tag:blogger.com,1999:blog-8311087627766487257.post5222183227826299921..comments2023-10-24T13:31:43.875+05:30Comments on बस्तर की अभिव्यक्ति -जैसे कोई झरना....: शीर्षकहीन 2- गतांक से आगे...बस्तर की अभिव्यक्ति जैसे कोई झरनाhttp://www.blogger.com/profile/11751508655295186269noreply@blogger.comBlogger9125tag:blogger.com,1999:blog-8311087627766487257.post-86926131534188438102011-12-21T21:55:25.898+05:302011-12-21T21:55:25.898+05:30@ अनुराग जी !
पहली कड़ी पढते हुए अन्दाज़ भी नही...@ अनुराग जी ! <br /> पहली कड़ी पढते हुए अन्दाज़ भी नहीं था कि कथा इतनी मार्मिक हो जायेगी।<br /><br />बस्तर का जीवन और इंग्लैण्ड की वारिश एक सी है. पल भर में क्या से क्या हो जाएगा ..कुछ पता नहीं. पहाडी नदी सा है यहाँ का जीवन ......अभी कुछ देर पहले उफान पर ....और अभी बिलकुल शांत. यहाँ की कुछ जनजातियों में मृत्यु को उत्सव की तरह मनाये जाने की परम्परा है. नाचते-गाते ढोल बजाते शव यात्रा के दृश्य शायद केवल बस्तर में देखने को मिल सकते हैं . हो सकता है कि रजनीश पर यहाँ का भी कुछ प्रभाव पडा हो.<br /><br />पाण्डेय जी ! आपके विमर्श का स्वागत है ...प्रतीक्षा रहेगी ......बस्तर की अभिव्यक्ति जैसे कोई झरनाhttps://www.blogger.com/profile/11751508655295186269noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-8311087627766487257.post-30138487912441813702011-12-21T21:42:21.586+05:302011-12-21T21:42:21.586+05:30आप सभी ने इस किस्से को पढ़ने के लिए समय दिया, इसके...आप सभी ने इस किस्से को पढ़ने के लिए समय दिया, इसके लिए धन्यवाद. <br />सलिल भाई ! सिद्धांत जैसे कुछ लोग आजीवन द्वंद्व में फसे रहते हैं. आदर्शों के पुस्तकीय आकर्षण और इन्द्रियों के बलात निग्रह की पारस्परिक अभिक्रिया से सिद्धांत जैसे लोगों का आचरण निर्मित होता है....इनका अपना स्वयं का कोई चिंतन नहीं होता ....ऋषियों के चिंतन को आत्मसात करने के लिए स्वयं का चिंतन आवश्यक है जो सिद्धांत के पास नहीं था. चिकित्सकीय जीवन में बहुत विचित्र आचरण और खूब उलझे व्यक्तित्व वाले लोगों से मिलना होता रहता है....<br />अली जी ! इतनी अच्छी समीक्षा के लिए आपका ऋणी हूँ....हृदय से आभारी हूँ. <br />@ कहानी आपने आस पास की घटनाओं को गूंथ कर कही है सो उसकी अगढ़ता दिखती है<br /> इसे आप किस्सा कह सकते हैं. मैंने कई चरित्रों को आपस में गूंथने का अनाड़ीपन किया है. कोई बहाना नहीं बनाऊंगा .... शिल्प की अगढ़ता मुझे भी लग रही है. ....किन्तु आपकी समीक्षा दिशानिर्धारक होने से प्रशंसनीय है. ऐसी समीक्षाएं स्वागत योग्य हैं.<br /> <br />@ पहली किश्त में पात्रों की बाँध किनारे की उपस्थिति उनकी प्रतिक्रिया से बड़ी अस्वाभाविक लगती है जैसे कि सिद्धांत और विदुषी एकांत यायावरी और साहचर्य के लिए साथ निकलते तो हैं पर नायिका का स्पर्श नायक को पाप जैसा लगता है ! <br />सिद्धांत से हुयी प्रारम्भिक चर्चा में ही विदुषी ने स्पष्ट कर दिया है कि "..... आपका मन चाहता क्या है ...