सोमवार, 23 नवंबर 2020

अथ वैक्सीन कथा...

कितनी भरोसेमंद होगी एण्टीकोरोना वैक्सीन

कोरोना के बाद अब बारी है एण्टीकोरोना वैक्सीन की । वैक्सीन बन जाने के समाचारों के साथ ही दुनिया भर में टीकाकरण की कल्पनायें की जाने लगी हैं । अगले दो-तीन महीने बाद कोरोना के जींस हमारी कोशिकाओं में होंगे जहाँ कोशिकाओं को उनसे दोस्ती करनी होगी और फिर पहले से तय युद्धनीति के अनुसार हमें उनके रहस्य जानकर कोरोना के किले को ढहाना होगा । लाख टके का एक सवाल फिर भी हमारी ओर झाँकता है कि आने वाली वैक्सीन्स कितनी भरोसेमंद साबित होंगी ।

फ़ॉर्मा लैब्स से समाचारों के निकलते ही वैक्सीननिर्माता कम्पनीज़ के शेयर्स ने भागना प्रारम्भ कर दिया है । मॉडर्ना के शेयर्स तो कई महीने पहले से ही भाग रहे हैं और अब प्फ़ाइज़र, कैडिला और पैनेसिआ के शेयर्स भी भागने लगे हैं । अभी तक लगभग तेरह प्रकार के एण्टीकोरोना वैक्सीन अपने क्लीनिकल परीक्षण के अंतिम दौर में पहुँच चुके हैं जबकि क्लीनिकल परीक्षण के दूसरे और तीसरे चरण की दौड़ में चौवन, और प्रीक्लीनिकल वैक्सीन के एक्टिव इन्वेस्टीगेशन के चरण में लगभग सत्तासी प्रकार के वैक्सीन अभी भी प्रयोगशाला स्तर पर अध्ययन और परीक्षण की स्थिति में हैं । इस दौड़ में आगे निकल चुकी तेरह वैक्सीन्स में भी जो तीन सबसे आगे हैं वे हैं –ऑक्सफ़ोर्ड-एस्ट्राज़ेनेका की डीएनए बेस्ड वैक्सीन “ChAdOx1 nCoV-19” जिसके रीसस मैकाक के ऊपर किये गये प्रारम्भिक परीक्षण सफल नहीं हो सके थे; दूसरी है मॉडर्ना की वैक्सीन mRNA-1273”, और तीसरी वैक्सीन है ज़ायडस कैडिला निर्मित डीएनए बेस्ड “ZyCov-D”

अनुमान है कि क्लीनिकल परीक्षण की दौड़ में सम्मिलित भारत बायोटेक इंटरनेशनल हैदराबाद द्वारा निर्मित Intranasal ChAd Vaccine सैद्धांतिक रूप से कहीं अधिक सफल होने की सम्भावना है । एण्टीकोरोना वैक्सीन बनाने की प्रतिस्पर्धा में सिगरेट बनाने वाली दुनिया की दूसरी बड़ी कम्पनी ब्रिटिश-अमेरिकन टोबैको (BATS.L) भी शामिल है जिसके लिये काम करने वाली केण्टुकी बायोप्रोसेसिंग ने वैक्सीन बनाने के लिये तम्बाखू के पत्ते में पायी जाने वाली एक प्रोटीन का स्तेमाल किया है । इस वैक्सीन का प्रीक्लीनिकल चरण पूरा हो चुका है और अब क्लीनिकल परीक्षण के प्रथम चरण की अनुमति की प्रतीक्षा की जा रही है । टोबेको प्रोटीन बेस्ड वैक्सीन एण्टीबॉडीज़ के साथ-साथ टी. सेल्स भी उत्पन्न करती है इसलिये यह वैक्सीन भी कहीं अधिक सफल होने वाली है ।

नाना प्रकार की इन वैक्सीन्स की रोगप्रतिरोधक क्षमता, सुरक्षा के स्तर और सुरक्षा की अवधि के बारे में अभी भी कोई अंतिम निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता । सामान्यतः किसी वैक्सीन की गुणवत्ता के परीक्षणों में तीन मानकों Safety, efficacy और effectiveness को ध्यान में रखा जाता है, जिसके परीक्षणों और निष्कर्षों में हड़बड़ी नहीं की जा सकती । ये परीक्षण कई चरणों में पूरे किये जाते हैं जिसमें कम से कम दो साल तो लग ही जाते हैं । एण्टीकोरोना वैक्सीन के मामले में कुछ प्रयोगशालाओं ने क्लीनिकल परीक्षण के पहले और दूसरे चरणों को एक साथ निपटाने की हड़बड़ाहट की है । यह अच्छी बात है कि इस दौड़ में सम्मिलित किसी भी भारतीय कम्पनी ने कोई हड़बड़ाहट नहीं की है और बड़े धैर्य के साथ सभी चरणों के निष्कर्षों का अध्ययन किया है ।

आशा है कि अगले दो से तीन माह में कोरोना की वैक्सीन हमारे लिये उपलब्ध हो जायेगी । यह एक राहत हो सकती है किंतु सजग चिकित्सक का काम तो वैक्सीन आने के बाद प्रारम्भ होने वाला है । वैक्सीन का उपयोग प्रारम्भ हो जाने के बाद भी निरीक्षण, परीक्षण, सर्वेक्षण और विश्लेषण के अध्ययन का सिलसिला समाप्त नहीं होगा ...यह चलता रहेगा और नये निष्कर्ष प्राप्त किये जाते रहेंगे । सैद्धांतिकरूप से जेनेटिक इन्जीनियरिंग द्वारा तैयार वैक्सीन को पूरी तरह निरापद नहीं माना जा सकता, दीर्घावधि में इनके उपद्रव सामने आ सकते हैं । स्पष्ट है कि हमें संक्रमण से बचने के लिये अन्य विकल्पों पर भी काम करना होगा ।

रविवार, 22 नवंबर 2020

नींद नहीं आयेगी

नींद नहीं आयेगी...

