सोमवार, 22 मई 2017

क्या हम एक गृहयुद्ध का सामना कर रहे हैं ?



उम्मीद है कि युद्ध की एफ़.आई.आर. दर्ज़ होगी...  

     जम्मू-कश्मीर में भारत विरोधी नारों के साथ पाकिस्तानी ध्वजारोहण और पाकिस्तान का राष्ट्रगीत गाया जाना और सेना पर पत्थर बरसाना अब एक आम बात हो गयी है । अब इन घटनाओं पर कोई चौंकता नहीं, कोई आक्रोशित नहीं होता । पुलवामा में हुये क्रिकेट में यही सब फिर दोहराया गया । क्रिकेट स्टेडियम में पाकिस्तानी राष्ट्रगीत गाया गया, भारत विरोधी और पाकिस्तान समर्थक नारे लगाये गये साथ में आतंकवादियों को महिमामण्डित करने वाले पोस्टर भी लगाये गये । सम्प्रभुतासम्पन्न देश भारत की विवश जनता और निरीह सरकार इन सब घटनाओं की अभ्यस्त हो चुकी है । 

     ख़बर है कि इस घटना पर थाने में एक रिपोर्ट दर्ज़ की गयी है । दुर्भाग्य से भविष्य में यदि कभी चीन या पाकिस्तान की ओर से भारत पर आक्रमण किया गया तो हम उम्मीद करते हैं कि सीमावर्ती किसी थाने में एक प्राथमिकी ज़रूर दर्ज़ कर ली जायेगी ।

     क्या हम एक चिंतनशून्य और विचारशून्य देश के महान नागरिक हैं...  

     जब नागरिक अपने ही देश की सेना पर पत्थर बरसाये और सेना विवश हो जाये, जब किशोर और किशोरियाँ पुलिस पर आक्रमण कर दें और सरकार दण्डविधान को शून्य मान कर किसी खोह में दुबक जाये, जब भारत की राजधानी और विभिन्न शहरों में शत्रुदेश के समर्थन में और भारत के विरोध में नारे लगाये जायें, जब भारत की धरती पर पाकिस्तान के झण्डे लहराते हुये भारत के झण्डे जलाये जायें, जब प्रांतीय विधानसभाओं और राष्ट्रीय संसद के प्रतिनिधि भारत विरोधी बहस में भाषा और सभ्यता की सारी मर्यादायें लाँघ जाते हों, जब कोई भारतीय सांसद शत्रुदेश पाकिस्तान के लोगों से भारतीय प्रधानमंत्री को अपदस्थ करने का सहयोग माँगता हो, जब भारतीय विश्वविद्यालयों के प्रोफ़ेसर्स और अध्येता आतंकवाद के समर्थन में आन्दोलनरत होने लगें....और यह सब वर्षों से निरंतर होता आ रहा हो तो यह सिद्ध माना जाना चाहिये कि भारत एक सम्प्रभुतासम्पन्न देश नहीं बल्कि एक भीरु देश है जो अधिक समय तक अपने अस्तित्व को बचा कर रख सकने में सक्षम नहीं है ।

गुरुवार, 4 मई 2017

कुछ क्षणिकायें

भारत 

ढूँढता है रूप अपना 
देखा कभी दर्पण में था 
विद्रूप इतना हो गया
सपने में भी सोचा न था. 

इंडिया

जहाँ सूर्य की प्रथम किरण
देती थी पहला सन्देश 
ठहर गया अब वहाँ अन्धेरा 
यही "इंडिया " का संदश .

हिन्दुस्थान 

कौन आ कर बस गए ये 
आज हिन्दुस्थान में
खोजता हूँ हिन्दुओं को 
आज हिन्दुस्थान में.

मूल्य 

राज को तज चल दिए वन 
राम, "मूल्यों" के लिए 
अब "मूल्य" को ही तज रहे सब 
राज पाने का लिए.





