रविवार, 24 दिसंबर 2017

किस ऑफ़ लव

मुक्त चिंतन की तड़प –“किस ऑफ़ लवअ रिवोल्यूशन अगेंस्ट मोरल पुलिसिंग

यह किस्सा केर-वनाच्छादित प्रांत ‘केरल’ की है ।  बुज़ुर्ग सूरज के झांकने में अभी छह घंटे शेष थे किंतु किसी ने भी उसके आने की प्रतीक्षा नहीं की, लोग हमेशा की तरह उस दिन भी ज़ल्दी में थे । उल्हइते लोगों ने रात बारह बजे ही बीसवीं सदी को टा-टा बाय-बाय करके भगा दिया था ।
सूरज दादा को धरती के आधुनिक मनुष्यों से गम्भीर शिकायत थी । पुराने लोगों के आदर्श ‘तमसोमा ज्योतिर्गमय’ से प्रतिलोम गमन करते हुए उन लोगों ने दिन की मर्यादा की तो ऐसा कम तैसी की ही, परिभाषा को भी खण्ड-खण्ड कर डाला था । लोगों को आगे बढ़ने की बहुत ज़ल्दी हुआ करती थी इसलिए उन्होंने तारीख़ बदलने के लिए भोर तक की प्रतीक्षा करना बन्द कर दिया था । रात को जैसे ही बारह बजते कि लोग तारीख़ बदल दिया करते । नया दिन अर्धरात्रि के अन्धकार में ही अपनी यात्रा प्रारम्भ करने के लिए विवश हो जाता । सुबह जब तक सूरज दादा धरती की ओर झाँकते और पशु-पक्षी सो कर उठ पाते तब तक तारीख़ बदल चुकी होती । रात के अंधेरे में बदली हुई तारीख़ का अब कोई गवाह नहीं हुआ करता । सेवानिवृत्त प्रोफ़ेसर शंभूनाथ मिश्र को लगता कि टू-जी घोटाले जैसे न जाने कितने घोटालों के सबूत न मिल पाने का यही परम रहस्य है ।
यह इक्कीसवीं सदी का पहला दिन था, कोज्झिकोडे शहर के लोग मौज-मस्ती के मूड में थे । अधर और ललिथा ने भी परिणय सूत्र में बंधने की प्रतीक्षा किए बिना ही एक लिप-लॉप चटका दिया... वह भी पार्क में दिन-दहाड़े ।
कोज्झिकोडे के अधर ने फ़्रांस से अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद कोच्चि में अपना व्यवसाय स्थापित करना सुनिश्चित किया था । भरपूर ऊर्जा और आत्मविश्वास के साथ अधर ने ललिथा को अपने निर्णय की सूचना दी तो उसके सपनों को जैसे पर लग गए । दोनों एक पार्क में मिले तो आनन्दातिरेक में ललिथा ने अधर को आलिंगन में भर लिया, प्रत्युत्तर में अधर ने भी अपने अधर ललिथा के अधरों से चिपका दिए । सार्वजनिक स्थान में मात्र तेरह सेकेण्ड्स का मुक्त प्रेमालिंगन और लिप-लॉक कोज्झिकोडे में चर्चा का विषय बन गया ।
पार्क में कुछ बुज़ुर्ग भी अपने बच्चों के बच्चों को घुमाने-टहलाने के लिए लाए थे, उन्होंने रात्रिचर्या को सूरज की रोशनी में देखा तो उन्हें बुरा लगा । नन्हें कृष्णा ने एक प्रेमी युगल को एक-दूसरे के अधर चबाते-चूंसते देखा तो इसे एक नया खेल समझकर खेलने के प्रयास में अपनी छोटी बहिन रुक्मिणी के होठ चबा डाले । बच्ची इस अचानक हुए आक्रमण से घबरा गई और पीड़ा से चीख उठी । पार्क की घास पर बैठे दादा श्वेतकेतु अय्यर ने बच्ची की चीख सुनी तो दौड़े ।
कोज्झिकोडे में इक्कीसवीं शताब्दी कुछ इस तरह आई थी कि उसकी चर्चा महीनों नहीं बल्कि वर्षों तक होती रही थी । वृद्ध अय्यर उस समय तो बच्चों को लेकर घर चले गए किंतु पार्क की घटना से व्यथित हो गए थे । उन्होंने कुछ लोगों के सामने आधुनिक युवाओं के आचरण के प्रति अपनी चिंता व्यक्त की । कुछ लोग प्रेमी युगल के इस अमर्यादित आचरण से क्रुद्ध हो गए और उन्होंने पार्क में जाकर अधर और ललिथा की धुनाई कर दी । उन्हें पूरा विश्वास था कि भारत में ऐसा कोई कानून नहीं है जो इस उच्छ्रंखल आचरण को रोक सके । वे भारत की पंगु न्याय व्यवस्था और अतिभ्रष्ट प्रशासन के सामने कोई फरियाद ले जाने की अपेक्षा स्वयं ही विक्रमादित्य बन जाने में विश्वास करने वाले लोग थे ।