प्रायः यही नहीं पता होता है आपको"<br /> नायक अपने अंतर्द्वंद्व से उबर नहीं पाता .....किन्तु विदुषी उसके अंतर्मन को भलीभांति बांच पाने में समर्थ है ...वह बिंदास भी है ........इसी कारण सिद्धांत की गांठें खोलने में उसका सहयोग करना चाहती है ...किन्तु सिद्धांतविहीन सिद्धांत अपने आवरणों के मोह से ग्रस्त है. ऐसा आचरण पुरुषों में ही देखने को मिल सकता है स्त्रियों में नहीं ......कम से कम मेरा अनुभव तो यही है. <br />@ सुबोध और उसके बाँध घूमने का प्रसंग समझ में नहीं आया ! <br /><br />बस्तर में मितान परम्परा रिश्तों की बड़ी ही अनूठी और निश्छल परम्परा है. सुबोध और लल्ली के बीच संवेदनाओं का आत्मीय रिश्ता है ....जोकि स्वाभाविक है. पता नहीं लल्ली आज कहाँ होगी ...पर मेरे और उसके बीच एक आत्मीय रिश्ता बन चुका है. यही रिश्ता सुबोध और उसके बीच प्रकट हुआ है.<br /> @ विदुषी और सिद्धांत भी बहिरागत जोड़ा है अतः उनका प्रेम अज्ञात कारणों से असहज है अप्राकृतिक है !<br />सिद्धांत प्रेम में नहीं.. प्रेम के द्वन्द में है. प्रेम कभी असहज और अप्राकृतिक नहीं होता ....बशर्ते वह प्रेम ही हो ....दैहिक आकर्षण नहीं. यदि हम सिद्धांत के मन का विश्लेषण करें तो स्पष्ट जाएगा कि उसका द्वंद्व प्रेम को वासना और अपवित्र समझने के कारण है ..यही उसकी अपरिपक्वता है. वह प्रेम और वासना के अंतर को समझ नहीं पा रहा है . <br />बिंदु ३- विदुषी जीवन को यथावत स्वीकार करना चाहती है ...बिना किसी आवरण के. इसीलिये वह बिंदास है ....और इसके लिए उसके पास पर्याप्त तर्क भी हैं.<br />बिंदु ४- सहमत हूँ, यही अपरिपक्वता समाज से लेकर शासन तक सभी जगह व्याप्त दिखाई दे रही है. <br />बिंदु ५- दोनों बहिरागत हो भी सकते हैं और नहीं भी....अब तो बस्तर के ही स्थानीय लोग भी पादरी बन रहे हैं. तथापि, बहिरागत होने से ही किसी को कुछ भी करने की आधिकारिक स्वतंत्रता प्राप्त नहीं हो जाती.<br /><br />@ बस्तर की स्थानीयता जो अत्यंत सहज है ,के हाथ केवल छल ही आता दिखता है जोकि उन्हें बहिरागतों का मान ना मान मैं तेरा मेहमान की तर्ज़ वाला तोहफा है :(<br />स्थानीय और बहिरागत की जीवन शैली में भिन्नताएं हैं पर इस किस्से में यह मूल विषय नहीं है. मूल विषय है आदर्शों के पाखण्ड में फसा चरित्र, बस्तर की निश्छलता, बस्तरिया का शोषण और धर्मांतरण का फैलता जाल. <br />@.बहिरागतों की शिकार लल्ली मात्र ही स्थानीय है वर्ना स्थानीय जनसमुदाय का इस असहज प्रेम कथा /शोषण / संबंधों की भीरुता से क्या लेना देना ?<br />परिवेश कोई भी हो ...स्थानीय या बहिरागत में हम समाज को बाँट नहीं सकते...दोनों एक-दूसरे पर प्रभाव डालते ही हैं. परम्पराओं और विचारों का आदान-प्रदान मनुष्य समाज की स्वाभाविक परम्परा है. बिठूर में सात वर्ष रहकर लल्ली ने भी कुछ नए विचार और परम्पराएं सीखी हैं ...