भारत माता

देश अनेकों हैं जग में पर , "माँ" का गौरव भारत पाता
होगी टेम्स "नदी" कोई पर , मेरी तो है गंगा  "माता"।

सुर-मुनि-ज्ञानी नित कर वंदन , गायें निस दिन ज्ञान की गीता
ज्ञान भी देती, बल भी देती, बोलो जय-जय-जय गौ माता।

कण-कण में है तू बहती बन, शक्ति-प्रेम-करुणा की सरिता
सत्य सृजन है, शिव सुन्दर है, अनुपम तेरा गौरव माता।

रक्तपात जो भी रुकवा दे, गौतम-अशोक वो बन जाता
रक्त बहा दे दुनिया में जो , डायर-ओसामा कहलाता।

बुधवार, 3 मई 2017

नयी पुस्तक - प्रतिध्वनि

यह प्रतिध्वनि है उन समसामयिक घटनाओं की जो प्रायः अनसुनी रह जाती है । आज के भारत पर तीक्ष्ण दृष्टि और घटनाओं का विश्लेषण । इसमें उस इतिहास को सहेजने का प्रयास किया गया है जो महत्वपूर्ण होते हुये भी शीघ्र ही विस्मृत कर दिया जाता है । भविष्य के निर्माण के लिए हमें अपने पदचिन्हों का विश्लेषण करना ही होगा ।

मंगलवार, 2 मई 2017

कम्युनिज़्म, सामाजिक समानता और परिवार...