केरल में हुई इस घटना की प्रतिक्रिया पूरे देश में हुई । महाज्ञानियों ने अपने प्रवचन में कहा – “हमें एक-दूसरे की निजता का सम्मान करना सीखना और सिखाना होगा । घर हो या गलियाँ या फिर पार्क, हमें हर कहीं प्रेम और उसके सार्वजनिक प्रदर्शन करने का अधिकार है । यह हमारी इच्छा और अधिकार है कि हम चुम्बन के लिए कौन सा समय और कौन सा स्थान तय करें । इस पर कोई नैतिक या कानूनी प्रतिबन्ध नहीं लगाया जा सकता । जहाँ तक बच्चों पर ऐसे प्रदर्शन के दुष्प्रभाव पड़ने की सम्भावना है तो यह मनुवादियों का केवल एक फासीवादी बहाना है जिसे स्वीकार नहीं किया जा सकता । वास्तव में बच्चों के मस्तिष्क पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव का कारण प्रेमालिंगनबद्ध चुम्बन दृश्य नहीं बल्कि घर में पिता द्वारा माँ के साथ की गई मारपीट के दृश्य हैं”।  
फ़्रांस में रहकर पढ़ा-लिखा अधर भारतीय परिवेश में लेश भी कढ़ा हुआ नहीं था, उसे इस मोरल पुलिसिंग का कोई औचित्य समझ में नहीं आया । पिटते समय वह चीख रहा था – “यह हमारा व्यक्तिगत मामला है, कोई हमारे रिश्तों पर पहरा कैसे दे सकता है ? हमने किसी का क्या बिगाड़ा है ? हम अपनी ज़िन्दग़ी कैसे जिएं यह दूसरे लोग तय करने वाले कौन होते हैं”?
ललिथा ने इसे ‘ब्राह्मणीय मनुवादी हिन्दू पुलिसिंग’ कहते हुए अपना आक्रोश व्यक्त किया जबकि अधर ने इस पुलिसिंग के विरुद्ध रिवोल्यूशन करने की ठान ली ।
मारपीट करने वाले युवाओं के मुखिया वी. शेखरन ने अपनी गिरफ़्तारी के समय मुक्तकामप्रदर्शन के अतिउत्साही प्रेमियों को सुनाते हुए कहा – “भारतीय संस्कृति के विरुद्ध आचरण करने के लिए भारत का समाज किसी को नैतिक अनुमति नहीं दे सकता । ऐसी उच्छ्रंखलता सहन नहीं की जा सकती”।
भीड़ में खड़े अधर और ललिथा के मित्र वी. शेखरन पर टूट पड़े – “तुम्हारा पाखण्डी समाज भारत का कानून नहीं है, तुम किसी को अनुमति देने या न देने वाले कौन होते हो ? यदि तुम स्वयं को भारतीय संस्कृति का ठेकेदार मानते हो तो तुम्हारी भारतीय संस्कृति हमारी जीवनशैली की शत्रु है जो हमारे निजी जीवन के प्रति हिंसा की सीमा तक असहिष्णु है । हम ऐसी संस्कृति को पैरों के नीचे कुचल देंगे”।
आधुनिक भारत की नई पीढ़ी के एक बहुचर्चित शिक्षित वर्ग में कामकेलि का मुक्त प्रदर्शन मौलिक अधिकार के रूप में चिन्हित किया जा चुका था । संस्कृत और हिन्दी के साहित्यकारों ने प्राचीन साहित्य के हवाले से मुक्त काम प्रदर्शन को नैतिक और मनुष्य की आवश्यकता सिद्ध करने का प्रयास किया । भारत की प्राचीन संस्कृति और जीवन मूल्यों से विरक्त हुए इन लोगों में प्रख्यात विश्वविद्यालयों के छात्र, शोधछात्र, इंजीनियर्स, साहित्यकार, इतिहासकार, चिंतक और प्रोफ़ेसर्स सम्मिलित थे जो रात्रिकालीन गुह्य आचरण और दिनचर्या के मुक्त आचरण के मध्य किसी प्रकार के विभेद के पक्ष में नहीं थे । वे इस प्रकार के किसी भी विभेद को असमान सामाजिक व्यवस्था का कारण मानते थे ।
बात फैली तो योरोप के मुक्त समाज ने देखा कि इक्कीसवीं शताब्दी की भारतीय युवा पीढ़ी काम-वासना को लेकर दो अतिवादी विपरीत ध्रुवों पर खड़ी हो चुकी है । इण्डियन पैराडॉक्स सात समन्दर पार एक बार फिर चर्चा का विषय बन गया ।  
अधर और ललिथा के साथ हुई मार-पीट का विवाद स्थानीय थाने की सरकारी पुलिस तक पहुँचा । सरकारी पुलिस ने पूरा मामला जानने के बाद स्थानीय जनता द्वारा की गई मोरल पुलिसिंग के विरुद्ध सामान्य कार्यवाही तो की किंतु बाद में स्वयं भी रात्रिचर्या वाले आचरण के दिनचर्या में व्यवहृत किए जाने पर आपत्ति की । मुक्त प्रेमालिंगनबद्ध चुम्बन के विरुद्ध अब हिन्दू संगठनों की मोरल पुलिसिंग को सरकारी पुलिस का भी सहयोग मिलने लगा । टकराव बढ़ा तो दोनों पक्षों ने अपनी-अपनी सेनायें जुटाने में देर नहीं की । विद्यालयों से लेकर विश्वविद्यालयों तक वैलेंटाइन डे का उपयोग चूमा-चाटी समूह के सदस्यों की सदस्यता में वृद्धि के लिए किया जाने लगा । केरल में रात्रिचर्या और दिनचर्या के मध्य साम्यवादी अभेद दृष्टि की वकालत की जाने लगी । विज्ञान प्रमाणित सर्काडियन रीद्म के विरुद्ध गॉड्स ऑन कंट्री केरल की शिक्षित युवा पीढ़ी रिवोल्यूशन के लिए तैयार हो चुकी थी । कामज्वर से छटपटाती हुई इक्कीसवीं शताब्दी नैतिक और सामाजिक मर्यादाओं को तोड़ फेकने के लिए उद्यत हो उठी । इस बीच सूरज के उजाले में मुक्त चूमा-चाटी के सार्वजनिक प्रदर्शन के पक्ष में फ़्री थिंकर्सनामक एक बौद्धिक सेना संगठित हो कर प्रकट हुई जिसका उद्देश्य भारत को योरोप की संस्कृति में ढालना था ।   
