मंगलवार, 25 अप्रैल 2017

नक्सली आतंक के नाम तीन कवितायें ...(सुकमा में हुये हमले के सन्दर्भमें)



1-
चिंतित हैं पच्चीस सिपाहियों की
वे पच्चीस विधवायें
जिनके पति मार दिये गये
चिंतागुफा में घात लगाकर ।
चिंतित हैं बिलखती विधवायें
कि क्या बतायेंगी
जब बड़े होकर पूछेंगे बच्चे
माँ !
किस देश की सरहद पर मारे गये मेरे पिता ?
किस शत्रु देश के योद्धाओं ने मारा मेरे पिता को ?
तब देश के भीतर खिचीं 
कितनी सरहदों का नाम लेंगी वे ?
  
2-
हमें नहीं मालुम
गृह युद्ध की परिभाषा
हम तो इतना जानते हैं
कि चलती हैं गोलियाँ
सरहद के भीतर भी
फटते हैं बम
होती हैं मुठभेड़ें
और मार दिये जाते हैं देश के जवान
देश के भीतर ही ।
लोकतंत्र यदि यही है
तो नहीं चाहिये तुम्हारा यह तोहफ़ा
इससे पहले
कि कोई गोली चीर दे तुम्हारा भी सीना
बन्द करदो लोकतंत्र के साथ
अब और छल करना ।  

3-   
कोई नहीं जानता
कितनी पुरानी है यह हवेली
जिसमें रहते हैं हम ।
पीढ़ियाँ निकल गयीं
इस जर्जर हवेली में रहते
न जाने कब से मरम्मत नहीं हुयी ।
सचमुच
रहना बड़ा कष्टदायक है इसमें, इसीलिये
एक दिन छोड़ कर चले गये तुम
मैं नहीं गया
जाऊँगा भी नहीं
मरम्मत जो करनी है इस हवेली की ।
बस !
यही फ़र्क़ है
मुझमें और वाम पंथ में ।

शुक्रवार, 21 अप्रैल 2017

धन्यवाद सिंगापुर !

आदरणीय ब्लॉग पाठको ! 
सादर नमस्कार !
विगत कई वर्षों से आप सब हमारे साथ हैं । विश्व के प्रायः सभी देशों के सुधीजन हमारे लेखन के साक्षी रहे हैं । अभी तक उपलब्ध आँकड़ों के अनुसार भारत और अमेरिका के पाठकों ने हमें अपना सर्वाधिक स्नेह दिया है किंतु पिछले कुछ दिनों से सिंगापुर ने अमेरिका को पीछे कर दिया है । सिंगापुर के पाठकों की संख्या कभी भारत के पाठकों के समान तो कभी उनसे भी अधिक हो जाती है । मैं अभिभूत हूँ और सिंगापुर के सभी पाठकों का हृदय से आभार व्यक्त करता हूँ । मैं अमेरिका, फ़्रांस, ज़र्मनी, इज़्रेल, पुर्तगाल, यूक्रेन, कुवैत, ईरान वियेतनाम, नेपाल आदि दुनिया भर के सभी देशों के पाठकों का हृदय से आभारी हूँ और विनम्र अनुरोध करता हूँ कि आप अपनी प्रतिक्रियाओं से भी हमें अवगत करायें । आपकी समालोचनायें हमारे वैचारिक आन्दोलन के लिए आवश्यक हैं ।
एक बार पुनः आप सभी का हृदय से आभार !

सादर
-      कौशल

 

गुरुवार, 20 अप्रैल 2017

आस्तिक देश के नास्तिक लोग...


