tag:blogger.com,1999:blog-8311087627766487257.post1855469898918188653..comments2023-10-24T13:31:43.875+05:30Comments on बस्तर की अभिव्यक्ति -जैसे कोई झरना....: मंथन जो अपरिहार्य हो गया हैबस्तर की अभिव्यक्ति जैसे कोई झरनाhttp://www.blogger.com/profile/11751508655295186269noreply@blogger.comBlogger11125tag:blogger.com,1999:blog-8311087627766487257.post-6887768084312930342011-05-02T07:17:27.429+05:302011-05-02T07:17:27.429+05:30सब जानते हैं कि एक छुरा सब्जी काटने से ले कर किसी ...सब जानते हैं कि एक छुरा सब्जी काटने से ले कर किसी पशु, और किसी मनुष्य को भी, काटने में उपयोग में लाया जा सकता है,,, किन्तु 'आधुनिक' मानव के मस्तिष्क में विचार आ जाता है 'सही' और 'गलत' का,,,यानि वनस्पति और 'निम्न स्तर' के प्राणीयों को काटना गलत नहीं है, किन्तु मनुष्य की हत्या कानूनन वर्जित है,,,जबकि कुछ जीव हत्या को ही सही नहीं बताते,,, और आज तो हम पशोपेश में पड़ गए हैं जब बाघों की संख्या बहुत कम रह गयी हैं, और अब प्रतीत होने लगा है कि हमारे पूर्वजों ने सही कहा था कि 'मानव गलतियों का पुतला है',,, कठपुतलियों के सन्दर्भ में यह संकेत हो सकता है कि मानव को केवल एक निमित्त मात्र जाना गया था, 'मिटटी का एक पुतला जिसकी डोर किसी अदृश्य जीव के हाथ में है!!!<br /><br /><br /><br />(,,,और इसी प्रकार हम अन्य वस्तुओं को भी देखें तो कह सकते हैं कि हरेक के कई धर्म हैं, कई उपयोग हैं, मानव के भी, हर एक व्यक्ति के जो श्रंखला बद्ध तरीके से अन्य वस्तु और प्राणीयों पर निर्भर हैं),,, <br /><br /><br /><br />अर्जुन को कृष्ण द्वारा 'निमित्त मात्र' कहते दिखाया है हमारे पूर्वजों ने - एक माध्यम, ईश्वर के अपने निजी उद्देश्य के लिए बने जो हमारी पहुँच के बाहर हैं,,, और प्राचीन ज्ञानियों ने मानव को ब्रह्माण्ड का मॉडेल जाना, यानि एक अनंत शून्य का जो गुब्बारे की तरह बढ़ता ही जा रहा है काल के साथ,,, जबकि अन्य साकार सभी अस्थायी हैं (आत्माएं, जो रूप बदल रही हैं,,, शून्य से आरंभ कर शून्य में विलीन हो केवल मानव की शिक्षा हेतु ?) ...JChttps://www.blogger.com/profile/05374795168555108039noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-8311087627766487257.post-60168394232931814432011-05-01T17:24:37.856+05:302011-05-01T17:24:37.856+05:30पांडे जी ! बस्तर के जंगल में स्वागत है आपका....
...पांडे जी ! बस्तर के जंगल में स्वागत है आपका.... <br /><br />क्यों खुद को ही रोज छले रे!<br />तू है कौन कौन हैं तेरे।<br /><br />आपने तो इन पंक्तियों से चार-चाँद लगा दिए इस लेख में ...बहुत-बहत धन्यवादबस्तर की अभिव्यक्ति जैसे कोई झरनाhttps://www.blogger.com/profile/11751508655295186269noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-8311087627766487257.post-81831645986030326122011-05-01T15:22:23.393+05:302011-05-01T15:22:23.393+05:30अनंताकाश में टिमटिमाते खगोलीय पिंडों का अभिभूत कर ...अनंताकाश में टिमटिमाते खगोलीय पिंडों का अभिभूत कर देने वाला दृश्य, पृथिवी पर फैले विशाल समुद्रों का आश्चर्यकारी सौन्दर्य, हिमाच्छादित उत्तुंग पर्वत शिखरों की दिव्यता, हरे-भरे पेड़-पौधे, रंग-बिरंगे पुष्प, उड़ती हुयी रंगीन तितलियाँ, उछल-कूद करता गाय का छौना और वर्षा ऋतु की रातों में झींगुरों के संगीत में होने वाले ईश्वर के दिव्य गुणगान के पश्चात् अब और क्या है जिसके लिए मनुष्य विकल हो गिरता-पड़ता...लहू-लुहान होता भागा चला जा रहा है ?<br />....