tag:blogger.com,1999:blog-8311087627766487257.post3090358695687639577..comments2023-10-24T13:31:43.875+05:30Comments on बस्तर की अभिव्यक्ति -जैसे कोई झरना....: मेरी हिमालय यात्राबस्तर की अभिव्यक्ति जैसे कोई झरनाhttp://www.blogger.com/profile/11751508655295186269noreply@blogger.comBlogger14125tag:blogger.com,1999:blog-8311087627766487257.post-9132945093656858412012-08-21T20:46:11.802+05:302012-08-21T20:46:11.802+05:30दिल को लुभाने वाला यात्रा संस्मरण ! बहुत बढ़िया !दिल को लुभाने वाला यात्रा संस्मरण ! बहुत बढ़िया !SATYENDRAhttps://www.blogger.com/profile/11843309380433611023noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-8311087627766487257.post-27167477017659876882011-05-23T19:25:36.478+05:302011-05-23T19:25:36.478+05:30वाह कौशलेन्द्र जी,
आपके सामने हमारे यात्रा वर्णन ...वाह कौशलेन्द्र जी, <br />आपके सामने हमारे यात्रा वर्णन कुछ नहीं है,SANDEEP PANWARhttps://www.blogger.com/profile/06123246062111427832noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-8311087627766487257.post-20804168140776388432011-04-23T14:42:50.136+05:302011-04-23T14:42:50.136+05:30"शिवोहम" (यानि मैं सर्वगुण संपन्न अनंत ..."शिवोहम" (यानि मैं सर्वगुण संपन्न अनंत और अजन्मा परमात्मा हूँ, और सब प्राणी उसी का अंश, आत्मा, तो हैं किन्तु उन को अभी समय लगेगा यह आभास होने में) जाना प्राचीन ज्ञानी 'हिन्दू' ने, जो 'परम सत्य, निराकार ब्रह्म को पा लिया अंतर्मुखी बन, मन को साध कर, शून्य से जुड़... <br /><br />गीता में कोई भी पढ़ सकता है कि कृष्ण ने कहा, 'जो औरों को गाली देते हैं वास्तव में वो मुझे ही गाली दे रहे होते हैं क्यूंकि में सबके भीतर विराजमान हूँ',,, 'यद्यपि वो भी 'माया' के कारण है',,, 'क्यूंकि वास्तव में सम्पूर्ण सृष्टि मेरे भीतर ही समाई है',,, (साधारण कहनियों में इसे दर्शाया गया, "यशोदा ने कृष्ण के मुंह में ब्रह्माण्ड देखा")...<br /><br />साधारण शब्दों में ही 'माया' को सारांश में विष से आरंभ कर चार स्तर (चार युगों) में अमृत पाने की कथा, 'क्षीर सागर मंथन',,, और विस्तार में त्रेता के राम और द्वापर के कृष्ण अदि की "लीला" के माध्यम से दर्शा गए प्राचीन ज्ञानी जो सिद्ध पुरुष थे,,, और प्राचीन हिन्दू, जैसा सभी को पता होगा, पहुंचे हुए खगोल शास्त्री भी थे और उन्होंने मानव को ब्रह्माण्ड का प्रतिरूप जाना, ब्रह्माण्ड के सार, सौरमंडल के ९ ग्रहों (सूर्य से शनि) के माध्यम से बना...जिसको समझने के लिए या तो हस्तरेखा ज्ञान, अदि के गहन अध्ययन द्वारा समझा जा सकता है कि काल-चक्र को (नादबिन्दू विष्णु, शून्य से अनंत, शिव, तक) समझने के लिए प्राचीन हिन्दू पहले भी अथक प्रयास कर चुके हैं ...किन्तु वर्तमान, कलियुग होने के कारण, अज्ञानता वश हम यदि सत्य तक न पहुँच पाएं तो यह तो काल का ही दोष होना चाहिए क्यूंकि प्राचीन ज्ञानी तो कह गए ही गए कि समय का पहिया सतयुग से कलियुग की ओर, यानि उल्टा चलता है - ब्रह्मा के एक दिन में, एक बार नहीं हजार बार !JChttps://www.blogger.com/profile/05374795168555108039noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-8311087627766487257.post-34083753230913728062011-04-22T21:18:52.645+05:302011-04-22T21:18:52.645+05:30जी ! बाबा जी ! सत्य कथन है आपका. बालक की जिज्ञासा ...