दस-बारह / सड़क के आवारा कुत्ते / घूम रहे हैं झुण्ड में / कभी इस / तो कभी उस मोहल्ले में / तलाशते हैं / किसी मनमौजी / अकेले कुत्ते को / टूट पड़ते हैं फिर उस पर / बुरी तरह / नहीं देते भागने / अपने चंगुल से ।

किसने किससे सीखा / यूँ टूट पड़ना / किसी पर / आदमी ने कुत्तों से / या कुत्तों ने आदमी से / पता नहीं / आज रात / फिर मुझे नींद नहीं आयेगी ।  

भौंक रहे हैं / बुरी तरह नोच रहे हैं / सारे कुत्ते / बेचारे / उस एक कुत्ते को / जो नहीं था शामिल / उनके गैंग में ।

घूमने लगे हैं / चित्र / मेरी आँखों के सामने / ज़र्मनी और फ़्रांस में हुये / तहर्रुश गेमिया के / आज रात / फिर मुझे नींद नहीं आयेगी ।   

कलाकारों की राह पर...

नहीं जाते जेल / बेल पर घर लौट आते हैं / पकड़े गये कलाकार / पीत हुये गाँजा / लेते हुये कोकीन / नाचते हुये गाते हुये / देते हुये संदेश, कि / दम मारो दम / मिट जाए गम / बोलो सुबह-शाम / हरे कृष्णा हरे राम ।

किशोर और किशोरियों की पीढ़ी / चल पड़ी है / कलाकारों की राह पर, / कूद पड़ी है / गहरे समंदर में ।

समुद्र मंथन के लिये / क्यों / तैयार नहीं होता कोई / नये भारत में ?

कुकुरमुत्ते

तलाश रहती है उन्हें / यौनशोषण, क्रूरता, हत्या / और अन्याय की ।

वे / घटनाओं को होने देते हैं / बढ़ने देते हैं / पकने देते हैं / फिर, जैसे ही पक कर टपकती है / कोई घटना / टूट पड़ते हैं उस पर / शातिर भेड़िये / बनाने के लिए / एक स्मारक / जिस पर गाड़ सकें / झण्डा / अपनी महानता का ।

तलाश रहती है उन्हें / पत्तों के टूट कर गिरने की / झंझावातों में / पेड़ों के टूट कर धराशायी होने की / और फिर / जैसे ही सड़ने लगती हैं / टूटी हुयी पत्तियाँ / गिरे हुये पेड़ / वे सब टूट पड़ते हैं उन पर / और जमा लेते हैं अपनी जड़ें / मृत पत्तियों / और पेड़ों की सड़ती देह पर / फिर उगाते हैं वहाँ / रंगबिरंगे, सुंदर, आकर्षक / कुकुरमुत्ते / यानी परी का छाता / जिसकी छाया में / खेलते / और खिलखिलाते / बढ़ते जाते हैं कुछ लोग / कदम-कदम आगे / राजसिंहासन की ओर ।

स्मारक...

महीनों / वह संघर्ष करती रही / अकेली / जूझती रही / न्याय के लिये ।

एक दिन / जला दिया उसे / पकड़कर जिंदा ही / कुछ लोगों ने ।

मर गयी लड़की / तड़पती हुयी / अकेली ।

मरते ही उसके / टूट पड़ी वहाँ / करुणानिधानों की भीड़ / अब / लड़की की लाश नहीं थी अकेली / भीड़ / बहा रही थी / न्याय की गंगा ।

बन रहा है गाँव में / लड़की की जली हुयी लाश पर / एक भव्य स्मारक / जो ले जायेगा / करुणानिधानों को / राजसिंहासन की ओर ।  

शनिवार, 21 नवंबर 2020

भीड़ की ज़िद...

        कोरोना विषाणु के कारण बदली हुयी परिस्थितियों में अनुकूलन के सुरक्षात्मक उपाय स्थापित करने के लिये हमें अपनी जीवनशैली में महत्वपूर्ण परिवर्तन करने होंगे । वर्जनाओं की भूमि पर रचे गये इस तरह के परिवर्तनों के लिये भीड़ तैयार नहीं है । भारत के अतिबुद्धिजीवी मानते हैं कि “लोकतंत्र में सेंसरशिप का कोई स्थान नहीं होता”, हर व्यक्ति को अपनी ज़िंदगी अपने तरीके से जीने की आज़ादी होनी चाहिये ।

 भीड़, लोकतंत्र की आवश्यकता है । भीड़, लोकतंत्र की समस्या है । भीड़ में  लोकतंत्र की समस्याओं के समाधान खोजने का कोई अर्थ नहीं है । भारत के अतिबुद्धिजीवी लोग भीड़ से अपना पोषण प्राप्त करते हैं, वे सदा भीड़ के समर्थन में रहते हैं और भीड़ को बाढ़ के पानी की तरह बहने के लिये नियंत्रणमुक्त बनाये रखना चाहते हैं । नियंत्रणमुक्त जीवन जीने वाले लोगों से आत्मसंयम की अपेक्षा का क्या अर्थ है! यह भीड़ यदि इतनी ही आत्मसंयमित और ज्ञानवान होती तो न कोई संक्रमण फैलता और न यह वैश्विक व्याधि होती ।

कोरोना को भीड़ से प्रेम है, अनियंत्रित हो जाना भीड़ का स्वभाव है, उसे कोरोना से बचाना गम्भीर चुनौती है । फ़िल्मों और टीवी कार्यक्रमों में अश्लीलता और हिंसा आदि की मर्यादा को लेकर अभी हाल ही में अभिनेता दिलीप ताहिल और फ़िल्म समीक्षक मयंक शेखर ने बड़ी तल्ख़ टिप्पणियाँ करते हुये आम आदमी को अपनी ज़िंदगी के निर्णय स्वयं लेने और आत्मसंयम की सीमा स्वयं तैयार करने की स्वतंत्रता प्रदान किये जाने के लिए बड़ी उग्र वकालत की थी । यह वही आम आदमी है जो कोरोना से बचाव के लिये सुझाए गए उपायों को अपनाने से इंकार कर देता है, जगह-जगह थूकता और मलविसर्जन करता है, भारतीय मुद्रा से अपनी नाक साफ़ करने वाले दृश्य का वीडियो बनाकर दुनिया को चुनौती देता है, मेडिकल टीम को दौड़ा-दौड़ाकर मारता है और उन पर पत्थर बरसाता है । सरकारें भीड़ की मानसिकता से निपटना जानती हैं जो मेडिकल टीम नहीं जानती । मेडिकल टीम व्याधि से निपटना जानती है जो सरकारें नहीं जानतीं ।