अक्टूबर 2014 में कोज्झिकोडे के एक कैफ़े में प्रेमालिंगनायमान एक युगल को सार्वजनिकरूप से चुम्बन करते हुये देखे जाने पर भारतीय जनता युवा मोर्चा के लोगों द्वारा मारपीट किए जाने की घटना को मलयाली टी.वी. समाचार चैनल ‘जय हिन्द’ ने अपने चैनल पर प्रदर्शित किया । इस घटना ने केरल ही नहीं बल्कि पूरे देश भर के फ़्री-थिंकर्स को आक्रोशित कर दिया । मुक्त-चिंतकों ने कामक्रीड़ा को रात्रिचर्या की गुह्यता और सामाजिक-नैतिक बन्धन से आज़ाद कराने के लिए एक आन्दोलन प्रारम्भ किया जिसका भारत के युवाओं ने हिप-हिप हुर्रे के साथ स्वागत किया । कुछ अतिउत्साहित फ़्री-थिंकर्सने अंतरजाल की सोशल साइट मुख पोथी’ (फ़ेसबुक) पर भी किस ऑफ़ लवआन्दोलन प्रारम्भ कर दिया ।    
नौ अक्टूबर 2014 को दिल्ली में ‘किस ऑफ़ लव’ प्रदर्शन के बाद जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय सहित भारत के अन्य विश्वविद्यालयों में भी इसे एक उत्सव के रूप में मनाये जाने की नई परम्परा प्रारम्भ की गई । कुछ छात्र-छात्राओं ने प्रोफ़ेसर मटुक नाथ और उनकी शिष्या जूली के प्रेम-आदर्श को स्मरण कर अपने जीवन को धन्य किया ।
इंजीनियरिंग के अध्ययन के लिए ग्राम्य वातावरण से शहर के नए वातावरण में आये कृष्णा और शांथा को ‘किस ऑफ़ लव आन्दोलन’ ने बहुत आकर्षित किया । वे भी प्रेम करने और उसे दिखाने को अपना मौलिक अधिकार मानकर इस आन्दोलन में सबके साथ हो लिए । सार्वजनिक प्रदर्शन के समय जब वे एक-दूसरे के साथ प्रेमालिंगनबद्ध हो पूर्ण तन्मयता के साथ चुम्बनरत थे तो साथ के लोग उनकी कामातुरता के तीव्र आवेग से चिंतित हो उठे । खिलखिलाती मांगलिका ने परिहास करते हुए अपने मित्र शांथनु से कहा – “लगता है कृष्णा-शांथा के लिए बिस्तर की व्यवस्था यहीं करनी होगी”।
नागराजन एक समझदार छात्र नेता के रूप में जाना जाता था । उसने नए खिलाड़ियों की अवश आवेशित कामावेग की नाजुकता को समझ कर दाल-भात में मूसल चन्द बनते हुए कृष्णा को शांथा से अलग किया और कृष्णा को आलिंगनबद्ध कर चुम्बन करने लगा । इस बीच भीड़ में से एक अनजान युवक ने आगे बढ़कर शांथा को थाम लिया और आलिंगनबद्ध हो चुम्बनालीन हो गया । कृष्णा ने देखा तो उसका रक्तचाप उबाल खाने लगा । उसने नागराजन से स्वयं को मुक्त किया और लपककर अनजान युवक के आलिंगन से शांथा को भी किसी तरह मुक्त करवाया ।
कृष्णा और शांथा को लगा कि वे एक जाल में फंस चुके हैं जिससे अब तुरंत निकलना होगा । वे दोनों बदहवास हो वहाँ से निकलना ही चाहते थे कि तभी भीड़ में से निकलकर सामंथा ने शांथा को अपनी बाहों में बुरी तरह जकड़ कर अधरपान करना प्रारम्भ कर दिया । शीघ्र ही शांथा ने अनुभव किया कि यह अधरपान कम अधरकर्तन अधिक था । वह छटपटाई तो विकल कृष्णा ने सामंथा के सुन्दर कपोल पर एक प्रहार किया । नागराजन को फिर सामने आना पड़ा, उसने सामंथा को अपनी ओर खींचकर चूसना शुरू कर दिया । शांथा को मुक्ति मिली किंतु अब तक वह लस्त हो चुकी थी । कृष्णा के सुषुप्त ग्राम्यसंस्कार अचानक भड़भड़ा कर जाग चुके थे, उसे लगा कि आधुनिकता के चक्कर में उसने अपनी शांथा को स्वयं ही दुःशासनों के हाथों में सौंप दिया था । ग्लानि और अपराधबोध से ग्रस्त कृष्णा को उसकी शांथा लुटी-लुटी सी लगने लगी । वह किसी तरह शांथा का हाथ पकड़कर वहाँ से निकल भागने में कामयाब हो गया ।