कम्युनिज़्म में सामाजिक समानता के मार्ग में परिवार को एक अवरोधक संस्था के रूप में देखा जाता रहा है । कार्ल मार्क्स पूँजीवाद को समाप्त करने के लिए परिवारवाद और परिवारवाद को समाप्त करने के लिये परिवार को भंग या समाप्त कर देना ही एकमात्र विकल्प मानते हैं ।
यहाँ पूँजी और पूँजीवाद तथा परिवार और परिवारवाद की अवधारणाओं के मध्य एक विभाजक रेखा खींचना आवश्यक है, यदि हम ऐसा नहीं करते तो यह अवधारणाओं का अतिवाद होगा । हम पूँजी के महत्व और उसकी आवश्यकता को नकार नहीं सकते, ठीक यही बात परिवार के लिये भी है । भारतीय आचार संहिता के अनुसार पूँजी या परिवार के हितों के लिये सारी मर्यादाओं का उल्लंघन कर देना ही पूँजीवाद और परिवारवाद है । मार्क्स और फ़ूरियर पूँजीवाद और परिवारवाद जैसी सामाजिक विकृतियों को समाप्त करने के लिए परिवार को एक संस्था के रूप में समाप्त कर देना चाहते हैं । यह उसी तरह है जैसे ट्रेन से होने वाली दुर्घटनाओं से मुक्ति के लिए ट्रेन को समाप्त कर देने का एकमात्र विकल्प स्वीकार करना । मार्क्स और एंजेल्स ने परिवार की अवधारणा पर अपने चिंतन में इस संस्था के विरुद्ध destruction, dissolution एवं abolition जैसे शब्दों का प्रयोग किया है ।
सम्पत्ति और परिवार पर पूरे समाज के समान अधिकार की अवधारणा एक अव्यावहारिक कल्पना है, कम्युनिस्ट सत्ताओं के पतन का मुख्य कारण उनकी यही अव्यावहारिक अवधारणा रही है । इसका एक उदाहरण भारत में भी मिलता है, एक बार वज्जीसंघ के अष्टकुल राजाओं के स्वच्छन्दताप्रिय राजकुमारों ने सुंदरता पर पुरुष के अधिकार  को लेकर बहुमत के आधार पर समानाधिकार के एक नियम को पारित करवा लिया जिसके बाद वज्जीसंघ की सुंदर लड़कियों पर किसी एक पुरुष का नहीं बल्कि पूरे वज्जीसंघ के हर व्यक्ति का समानाधिकार माना गया । इससे सुंदर लड़कियों की वैयक्तिक स्वतंत्रता समाप्त हो गयी और वे नगरवधू बन कर रह गयीं । इस तरह की निरंकुशता विनाशकारी परिणाम ही दे सकती है । कुछ भी व्यक्तिगत नहीं, न सम्पत्ति, न पत्नी, न बच्चे और न दायित्व... निश्चित् ही यह एक अराजकता और अव्यवस्था को जन्म देने वाली स्थिति है ।  
सम्पत्ति और परिवार के प्रति वैयक्तिक प्रेम ही हमें जीवन में सक्रिय और सजग बनाकर रखता है । स्वामित्व के अधिकार के साथ उत्तरदायित्व का एक बोध अनिवार्यरूप से जुड़ा हुआ है । यह बोध सार्वजनिक सम्पत्तियों और परिवारविहीन समाज के प्रति उतनी तीव्रता और गम्भीरता से नहीं हुआ करता । भले ही हम इसे मानवीय चरित्र के एक दुर्बल पक्ष के रूप में स्वीकार करें और इसकी निन्दा करें किंतु यह एक व्यावहारिक सत्य है जिसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती । रूसी कम्यून की असफलता का मूल कारण इसी उत्तरदायित्वहीनता में छिपा है । निश्चित् ही पूँजीवाद और परिवारवाद समाज के लिए हानिकारक और शोषक व्यवस्थायें हैं, इन्हें उत्पन्न न होने देने के लिए हमें सजग रहने की आवश्यकता है किंतु यह सजगता भी सबके हिस्से में समान नहीं हुआ करती । जिन्हें सजग रहने की आवश्यकता है वही सर्वहारा वर्ग स्वयं उतनी गम्भीरता के साथ सजग नहीं रहता जिसका परिणाम होता है पूँजीवाद और परिवारवाद । जब सब टैक्स देंगे तो हम भी दे देंगे, जो सबका होगा वही हमारा भी होगा, जब सब मरेंगे तो हम भी मर जायेंगे ... समूह के साथ स्वयं को इस तरह जोड़ कर देखने की निर्भरता ही पूँजीवाद और परिवारवाद का पोषक तत्व है । कई बार तो सर्वहारा वर्ग स्वयं ही पूँजीवाद और परिवारवाद का संसाधन बनने में अपनी निजी संतुष्टि का अनुभव करता है । भारत के राजनीतिक घरानों में जनता की अन्धभक्ति से सुस्थापित हो चुका वंशवाद इसका ताजा उदाहरण है । नेहरूवंश, लालूवंश और मुलायमवंश आदि की कहानियाँ हम सबके सामने हैं ।  
Friedrich Engels और Karl Marx ने अपने समय में योरोपीय समाज के जिस पारिवारिक स्वरूप को देखा उसमें उन्हें दो मुख्य आपत्तियाँ थीं । पहली तो यह कि परिवार ही शोषण और पूँजीवादी परम्परा के वाहक होते हैं । लोग अपने परिवार के सदस्यों के लिये धन संचय करने के लोभ में अत्याचारी होते चले जाते हैं । इसके समाधान के लिए कम्युनिज़्म में परिवार और विवाह को समाप्त कर दिये जाने की वकालत की गयी है । धन-संचय के कारणों में परिवार के लिये मोह होना मनुष्य की दुर्बलताओं में से एक है, एक सीमा तक यह सच भी है किंतु हमने तो कई निःसंतान दंपतियों को भी धनलिप्सा में बुरी तरह जकड़े हुये पाया है जबकि कई परिवार वाले लोगों को निर्धनों के प्रति बहुत उदार देखा है । हमें नहीं लगता कि विवाह और परिवार को समाप्त कर दिया जाना शोषण की समस्या का कोई समाधान हो सकता है । दूसरे, इन लोगों ने विवाह को समाप्त कर दिये जाने की वकालत के समय इसके नकारात्मक परिणामों पर चिंतन करना आवश्यक नहीं समझा । हमें प्रतिलोम दिशा में जाते हुये समाज की उस आदिम स्थिति के बारे में भी सोचना चाहिये जब विवाह को आवश्यक मानते हुये एक सामाजिक संस्था का स्वरूप प्रदान किया गया था । 
भारतीय समाज व्यवस्था में वानप्रस्थ आश्रम समाज सेवा के लिए समर्पित है । यज्ञादि कई अनुष्ठानों में धन-सम्पत्ति दान करने की परम्परायें संचित धन के वितरण एवं वंचित सुपात्रों तक पहुँचाने के लिए प्रचलित थीं । कुएं, बावड़ी, धर्मशाले, वृक्षारोपण आदि लोकहित के कार्यों को समाज में प्रशंसा की दृष्टि से देखा जाता था । गुरुकुलों एवं आश्रमों की व्यवस्था समाज द्वारा प्राप्त दान से ही की जाती थी । योरोप में राजाओं को छोड़कर, श्रेष्ठियों एवं आमजनता द्वारा इस तरह के लोकहित के कार्यों को किये जाने की परम्परा ही नहीं थी । शोषण रोकने के लिए धार्मिक चेतना एवं सामाजिक-नैतिक मूल्यों की भी प्रमुख भूमिका होती है जिनकी प्राचीन भारत में दीर्घकालिक परम्परा मिलती है ।       