उपयोग किया जा चुका मास्क एक मेडिकल कचरा है । मेडिकल कचरे के प्रॉपर डिस्पोज़ल के प्रति हम भारतीय कितने ईमानदार हैं यह बताने की आवश्यकता नहीं है । कई बार उपयोग के बाद मास्क कचरे के ढेर में या इधर-उधर पड़े मिलते हैं जिसके सम्पर्क में आकर आवारा पशुओं, मुर्गियों और पक्षियों में संक्रमण की सम्भावनाएँ नयी समस्या को जन्म दे सकती हैं । टीवी में विज्ञापन आ रहे हैं, अपील की जा रही है कि मास्क अवश्य लगाएँ । किसी विज्ञापन में मिठाई वालों को यह नहीं बताया जाता कि वे जिन हाथों से ग्राहक से नोट लेते हैं उन्हीं हाथों से मिठायी न छुएँ, किसी विज्ञापन में सब्जी वालों को यह नहीं बताया जाता कि ड्रॉपलेट इन्फ़ेक्शन रोकने के लिए वे चीख-चीख कर सब्जी न बेचें । मास्क का विज्ञापन आवश्यक है, मास्क बिकेगा तो मास्क बनाने वाली कम्पनियों को लाभ होगा । वैश्वीकरण की जीवनशैली ने हमें एक-दूसरे के इतने समीप ला दिया है कि हमारी साँसें आपस में टकराए बिना नहीं रहतीं, आप किसी संक्रमण को कैसे रोक सकेंगे ...कहाँ-कहाँ रोक सकेंगे ?

बहुत सी वर्जनाएँ हैं जिनका सामान्य व्यवहार में पालन किया जाना चाहिए । चिकित्सा व्यवसाय से जुड़े लोगों के लिए पीपीई किट का प्रयोग आवश्यक हो गया है, वाहनों को विसंक्रमित किया जा रहा है, किसी भी अनजान सतह से शरीर के स्पर्श को वर्ज्य माना जा रहा है, अभिवादन के लिए नमस्कार किया जाना सुरक्षित माना जाने लगा है...  इतने तामझाम के बाद भी ढेरों गलतियाँ हो जाती हैं और संक्रमण को अवसर मिल ही जाता है । मेडिकल स्टाफ़ भी कोरोना की चपेट में आने से बच नहीं पा रहा है, आख़िर यह चूक हो कहाँ रही है ?

कोरोना के शोर में अन्य व्याधियों से ग्रस्त रोगियों की उपेक्षा होने लगी है । हृदयरोग, मधुमेह, अर्थ्राइटिस और रीनल डिस-ऑर्डर्स आदि से पीड़ितों की समस्याएँ बढ़ रही हैं । चिकित्सा व्यवस्था अस्त-व्यस्त होने लगी है । दिहाड़ी श्रमिकों, घुमंतू बंजारों, सेक्स-वर्कर्स, किन्नरों और नाचने-गाने वाले लोक-कलाकारों के सामने जीवनयापन की समस्याएँ हैं । शिक्षा व्यवस्था पटरी से उतर गयी है और पाकिस्तान अपने कोरोना संक्रमितों को फ़िदायीन बनाकर भारत में घुसपैठ कराने में लगा हुआ है ।

सरकारों के पास और भी ढेरों काम हैं, आम नागरिक को अपनी भूमिका और दायित्व तय करने होंगे ।

अथ कोरोना नियंत्रण समीक्षा...

घातक विषाणु कोरोना से युद्ध चालू है, बचाव और चिकित्सा के उपलब्ध उपाय न तो उपयुक्त हैं और न पर्याप्त । कोरोना ने पूरे विश्व को बंदी बनाकर उसकी गतिविधियों पर ग्रहण लगा दिया है । चिकित्सा परिणामों के बाद हताशा और अवसाद के वातावरण ने हमारे सामने कुछ और चुनौतियाँ परोस दी हैं ।

प्रश्न उठने लगे हैं – क्या विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अपने धर्म का पालन नहीं किया और अधर्माचरण में अपनी सहभागिता बनाये रखी ? क्या लॉकडाउन आवश्यक था ? क्या लॉकडाउन में होती रही शिथिलताओं ने समस्या को और भी विकराल बना दिया ? कोरोना काल में धार्मिक क्रियाकलापों (Religious activities) के सार्वजनिक आयोजनों पर कठोरतापूर्वक पूर्ण प्रतिबंध लगाया जाना आवश्यक क्यों नहीं समझा गया ? जनजीवन में व्यवहृत होने वाले सामाजिक एवं व्यक्तिगत आचरणों की शिथिलता के पूर्ण मुक्त अभ्यास को चीन की तरह प्रतिबंधित करने में सरकारें क्यों असमर्थ रहीं ? क्या शासन-प्रशासन ने अपने राजधर्म का यथोचित पालन करने में उपेक्षा की ? क्या आमजन को इस व्याधि से बचने के उपायों के बारे में शिक्षित-प्रशिक्षित करने में कोई चूक हुई ? क्या चिकित्सा-विशेषज्ञों और सरकारों के बीच वैज्ञानिक समझ और आपसी समन्वय का अभाव रहा है ? कोरोना की विकरालता का भय कहीं स्वाइन फ़्लू की तरह कोई नया मेडीस्कैम तो नहीं ? कोविड-19 की चिकित्सा में चिकित्सा विज्ञान की भूमिका क्या किसी पंगु जैसी नहीं रही है ? प्रतीक्षित वैक्सीन की कार्मुकता और क्रियाशीलता कितनी प्रभावी होगी ? पता चला है कि फ़ाइज़र की एंटी कोरोना वैक्सीन इन्जेक्टेबल होने कारण केवल लोअर रेस्पाइरेटरी ट्रेक्ट को ही सुरक्षा दे सकेगी अपर रेस्पाइरेटरी ट्रेक्ट को नहीं, तब इस वैक्सीन की उपयोगिता का जीवन के लिए क्या मूल्य ? क्या वैक्सीन के अतिरिक्त अन्य विकल्पों पर वैज्ञानिक चिंतन किए जाने की आवश्यकता नहीं है ? रूटीन चेक-अप में तो इंफ़्रारेड थर्मल स्केनर का प्रयोग होने लगा है किंतु ब्लडप्रेशर नापने के लिए जिस पारम्परिक डिवाइस का उपयोग किया जा रहा है क्या उसे हर बार विसंक्रमित नहीं किया जाना चाहिए ? क्या ओपीडी के डॉक्टर्स स्वयं को आएट्रोजेनिक फ़ैक्टर बनने से रोकने के लिये रूटीन एक्ज़ामिनेशन में प्रयुक्त होने वाले बीपी इंस्ट्रूमेंट जैसे डिवाइसेज़ का पूरी सतर्कता के साथ उपयोग कर पा रहे हैं ? क्या इस तरह के डिवाइसेज़ का उपयोग रिलिवेंट इण्डीकेशन्स मिलने, अत्यावश्यक होने एवं सीमित और विशेष स्थितियों में ही नहीं किया जाना चाहिए ? क्या हमें एड्स और स्वाइन फ़्लू की तरह कोरोना के भी साथ रहने के लिये स्वयं को तैयार करना होगा ? चीन में कोरोना नियंत्रण के लिये क्या निरापद देशी चिकित्सा पद्धति का भी व्यवहार किया गया है ? ज़र्मनी, अमेरिका और ब्राज़ील आदि देशों के कुछ नागरिक कोरोनाकाल में भी अपनी जीवनशैली पर किसी भी तरह का प्रतिबंध लगाये जाने का विरोध कर रहे हैं, भीड़ की यह वह मानसिकता है जिससे भारत को भी जूझना पड़ रहा है, क्या भारत के पास भीड़ के इस सर्वदा विरोधी चरित्र से निपटने के लिए प्रभावी उपाय हैं ? …प्रश्नों के पर्वत हमारे सामने हैं जबकि निष्ठापूर्वक उत्तर के प्रयास दूर-दूर तक दिखायी नहीं देते । किंतु इतना कह देने से इतिश्री नहीं हो जाती, हमें स्वयं को कोरोना का शिकार होने से बचाना ही होगा ।