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समलैंगिकों और कामकुंठितों के लिए फ़्री थिंकर्स का ‘किस ऑफ़ लव’ आन्दोलन एक सुअवसर के रूप में सामने आया, उन्होंने आन्दोलन को सफल बनाने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया । सोशल साइट मुख पोथीपर प्रारम्भ किए गए मुक्तकामप्रदर्शन आन्दोलन किस ऑफ़ लवके साथ लाखों लोग जुड़ चुके थे । उत्साहित फ़्री थिंकर्स ने दो नवम्बर 2014 को कोच्चि के मरीन ड्राइव पर प्रेम-प्रदर्शन का आयोजन किया । युवक-युवतियों के मरीन ड्राइव पर प्रेमालिंगनबद्ध चुम्बन प्रदर्शन को रोकने के लिए कई धार्मिक और राजनैतिक संस्थाओं के लोग एकत्र हुए ।
प्रेमालिंगनबद्ध चुम्बन के दीवाने मुक्त-चिंतकों ने दो नवम्बर 2014 को कोचीन के एर्णाकुलम लॉ कॉलेज से एक पदयात्रा प्रारम्भ की जो मरीन ड्राइव पर एक हंगामे और पुलिस द्वारा छात्र-छात्राओं की ग़िरफ़्तारी के साथ समाप्त हुयी । एर्णाकुलम में हल्ला हो गया कि इस पदयात्रा में सम्मिलित लोगों के साथ शिवसेना, बजरंगदल आदि हिन्दू संगठनों के लोगों ने मारपीट की है ।
कोच्चि में दो नवम्बर 2014 को हुयी घटना के बाद एकजुटता दिखाते हुये जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्र-छात्रायें और कुछ परमादरणीय गुरुजन शाम साढ़े चार बजे गंगा ढाबा पर एकत्र हुए । मोरल पुलिसिंग के विरुद्ध नारे लगाते हुए अपने प्रचण्ड तर्क में एक प्रोफ़ेसर साहब ने घोषणा की – “...प्रेमालिंगन और चुम्बन वैदिक परम्परा है और खजुराहो के मन्दिरों में भी उत्खचित है इसलिए यह उनका मौलिक अधिकार है जिसे किसी भी स्थिति में प्रतिबन्धित नहीं किया जा सकता” । गुरु जी की इस मौलिक घोषणा के पश्चात् गंगा ढाबा एक तीर्थ स्थल की तरह पवित्र हो गया ।
दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में मुक्त-चिंतकों ने ‘प्रेमलसित चुम्बन’ का सार्वजनिक प्रदर्शन किया जिससे उत्साहित हो कर कोच्चि में भी प्रेम के मुक्त प्रदर्शन को मौलिक अधिकार मानते हुए आन्दोलन किया गया । फिर तो जैसे ‘प्रेमलसित चुम्बनान्दोलनम्’ की भारत भर में बाढ़ सी आ गई । हिन्दू संगठनों की मोरल पुलिसिंग के विरुद्ध पाँच नवम्बर 2014 को जादवपुर विवि कोलकाता के छात्रों ने ‘किस ऑफ़ लव’ का सार्वजनिक प्रदर्शन किया । इस प्रदर्शन का एक तात्कालिक लाभ तो अम्बर और नित्या चटर्जी को उसी दिन प्राप्त हो गया ।
जो नित्या विवाह की देहरी के बहाने अभी तक अम्बर को अपने होठों के पास नहीं फ़टकने देती थी, वही अब सार्वजनिकरूप से अम्बर को अधरपान के लिए मना नहीं कर सकी । ‘गंवारू लड़की’ के ठप्पे से बचने के लिए ऐसा करना अत्यावश्यक था । अधरपान के सार्वजनिक प्रदर्शन के तत्काल पश्चात् नित्या एक ‘आदर्श शहरी लड़की’ बन जाने के आत्मविश्वास से भर गई । इन गौरवपूर्ण क्षणों में उसके छलकते हुए आत्मविश्वास को उसके छोटे भाई नीलांजन ने भी अनुभव किया । उसे अपनी बहन से ईर्ष्या हुई, काश ! आज उसके बन्द भाग्य को भी खोलने वाली कोई मिल गई होती ।
उस दिन नीलांजन को अकेले ही घर जाना पड़ा । नित्या उसके साथ नहीं गई जिससे नीलांजन को बहुत बुरा लग रहा था किंतु गंवारूपन और पिछड़ेपन से मुक्त होने के लिए आधुनिक सभ्यता की यह एक अनिवार्य शर्त थी जिसे पूरा करने के लिए अपनी कुंवारी दीदी को उसके मित्र के साथ रात्रिचर्या के लिए जाती हुई देखना और मन मसोस कर रह जाना आवश्यक था ।