जी ! बाबा जी ! सत्य कथन है आपका. बालक की जिज्ञासा मानवीय स्वभाव का एक भाग है. पर वह उचित-अनुचित का विवेक नहीं रखता .....जब तक इस योग्य होता है तब तक स्वार्थ का विशिष्ट ज्ञान उसे प्राप्त हो चुका होता है. आध्यात्म एक अन्वेषण की चीज़ है ...दस साधुओं के प्रवचन भी उसे ज्ञान पिपासु नहीं बना सकते ...यह आग तो अन्दर से होनी चाहिए. हम बाहर से आग होने का प्रदर्शन अवश्य करते हैं ...अन्दर स्वार्थ भरा पडा है...परिणाम होता है पाखण्ड और केवल पाखण्ड. मैं इसी का तो विरोधी हूँ.बस्तर की अभिव्यक्ति जैसे कोई झरनाhttps://www.blogger.com/profile/11751508655295186269noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-8311087627766487257.post-64334597195209597642011-04-21T11:14:04.214+05:302011-04-21T11:14:04.214+05:30कौशलेन्द्र जी, आपने जो देखा उसका एक दम सही और बहुत...कौशलेन्द्र जी, आपने जो देखा उसका एक दम सही और बहुत सुन्दर वर्णन किया, इसमें कोई दूसरी राय नहीं हो सकती...<br />मेरा केवल यह कहना है कि जब बच्चा शिशु अवस्था में होता है तो उसमें जिज्ञासा होती है,,, उसको बाहरी वस्तुएं आकर्षित करती हैं,,,वो तितलियों का पीछा करता है आदि, आदि...<br />किन्तु जब वो बड़ा हो जाता है, उम्र के साथ अनुभव प्राप्त कर वो अंतर्मुखी हो जाता है,,, अब तितली पास से निकल जाये तो शायद देखता भी नहीं है,,, <br />और जो कुछ सूचना आदि उसने आरम्भ में अल्पायु में ग्रहण की, उसके विश्लेषण करने की उसकी क्षमता बढ़ गयी होती है,,,<br /><br />और अब वो क्यूँ? कैसे? आदि प्रश्न स्वयं से, और अन्य से भी करने लगता है...उसमें साधारणतया 'सत्य' को जानने की इच्छा जाग चुकी होती है..<br />इस कार्य में प्राचीन ग्रथ आदि उसके सहायक हो सकते हैं...किन्तु उसके लिए इच्छा भी भीतर से ही उठनी आवश्यक है...<br />एक अंग्रेजी कहावत है कि घोड़े को एक अकेला ही सक्षम है पानी तक ले जाने में/ किन्तु बीस व्यक्ति भी उसको पानी जबरदस्ती नहीं पिला सकते "...JChttps://www.blogger.com/profile/05374795168555108039noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-8311087627766487257.post-55643044670978488132011-04-20T23:43:10.306+05:302011-04-20T23:43:10.306+05:30जे सी बाबा जी ! ॐ नमोनारायण ! धर्म रूढ़ हो गया है ...जे सी बाबा जी ! ॐ नमोनारायण ! धर्म रूढ़ हो गया है आज ...परिमार्जन की आवश्यकता है ....समाज में विमर्श ......नवीनता और परिमार्जन का अभाव हो गया है इसलिए आज का धर्म पाखण्ड से अधिक और कुछ नहीं......उच्च शिक्षित भी इसी धारा में बहे चले जा रहे हैं ....सभी को पुण्य चाहिए ....बिना पुण्य का कार्य किये .....ज़रुरत मंद को धेला नहीं देंगे ...मंदिर में सोना चढ़ा देंगे .....हमारे मंदिर आज भी अमीर हैं ....जनता गरीब है ....पहले मंदिरों की समाज के लिए जो भूमिका हुआ करती थी, आज कहाँ हैबस्तर की अभिव्यक्ति जैसे कोई झरनाhttps://www.blogger.com/profile/11751508655295186269noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-8311087627766487257.post-77523760006942024812011-04-20T08:24:28.747+05:302011-04-20T08:24:28.747+05:30.
