्म के मध्य होते हैं । धर्म स्वयं में अविवादित है । धर्म के नाम पर किये जाने वाले विवाद भी “धर्मों” के बीच नहीं बल्कि धर्म और अधर्म के बीच ही होते हैं । धर्म एक है, अधर्म  भी एक है इसलिये “विविध धर्मों” जैसे शब्द तात्विक न होकर लौकिक और राजनैतिक हुआ करते हैं । यह उसी तरह है जैसे प्रकाश का होना या न होना । फ़ोटॉन में भेद-उपभेद नहीं होते । धर्म में भी भेद-उपभेद नहीं होते, हो ही नहीं सकते । जो प्रकाश और धर्म में भेद-उपभेद देख पाते हैं वे प्रकाश और धर्म को नहीं बल्कि अंधकार और अधर्म को देख पाते हैं ।  
मनुष्य के लिये मानवता से बड़ा धर्म और कुछ हो ही नहीं सकता । जिस आचरण में मानवता न हो वह धर्म सम्मत नहीं हो सकता । सच्चे धर्म की बात करें तो धर्म को किसी विशेषण की आवश्यकता नहीं होती । सच्चा धर्म सबका होता है, वह न तो केवल तुम्हारा है और न केवल हमारा इसलिये धर्म को कोई नाम न दो । धर्म आचरण है, धर्म करुणा है, धर्म संवेदना है, धर्म प्रेम है... और प्रेम का कोई नाम नहीं होता । प्राचीन भारत में धर्म की सनातनता को देखते हुये सत्-आचरण को सनातन कहा गया । यह किसी धर्म का नाम नहीं, धर्म का गुण है । बाह्य आक्रमणकारियों और विघटनकारियों ने इसे एक विभेदक नाम दे दिया – “हिन्दू धर्म” ।
          उनके पास विभेदक दृष्टि थी, उनके पास विभेदक नाम थे । उनके पास इस्लाम था, उनके पास क्राइस्ट था । धर्म के सनातन तत्व को जान लेने के बाद वह क्या था जिसे जानना शेष था ?
सनातन के पश्चात् प्रतिलोमाचरण और अ-सनातन के अतिरिक्त शेष और क्या हो सकता है ? आज हमें हिंदू-इस्लाम या क्राइस्ट धर्म की नहीं बल्कि केवल और केवल मानव धर्म की आवश्यकता है । यही एक है जिसे विश्व मानव धर्म के रूप में प्रतिष्ठित किये जाने की आवश्यकता है ।
हम भिन्न धर्म सूचक नाम विशेषों को प्रतिबन्धित किये जाने के पक्ष में हैं । भिन्न धर्मों का विभेदकतत्व एक सीमित “वाद” या धार्मिक “कट्टरता” को जन्म देता है । विभेदकत्व का यह स्वाभाविक परिणाम है जो अवश्यम्भावी है । नाम विशेष वाले धर्मों को लेकर होने वाले विवादों और युद्धों में न जाने कितनी बार रक्त बहता रहा है और न जाने कितनी सभ्यतायें नष्ट होती रही हैं । जहाँ हिंसा और क्रूरता हो वहाँ धर्म नहीं “अधर्म” होता है ।   

 “धर्म निरपेक्षता” जैसी भ्रामक अवधारणायें हमें एक ऐसे बन्द रणक्षेत्र की ओर ढकेलती हैं जहाँ विवाद और युद्ध अवश्यम्भावी हैं । इस अवधारणा का लोक कल्याण से कोई प्रयोजन नहीं होता, यह एक शुद्ध राजनैतिक अवधारणा है जिसका उद्देश्य कुछ लोगों के राजनैतिक हितों का संरक्षण करना ही है । इसलिये हम विभेदकारी धार्मिक पहचानों को भी समाप्त कर दिये जाने के पक्ष में हैं । मानवता की रक्षा के लिये यह आवश्यक है । धर्म के नाम पर हो रहे विवादों और अतिवादों में धधकती दुनिया को बचाने के लिये यही एक अंतिम उपाय बचा है । 

4 टिप्‍पणियां:

टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.