काश! कोई जिन्ना यहाँ भी होता...

कल गोरखपुर वाले ओझा जी और मोतीहारी वाले मिसिर जी में अच्छी-ख़ासी नोक-झोंक हो गयी । मामला गरम होने लगा तो बीच में अपर्णा जी भाया टाटानगर को बीच में लाना पड़ा । बात मोहम्मद अली जिन्ना की थी । ओझा जी मोहम्मद अली जिन्ना की क़ौमी सोच का सैद्धांतिक समर्थन कर रहे थे जबकि मिसिर जी मोहम्मद अली जिन्ना को अखण्ड भारत का शत्रु मान रहे थे ।

ओझा जी का मानना था कि अपने समुदाय के प्रति जिन्ना के जुझारू समर्पण से हिंदुओं को सीख लेने की आवश्यकता है । हमें उनकी व्यक्तिगत ज़िंदगी और आचरण पर नुक्ताचीनी करने की न तो आवश्यकता है और न अधिकार, आप तो यह सोचिये कि जिन्ना अपने समाज के लिये कितने काम के आदमी थे । जिन्ना को हिंदू ऑब्ज़रवर की दृष्टि से नहीं एक मुस्लिम ऑब्ज़रवर की दृष्टि से देखिये फिर बताइये क्या आपको हिंदू समाज में एक जिन्ना की कमी नहीं खलती ? क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि काश! कोई जिन्ना यहाँ भी होता ? जिन्ना के पासंग में नेहरू कहाँ ठहरते हैं जो जन्म से भारतीय किंतु विचार और आचरण से अंग्रेज़ माने जाते थे ? जिन्ना ने जो किया वह अपनी क़ौम के लिये किया और वे अपने समुदाय के आदर्श बन गये, क्या उनका ऐसा करना अपराध था ? यदि कोई जननायक हिंदुओं के लिये जिन्ना जैसा जुझारू होता तो क्या उसका ऐसा करना अपराध होता ?   

मिसिर जी ने प्रतिवाद किया – जिन्ना यदि मुसलमानों के हितैषी होते तो पाकिस्तान बनाने की ज़िद नहीं करते । जिन्ना की सोच के अनुसार यदि अखण्ड भारत मुसलमानों के लिये असुरक्षित था तो आख़िर विभाजन के बाद भारत में रह गये मुसलमानों के हित की बात मुस्लिम नेता जिन्ना ने क्यों नहीं सोची? शराबनोशी और वर्ज्यमांस से परहेज न करने वाले जिन्ना क्या वास्तव में इस्लाम या मुसलमानों के लिये कुछ भी कर सके? यदि धर्माधारित विभाजन न होता तो दोनों देशों में इतना धार्मिक ध्रुवीकरण भी न होता, न आज पाकिस्तान इतना निर्धन देश होता और न एशिया में इतनी अशांति और आतंक होता । सच यह है कि जिन्ना ने जो किया वह न तो इस्लाम के लिये किया और न मुसलमानों के लिए बल्कि केवल अपनी महत्वाकांक्षाओं के लिए किया । अब बात आती है जिन्ना के इस्लाम प्रेम की, तो यह समझना होगा कि क्या उन्होंने इस्लाम को पतवार की तरह स्तेमाल नहीं किया ?  

        अंत में अपर्णा जी भाया टाटानगर की मध्यस्थता के बाद ओझा जी यह स्वीकार करने के लिए तैयार हो गये कि भारत के विभाजन में इस्लामिक समुदाय के हित की कल्पना करने वाले क़ायदे आज़म जिन्ना ने मुसलमानों को तो ख़ुश कर दिया किंतु भारत के भविष्य की घोर उपेक्षा की जिससे धार्मिक ध्रुवीकरण की जड़ों को पर्याप्त खाद-पानी मिलने लगा और दोनों देशों में धार्मिक उन्माद सदा के लिये स्थापित हो गया । देश के विभाजन से इस्लाम को क्या लाभ हुआ यह तो नहीं पता किंतु हिंदुओं और मुसलमानों के विकास में ढेरों बाधायें ख़ूब उत्पन्न हुयीं और अखण्ड भारत विश्व की महाशक्ति बनने से चूक गया ।     

सोमवार, 16 नवंबर 2020

नहीं देखना तो आँखें बंद कर लो, सेंसर क्यों लगाते हो...