उस रात अम्बर और नित्या ने यौनसुख की वर्जनाओं को तोड़-मरोड़ कर नाली में फेंक दिया था । अब वे दकियानूस भारतीय मनुवाद से मुक्त हो स्वयं को पूरी तरह किसी योरोपीय प्रेमीयुगल की तरह अनुभव करने लगे थे । उनका जीवन धन्य हो चुका था जबकि नीलांजन का जीवन धन्य होना अभी शेष था ।      
पाँच नवम्बर 2014 रविवार शाम साढ़े पाँच बजे आई.आई. टी. मुम्बई के छात्र-छात्राओं एवं उनके प्राध्यापकों ने किसिंग डेका आह्वान किया । इस अवसर पर इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग की डॉक्टरल अध्येता उदीप्ता चटर्जी ने अपने प्रवचन में कहा “आधुनिक दुनिया में प्रेम और उसके प्रदर्शन के अधिकार पर नैतिक प्रतिबन्ध को स्वीकार नहीं किया जा सकता । सार्वजनिक स्थलों पर प्रेम-प्रदर्शन भारत में अपराध नहीं माना जाता
मुम्बई की ‘लेस्बियन, गे, बाईसेक्सुअल, ट्रांसजेण्डर एवं क्वीर कम्युनिटी’ के लिए काम करने वाली साथीनामक संस्था के सहयोग से इंजीनियरिंग कॉलेज के ‘प्रोग्रेसिव एण्ड डेमोक्रेटिक स्टूडेंट्स’ ने ‘किसिंग डे’ नामक आनन्दोत्सव के प्रदर्शन का आयोजन किया । उच्चशिक्षा उपाधिधारी छात्र राहुल मगंती से एक पत्रकार ने पूछा –“यौनोत्सर्जित प्रेम तो नितांत व्यक्तिगत आचरण है, इसके सार्वजनिक प्रदर्शन की आवश्यकता क्यों है”?
राहुल मगंती ने लाल सलाम वाले अंदाज़ में उत्तर दिया – “किसी युगल को पार्क या किसी सार्वजनिक स्थान में प्रेम करने से रोकना ‘लव एण्ड सेक्सुअलिटी’ के अधिकार के विरुद्ध है । यह एक तरह का मोरल फ़ासिज़्महै जिसके विरोध के लिए ‘हग एण्ड किस’ का सार्वजनिक प्रदर्शन किया जाना आवश्यक है”।   
आन्दोलन अपने उफान पर था... साथ ही मुक्तयौनाकांक्षी भी आर-पार की लड़ाई के मूड में आ गए । एर्णाकुलम महाराजा कॉलेज में सात नवम्बर 2014 को हग ऑफ़ लवआन्दोलन किया गया जिस पर कार्यवाही करते हुए कॉलेज प्रशासन ने दस आन्दोलनकारी विद्यार्थियों को दस दिन के लिए शैक्षणिक सत्र से वंचित कर दिया । इससे उत्तेजित होकर सात दिसम्बर 2014 को कोज्झिकोडे बस स्टैण्ड पर युवक-युवतियों द्वारा ‘किस इन द स्ट्रीट्स’ का प्रदर्शन किया गया ।  बस स्टैण्ड पर अपरान्ह दो बजकर पैंतालीस मिनट पर लगभग दस लोगों का पहला जत्था सामने आया जिसमें तीन लड़कियाँ थीं, उसके बाद युवक-युवतियाँ छोटे-छोटे समूहों में सड़क पर आते गये, उन्होंने प्रदर्शन किए और नुक्कड़ नाटक भी । शिवसेना, हनुमान सेना और बजरंगदल के लोगों ने उन्हें रोकना चाहा परिणामतः पुलिस ने दोनों पक्षों के लोगों को ग़िरफ़्तार किया । ग़िरफ़्तार क्रांतिकारियों ने पुलिस वैन में ले जाए जाते समय भी चुम्बनालीन हो प्रदर्शन किया और फिर हवालात में भी लिपलॉक करते रहे जिससे पुलिस के सामने एक ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई जो अप्रिय तो थी किंतु उससे मुक्ति का उनके पास कोई उपाय नहीं था ।   
यह एक ऐसा आन्दोलन था जो छात्र-छात्राओं एवं राजनैतिक-धार्मिक संस्थाओं के बीच उच्छ्रंखल प्रेमाभिव्यक्ति एवं नैतिक मर्यादाओं के मध्य छेड़ा गया था । आधुनिक शिक्षित युवा पीढ़ी नैतिक सिद्धांतों को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थी । उच्छ्रंखल प्रेम प्रदर्शन को रोकने के लिए किए जाने वाले प्रयासों में नैतिक शुचिता का अभाव स्पष्ट दिखायी दे रहा था । दोनों ही पक्ष आक्रोशित थे, उनके आचरण में विवेक और संयम का अभाव देखा जा सकता था । वे प्रदर्शनकारियों को उनके जैसे मुक्त आचरण के लिए अपनी बहनें उनके हवाले कर देने के लिए कहने लगे ।  विरोध प्रदर्शन के प्रतिविरोधी पक्ष से जब आक्रोश में ‘सेंड योर सिस्टर्स टु किस अस’ के नारे लगाए जाने लगे तो उनके अपने ही नैतिक सिद्धांत छिन्न-भिन्न हो गए । फ़्री थिंकर्स को प्रत्याक्रमण का अवसर मिला और उन्होंने पूछना शुरू किया कि क्या बहनें अपने भाइयों की सम्पत्ति होती हैं जिन्हें किसी को भी स्तेमाल के लिए सौंप दिया जाना चाहिए ?