मंत्र मुग्ध कर देने वाली लेखन शैली है आपकी। आनंद आ गया पढ़कर। कभी एक गीत लिखा था...<br /><br />तू है कौन कौन हैं तेरे।<br /><br />ताल-तलैया पी कर जागा<br />नदी मिली सागर भी मांगा<br />इतनी प्यास कहाँ से पाई<br />हिम से क्यों मरूथल तक भागा<br /><br />क्यों खुद को ही रोज छले रे!<br />तू है कौन कौन हैं तेरे।देवेन्द्र पाण्डेयhttps://www.blogger.com/profile/07466843806711544757noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-8311087627766487257.post-83427782305975248482011-04-30T00:31:04.247+05:302011-04-30T00:31:04.247+05:30डॉक्टर साहब!! आज तो दर्शन की अमृत वर्षा कर दी आपने...डॉक्टर साहब!! आज तो दर्शन की अमृत वर्षा कर दी आपने..चला बिहारी ब्लॉगर बननेhttps://www.blogger.com/profile/05849469885059634620noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-8311087627766487257.post-65138768271354756322011-04-29T21:47:18.269+05:302011-04-29T21:47:18.269+05:30@ आशुतोष जी
आपने कहा, "... योगी की तरह सोचने...@ आशुतोष जी <br />आपने कहा, "... योगी की तरह सोचने के लिए या तो समाज में परिस्थितियां हो या तो हम जंगल चले जाएँ.<br />वर्तमान परिस्थिति में यही लगता है..." <br /> <br />वैसे देखा जाए तो हम आज कंक्रीट के जंगल में तो निवास कर ही रहे हैं और आदि-मानव समान अपनी अपनी 'गुफा' में अधिक समय व्यतीत करते हैं, वो भले ही हमारा निवास-स्थान हो अथवा कार्यालय !!!<br /><br />इसीलिए मेरा मानना है कि सबसे पहले हमें भागवद गीता अवश्य पढनी चाहिए, क्यूंकि हम 'योगी' शब्द से अपने मन में एक धारणा बना लेते हैं एक जोगिया वस्त्र धारी जटा-जूट वाले अनपढ़ व्यक्ति की जिसकी उपस्तिथि का आभास हमें आज उनके अर्ध-कुम्भ अथवा कुम्भ मेले में (६ अथवा १२ वर्ष में एक बार) गंगा स्नान के समय ही मीडिया द्वारा कराई जाती है,,, जबकि दूसरी ओर हमें यह भी पता है कि प्राचीन 'हिन्दू' पहुंचे हुए खगोलशास्त्री, अथवा 'सिद्धि' प्राप्त पहुंचे हुए व्यक्तित्व के थे, जहां पहुंचना हरेक के जीवन का उद्देश्य भी माना जाता था - कठिन तपस्या कर सिद्धि प्राप्त करना (केवल एक विषय में ही नहीं, जैसा वर्तमान में, कलियुग में, चलन है और हर कोई अपनी अपनी तूती बजा रहा है, नक्कार खाने में! )...कुम्भ मेले में गंगा के घाट में एकत्र हो चारों दिशा से आये योगी सत्य पर चर्चा करते थे, और शास्त्रार्थ में विजयी योगी को सुन, फिर वापिस लौट ज्ञान का प्रचार अपने अपने क्षेत्रों में करते थे...आम आदमी कि सुविधा को ध्यान में रख... <br /> और इस प्रकार प्राचीन भारत में आम व्यक्ति के जीवन काल को चार अवस्थाओं में विभाजित किया गया था, जिसमें 'सन्यास आश्रम' चौथी और अंतिम अवस्था थी जब व्यक्ति से अपेक्षित था कि वो ("सत्यम शिवम् सुंदरम" वाले) 'सत्य' को जानने का प्रयास करे मोक्ष प्राप्ति हेतु... इस अवस्था तक पहुँचते पहुँचते आम आदमी भौतिक संसार का सम्पूर्ण दृष्टिकोण से अनुभव प्राप्त कर परिपक्व हो चुका होता था और इस कारण मन को आरंभ में एकांत में साधने के लिए, तपस्या कर, तैयार था - जिसकी एक झलक शायद हमें आज भी मिलती है 'जंगली' घोड़ों और हाथियों को परंपरागत तरीके से साधते चले आने से...JChttps://www.blogger.com/profile/05374795168555108039noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-8311087627766487257.post-5319347274907542202011-04-29T20:17:27.874+05:302011-04-29T20:17:27.874+05:30कौशल भाई योगी की तरह सोचने के लिए या तो समाज में प...कौशल भाई योगी की तरह सोचने के लिए या तो समाज में परिस्थितियां हो या तो हम जंगल चले जाएँ.