इसीलिये सिद्धांत और विदुषी को ऐसी स्थिति में देखकर मुह फेर लेती है. ( आजकल स्कूलों में चुम्बन और आलिंगन बिलकुल सामान्य बात हो गयी है ). समाज में एक-दूसरे से लेना-देना न होने के कारण ही समाज में विकर्षण बढ़ रहा है ...आपसी संबंधों की मधुरता यांत्रिक औपचारिकता में ढल गयी है.यह समाज का विघटन ही है.बस्तर की अभिव्यक्ति जैसे कोई झरनाhttps://www.blogger.com/profile/11751508655295186269noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-8311087627766487257.post-61050512017797723142011-12-20T07:38:49.217+05:302011-12-20T07:38:49.217+05:30:( पहली कड़ी पढते हुए अन्दाज़ भी नहीं था कि कथा इत...:( पहली कड़ी पढते हुए अन्दाज़ भी नहीं था कि कथा इतनी मार्मिक हो जायेगी।Smart Indianhttps://www.blogger.com/profile/11400222466406727149noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-8311087627766487257.post-50404226287236068312011-12-19T23:01:08.247+05:302011-12-19T23:01:08.247+05:30अद्भुत
कहानी का शब्द-शिल्प,बुनावट का सौंदर्य, इसमे...अद्भुत<br />कहानी का शब्द-शिल्प,बुनावट का सौंदर्य, इसमें छुपा दर्शन, धर्म-मर्म के बीच का द्वंद्व..और सबसे बड़ी बात जीवन के वास्तविक धरातल पर पात्रों की मौजूदगी का एहसास कहानी को शिखर पर ले जाते हैं। इस पर तो लम्बा विमर्श छिड़ सकता है। इसे पढ़ते ही लगता है कि लेखक कहानी के आस पास ही जी रहा है..सहज प्रश्न था अली सर का और वैसा ही सहज उत्तर भी पढ़ने को मिला। <br />बस्तर के सीने में चुभे नश्तर को उघाड़ कर रख दिया है आपने कि देखो! कितने ज़ख्म हैं यहां..।देवेन्द्र पाण्डेयhttps://www.blogger.com/profile/07466843806711544757noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-8311087627766487257.post-20889311660474332352011-12-19T17:11:43.851+05:302011-12-19T17:11:43.851+05:30कौशलेन्द्र जी ,
जैसा कि मैने कहा कि टिप्पणी बाद मे...कौशलेन्द्र जी ,<br />जैसा कि मैने कहा कि टिप्पणी बाद में करूँगा सो अब टिप्पणी ...<br /><br />कहानी आपने आस पास की घटनाओं को गूंथ कर कही है सो उसकी अगढ़ता दिखती है ! इसके बावजूद आप वह सन्देश दे पाते हैं जो देना आपने तय किया था ! पहली किश्त में पात्रों की बाँध किनारे की उपस्थिति उनकी प्रतिक्रिया से बड़ी अस्वाभाविक लगती है जैसे कि सिद्धांत और विदुषी एकांत यायावरी और साहचर्य के लिए साथ निकलते तो हैं पर नायिका का स्पर्श नायक को पाप जैसा लगता है ! क्या यह अपराध बोध अन्य दो पात्रों की उपस्थिति के कारण हुआ यह केवल आप ही बेहतर कह सकते हैं ! खैर इस कथा के कुछ बिंदु जो मुझे स्पष्ट हुए ...<br /><br />(१) लल्ली 'स्थानीय' पीड़ित है जिसे एक 'बहिरागत' सुरेश चंदेल ने छला भले ही वह अपनी परवरिश जन्य सामर्थ्य के कारण जीवन में संघर्ष कायम रख पाई ! सुबोध और उसके बाँध घूमने का प्रसंग समझ में नहीं आया !