एक राजनेता ने वक्तव्य दिया – “प्रेम-प्रदर्शन को कुचलने के पीछे राजनीतिक उद्देश्य छिपे हैं । ये लोग भारत को एक हिन्दू राष्ट्र बनाना चाहते हैं । उन्होंने हिन्दू धर्म को ही राष्ट्रीयता घोषित कर दिया है । किस ऑफ़ लव प्रदर्शन के दौरान ऐसे ही विरोधियों द्वारा अमर्यादित आचरण किया जा रहा है । वे प्रदर्शनकारी लड़कियों को स्लट्स मानते हैं और पुरुष प्रदर्शनकारियों को अपनी बहनों को उनके पास भेजने के लिए कहते हैं”।
फ़्री थिंकर्स के मुक्त-चिंतन के समर्थन एवं मोरल पुलिसिंग के विरोध में हैदराबाद विश्वविद्यालय, दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, पांडिचेरी विश्वविद्यालय, जादवपुर विश्वविद्यालय और प्रेसीडेंसी विश्वविद्यालय कोलकाता के साथ-साथ इण्डियन इंस्टीच्यूट ऑफ़ साइंस-एजूकेशन एण्ड रिसर्च कोलकाता, आई.आई.टी. मद्रास एवं मुम्बई ने भी पाँच नवम्बर 2014 को विरोध प्रदर्शन किया । 2014 में छेड़े गए ‘किस ऑफ़ लव’ को पहले तो आन्दोलन और फिर बाद में उत्सव के रूप में मोरल पुलिसिंग के विरुद्ध सामाजिक युद्ध के एक प्रतीक रूप में पूरे भारत में अपनाया गया ।    
आठ नवम्बर 2014 को दिल्ली में जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्र-छात्राओं की अगुआई में दिल्ली विश्वविद्यालय, जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय, अम्बेडकर विश्वविद्यालय दिल्ली एवं राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय के छात्र-छात्राओं द्वारा झण्डेवालान स्थित राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ कार्यालय के सामने आलिंगन-चुम्बन के साथ ‘रिवोल्यूशन फ़ॉर राइट ऑफ़ किसिंग एण्ड हगिंग’ का प्रदर्शन किया । हिन्दू सेना के सदस्यों ने इस मुक्त-काम-प्रदर्शन का विरोध किया जो तुरंत हिंसा में बदल गया । भारत के गंवार लोगों के प्राचीन जीवनमूल्यों के संरक्षक ठेकेदार प्रेम को ‘करने’ तक सीमित रखने के लिए हिंसा पर उतारू थे जबकि आधुनिक भारत के सभ्य युवा प्रेम करने को ‘प्रदर्शन’ की सीमा तक ले जाने के लिए सड़क पर कामक्रीड़ाओं का स्थान-स्थान पर आयोजन करने के लिए कटिबद्ध हो चुके थे ।
कोज्झिकोडे के लॉ कॉलेज के छात्रों द्वारा दस दिसम्बर 2014 को हग ऑफ़ लवऔर थिरुवनंतपुरम में तेरह दिसम्बर 2014 को किस ऑफ़ लवअगेंस्ट मोरल फ़ासिज़्म जैसे प्रतिक्रियात्मक आन्दोलन किए गए ।
 भारत के फ़्री थिंकर्स किस ऑफ़ लवके बाद हग ऑफ़ लवसे होते हुए किस इन द स्ट्रीट्सतक पहुँच गए । इस बीच दिल्ली उच्चन्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय ने भी रात्रिकालीन वैयक्तिक आचरण के सार्वजनिक प्रदर्शन को आपराधिक कृत्य स्वीकार करने से इंकार कर दिया जिससे फ़्री थिंकर्स सम्प्रदाय में हर्ष एवं उत्साह की लहर दौड़ गई । जिस दिन यह ऑर्डर पास हुआ उस दिन हिन्दी की प्रोफ़ेसर राधा खोब्रागढ़े अपनी लिस्बियन मित्र वृंदा बनर्जी के साथ खजुराहो प्रवास पर थीं । ख़बर मिलने के बाद वे दोनों ख़ुशी से झूम उठीं, उन्होंने चियर्स किया और फिर कमरे का दरवाज़ा बन्द करके सिक्स्टी नाइन हो गईं ।