<br />वर्तमान परिस्थिति में यही लगता है..<br />............<br />योगी राष्ट्र का संचालन नहीं कर सकता. इसलिए सभी योगी नहीं होते . किसी की इच्छाएं प्रबल होती हैं......प्रबल और दुर्दांत ....वह भी वशीकरण जानता है. वह वश में कर सकता है समाज को ....शक्ति को ....धन को ...सत्ता को ....क्योंकि वह वस्तुतः योगी नहीं "जोगी" होता है (छत्तीसगढ़ के विशेष सन्दर्भ में लिया जाय )......और जोगी पाखंडी होता है, केवल पाखंडी. क्योंकि वह उदारता और सहिष्णुता, करुणा और उपकार , न्यायप्रियता और कर्मठता आदि का अभिनय करने में कुशल होता है.<br />...............<br />ये योगी जब समाज को दिशा देने होती है उसी बिंदु पर "जोगी" बन जाते है..जैसा की आप ने कहा भी इसका समाधान सनातन धर्म में है जिसे हमारी गुलाम मानसिकता बर्दास्त नहीं कर प् रही और सेकुलर जमात में हम अपना नाम लिखाने के लिए पगलाए जा रहें हैं...आशुतोष की कलमhttps://www.blogger.com/profile/05182428076588668769noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-8311087627766487257.post-57233136290705375982011-04-29T18:56:24.255+05:302011-04-29T18:56:24.255+05:30हम यदि अपने भूत पर दृष्टिपात करें तो पाएंगे कि जब ...हम यदि अपने भूत पर दृष्टिपात करें तो पाएंगे कि जब भारत स्वतंत्र हुआ तब हिंदी को राष्ट्र भाषा का दर्जा मिला,,, किन्तु संभवतः इसे प्राकृतिक ही कह सकते हैं कि अंग्रेजी सम्पूर्ण विश्व की भाषा बन जाने के कारण भारत में भी इसे पहला दर्जा मिलता चला आ रहा है, हम इसे भले ही अंग्रेजों की गुलामी कह लें (और हमको तो गुलामी की आदत सी होना स्वाभाविक है, भारत में तो संसार में बोली जाने वाई सब भाषाएँ का कहीं न कहीं उपयोग होता चला आ रहा है क्यूंकि हमने सभी को अपनाया था, और इस पर हमें गर्व भी है !) ,,,<br /><br />किन्तु यह भी सत्य है कि भाषा केवल एक माध्यम है, अपने हृदय के उद्गारों को दूसरों के सम्मुख प्रस्तुत करने का...और अच्छी भाषा सुनने में करीने से सजाई गयी भोजन की थाली समान अवश्य सुंदर लगती है, इसमें दूसरी राय नहीं हो सकती...किन्तु जैसे भोजन का केवल सुंदर दिखना ही काफी नहीं है, वैसे ही सुंदर शब्दों में ही भले कुछ शंकाओं का समाधान न हो तो आवश्यक हो जाता है, उनको किसी भी भाषा में भले ही कहा जाए, उनका निवारण करना, अपने गौरवमय इतिहास को ध्यान में रखते हुए, इस पृष्ठभूमि से कि इसमें कोई संदेह नहीं कि हमारे पूर्वज पहुंचे हुवे योगी थे ...JChttps://www.blogger.com/profile/05374795168555108039noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-8311087627766487257.post-24800102295624809942011-04-29T12:47:36.703+05:302011-04-29T12:47:36.703+05:30अनंताकाश में टिमटिमाते खगोलीय पिंडों का अभिभूत कर ...अनंताकाश में टिमटिमाते खगोलीय पिंडों का अभिभूत कर देने वाला दृश्य, पृथिवी पर फैले विशाल समुद्रों <br />का आश्चर्यकारी सौन्दर्य, हिमाच्छादित उत्तुंग पर्वत शिखरों की दिव्यता, हरे-भरे पेड़-पौधे, रंग-बिरंगे पुष्प, उड़ती हुयी रंगीन तितलियाँ, उछल-कूद करता गाय का छौना और वर्षा ऋतु की रातों में झींगुरों के संगीत में होने वाले ईश्वर के दिव्य गुणगान के पश्चात् अब और क्या है जिसके लिए मनुष्य विकल हो गिरता-पड़ता...लहू-लुहान होता भागा चला जा रहा है ? ......<br /><br />-------<br /><br />कौशलेन्द्र जी ,<br /><br />ये लेख पढ़कर तो पूरा ह्रदय इसकी खूबसूरती में गोते लगा रहा है । क्या लिखूं ...बस डूब-उतरा रही हूँ...बहुत बार पढ़ चुकी हूँ अब तक ... <br /><br />.ZEALhttps://www.blogger.com/profile/04046257625059781313noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-8311087627766487257.post-89725353265374701772011-04-29T12:17:55.410+05:302011-04-29T12:17:55.410+05:30hmmmmmmm