@--यह हमारी मानसिकता है, हम लोग अपने विरोधियों ....<br /><br />@--यह हमारी मानसिकता है, हम लोग अपने विरोधियों के विषय में अधिक रूचि लेते हैं. हम मुशर्रफ़ पर घंटों चर्चा कर सकते हैं जबकि हमें अपनी स्थिति का वास्तविक आकलन करना चाहिए...<br /><br />बहुत ही सारगर्भित पंक्ति है ...यदि दूसरों की ख़ुशी का ध्यान रखा जाए तो एक अनोखा आनंद मिलता है । अपने लिए तो सभी जीते हैं । <br /><br />.ZEALhttps://www.blogger.com/profile/04046257625059781313noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-8311087627766487257.post-49935833591283319062011-04-18T21:26:53.215+05:302011-04-18T21:26:53.215+05:30क्षमा प्रार्थी हूँ हरकीरत जी और कौशलेन्द्र जी (&qu...क्षमा प्रार्थी हूँ हरकीरत जी और कौशलेन्द्र जी ("जाकी रही भावना जैसी..." जैसे आपने भी तुलसीदास के शब्द दोहराए)... बुरा न मानना जब मैं स्कूल में था तो मुझे अपने सहपाठी, जिसने नौवीं कक्षा में संस्कृत को चुना, उससे सुनने को मिला (भाषा के शिक्षक के विचार) कि गीता को हर व्यक्ति अपने अपने दृष्टिकोण से पढ़ता है, जिस कारण एक ही पुस्तक में लिखे गए विचारों की भिन्न भिन्न व्याख्याएं और टिप्पणियां पढने को मिल जायेंगी (गाँधी, मुंशी, राधाकृष्णन आदि के लिखे जैसे)...जिस कारण "हरी अनंत हरी कथा अनंता..." द्वारा प्राचीन किन्तु हमसे अधिक ज्ञानी हिन्दुओं ने सार निकाल कहा "सत्यम शिवम् सुंदरम",,,जो मेरे अपने निजी विचार से हर व्यक्ति को निमंत्रण देता है सत्य अथवा सत्व यानी सार तक पहुँचने के लिए किसी भी मार्ग से किसी भी स्थान में रहते,,,न कि 'धर्म' आदि में उलझ पानी की बूंदों के भंवर में सदैव गोल गोल घूमते रहने समान... जैसे पहाड़ों का अपना निजी महत्व है, वैसे मंदिर आदि और अन्य कई व्यक्ति विशेष का भी समय समय पर देखने को मिल सकता है...JChttps://www.blogger.com/profile/05374795168555108039noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-8311087627766487257.post-14806651216839764082011-04-18T14:40:54.725+05:302011-04-18T14:40:54.725+05:30आदरणीया हीर जी ! आपकी टिप्पणी से स्पष्ट है कि आपने...आदरणीया हीर जी ! आपकी टिप्पणी से स्पष्ट है कि आपने पाठक धर्म का बड़ी गंभीरता और इमानदारी से पालन किया है.........विषय वस्तु के आकलन के प्रति आपका न्याय वन्दनीय है. मेरी लेखनी के साथ सच्चे सहयात्री की तरह आपकी यात्रा अनुकरणीय है ............आप हर मोड़ पर उसके साथ रही हैं .......उसके हर्ष और विषाद में समानरूप से सहभागी बनी हैं ....मैं अभिभूत हुआ. लेखक और पाठक के बीच यह एक इमानदार सेतु है .....मैं आपके पाठक धर्म के आगे पूरी विनम्रता से अपना शीश नवाता हूँ. ऐसे पाठकों को मेरा बार-बार अभिनन्दन .....बस्तर की अभिव्यक्ति जैसे कोई झरनाhttps://www.blogger.com/profile/11751508655295186269noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-8311087627766487257.post-4131503966671892842011-04-18T11:52:31.149+05:302011-04-18T11:52:31.149+05:30मैं देख रहा था - परस्पर होड़ सी लगा रही दीपनौकाओं ...मैं देख रहा था - परस्पर होड़ सी लगा रही दीपनौकाओं का परस्पर टकराना, टकराकर किसी का आगे निकल जाना...किसी का जल-समाधि ले लेना. जीवन की प्रतियोगिता, कामनाओं की सफलता की प्रतियोगिता .............दृश्य मुझे जाने-पहचाने से ...प्रतिबिम्ब से लग रहे थे .<br />@ मैं सोचने पर विवश हो गया ......पंचायती राज का सपना क्या ऐसी ही भीड़ के हाथों में सौंपकर पूरा हो सकेगा ? जन साधारण को राज का अधिकार सौंपकर किस न्याय और व्यवस्था की आशा की जा रही है ? जनता यदि इतनी ही आत्मानुशासित होती तो शासनमुक्त समाज न बन गया होता !<br />@ मुझे तो वहाँ के कण-कण में जीवन-दर्शन दिखाई दे रहा था . ......चाहे वह हिमालय का सर्पीला मार्ग हो .......हिमाच्छादित उच्च शिखर हों ....... लम्बे-लम्बे वृक्ष हों ......कठोर शिलाएं हों ........दुर्गमता हो ........वहाँ के लोगों के जीवन की कठिनाइयाँ हों ........वहाँ का सूर्योदय हो ....सूर्यास्त हो ....