देश आज़ाद है, हम आज़ाद हैं, हम कुछ भी करें, कैसे भी रहें आपको क्या ? आप हमें इस रूप में नहीं देखना चाहते तो अपनी आँख़ें बंद कर लो, मना किसने किया है ? कला और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर सेंसर लगाना हमारी आज़ादी की हत्या है । यदि आपको हमारी कला अच्छी नहीं लगती तो आपको अपने ऊपर आत्मसेंसरशिप लागू करना चाहिये ।

कपड़े सत्य को छिपाते हैं, मर्यादा और सभ्यता के नाम पर यह एक आडम्बर है । ईश्वर ने कोई मर्यादा नहीं बनायी, हम तो शहर से लेकर समंदर के किनारे तक हर जगह उसी रूप में विचरण करेंगे जिस शाश्वतरूप में उसने हमें धरती पर भेजा है... पूर्ण नग्न ।

साइन्टिफ़िक थॉट से सदासर्वदा ओतप्रोत रहने वाले ये वे प्रगतिशील लोग हैं जो ईश्वर की सत्ता पर प्रश्न उठाने की प्रतिस्पर्धा में सबसे आगे रहते हैं ।

फ़िल्म सेंसरशिप पर नये कानून की बात आते ही “पर्दे की ज़िन्दगी, काम और हिंसा के दृश्यों पर नैतिक मर्यादा की कैंची” और “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता” पर एक बार फिर हंगामा शुरू हो गया है । सहिष्णुता का पाठ पढ़ाने वाले  अतिबुद्धिजीवी बुरी तरह नाराज़ हैं और उन्होंने अमर्यादित शब्दों का प्रयोग करना शुरू कर दिया है । फ़िल्मों और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर उपलब्ध वीडियोज़ में दिखाये जाने वाले काम, विकृतकाम एवं हिंसा के दृश्यों और अश्लील संवादों की बौछारों पर मर्यादारेखा खींचने की तैयारी हो रही है । फ़िल्म समीक्षक मयंक शेखर बहुत नाराज़ हैं गोया किसी ने उनकी मुर्गियाँ ज़बरन उठा ली हों । उन्होंने फरमाया – “यह तो आम आदमी यानी दर्शक को नीचा दिखाना हो गया कि उन्हें अपने फ़ैसले ख़ुद लेने की तमीज़ नहीं है और उन्हें वही देखना चाहिये जो उन्हें दिखाया जाय, उन्हें वही सोचना चाहिये जो उनसे सोचवाया जायसरकार आम आदमी को इतना गिरा हुआ क्यों सोचती है ? यह ब्रिटिश साम्राज्यवादी सोच है । यदि आपको कोई फ़िल्म या दृश्य पसंद नहीं है तो आप न देखें” ।  

फ़िल्म अभिनेता दिलीप ताहिल ने तो यहाँ तक कह दिया कि – “ये कम दिमाग वाले लोग हैं जो हर चीज को बैन करने की माँग करते हैं । संविधान मानता है कि अट्ठारह साल की उम्र वाले व्यक्ति को सरकार चुनने की योग्यता है लेकिन सरकार यह नहीं मानना चाहती कि अट्ठारह साल का वह व्यक्ति अपनी ज़िंदगी के अन्य फ़ैसले भी ख़ुद ले सकने की योग्यता रखता है । लोकतंत्र में सेंसरशिप का कोई स्थान नहीं होता । सत्तर साल हो गये आज़ादी मिले लेकिन सरकार हमें अब भी आज़ाद नहीं करना चाहती । अब तो तय करने दो दर्शक को कि वह क्या देखे और क्या नहीं” ।

लेफ़्टियाना थॉर्नीफ़ोलिया (लेफ़्ट के अतिवाद से लटपटाया हुआ कँटीला) चिंतन जिस “आत्मनिर्णय की स्वतंत्रता” की वकालत करता है उसकी जड़ें “सत्ताविहीन आत्मशासित समाज” के यूटोपियन थॉट में निहित हैं । विनोबा भावे ने भी “आत्मशासित समाज” की वकालत की थी । किंतु समाज में ऐसे कितने लोग हैं जो आत्मशासित हो पाते हैं ? यदि ऐसा हो पाता तो किसी शासन-अनुशासन प्रणाली की आवश्यकता ही न होती, चारो ओर रामराज्य होता, शांति होती, कोई विवाद न होता, कोई अपराध न होता, हर व्यक्ति साधु और सात्विक होता ।

मयंक शेखर और दिलीप ताहिल लोकतंत्र की दुहाई देकर जिस स्वतंत्रता की वकालत कर रहे हैं क्या वह समाज को अराजकता की ओर ले जाने वाला नहीं है ! लोकतंत्र अपने आप में एक तंत्र है जो एक अनुशासन की बात करता है ...यह अनुशासनविहीनता और अराजकता नहीं हैं ...यह हमारे निर्णय लेने के अधिकार अपने प्रतिनिधि को सौंपने का तंत्र है । लोकतंत्र और “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता” का अर्थ “अनियंत्रित और अश्लील गतिविधियों की स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति” कैसे हो सकता है !

बहुत से अतिबुद्धिजीवियों को इस बात से भी परेशानी है कि “क्या श्लील है और क्या अश्लील यह तय करने का अधिकार सरकार को किसने दिया”? हम तो पोर्न फ़िल्में बनायेंगे, हम तो सेक्स के हर विकृत कृत्य पर फ़िल्म बनायेंगे, हम आदमी को ज़िबह करने के दृश्य दिखायेंगे, हम तो आदमी-औरत को मल-मूत्र विसर्जन करते हुये दिखायेंगे... सुधारवादियों को किसने कहा कि वे यह सब देखें । आप अपनी आँखें बंद भी तो कर सकते हैं, जिसे अच्छा लगता है वह देखेगा, जिसे नहीं अच्छा लगेगा वह अपना टीवी बंद कर देगा । मोदी जी क्यों परेशान हो रहे हैं ?  

यानी आप हर वह चीज दिखाने के लिये हठ कर रहे हैं जिसे समाज वर्ज्य मानता आया है ...और यह भी कि कला और मनोरंजन के नाम पर आपके पास दिखाने के लिये इन सब विषयों के अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं ?  

