सोमवार, 5 मई 2014

देवी-देवता .... भगवान और ईश्वर


प्रसंग भारत का है जहाँ करोड़ों देवी-देवताओं का अस्तित्व में होना बताया जाता रहा है । यह सुस्थापित धारणा है कि देवता शक्ति और प्रभुता से सम्पन्न होते हैं ...उनको प्रसन्न कर लेने से बहुत कुछ पाया जा सकता है । किंतु यह भी एक सुस्थापित तथ्य है कि देवताओं को प्रसन्न कर पाना सरल नहीं है । मनोवांछित वरदान पाने के लिए किसी कार्यालय के लिपिक से लेकर प्रधानमंत्री तक किसी को भी प्रसन्न कर पाना कठिन तपस्या से ही सम्भव हो पाता है – यह आम भारतीय की धारणा है जो उसके निरंतर अनुभवों का परिणाम है ।  

भारत ... यानी एक ऐसा देश है जहाँ चार युगों के अस्तित्व के बारे में लोगों का विश्वास अटल है । अभी तो इक्कीसवीं सदी में लोग कलियुग से त्रस्त हैं और सतयुग की बड़ी अधीरता से प्रतीक्षा कर रहे हैं । इस सारे चिंतन के बीच हमें यह भी ध्यान रखना है कि पश्चिमी समाज को सम्बल देने वाले दो तत्व हैं –एक गॉड और दूसरा किंग (या मिस्टर प्रेसीडेण्ट ) । भारतीय समाज को सम्बल देने वाले कई तत्व हैं – भइया जी, माननीय महोदय जी, आदरणीय सेठ जी, बजरंगबली जी, राधे-राधे ...........और अंत में ऊपर वाला ।   

भारतीय़ मनीषियों ने मनुष्य की मौलिक वृत्तियों को तीन गणों – देव,मनुष्य और राक्षस में वर्गीकृत करते हुये उनके व्यवहार को समझने का प्रयास किया । हमारा समाजव्यवहार हमारे चरित्र को ऊर्ध्व या अधोगति की ओर ले जाता है । “दैव चरित्र” ऊर्ध्व गति की वह चरम परिणति है जहाँ से अब और ऊपर नहीं जाया जा सकता प्रत्युत जहाँ से अधोगति की सम्भावनायें प्रबल हो जाती हैं । पर्वत की चोटी से आगे रास्ता ढलान से होकर ही जाता है । “राक्षसचरित्र” अधोगति की वह चरम स्थिति है जहाँ से केवल ऊर्ध्व दिशा की ओर ही जाया जा सकता है । मनुष्य चरित्रके साथ ऊर्ध्व और अधो दोनो गतियों की सम्भावनायें हैं । किंतु इनमें से किसी भी एक दिशा की ओर प्रेरित करने वाले प्रेरक तत्वों की उपलब्धता, उन्हें ग्रहण करने की क्षमता और उस क्षमता को परिणामगामी बनाने वाली दृढ़ता उस मनुष्य की दिशा तय करती है ।   
पुराणों और इतिहासों ने हमें बताया कि आर्यावर्त के समाज को उग्रवाद और हिंसा से प्रायः पीड़ित रहना पड़ा है। पहले हम इसका कारण राक्षसवाद को मानते थे आज इसका कारण उग्रवाद को मानते हैं, सभी अतिवादी और हिंसक लोग इसके लिए उत्तरदायी हैं । राक्षस हमारे चारो ओर हैं ...राक्षस हमारे अन्दर भी हैं ।
भारत में एक वर्ग ऐसा भी सदा से ही रहा है जो अवसरवादी और सुविधाभोगी रहा है, पहले हम इसका कारण देववाद को मानते थे आज इसका कारण पूँजीवाद है । सभी अवसरवादी, उद्योगपति, ब्यूरोक्रेट्स, नेता,अभिनेता ...आदि इस देववाद के लिए उत्तरदायी हैं । देवता हमारे गाँव में भी हैं और गाँव से लेकर दिल्ली तक भी ।
देवता और राक्षस या अवसरवादी और उग्रवादी भारतीय समाज के दो ध्रुव हैं । शेष भारतीय समाज इन दोनो ध्रुवों के बीच कभी डोलता दिखायी देता है तो कभी पिसता हुआ दिखायी देता है । शेष भारतीय समाज का चरित्र ही “मनुष्य चरित्र” है जो निरंतर देव या राक्षस बनने के प्रयास में संघर्षरत दिखायी देता है ।
  भारत में देवता सम्मानित हैं, नेता-अभिनेता और उद्योगपति सम्मानित हैं । वे सम्मानित हैं जो आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न हैं, सुविधाभोगी हैं, अवसरवादी हैं और किसी भी तरह शक्ति के शीर्ष पर बैठे हुये हैं ।   

भगवान राम, भगवान कृष्ण, भगवान महावीर और भगवान बुद्ध इस देव कोटि से अलग हैं। देवताओं वाला कोई चरित्र उनमें दिखायी नहीं देता। उनका सारा जीवन मूल्यों की स्थापना के संघर्ष में लगा रहा । उनका चरित्र स्तुत्य और प्रदर्शक होने के बाद भी आम मनुष्य के लिए अनुकरणीय नहीं हो सका । अनुकरणीय होने के बाद भी अनुकरणीय नहीं हो सका । आम मनुष्य की यही दुर्बलता है कि वह जिसकी स्तुति करता है उसका अनुकरण नहीं कर पाता । अनुकरण कर पाता तो वह भगवान न हो गया होता !

इन  सब शक्तियों के बाद फिर ईश्वर भी है । भारतीय चिंतन जब सूक्ष्म तत्व की ओर बढ़ता है तो वह राक्षस, मनुष्य, देव और भगवान – इन सबसे परे जाकर चराचर जगत के नियंता ईश्वर को अंतिम सत्य स्वीकार कर सारी लौकिक वृत्तियों से मुक्त हो जाता है ।

मैं प्रायः सोचता हूँ, भारतीय आध्यात्मिक चिंतन का कमल, विकारों-विसंगतियों और विरोधाभासों के कीचड़ में ही क्यों खिल सका ! समाधान भी मुझे इसी जिज्ञासा में मिला – कमल कीचड़ के अतिरिक्त और खिल भी कहाँ सकता है ? 

2 टिप्‍पणियां:

टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.