<br /><br />(२) विदुषी और सिद्धांत भी बहिरागत जोड़ा है अतः उनका प्रेम अज्ञात कारणों से असहज है अप्राकृतिक है !<br /><br />(३) विदुषी को सिद्धान्त की धर्मनिष्ठता या भीरुता या खोखले आदर्शवाद के कारण छल मिला जबकि वो स्वयं गाजियाबाद के शुक्ल की ब्राह्मण पुत्री है और सिद्धांत से कमतर नहीं है !<br /><br />(४) जिसका हाथ स्वयं सिद्धांत ना थाम सका तद्जन्य उसके मार्ग भटकाव पर उसे 'देशद्रोही जैसा' कहना भयंकर अपरिपक्वता है ! <br /><br />(५) विदुषी बहिरागत थी और पलायन कर गया वह पादरी भी बहिरागत था जिस पर यौन हिंसा का संकेत यह कथा देती है ! <br /><br />तो फिर बिंदु क्रमांक १-४ तक में बहिरागतों की शिकार लल्ली मात्र ही स्थानीय है वर्ना स्थानीय जनसमुदाय का इस असहज प्रेम कथा /शोषण / संबंधों की भीरुता से क्या लेना देना ?<br /><br />धर्मान्तरण बहिरागतों का आयोजन / उससे आधी अधूरी टक्कर बहिरागतों का आयोजन / यौन असहजता / शोषण , बहिरागतों का आयोजन / जीवन तनाव और मानसिक संतुलन खोना बहिरागतों की अपनी जीवनचर्या ! इसमें बस्तर की स्थानीयता जो अत्यंत सहज है ,के हाथ केवल छल ही आता दिखता है जोकि उन्हें बहिरागतों का मान ना मान मैं तेरा मेहमान की तर्ज़ वाला तोहफा है :(<br /><br />( कथा से इतर एक घटना जो नेलसनार में हुई थी , कि पादरी पर उसके ड्राइवर की पत्नी ने यौन शोषण का आरोप लगाया था वर्ना ब्राह्मण परिवार की किसी कन्या के ईसाई मिशनरी होने और इस तरह की घटना में मारे जाने का वाकया दक्षिण ,मध्य बस्तर में सुना नहीं या शायद हुआ हो ? स्मरण नहीं )उम्मतेंhttps://www.blogger.com/profile/11664798385096309812noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-8311087627766487257.post-29947781925045857322011-12-18T23:54:04.262+05:302011-12-18T23:54:04.262+05:30कहानी पढ़ने के लिए आप सबका धन्यवाद! मुझे संतोष है ...कहानी पढ़ने के लिए आप सबका धन्यवाद! मुझे संतोष है कि मैं अपनी वेदना आप सब तक पहुंचा सका. जहाँ तक संस्मरण या कहानी के विकास की बात है ....तो ऐसा प्रश्न पूछे जा सकने की संभावना थी. वस्तुतः यह कहानी कई घटनाओं का संयुक्त संस्मरण है. जैसी कि कहानियों की परम्परा है...स्थान, समय और नाम में परिवर्तन करना लेखक का अधिकार है और कई दृष्टियों से उचित भी. कुछ घटनाओं को मैंने अधूरा छोड़ दिया है...क्योंकि मुझे वैसा करना ठीक लगा....यथा, सिद्धांत की एक माह तक मेरे द्वारा चिकित्सा की गयी थी ....एक दिन उसके नाना ने आकर खबर सुनायी कि किसी ट्रक से कुचलकर उसकी भी मृत्यु हो गयी है. मेरे लिए इनमें से कोई भी पात्र दिवंगत नहीं हुआ है ...न कभी होगा. हमारे आसपास अभी भी दो सिद्धांत हैं और कई विदुषियाँ भी......हम किसी को भी बचा नहीं पा रहे हैं. लल्ली खुद ही संभल गयी, सुरेश चंदेल पहले ही शासकीय सेवा में था ....