सॉफ़्ट वेयर इंजीनियर राहुल पाशुपलन एवं उनकी पत्नी रश्मि नायर ने 2015 में ‘किस ऑफ़ लव’ आन्दोलन को और आगे बढ़ाया । वे सार्वजनिक स्थलों पर प्रेम प्रदर्शन को अपना मौलिक अधिकार और इस पर लगाए जाने वाले प्रतिबन्ध को ‘मोरल फ़ासिज़्म’ मानते थे ।
एक दिन केरल के लोगों को स्थानीय समाचार पत्रों से ज्ञात हुआ कि एक सेक्स रैकेट संचालित करने वाले जिन दो लोगों को पुलिस ने गिरफ़्तार किया है वे कोई और नहीं बल्कि ‘किस ऑफ़ लव’ के आयोजक रश्मि पाशुपलन और रश्मि नायर ही हैं । इस प्रेम दिवाने युगल को पन्द्रह माह तक जेल में रहना पड़ा । बाद में राहुल एक फ़िल्म निर्माता बन गए ।  
अपसंस्कृति को संस्कृति स्वीकार कर चुके लोग अपने पक्ष में कुतर्कों को आकर्षक शब्दों से अलंकृत कर भारी भरकम बनाने का प्रयास करने लगे । कार्ल मार्क्स और शॉपेनहॉर के सम्प्रदायविहीन दर्शन से अनुप्राणित भारत के शिक्षित लोगों के एक वर्ग की मुक्तविचारधारा अब तक एक सुस्थापित सम्प्रदाय का रूप धारण कर चुकी थी । मुक्तयौन संबन्धों और वैश्यावृत्ति के बीच केवल मुद्रा विनिमय को ही विभाजक और नैतिक रेखा स्वीकार कर लिया गया । भारत का एक बड़ा वर्ग इस परिवर्तन में भारत को आधुनिक होता हुआ देखने लगा ।
बंगाल की इतिहासकार चारु गुप्ता संस्कृति को गतिशील मानती हैं, उनके अनुसार – “संस्कृति कोई स्थायी तत्व नहीं है, यह समाज की आर्थिक और सामाजिक जीवनशैली के अनुरूप निरंतर परिवर्तित होती रहती है
गाँव के पढ़े-लिखे किंतु पुरानी विचारधारा में विश्वास रखने वाले गंवारू प्रोफ़ेसर गौरीशंकर त्रिपाठी को सभ्य इतिहासकार चारु गुप्ता के विचार समझ में नहीं आ सके । उन्होंने अपने से दो साल बड़े सेवानिवृत्त प्रोफ़ेसर शंभूनाथ मिश्र से पूछा – “का हो मिसिर जी ! ई चारु गुप्ता का कह रही हैं ? संस्कृति के अनुरूप जीवनशैली होती है कि जीवनशैली के अनुरूप संस्कृति होती है”?
मिश्र जी ने नेत्र बन्द किए, कुछ क्षण समाधिस्थ से हुए फिर धीरे-धीरे बोले – “संस्कृति हमारे विचारों और आचरण का वह परिमार्जित स्वरूप है जो अपने मूल्यों के कारण प्रशंसित और अनुकरणीय है । संस्कृति निरंतर ऊर्ध्वगामी होती है, इस दृष्टि से यह स्थायी तत्व नहीं है किंतु यदि जीवनमूल्यों में क्षरण होता है तो उसे संस्कृति नहीं अपसंस्कृति कहा जायेगा । आर्थिक और सामाजिक जीवनशैली जब संस्कृति को प्रभावित करने लगे तो फिर वह संस्कृति नहीं रह जाती बल्कि अपसंस्कृति हो जाती है । संस्कृति से जीवनशैली नियंत्रित होती है, जीवनशैली से संस्कृति के नियंत्रण और परिमार्जन का प्रश्न ही नहीं उठता”।
दोनों वृद्ध विप्रों को आधुनिक भारत के युवाओं की अधोगामी चिंतन दिशा से दुःख हुआ । वे दोनों गहन सोच में डूब गए ।