वहाँ का सब कुछ दर्शन की दिव्यता से ओतप्रोत था.<br />@<br />मैं कल्पना करने लगा - एक अधेड़ कृशकाय पहाड़ी की पीठ पर बंधी टोकरी में बैठी स्वस्थ्य तरुणी. अधेड़ ऊबड़-खाबड़ पथरीली पगडंडी पर हांफता हुआ चढ़ाई पर आगे बढ़ता जा रहा है ....और तरुणी टोकरी में बैठी आराम से ऊँघ रही है ......तीर्थयात्रा का पुण्य लाभ तरुणी के खाते में जमा होता जा रहा है.<br /><br />@ अब मैं पानी-पानी हो उठा . मुझे अपने जीवन में इतनी लज्जा संभवतः पहले कभी नहीं आयी थी. अपनी ही भूमि में उन अहिंदीभाषी विदेशियों के समक्ष मैं बौना हो गया था. मेरी आँखों के कोने नम थे. सामने अन्धेरा और भी गहरा हो गया था .......और उस अँधेरे में हिमालय के उत्तुंग शिखर भी अदृश्य हो चुके थे. मोमबत्ती अंतिम साँसे ले रही थी. अनायास मुझे लगा, मैं ही नहीं मेरी आस्था भी उनके समक्ष बौनी हो गयी थी.<br /><br /><br />गुरु जी आपकी लेखनी को नमन .....<br /><br />एक-एक शब्द नगीना है ....<br />आपके विचार , आपकी भावनाएं तो बस नमन योग्य हैं .....<br />क्या कहूँ ....समझ नहीं पा रही ....<br />पढ़ती गई और डूबती गई .....<br />आपके विचार और राजेन्द्र जी के विचार लगभग मिलते जुलते हैं<br />इस संस्मरण में कहानी की सी रोचकता है ...<br />अद्भुत प्रतिभा है आपके पास ....<br /><br />हाँ इसे किसी पत्रिका में जरुर भेज दीजिएगा .....हरकीरत ' हीर'https://www.blogger.com/profile/09462263786489609976noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-8311087627766487257.post-13483507148822785372011-04-13T23:40:52.888+05:302011-04-13T23:40:52.888+05:30आपका यह संस्मरण प्रकृति, मानव प्रवृत्ति और जीवन के...आपका यह संस्मरण प्रकृति, मानव प्रवृत्ति और जीवन के विभिन्न रूपों को दर्शाता बड़ी ही रोचक लगा पढने में।मनोज कुमारhttps://www.blogger.com/profile/08566976083330111264noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-8311087627766487257.post-6165189053503418392011-04-13T11:59:54.221+05:302011-04-13T11:59:54.221+05:30बहुत सुन्दर और ज्ञानवर्धक यात्रा प्रसंग !
जीव...बहुत सुन्दर और ज्ञानवर्धक यात्रा प्रसंग !<br />जीवंत होकर मूर्तिमान हो उठे दृश्य !<br />बहुत बधाई !अरुण अवधhttps://www.blogger.com/profile/15693359284485982502noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-8311087627766487257.post-69761630951594070682011-04-13T11:31:42.376+05:302011-04-13T11:31:42.376+05:30आपका यात्रा-संस्मरण अतेयंत रोचक है....
इसे पढ़ कर ...आपका यात्रा-संस्मरण अतेयंत रोचक है....<br />इसे पढ़ कर यात्रा का आनंद आ गया.Dr (Miss) Sharad Singhhttps://www.blogger.com/profile/00238358286364572931noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-8311087627766487257.post-10163089621807801162011-04-13T08:20:23.190+05:302011-04-13T08:20:23.190+05:30जैसे मकान की नींव मजबूत हो तो उस पर इमारत भी मजबूत...जैसे मकान की नींव मजबूत हो तो उस पर इमारत भी मजबूत बन सकती है, वैसे ही गीता पढना मन को तैयार करने में शायद काम करता है (साधना?) ,,, ऐसा मैं अपने अनुभव से भी कह सकता हूँ - मैंने सन '८४ में पहली बार उसे पढ़ा जब मेरे मन में भी कई प्रश्न जमा हो गए थे (कूड़ेदान में कई वर्षों से एकत्रित कूड़े समान!)...और जाना योगियों द्वारा कई वर्षों के अनुभव के आधार पर संकलित विचार, जीवन का सार, कि मानव जीवन में क्या लक्ष्य अपेक्षित है आम आदमी से...बचपन में पढ़ते थे वाक्य कि 'आदमी केवल रोटी पर ही नहीं जीता',,,यानि 'रोटी, कपड़ा, मकान' पाने के तथाकथित 'सत्य' के अतिरिक्त भी मानव से 'परम सत्य' को खोजना भी अपेक्षित है, क्यूंकि मानव रूप में ही उसे पाना संभव है किन्तु काल-चक्र द्वारा रचित माया जाल तोडना भी अर्जुन के केवल मछली की परछाईं देख उसकी आँख भेदने समान है द्रौपदी का हाथ पाने के लिए (अमावस्या के बाद चाँद भी, सूर्य से प्रकाशित हो, कटोरे में तैरती मछली समान ही दीखता है !)...JChttps://www.blogger.com/profile/05374795168555108039noreply@blogger.com