शनिवार, 1 नवंबर 2025

भीड़ और पहचान

“पूर्वी चम्पारण से आल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल-मुस्लिमीन के प्रत्याशी राणा रणजीत सिंह विधानसभा चुनाव लड़ रहे हैं । सिर पर गोल टोपी, माथे पर तिलक और हाथ में कलावा बाँधकर जय श्रीराम, जय बजरंगबली और आई लव मोहम्मद का नारा लगाने वाले राणा जातिवाद को कैंसर मानते हैं, जिसे वे समाप्त करना चाहते हैं । मोहनदास और भीमराव को अपना आदर्श मानने वाले राणा जी सामाजिक दूरियाँ मिटाने चाहते हैं” ।

परी कथायें बच्चों को आकर्षित करती हैं, बच्चे जब बड़े हो जाते हैं तब उन्हें परीकथाओं की कथा समझ में आ जाती है । धार्मिक सौहार्द्य, भाईचारा, आत्मशासित समाज, सीमाविहीन देश, शोषणमुक्त समाज, श्रम और पूँजी में सामंजस्य …जैसे आदर्शों को लेकर विश्व भर में चर्चायें होती रही हैं जिनका हमारे सामने एक यूटोपियन इतिहास है । यूरोप और एशिया के साम्यवादी देशों में भी इस तरह की चर्चायें हुयीं पर धरातल पर कुछ विशेष दिखायी नहीं दिया । कहीं-कहीं “नो रिलीजन” अस्तित्व में है, पर हम उसे भी ‘भीड़’ नहीं मान सकते । रिलीजन को लेकर मोहनदास के विचारों और परस्पर विरोधाभासी चरित्र को हम देख चुके हैं । तमिलनाडु, केरल और प.बंगाल आदि राज्यों के साम्यवादियों के चरित्र को भी हम देख चुके हैं, देख रहे हैं ..। 

जाति को कैंसर मानने वालों की कमी नहीं है, लोग जातिव्यवस्था पर वैचारिक प्रहार करते रहे हैं । दूसरी ओर चुनाव में जातीय समीकरण के महत्व को कोई भी नेता अस्वीकार नहीं कर पाता । जनता भी आरक्षण के लोभ में अपनी विशिष्ट जातीय पहचानों को खोना नहीं चाहती । कई बार तो वे आरक्षित जाति में स्वयं को सम्मिलित करने के लिये आंदोलन भी करते रहे हैं । मेरी स्मृति में आज तक एक भी आंदोलन ऐसा नहीं हुआ जिसमें अगड़ी जाति में स्वयं को सम्मिलित किये जाने की माँग रखी गयी हो । वह बात अलग है कि कोई सतनामी अपने नाम के साथ पांडेय, उपाध्याय, तोमर, भदौरिया और बघेल उपनाम धारण करके भी अनुसूचितजाति के प्रमाणपत्र का मोह छोड़ नहीं पाता । सरकारें भी अनुसूचित-जनजाति और अनुसूचित-जातियों में परिवर्तन करती रहती हैं । जातियाँ बनाती हैं सत्तायें और गालियाँ दी जाती हैं ब्राह्मणों को (यह भी बरजोरी (Obsessive compulsive political behavior) का एक सामाजिक उदाहरण है)। 

असदुद्दीन के दल में राणा रणजीत सिंह के अतिरिक्त पंडित मनमोहन झा, रविशंकर जायसवाल, विकास श्रीवास्तव, विनोद कुमार जाटव, ललिता जाटव और गीता रानी जाटव जैसे और भी कई नेता हैं । ये सभी लोग सामाजिक और धार्मिक समरसता के लिये जातिवाद और कुरीतियों को समाप्त कर, एक सेक्युलर देश की स्थापना करना चाहते हैं, …क्या लेनिन और स्टालिन की तरह, या ममता बनर्जी और लालू की तरह, या मुलायम सिंह और रौल विंची की तरह, या शेख अब्दुल्ला और महबूबा मुफ़्ती की तरह, या ...! 