        भारत सदा से ही विदेशी आक्रांताओं, बलात्कार, लूट और हत्याओं की श्रृंखलाओं से जूझता रहा है । विदेशी आक्रांताओं के बलात्कार से उत्पन्न संतानों में अपराध और क्रूर हिंसा के दुर्गुण आज भी विद्यमान हैं और अब वे भारतीय समाज में कैंसर की तरह घुलमिलकर भितरघात करने में दक्ष हो चुके हैं । इस कटु सत्य के बाद भी हम अपने राष्ट्रीय दायित्वों से मुक्त नहीं हो सकते । भारतीय समाज निरंतर पतन की दिशा में आगे बढ़ रहा है । हमें इस विषय पर खुलकर मंथन करना होगा । हमारी कथनी-करनी में विपरीत ध्रुवों की सी दूरी ने हमारे नैतिक चरित्र को कलंकित किया है । आदर्श केवल वाचिक होकर रह गये हैं और आचरण निरंकुश । कर्मयोग के प्रति हमारा यह चारित्रिक स्खलन आखिर रुकेगा कब ?
भारत के सनातनधर्मी समाज ने उच्च आदर्शों के शिखर को राजमुकुट की तरह अपने सिर पर सजा लिया है । यह हमारे लिये गर्व का नहीं, अहंकार का विषय बन गया है । हमारा यह अहंकार जब उग्र होता है तो हम अपने विरोधी के प्रति असहिष्णु हो उठते हैं । वास्तविकता यह है कि आदर्शों के शिखर के सामने हम आचरण को महत्व देना बिल्कुल भी उचित नहीं समझते, प्रत्युत हमारा आचरण उन आदर्शों से पूरी तरह विपरीत है जिनका उपदेश हम दूसरों को देते घूमते हैं । यह एक ऐसा पैराडॉक्स है जो नयी पीढ़ी को मार्क्सवाद की ओर जाने को प्रेरित करता है । वह बात अलग है कि मार्क्सवाद आज के युवाओं की तात्कालिक वैचारिक और उद्दाम काम की दैहिक भूख तो शांत कर देता है किंतु जब आचरण की बात आती है तो वह भारत की पवित्र संस्थाओं से प्रतिस्पर्धा में आगे ही प्रतीत होता है ।
हमारे नैतिक पतन का एक मात्र कारण है पाखण्ड में हमारे विश्वास का दृढ़ होना । मैं इसे ईश्वर के प्रति हमारी मिथ्या आस्था की धौंस मानता हूँ । मन्दिरों के देश में भ्रष्टाचार की प्रतिस्पर्धा का होना ईश्वर के प्रति हमारे छलिया स्वभाव की चुगली करता है । वास्तव में हम लोग आस्तिकता के आवरण में घोर नास्तिकता का जीवन जी रहे हैं । यही कारण है कि आदर्शों का उपदेश देना हमारे व्यक्तिगत स्वार्थ का एक साधन भर बन कर रह गया है जो हमें हमारी सम्पूर्ण दुष्टताओं के साथ सुरक्षा कवच का आभास कराता है । उपदेश हमारे आचरण में नहीं है, वह हमारे चरित्र में अनूदित नहीं हो सका इसीलिये हमें अपनी तथाकथित पवित्रता का बखान करने के लिए बाध्य होना पड़ता है ।
        हम अतीत के गौरव के अतिवादी स्वप्न और मार्क्सवादी क्रिटिक के अतिवादी आलाप में फंसे हुये हैं । गीता का कर्मयोग औपदेशिक भर है, सत्ता और समाज में उसका लेश भी कहीं दिखायी नहीं देता । तथाकथित पवित्र संस्थाओं के स्वयम्भू बुद्धिजीवी राष्ट्रीय चरित्र को व्यक्तिगत चरित्र से ऊपर मानते हैं । अर्थात् वे राष्ट्रीय चरित्र और व्यक्तिगत चरित्र को दो पृथक तत्व मानते हैं । यह कुछ-कुछ उसी तरह है जैसे पाकिस्तानी नेताओं द्वारा पृथक किये गये अच्छे आतंकवादी और बुरे आतंकवादी । जैसे भारत दोनों तरह के आतंकवादियों में भेद करना नहीं सीख पाया उसी तरह मैं भी दोनों चरित्रों में भेद की सीमा को आज तक नहीं समझ पाया । जब हम व्यक्तिगत चरित्र को राष्ट्रीय चरित्र से पृथक करते हैं तो हम बड़ी धूर्तता से भ्रष्टाचार और अधिनायकवाद को संरक्षित कर रहे होते हैं । हम आज तक यह नहीं समझ सके कि राष्ट्रवाद और हिंदुत्व की हुंकार भरने वाला कोई व्यक्ति भ्रष्ट आचरण के साथ अपने राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण किस तरह करता है ? तथाकथित पवित्र संस्थायें जब तक राष्ट्रीय और व्यक्तिगत चरित्र में भेद करने के मोह का परित्याग नहीं करेंगी तब तक राष्ट्र, समाज, सनातनधर्म और ईश्वरीय सत्ता के प्रति उनकी निष्ठा संदिग्ध ही बनी रहेगी । यह व्यक्ति ही है जो राष्ट्रीय चरित्र की इकाई का निर्माण करता है । हमने इस सत्य को विस्मृत कर दिया है जिसके परिणामस्वरूप विचार और आचरण के मध्य की दूरी कम होने के स्थान पर निरंतर बढ़ती ही जा रही है । दुर्भागय से इस दूरी को समाप्त करने के कोई प्रयास भी किसी स्तर पर होते दिखायी नहीं देते ।
क्या यह बताने की आवश्यकता है कि कोई भी आदर्श तब तक अर्थहीन है जब तक कि उसे आचरण में अनूदित नहीं किया जाता । दुर्भाग्य से हम सब अतीत की महानता में आत्ममुग्ध हैं और पाखण्ड को ही कर्मयोग मान बैठे हैं । भारतीय समाज की इस दुर्बलता को हमें स्वीकार करना होगा तभी हम इसे दूर करने की दिशा में सोच सकेंगे । समाज के लिये ब्राह्मणों की भूमिका निभाने वाले प्रशासनिक सेवाओं के अधिकारियों और संतों को भी अपने राष्ट्रीय और सामाजिक दायित्वों को पहचानना होगा ।  
एक बात और... मार्क्सवादियों की तरह पवित्र संस्थाओं के लोग भी आलोचना के प्रति प्रायः उग्रता की सीमा तक असहिष्णु हो उठते हैं । इसे मैं वैचारिक शून्यता पर हिंसा के प्रभुत्व की उद्घोषणा के रूप में स्वीकार करता हूँ जो राष्ट्र के अस्तित्व के लिए गम्भीर संकट का एक स्पष्ट संकेत है । मुझे लगता है कि अब हमें क्रिटिक के प्रति सहिष्णु किंतु भ्रष्टाचार और पाखण्ड के प्रति इसी क्षण से असहिष्णु होने की आवश्यकता है ।   

रविवार, 9 अप्रैल 2017

Decolonizing the Indian Civil Services

The civil services entrance exam is dominated by the ideas of the breaking India forces. This has not been exposed despite so many loud discussions about decolonizing the Indian mind. My talk gives concrete examples from the biased syllabus, to the pseudo-intellectuals whose writings are being taught as authoritative, to the coaching schools that bring their own radical biases.