ek ek sahbd sach....ek ek baat shii
baba ...hmmmmmmm<br />ek ek sahbd sach....ek ek baat shii<br />baba bahut hiiii gehan bhaaw liye ..ik sarthak lekhan<br />pr baba ..aaj fir se whii baat khli<br />ki kaash meri hindii bhi mere baba ajsieee itniiiiii bdhiyaa hoti<br />baba ..aapki hindi...pe abhut hi mazbooot pakd he.......hindi to main bhi bolti hun..pr hmaari bahaasha aur aapki hindi bhasha me jameen aasmaa ka fark he<br />baba..aapko prnaaamVenuS "ज़ोया"https://www.blogger.com/profile/03536990933468056653noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-8311087627766487257.post-65605793059330509312011-04-29T07:53:40.249+05:302011-04-29T07:53:40.249+05:30योगी हर प्राणी है, और विभिन्न साकार भी!
ब्रह्माण...योगी हर प्राणी है, और विभिन्न साकार भी! <br /><br />ब्रह्माण्ड में सभी विभिन्न साकार रूप योग से ही बने हैं - शुद्ध शक्ति के एक अंश और शक्ति के ही दूसरे अंश से जो भौतिक रूप में परिवर्तित किया गया है,,, और जो अस्थायी है एक पानी के बुलबुले की समान, जो पैदा होता है और तुरंत मर भी जाता है, जबकि हिमालय सदियों से खड़ा है पृथ्वी की कोख से ही चन्द्रमा समान जन्म ले (जम्बुद्वीप के उत्तर में, शक्ति की कृपा से) और संभव है फिर से समुद्र की गोद में समां जाये जैसा अटलांटिस के बारे में भी प्रसिद्द है (विष्णु, नादबिन्दू, के वामनावतार ने राजा बलि के सर पर पैर रख उसे पाताल में पहुंचा दिया था!)...<br /><br />इसे मानव का दुर्भाग्य कह सकते हैं कि वो ईश्वर का प्रतिरूप होते हुए भी अपने जीवन काल में 'सत्य' तक नहीं पहुँच पाता, जैसे 'पहुंचे हुवे' योगी जान पाए काल की चाल सतयुग से कलियुग तक, यानि ज्ञान से अज्ञान की ओर (वर्तमान भी उनके अनुसार घोर कलियुग जाना गया) ,,, <br />और उनके बाद आने वाले 'निम्न स्तर' के योगियों अथवा जोगियों के लिए जीवन का सार अथवा सत्व, "सत्यम शिवम् सुंदरम" और "सत्यमेव जयते" बता गए - शिव ही सुंदर है और शिव ही सत्य है और वो ही अमृत है,,, <br />साकार केवल योगमाया अथवा माया के द्वारा रचा असत्य है,,, वो उपयोगी है भूतनाथ शिव के लिए, अजन्मे का अपना अनंत इतिहास पढने का प्रयास, अपने स्रोत को जानने के लिए, बार बार, अमृत से विष तक की यात्रा, अपने एक दिन यानि हमारे चार अरब वर्ष तक १०८० बार,,, और उसकी उतनी ही लम्बी रात आने पर वो थक कर सो जाता है - अगले दिन फिर से नयी खोज जारी करने हेतु !... (शायद इस में ईश्वर के प्रतिरूप मानव को संकेत है अपने आरंभिक स्रोत को जानने के लिए इसी जन्म में?)JChttps://www.blogger.com/profile/05374795168555108039noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-8311087627766487257.post-70519745221425169202011-04-29T00:00:42.899+05:302011-04-29T00:00:42.899+05:30चिर अतृप्त तृष्णा है वह, बे-अन्त निरंत!!
________...चिर अतृप्त तृष्णा है वह, बे-अन्त निरंत!!<br /><br />________________________<br /><br /> <a href="http://shrut-sugya.blogspot.com/2011/04/blog-post_28.html" rel="nofollow">सुज्ञ: ईश्वर हमारे काम नहीं करता…</a>सुज्ञhttps://www.blogger.com/profile/04048005064130736717noreply@blogger.com