विश्लेषण करके देखिये, क्या ये सभी बाहुबली राजनेता पहचान मिटाकर पहचान बनाने में विश्वास नहीं रखते, वंश मिटाकर वंश स्थापित करने के लिये संघर्षरत नहीं होते, भीड़ मिटाकर भीड़ नहीं बनाना चाहते... विरोधाभास दूर कर विरोधाभास को स्थायी नहीं करना चाहते ! ...यही है कूट चालों से किया जाने वाला सत्तासंघर्ष, हम इसे लोकहितकारी राजनीति स्वीकार नहीं कर सकते । 

व्यक्तियों और समुदायों की विशिष्ट पहचानों को समाप्त कर सबको भीड़ बनाने वाले स्वयं कभी भीड़ नहीं बनते, वे किसी न किसी रूप में अपनी विशिष्ट पहचान बनाकर रखते हैं । यह सामाजिक महत्वाकांक्षा का सत्य है, कोई भीड़ नहीं बनना चाहता, हर कोई अपनी विशिष्ट पहचान के साथ स्थापित होना चाहता है । क्या भेदभाव मिटाने के लिये किसी नेता को विश्रामगृह के स्थान पर एक दिन के लिये भी जेल में ठहराया जाता है ? क्या आपने कभी धान, गेहूँ और जौ को एक साथ एक ही खेत में बोया है? राई, सरसों और लाही को एक साथ एक ही खेत में बोया है? क्या कोई किसान आलू, प्याज, लहसुन, टमाटर, गेहूँ, सूरजमुखी आदि सारी उपज एक साथ एक ही स्थान पर मिश्रित कर रखता है ? ..इसे भी छोड़िये, क्या आप अपने फ़्रिज में आलू-प्याज एक ही पॉलीथिन में एक साथ रखते हैं? …यह भी छोड़िये, क्या आप भोजन पकाते समय दाल, तरकारी, कढ़ी, खीर, करेला, चावल, बेसन, आटा आदि की भीड़ एक ही पात्र में मिलाकर एक साथ पकाते हैं ? 

पहचान मिटाने वाली सत्ताओं ने समाज को कई पहचानें दी हैं – अल्पसंख्यक, बहुसंख्यक, अगड़ा. पिछड़ा, दलित, आरक्षण, अनारक्षण, मनुवाद, साम्यवाद, अम्बेडकरवाद, …। नयी-नयी पहचानें बनाना इनकी आवश्यकता है, पहचान मिटाने की बातें करना इनका आदर्श है । सत्ताधीशों की यही वास्तविक पहचान है ।

हमारे शरीर ने प्लास्टिक के नैनो पार्टिकल्स की विशिष्ट पहचान को स्वीकार करने से मना कर दिया, अपने-पराये का भेद मिटाकर उन विदेशी घुसपैठियों को शरीर की कोशिकाओं के समान स्वीकार कर लिया, परिणामतः हमारा शरीर उन नैनोपार्टिकल्स के कूड़े का ढेर बनता जा रहा है । तैयार रहिये ...एक अकल्पनीय व्याधि विस्फोट के लिये । 

हमारे शरीर ने कोशिकीय विभाजन पर अपना विशिष्ट नियंत्रण समाप्त कर उन्हें पूर्ण स्वैच्छिक कर दिया, छीन के दे दी आज़ादी, पेरियार वाली आज़ादी, लेनिन वाली आज़ादी …जानते हैं फिर क्या हुआ ! कैंसर हो गया, वह भी मैलिग्नेंट वाला कैंसर । अब जाइये, करवाइये कीमोथेरेपी, रेडियोथेरेपी ... फिर अंत में ...अब और कोई उपाय शेष नहीं,...मेटास्टेसिस तो पहले ही हो चुकी है, घर ले जाइये, जितने दिन साँसें चलें उतने दिन सेवा करके पुण्य लूट लीजिये। 

ये खोखले आदर्श और यूटोपियन बातें करने वाले स्वयंभू राजनीतिक-बरजोर वैज्ञानिक-तथ्यों को भी धता बता देने की निर्लज्जता अपने अंदर कैसे उत्पन्न कर लेते हैं! पुरुषोऽयं लोकसंमितः, लोकोऽयं ब्रह्माण्ड संमितः, ब्रह्माण्डोऽयं विज्ञानसंमितः, …और आप राजनीतिक सिद्धांतों को इस सार्वकालिक और सार्वदेशज सत्य से छिपाकर रखना चाहते हैं ! अद्भुत् बरजोरी है!     

इस विषय पर मोतीहारी वाले मिसिर जी बड़ी दृढ़ता से बताते हैं – “सामाजिक स्तर पर सामान्य और विशिष्ट की अपनी सीमायें हैं जिनमें बहुत कठोरता नहीं है पर इतनी तरलता भी नहीं है कि उनकी अपनी पहचान ही समाप्त हो जाय । सत्य यह है कि पहचान मिटाने या उसे मिश्रित करने की बातें कितनी भी कर ली जायँ पर वास्तव में आप किसी की पहचान नहीं मिटा सकते, वह पहचान जो उसे प्रकृतिप्रदत्त है” ।

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