मार्क्स और एंजेल्स की दूसरी आपत्ति यह थी कि परिवार में प्रायः एक पत्नी विवाह की परम्परा होती है जो कि मनुष्य की कामपिपासा के लिये वैरोधिक एवं एक बन्धनकारी व्यवस्था है, यह मनुष्य स्वभाव के प्रतिकूल भी है । फ़्रेडरिक एंजेल्स और कार्ल मार्क्स की परम्परा के अनुयायी Charles Fourier ने तो स्पष्ट कहा है “Monogamy is an impediment to human happiness.” इस मान्यता के कारण कम्युनिस्ट शासन व्यवस्था में परिवार के एक खुले स्वरूप की कल्पना को प्रशस्त माना गया है जिसमें स्वच्छन्द यौन सम्बंधों की वकालत की गयी है । शायद इसीलिए पश्चिमी देशों में उद्दाम काम संतुष्टि के लिए स्वच्छन्द यौन सम्बन्धों की सीमा समलैंगिक यौन सम्बन्धों तक विस्तृत है । भारतीय परिवेश की सामाजिक परम्पराओं के प्रतिकूल जेनुयायी परम्परा में चार्ल्स फ़ूरियर जैसों को आदर्श माना गया है । भारत में जे.एन.यू. को एक ऐसी कार्यशाला में विकसित किया गया है जिसमें हेगल, एंजेल्स, मार्क्स, जॉर्ज ल्यूकेक्स, शॉपेनहॉर, चार्ल्स फ़ूरियर, लेनिन और स्टालिन आदि कम्युनिस्ट विचारकों के विचारों की खिचड़ी पकायी जाती है ।
अब तनिक फ़ूरियर और शॉपेनहॉर आदि के अनुरूप परिवारविहीन किसी विराट समाज की कल्पना कीजिये । ऐसे किसी मुक्त समाज में स्त्री और पुरुष क्या इतना स्वच्छन्द यौन जीवन जी सकेंगे ? यौन सम्बन्धों को लेकर जब पशु भी वैयक्तिक हो कर युद्ध के लिये तैयार हो जाते हैं तो क्या मनुष्यों की भीड़ इतनी आत्मनियंत्रित और संयमित रह सकेगी ?
भारत की उच्च शिक्षित नयी पीढ़ी को स्वच्छन्दयौनाचरण की कम्यून अवधारणा ने बहुत आकर्षित किया है । उच्च शिक्षा संस्थाओं के कई विद्वान शिक्षक व छात्र-छात्रायें इस सिद्धांत को अपने जीवन का आदर्श मानने लगे हैं और भारत की सरकार भी इस आदर्श के साथ केवल सुरक्षित यौन सम्बन्ध बनाने का परामर्श देती है । दिल्ली में तो युवा छात्र-छात्राओं को फ़्री कण्डोम वितरण के लिए सरकार द्वारा व्यवस्था भी की गयी है ।
उधर इज़्रेल जैसे कई देश के लोगों को लगता है कि भारत में परिवार और विवाह की संस्थायें एक आदर्श समाज व्यवस्था की प्रतीक हैं । आधुनिक किशोर और युवा पीढ़ी से हमारा एक ही अनुरोध है कि वे कम्युनिज़्म में अपना विश्वास दृढ़ करने से पूर्व एक बार मनोवैज्ञानिक, सामाजिक और राजनीतिक दृष्टियों से उनके सिद्धांतों का निष्पक्ष विश्लेषण अवश्य कर लें ।