 

जंगल शांत रहता है

वहाँ यौनापराध नहीं होते

नग्नता

उनकी जीवनशैली है

प्रदर्शन का हिस्सा नहीं ।

 

सभ्य समाज के भव्य शहरों में

पहनकर भी कपड़े

तुम

करने लगे हो

प्रदर्शन

अपनी नग्नता का

और नहीं रोक पाते

क्रूर यौनापराध ।

 

तुमने पूछा

किसने हक दिया किसी को  

उठाने का तुम पर उँगली

लगाम क्यों नहीं लगा लेते लोग  

अपनी ही आँखों पर

“विकृति

हमारी नग्नता में नहीं

तुम्हारी आँखों में है

पापी हम नहीं

तुम हो” ।

 

आँखें

ताड़ लेती हैं

दृश्य के उद्देश्य

फिर

वे देखने लगती हैं

वह सब कुछ

जो परोसा जाता है उन्हें ।

दृश्य पूछते हैं

कि आँखें उन्हें देखती ही क्यों हैं,

आँखें पूछती हैं

कि दृश्य

आँखों के सामने

प्रकट ही क्यों होते हैं ?


पराली, पंजाब और दिल्ली...

पराली जल रही थी, दिल्ली वालों के फेफड़े सुलगने लगे थे, माननीय कोर्ट जी ने पराली जलाने पर एक करोड़ रुपये का अर्थदण्ड सुना दिया. पराली अब भी जल रही है, दिल्ली वालों के फेफ़ड़े अब भी सुलग रहे हैं । माननीय जी के फ़ैसले को पराली जलाने वालों ने पराली के साथ ख़ाक कर दिया । दिल्ली दुनिया के सबसे अधिक प्रदूषित शहरों की सूची से बाहर निकलने के लिये तड़पने लगी । पूसा विश्वविद्यालय ने उपाय सुझाया ...जलाओ मत खाद बना लो । दिल्ली के राजा ने कहा ...खाद बनाने का खर्चा हम दे देंगे । विज्ञापन पर करोड़ों रुपये खर्च होने लगे, खाद बनाने पर भी करोड़ों रुपये खर्च होंगे ...जो आम आदमी की जेब से देर-सबेर वसूल कर लिया जायेगा । दिल्ली का राजा ख़ुश है ...वन मोर बिजनेस इस क्रिएटेड फ़ॉर द वेलफ़ेयर ऑफ़ माय रिआया । पराली जलाने वाले मस्त हैं, पराली अभी भी जल रही है ।

हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर बैठ शिला की शीतल छाँह, एक व्यक्ति भीगे नयनों से देख रहा था प्रबल प्रवाह । कामायनी की ये पंक्तियाँ पढ़ने के बाद मन में प्रश्न उठा था एक व्यक्ति ही क्यों, बाकी लोग कहाँ चले गये थे ?

इस प्रश्न का उत्तर आज मिल गया है । पराली जलेगी, प्रदूषण होगा, ग्लोबल वार्मिंग होगी, ग्लेशियर पिघलेंगे, बाढ़ आयेगी, बाढ़ में सब कुछ तबाह हो जायेगा, कुछ लोग ऊँचे स्थान की ओर भागेंगे, हिमगिरि के उत्तुंग शिखर तक पहुँचते-पहुँचते केवल एक व्यक्ति ही बचेगा ....बाकी सब बीच में ही मर जायेंगे ।

कृषिप्रधान देश के लिये पराली कभी समस्या नहीं हो सकती किंतु विगत कुछ वर्षों से पराली को खरपतवार की श्रेणी में सम्मिलित्त करके समस्या बना लिया गया है । पराली पशुओं का आहार है । हमने गाँवों में पशुओं की संख्या बहुत कम कर दी है । बैलों का स्थान ट्रैक्टर्स को दे दिया है । गोबर की प्राकृतिक खाद का स्थान केमिकल फ़र्टीलायज़र्स को दे दिया है और उपजाऊ भूमि को बंजरभूमि में बदलने के आत्मघाती षड्यंत्र को अपना उद्देश्य बना लिया है ।

खेत की पराली और घर के बुज़ुर्ग प्रगतिशील समाज के लिये समस्या मान लिये गये हैं । बुज़ुर्गों के लिये वृद्धाश्रम हैं, पराली के लिये माचिस की एक तीली है । समस्या क्रिएट करना और फिर उनका समाधान करना उन्नति और विकास के प्रतीक हैं । हम दुनिया को समाप्त करने की ओर हर क्षण एक कदम और आगे बढ़ा रहे हैं ।

 

लोहकत बाटे मिलत नइ खे...

भोपाल प्रवास से वापस बस्तर आ रहे चौरसिया जी को कोरोना ने पकड़ लिया, कहाँ जा रहे हो मियाँ, इधर हम भी तो हैं ।

रास्ते में ही फेफड़ों ने साँस लेने से इंकार कर दिया तो बेटे ने आनन-फानन में नागपुर में रुककर एक अस्पताल में चौरसिया जी को भर्ती करवा दिया । ठीक एक माह बाद चौरसिया जी के शरीर ने पूर्ण विराम लगा दिया । लाखों रुपये खर्च करने के बाद भी चौरसिया जी अपने घर वापस नहीं आ सके ...और इससे भी अधिक दुःखद बात यह कि मात्र दाल-चावल खाने के शौकीन चौरसिया जी चाह कर भी दाल-भात खाये बिना ही चले गये । एक माह में वे एक बार भी दाल-भात नहीं खा सके सके ।

बेशुमार उपलब्धियों के बाद भी हम सब कितने विवश हैं ! बहुत कुछ पाकर भी हमें वह नहीं मिल पाता जो किसी क्षण हमारे अस्तित्व के लिये बहुत आवश्यक होता है ।


रविवार, 15 नवंबर 2020

कुख्यात अपराधी नहीं, माननीय कहिये उन्हें...

