मंगलवार, 3 अक्तूबर 2017

देवी-देवताओं की मूर्तियाँ क्या हमारी जड़ता की प्रतीक हैं...





असीम की सीमा का यह कैसा प्रगतिवादी प्रश्न ?  


भारत ही नहीं, कुछ देशों को छोड़कर दुनिया भर के देशों में अपनी आस्था और मूल्यों के लिए प्रतीकों के निर्माण की और उनकी पूजा की परम्पराएं रही हैं । परम्परा और परिमार्जन दो परस्पर विरोधी तत्व हैं जो कई टकराहटों को जन्म देते हैं और जिनके कारण समय-समय पर दुनिया भर में मूर्ति पूजाओं का विरोध होता रहा है ।   
मूर्तियों के धार्मिक और व्यावसायिक महत्व को छोड़ दें तो भी मनुष्य जीवन के लिए उनका भावनात्मक, कलात्मक और मनोवैज्ञानिक महत्व रहेगा ही । थोड़ी देर के लिए हम देवी-देवता की मूर्ति को एक आकृति मात्र मान लें और आकृतियों के हमारे जीवन के लिए महत्व पर चिंतन करें तो स्पष्ट हो जायेगा कि यह एक अभिव्यक्ति से अधिक और कुछ भी नहीं है । अभिव्यक्ति को समाप्त नहीं किया जा सकता, उसके स्वरूप भिन्न-भिन्न हो सकते हैं, वह मूर्ति न होकर गीत-संगीत हो सकती है, ड्रामा-नौटंकी हो सकती है, पेंटिंग हो सकती है, कोई इमारत हो सकती है, कोई पुस्तक हो सकती है, .... कुछ भी हो सकती है, यहाँ तक कि ट्रम्प की हुंकार और किमजोंग का हाइड्रोजन बम भी हो सकती है ।
सिन्धुघाटी, मिस्र, अरब और ग्रीस आदि की प्राचीन सभ्यताओं में भी अभिव्यक्तियों ने मूर्तियों, चित्रों, खेलों, नाटकों आदि के रूप धारण किए हैं । यह अभिव्यक्ति ही है जो ध्वनि, बोली, भाषा और अंत में लिपि के रूप में मूर्तमान होती है । आकृतियाँ तो रहेंगी, बनती रहेंगी, बिगड़ती रहेंगी । वे देवी-देवताओं की मूर्ति के रूप में हो सकती हैं, मनुष्य की अपनी ही प्रतिकृति के रूप में हो सकती हैं, मोनालिसा की मूर्ति हो सकती है, यहाँ तक कि मैडम तुसाद के म्यूज़ियम में अमिताभ बच्चन के रूप में या फिर लखनऊ के पार्कों में मायावती की आदमकद मूर्तियों और उनके हाथियों के रूप में भी हो सकती हैं ।
देवी-देवताओं की मूर्तियों के निर्माण और उनके व्यापार को लेकर एक बचकाना सा प्रगतिवादी व्यंग्य किया जाता है, जिसने मनुष्य को बनाया क्या मनुष्य उसे बना सकता है ? असीम की सीमा का यह कैसा प्रगतिवादी प्रश्न ?      


यह एक बौद्धिक प्रश्न नहीं हो सकता । प्रथमतः, भौतिक द्रव्य से निर्मित देवी-देवताओं की मूर्तियाँ ही भगवान या ईश्वर हैं, ऐसा किसी भी भारतीय दर्शन में उल्लेख नहीं किया गया है । भारतीय दर्शन तो परम सत्ता को निराकार, निर्गुण, अनादि और अखण्ड मानता है ।  
मूर्त ब्रह्म का जो अंतिम कारण है वह स्वयं में किसी का कार्य कैसे हो सकता है ? यह विज्ञान सम्मत भी है और आध्यात्म सम्मत भी । लोग जो बनाते हैं वह मूर्ति है, ब्रह्म नहीं । निराकार और निर्गुण को कौन बना सकता है ? यदि हम किसी कलाकार की बनायी मूर्ति को भगवान, ईश्वर या ब्रह्म मानने लगें तो हमारा दोष है, मूर्तिकार का नहीं ।

6 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन 94वीं पुण्यतिथि : कादम्बिनी गांगुली और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

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  2. कुछ सवाल ऐसे होते है जिसका जवाब हर व्यक्ति के लिये अलग हो सकता है. सुंदर आलेख. बधाई स्वीकार करें.

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    1. धन्यवाद !
      निश्चित ही, यह इस पर निर्भर करता है कि कोई व्यक्ति अपनी चेतना के किस स्तर पर किसी उत्तर को स्वीकार कर पाने की स्थिति में है । यह तो जन्म-जन्मांतर की यात्रा है, पता नहीं हम सब अपने-अपने किस पड़ाव पर हैं ।

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  3. शरीर जड़ है किन्तु उसमें चेतन आत्मा का वास है, पौधों में भी चेतना है, इसी तरह हर जड़ वस्तु में किसी न किसी अंश में मूल तत्व विद्यमान है. मूर्ति के अंदर पहले प्राण प्रतिष्ठा की जाती है अर्थात उस तत्व को जागृत किया जाता है, यहाँ भावना की ही प्रधानता है.

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    1. ईश्वर के प्रति हमारी अवधारणा या तो वैज्ञानिक है या फिर आस्थाजन्य । विवाद तब होता है जब हम ईश्वर को एक चमत्कारी व्यक्ति जैसा कुछ मानने लगते हैं । जो ईश्वर को नहीं मानते वे वास्तव में विज्ञान को नहीं जानते । बीच में एक तत्व और है - पाखण्ड... जो इन दोनों के मध्य एक अपारदर्शी दीवाल सा खड़ा है ।

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टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.