विवाह के बाद उसने अपना अन्यत्र स्थानान्तरण करवा लिया. <br />संविधानप्रदत्त धार्मिक स्वतंत्रता की आड़ में धर्मांतरण की कुटिल लीला .....दैहिक शोषण ......अपने ही अंतर्द्वंद्व में उलझकर विक्षिप्त होते लोग ......गिरकर संभलने वाली लल्लियाँ और सीधे सरल सुबोध जैसे पात्र बस्तर से लेकर सीमावर्ती उड़ीसा तक में सरलता से मिल जायेंगे. व्यक्तिगत रूप से मैं लल्ली से सर्वाधिक द्रवित हुआ हूँ .....उसने जीवन भर सबको दिया है ..कभी किसी से कुछ लिया नहीं .....जब भी लल्ली का चेहरा मेरे सामने आता है मेरी आँखें जार-जार बह उठती हैं.बस्तर की अभिव्यक्ति जैसे कोई झरनाhttps://www.blogger.com/profile/11751508655295186269noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-8311087627766487257.post-1860468334087854202011-12-18T22:27:13.899+05:302011-12-18T22:27:13.899+05:30कौशलेन्द्र जी ,
टिप्पणी बाद में करूँगा पहले यह बता...कौशलेन्द्र जी ,<br />टिप्पणी बाद में करूँगा पहले यह बताइये कि क्या यह कहानी संस्मरणात्मक है या फिर इसे लेखक ने अपने तईं विकसित किया है ?उम्मतेंhttps://www.blogger.com/profile/11664798385096309812noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-8311087627766487257.post-48452974266659668642011-12-18T22:17:16.819+05:302011-12-18T22:17:16.819+05:30kahaani ka ant padhkar na to asahaj hui na stabdh....kahaani ka ant padhkar na to asahaj hui na stabdh. kyonki bastar ki zindagi jaisa ki suna hai bahut hi sahaj aur saral hai, desh ke anya hisso se bilkiul alag ek anokhi duniya. is kahani ke sabhi paatra hamare aas paas hi rahte hain aur aisi ghatnaayen bhi hoti hain. nischit hi ye koi kahani nahin balki aapke saamne ghatit koi sach hai. bahut achchhi tarah aapne ise prastut kiya hai. aabhar.डॉ. जेन्नी शबनमhttps://www.blogger.com/profile/11843520274673861886noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-8311087627766487257.post-8955439444402742262011-12-18T20:00:12.292+05:302011-12-18T20:00:12.292+05:30डॉक्टर साहब!
पिछली पोस्ट पर टिप्पणी नहीं दे पाया थ...डॉक्टर साहब!<br />पिछली पोस्ट पर टिप्पणी नहीं दे पाया था, कारण क्रमशः वाली कहानियां मैं पीछे से पढ़ना शुरू करता हूँ अर्थात जबतक अंतिम अंक उपलब्ध न हो जाये..<br />यह कथा पढते हुए कभी 'चित्रलेखा' का ध्यान हो आया और कभी ओशो के विभिन्न प्रवचनों का.कुछ कथाएं प्रतिक्रया की मोहताज नहीं होतीं.. और डॉक्टर साहब, यह रचना एक मील का पत्थर है.. अंत में सिद्धांत का नंगा घूमना देखकर लगा कि काश उसने प्रारम्भ में ही स्वयं को नंगा कर लिया होता तो यूं नंगा न फिरना पड़ता.. <br />झकझोरकर रख दिया है आपने.. शीर्षक चाहे कुछ भी हो, कथानक तो वही रहेगा न!!चला बिहारी ब्लॉगर बननेhttps://www.blogger.com/profile/05849469885059634620noreply@blogger.com