...जो जेल में रहते हुये चुनाव लड़ने के अधिकारी है, जिन्हें टिकट लेने के लिये कोई प्रयास नहीं करना होता बल्कि विभिन्न राजनीतिक दलों से टिकट परोसा जाता है और जो जेल में रहते हुये ही चुनाव लड़कर विजयी हो जाते हैं ।

बिहार में अभी-अभी यानी नवम्बर 2020 में विधानसभा चुनाव सम्पन्न हुये हैं । चुनाव जीतने के बाद का परिदृश्य यह है कि जिस पुलिस ने गम्भीर किस्म के “छोटे-मोटे” अपराधों के आरोप में जिन्हें जेल में बंद किया था वही पुलिस अब उन्हें ससम्मान विधायक के बंगले में पहुँचायेगी और वे लोग अपने-अपने विधानसभा क्षेत्र के राजा की तरह राज करने लगेंगे । राज वे पहले भी करते थे किंतु तब वे विधिसम्मत राजा नहीं थे, अब वे विधिसम्मत राजा हो गये हैं ।

पाटलिपुत्र यानी पटना के ए.एन. सिन्हा इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल स्टडीज़ के डायरेक्टर डी.एम. दिवाकर ने बताया है कि मोकामा के “छोटे सरकार” यानी गम्भीर किस्म के 38 आपराधिक मामलों के लिये जेल में बंद कुख़्यात डॉन अनंत सिंह जी जेल में रहत हुये चुनाव जीत गये हैं यानी अब वे लोकतंत्र की नैया के विधिसम्मत मल्लाह बन गये हैं ।

बधायी हो ....भारत के महान संविधान को ।

कुछ समय पहले ही भारत की सुप्रीम कोर्ट ने सभी राजनैतिक दलों को आपराधिक आरोपों का सामना कर रहे प्रत्याशियों का पूरा विवरण जनता के लिये प्रकाशित करने और यह स्पष्ट करने के निर्देश दिये थे कि ऐसे लोगों को चुनाव लड़ने के लिये टिकट क्यों दिये गये ?

जनताजनार्दन को सूचित करने की दृष्टि से राजनीतिक दलों द्वारा बड़े गर्व से बताया गया कि 2020 के विधानसभा चुनावों में जीत हासिल करने वाले 68 फ़ीसदी विधायक गम्भीर किस्म के अपराधों में विभिन्न न्यायालयों में विचारण का सामना कर रहे हैं, यह संख्या पिछले विधानसभा चुनावों की तुलना में 10 फ़ीसदी अधिक है । अपराध के आरोप भी क़माल के हैं, यानी ...हत्या, हत्या के प्रयास, डकैती, अपहरण, वैश्यावृत्ति की ठेकेदारी (बोले तो चकला चलाने का धंधा), यौनशोषण में संलिप्तता, ज़बरिया चौथ वसूली, दूसरे की ज़मीन पर कब्ज़ा करने और घातक हथियार एवं विस्फोटक रखने जैसी “छोटी-मोटी ग़लतियों” के लिये “मासूमों के ख़िलाफ़ राजनीति विद्वेषवश षड्यंत्र” कर दिया गया है । भारतीय राजनीतिक विश्लेषक भी क़माल के हैं, उनके अनुसार– “यही तो भारतीय लोकतंत्र की ख़ूबसूरती है (...कि कुख्यात अपराधी भी ठसके के साथ जनता का भाग्यविधाता बन सकता है” ।

राजनीतिक विश्लेषकों की इस धूर्तता पर मोतीहारी वाले मिसिर जी ने गुस्से की भंगिमा वाला मुँह बनाते हुये अपनी तीखी टिप्पणी दी है– “निहायत बदसूरती को ख़ूबसूरती कहकर महिमामंडित करने की ग़ुस्ताख़ियाँ करते हुये इतराना वर्तमान भारत की सबसे घटिया त्रासदी है, …धूर्त महाबुद्धिजीवी अक्षम्य वैचारिक अपराध करने में लगे हुये हैं । ऐसे लोगों का कपाल तो पीकदान बनाने के लायक भी नहीं हैं” ।

गोरखपुर वाले ओझा जी कई मामलों में मोतीहारी वाले मिसिर जी से सहमत नहीं होते, उनकी गुस्से वाली प्रतिटिप्पणी को भी नज़र अंदाज नहीं किया जा सकता – “जनता जनार्दन को दिखायी नहीं देता कि वह अपना भोट किसके पक्ष में गिरा रही है ? अपराधी को भोट गिराइयेगा और फिर उन्हीं से पाँच साल तक फूल बरसाने की उम्मीद किजिएगा ! …यानी जनता ही स्पष्ट कर दे रही कि उसे साफ सुथरा माननीय नहीं बल्कि अपराधी माननीय चाहिये । मैं इसीलिये कहता हूँ कि जनता को कोई अधिकार नहीं बनता कि वह सरकार को दोष दे”।

और हाँ ! जीते हुये मननीयों में करोड़पतियों की संख्या इस बार 67 फ़ीसदी से बढ़कर 81 फ़ीसदी हो गयी है । यानी करोड़पति और अपराधीवृत्ति का सामना करने वाले माननीय बिहार की तक़दीर लिखने के लिये तैयार हो चुके हैं ।

इस बार की दीवाली पर मोतीहारी वाले मिसिर जी ने प्रश्नों की पूरी एक लड़ी दाग दी है – “क्या भारत में साफ-सुथरी छवि वाले और निष्ठावान प्रत्याशियों का अकाल है ? राजनीतिक दलों की प्राथमिकता में विवादास्पद छवि वाले लोगों की ही संख्या अधिक क्यों होती है ? जनता अच्छी छवि वाले लोगों को वोट न देकर आपराधिकवृत्तियों के लिये कुख्यात रहे लोगों को वोट क्यों देती है ? क्या जनता के चुनाव में कोई दबाव और बाध्यता होती है या वे ही दबंगों को राजनीति के लिये आवश्यक मानते हैं ? क्या प्रत्याशियों के चयन के लिये संविधान में किसी परिवर्तन की आवश्यकता है ? जिस भारत में राजा को भगवान का स्थान दिया जाता रहा है वहाँ इन आधुनिक राजाओं का स्थान क्या होना चाहिये ? …ये वे अनिवार्य प्रश्न हैं जिनके उत्तर इतिहास में दर्ज़ किये जायेंगे” ।


सोमवार, 9 नवंबर 2020

नयना क्या देखें...