अम्बर को सैन फ़्रांसिस्को में नौकरी मिल गई, नित्या के प्रति उसके आकर्षण का ज्वार उतर चुका था । वहाँ जाकर उसने एक कनाडियन व्यापारी की बेटी से विवाह कर लिया ।  
अम्बर के सैन फ़्रांसिस्को जाने के एक महीने बाद ही परित्यक्त कुमारी नित्या चटर्जी ने एक ख़ूबसूरत बच्ची को जन्म दिया । आँखों से गंगा-जमुना बहाती नित्या ने बच्ची का नाम रखा – “संस्कृति” ।


गुरुवार, 14 दिसंबर 2017

लावा

“लाल सलाम का इस्लाम”

  मुगलिया सल्तनत की राह पर
बढ़ते हुए आगे
ताजपोशी की वकालत करने लगा है
एक आदमी
जो कभी बजा-बजा कर साम्यवादी ढपली
माँगा करता था चन्दा
चीन के लिए,
कोसता रहता था दिन-रात
दासप्रथा और आर्थिक पूँजीवाद को
करता रहता था
सर्वहारा के लिए
चिंतित होने का स्वांग ।
आज वही आदमी 
लोकतंत्र की नहीं
राजतंत्र की बात करने लगा है ।
कमाल है
भारत में बीड़ा उठा लिया है
राजतंत्र को पुनर्स्थापित करने का
एक साम्यवादी ने । 

 “समस्या”

चुनाव के मौसम में
लुप्त हो गए
जनसरोकार के विषय,
लुप्त हो गया युग
लोकलुभावन झूठे वादों का भी,
अब तो आ गया है
आते ही छा गया है
युग
नीचा दिखाने
और कीचड़ उछालने का ।
आज की ज्वलंत समस्या है
“उसका कीचड़
मेरे कीचड़ से अधिक बद्बूदार क्यों”?

 “राजपथ”  

आरोप है
कि जातियों ने खोद डाली थीं खाइयाँ
खाइयाँ ने उगाई थीं असमानता की फसलें
इसीलिए होने लगी ब्राह्मणों पर बौछार
गालियों की
अपमानित किया जाने लगा मनु को
और दे दी गई संज्ञा सेतु की
आरक्षण की उस परिखा को
खोदी गई थी जो
खाइयों को पाटने के लिए ।
भरे जाते रहे परिखा में
घृणा के विचार,
प्रवाह की रोक दी गई परम्परा,
सड़ांध ने दुश्वार कर दिया जीना ।
चुनावों में बिछाई जाने लगीं
जाति की बिसातें,
खाइयाँ और गहरी होती गईं ।
और अब
कोई भी नहीं चाहता ख़त्म करना
इन खाइयों को,
राजमहल का रास्ता
इन्हीं खाइयों से होकर जाता है ।

 “बेहतर”

एक है भेड़िया
घात में रहता है ।
एक है गधा
धूल में लोटता है ।
दोनों का दावा है
कि जंगल के राजकाज के लिए
नहीं है कोई
उनसे बेहतर ।
जंगल के लोग दीवाने हैं
कुछ भेड़िए के
कुछ गधे के ।
चीकू खरगोश ने
जब यह वक्तव्य दिया, कि 
“इस जंगल में
अब नहीं पैदा होता
कोई शेर”
तो लोग ख़फ़ा हो गए । 
सुना है
आजकल पागलखाने में भरती है
चीकू खरगोश ।

‘भय’

राजनीति के केन्द्र में
और ‘धन’
सत्ता के केन्द्र में ।
बस !
इतना ही तो सार है
इस असार संसार का !
यही रहस्य है
और यही है धर्म
कलियुग का !

"इबारत"

राजप्रासादों में है
पंक ही पंक ।
वही...
जिसका वे प्रयोग करते हैं
रात-दिन ।
यही पंक
एक दिन बदल जाएगा
हाइड्रोजन बम में
और तब
एक और हड़प्पा संस्कृति
दर्ज़ हो जाएगी
पुरातात्विक इतिहास में ।
किंतु
लिखनी हो जिन्हें
इबारत
एक और
नई सभ्यता की
जाना होगा उन्हें जंगल में
उतार कर अपने कपड़े

मेरी तरह ।