अज़रबैजान में जातीय और धार्मिक विद्वेष की सालों से सुलगती आग एक दिन फिर से भभक कर जल उठी । ऐसा अक्सर हुआ करता था किंतु यह 1980 की बात है जब अज़रबैजान में जातीय हिंसा की लपटों ने ईसाइयों को निगलना शुरू कर दिया था । निशान के पड़ोस में कुछ लोगों ने एक युवक का सिर काट डाला । चीख-पुकार से सहम कर चार साल की नन्हीं जेम्मा और आठ साल के लीवॉन ने अपने पिता निशान की ओर भयभीत दृष्टि से देखा । लीवॉन ने पूछा – “क्या ये लोग एक दिन हमें भी मार देंगे”? निशान ने बच्चों की ओर कातर दृष्टि से देखा किंतु कोई उत्तर नहीं दिया । वर्तानूश की आँखों से आँसू बहने लगे, उसने दोनों बच्चों को कसकर अपने सीने से लगा लिया फिर बोली – “हम ज़ल्दी ही अज़रबैजान छोड़कर आर्मीनिया चले जायेंगे”। माँ से लिपटकर दोनों बच्चों को लगा कि अब वे पूरी तरह सुरक्षित हैं, दुनिया की कोई शक्ति उन्हें मार नहीं सकेगी ।

कुछ दिनों बाद जब वे आर्मीनिया के लिये प्रस्थान करने ही वाले थे कि कुछ लोगों की भीड़ ने उन्हें घेर लिया । अल्ला-हो-अकबर का नारा सुनते ही वर्तानूश चीख-चीख कर रोने लगी । उसने जेम्मा को गोद में उठाया और लीवॉन की कलाई पकड़कर एक ओर भागी । निशान ने भी भागने की कोशिश की किंतु भीड़ ने उस पर हमला कर दिया । निशान वहीं मारा गया ।

वर्तानूश दोनों बच्चों के साथ किसी तरह आर्मीनिया पहुँचने में सफल हुयी । आर्मीनिया में अपने पढ़ायी पूरी करने के बाद फ़्रांस जेम्मा का नया ठिकाना बना, वर्तानूश ने उम्र पूरी करने के बाद परमशांति की शरण ली और युवा लीवॉन 1991 में हुये नागोर्नो क़ाराबाख़ के युद्ध में मारा गया । निशान के परिवार में अब केवल जेम्मा ही बची है ।

जेम्मा की स्मृति में दहशत और हैवानियत की न जाने कितनी घटनायें हमेशा के लिये दर्ज़ हो चुकी हैं । यह लगभग चालीस सालों के इतिहास का एक बहुत छोटा सा अंश है जिसका साक्षी और भुक्तभोगी रहा निशान का परिवार एक उदाहरण भर है । आर्मीनिया और अज़रबैजान की सीमाओं के दोनों ओर रक्तसंघर्ष, लूटपाट और यौनहिंसा की बेशुमार घटनाओं का एक अलग ही अलिखित इतिहास पिछले कई दशकों से रचा तो जा रहा है किंतु जिसे कोई इतिहासकार लिखित इतिहास का हिस्सा कभी नहीं बनायेगा ।

“धर्म यदि मनुष्य की आवश्यकता है तो उसे लेकर यह मार-काट क्यों ...और कब तक”? –जेम्मा ने एक दिन अपने पति एलेक्स से पूछा । एलेक्स ने एक गहरी साँस ली फिर कहा – “मनुष्य हर उस चीज के लिये मारकाट करता रहा है जो उसकी आवश्यकता है । जितनी अधिक आवश्यकता उतनी ही अधिक मारकाट । हमारी आवश्यकताओं की कोई सीमा नहीं है इसलिये किसी न किसी आवश्यकता के लिये हमेशा छीना-झपटी और मारकाट करना हमारे जीवन की ऐसी प्रवृत्ति है जिससे मुक्त हो पाना सम्भव नहीं लगता । यह सब हर युग में होता रहा है ...आगे भी होता रहेगा । हाँ! इस पर अंकुश लगाने के प्रयास होते रहने चाहिये”।

यह एक सपाट और ईमानदार उत्तर था किंतु इससे जेम्मा की निराशा और भी बढ़ गयी थी । धीरे-धीरे उसने चर्च जाना भी छोड़ दिया । मर्सैल्ह की ख़ूबसूरत सड़कें और पार्क अब उसे आकर्षित नहीं कर पाते । निराशा के क्षणों में मर्सैल्ह के ओल्ड पोर्ट में घण्टों बिताने वाली जेम्मा को ओल्ड पोर्ट भी अब जैसे खाने को दौड़ने लगा । वह सोचा करती –पशु भले ही हिंसक होते हैं ...उनमें ख़ूनी संघर्ष भी होते हैं किंतु वे एथिकल ज़ेनोसाइड तो नहीं करते । मनुष्य तो पशुओं से भी गया गुजरा है ।

भीतर से अशांत और ऊपर से शांत सी दिखने वाली जेम्मा से मेरी पहली भेंट ऋषिकेश में हुयी थी । उन दिनों वह बहुत उदास थी और मुझे अवसाद की ओर बढ़ती सी दिखायी दे रही थी ।

जेम्मा से हुयी दूसरी भेंट ने मुझे परेशान कर दिया था । पहली भेंट में उसने कहा था कि वह सीकर है, किंतु इस बार मैंने उसे मारीज़ुआना की गिरफ़्त में जकड़ा पाया । ख़ूबसूरत जेम्मा सूखकर काँटा हो गयी थी । गंगा के किनारे एक गँजेड़ी बाबा की झोपड़ी उसकी नयी आश्रयस्थली थी । मैंने उससे बात करनी चाही तो उसने मुस्कराकर कहा था – “एथिकल ज़ेनोसाइड का आज तक कोई समाधान नहीं निकल सका । योरोपीय देश तमाशा देख रहे हैं ...हर कोई तमाशा देख रहा है ...भारत भी ...और आर्मीनियन एपोस्टोपिक क्रिश्चियन मारे जा रहे हैं । क्या क्रिश्चियन होना अपराध है ? ...अब तुम जाओ ...मैं चुप रहना चाहती हूँ”।

जेम्मा से मेरी तीसरी भेंट फिर कभी नहीं हो सकी । ऋषिकेश के गँजेड़ी बाबा ने बताया कि अब वह इस दुनिया में नहीं है... ... ... ...

जेम्मा अपनी माँ वर्तानूश के पास चली गयी । स्वर्ग में उसकी माँ ने पूछा होगा –“नागोर्नो क़ाराबाख़ में युद्ध समाप्त हो गया न!”

जेम्मा चुप रही होगी ...शर्म से उसने अपनी आँखों को पलकों से ढँक लिया होगा । बंद पलकों के नीचे से रिसते आँसुओं की धारा से लिखी इबारत को पढ़कर वर्तानूश ने भी अपनी आँखों को पलकों से ढँक लिया होगा ।

ख़ूबसूरत दुनिया को देखने के लिये बनायी गयी ये आँखें मनुष्य के बहते ख़ून को आख़िर कब तक देखती रहेंगी !