शुक्रवार, 23 फ़रवरी 2018

जोग माया संसार

-      भव्य है बाबा का आश्रम ।
-    दिन भर पसीना बहाते श्रमिकों और कृषकों के लिए दुर्लभ हैं बाबा और उनके माया संसार ।
-      भारत बाबाओं का देश है । भारत की माटी बहुत उर्वरक है बाबाओं के लिए
-    दाढ़ी वाले बाबा, बिना दाढ़ी वाले बाबा, गेरुवा वस्त्रधारी बाबा, श्वेतवस्त्रधारी बाबा, धोती और कुर्ता-पाजामा से लेकर जींस और स्टाइलिश परिधानधारी बाबा, देशी सुन्दरियों और विदेशी गौरांगिनियों से मंडित-सेवित अभिजात्य बाबा, फलाहारी बाबा, सर्वभक्षी बाबा, गँजेड़ी बाबा, शराबी बाबा, शुद्ध अंग्रेज़ी से लेकर अशुद्ध हिंदी तक बोलने वाले बाबा, माया संसार में आँखें मूँदे डुबकी लगाते ऐश्वर्यसम्पन्न बाबा, धन-कुबेर को पराजित करते धन्नासेठ बाबा...    
-      मठ-मंदिर में बाबा, माया में बाबा, सत्ता में बाबा, विपक्ष में बाबा, भोग में बाबा, रोग में बाबा, व्यापार में बाबा, जेल में बाबा...
-      अद्भुत् है बाबाओं का जोगमाया संसार ।
                           
-      वीतरागी ने उपदेश दिया – “...भोग नहीं योग”।
-      निषेध कर दिया – “...ठगिनी माया का त्याग करो”।
-     एकादश इन्द्रियों वाले शरीरधारी विकल हो उठे, संत के वचनामृत का पान और पालन किए बिना मुक्ति नहीं मिलेगी ।
-     द्विविधा यह थी कि अग्नि को ताप से मुक्त कैसे किया जाय ? हिम को शीत से मुक्त कैसे किया जाय ? इन्द्रियों को उनके धर्मपालन से रोका कैसे जाय ?
-    भक्तों ने बल प्रयोग किया ...इन्द्रियों का दमन किया ...फिर एक दिन अचानक विस्फोट हुआ ...भक्तों को अपने-अपने स्वामी बाबाओं के साथ पापकुण्ड में आकण्ठ डूबे हुए देखा गया ।
-      निषेध का अतिवाद और अप्रासंगिकता इन्द्रियों को रास नहीं आई । इन्द्रियाँ अपने स्वभाव का त्याग कैसे कर सकती हैं भला !

-      किसी ने कहा – “...भोग भी और योग भी”।
-   ओशो ने भी निषेध नहीं किया, स्वीकार किया । जो जैसा है उसे उसी रूप में ...उसके गुणधर्म के साथ स्वीकार किया ...माया को आनन्द के साथ स्वीकार किया और यात्रा करते रहने का संकल्प लिया ।
-      यात्रा होती रहेगी तो वर्तमान पीछे छूटता रहेगा... भोग पीछे छूट जाएगा ।
-      यात्रा में कुछ तो साथ रहेगा । जब भोग होगा तो योग नहीं होगा, जब योग होगा तो भोग पीछे छूट जाएगा । दोनों को साथ रखना है तो विदेह होना होगा, बिना विदेह हुए... बिना कृष्ण हुए सम्भव नहीं है स्थितप्रज्ञ हो पाना । विदेह होना स्थूल से सूक्ष्म होना है..., द्रव्य से ऊर्जा होना है..., जड़ता से चेतना की स्थिति तक पहुँचना है ।  
-      निषेध के साथ यात्रा नहीं हो सकती, स्वीकार के साथ सम्भव है यात्रा ।
-      अब लाख टके का प्रश्न यह है कि भोग से आगे की यात्रा कैसे की जाय ? द्विविधा है कि कहीं उसी में लिपटे रह गए तो ? ...तो कैसे मिल सकेगा मोक्ष ?

-      आयुर्वेद के ऋषियों ने कहा – “प्रसन्नात्मेन्द्रिय मनः ...”।
-      उन्होंने आत्मा और मन की ही नहीं इन्द्रियों की भी प्रसन्नता का उपदेश दिया ।
-     प्रसन्नता का अर्थ है निर्मलता । मल रहित इन्द्रियों के साथ की गई यात्रा ही प्रशस्त है ।
-     मलरहित इन्द्रियाँ ? हाँ ! विकारशून्य... स्वाभाविक । स्व-भाव में रहते हुए... स्व-धर्म का पालन करते हुए संतुष्ट होती हुई इन्द्रियाँ मलरहित होती हैं । स्व-भाव और स्व-धर्म को विवेक की अपेक्षा होती है । विवेक किसी भी यात्री को स्व-धर्म से विचलित नहीं होने देता । यात्रा में त्याग की नहीं विवेक की आवश्यकता है ।               
    

मंगलवार, 20 फ़रवरी 2018

सत्ता का कठोर दर्शन


प्राचीन इतिहास में दुष्ट और अत्याचारी राजाओं के साथ-साथ प्रजावत्सल राजाओं के भी आख्यान पढ़ने को मिलते हैं । भारत की वर्तमान लोकतांत्रिक व्यवस्था में “प्रजावत्सलता” का गुण एक स्वप्न भर होकर रह गया है । वर्तमान भारत के ऐतिहासिक आख्यानों में हमारी आने वाली पीढ़ियों को शासकों के केवल एक ही वर्ग के आख्यान पढ़ने को मिल सकेंगे । यह असंतुलन कलियुग की चरमावस्था का द्योतक है तथापि अभी हम किसी अवतार की सम्भावनाओं के समीप भी नहीं हैं । हमें अपने उद्धार का पथ स्वयं ही निर्मित करना होगा । 

प्रजा को वर्तमान शासकों से यह आशा करने का कोई आधार नहीं है कि वे लोकहित का कोई कार्य या उद्धार जैसा कोई महान कार्य कर सकेंगे । विश्व के सभी देशों में न्यूनाधिक यही स्थिति है । सत्ताधीश लोकहित्त के न्यूनतम कार्य भी उतने ही करते हैं जितने कि सत्ता में बने रहने के लिए अपरिहार्य हों । प्रजा की स्थिति पिंजरे में बन्द उस शेर की तरह होती है जिसे केवल जीवित भर रहने के लिए भोजन दिया जाता हो । आधुनिक औद्योगिक वैश्वीकरण केवल निर्मम शोषण के सुदृढ़ स्तम्भों पर टिका हुआ है । रेशम पथ को पुनः स्थापित करने के पीछे चीन की तड़प और तिकड़म इसका ताजा उदाहरण है । आधुनिक तकनीक और वैश्वीकरण ने निर्ममता एवं शोषण को और भी व्यापक कर दिया है ।

अब हमें यह निर्मम सत्य स्वीकार कर लेना चाहिए कि सत्ता, औद्योगिक क्रांति और शोषण का गठबन्धन उस निरंकुश शक्ति के लिए आवश्यक है जिसके लिए सत्ताधीश लालायित रहते हैं । हमें यह सत्य भी स्वीकार कर लेना चाहिए कि सत्ताधीशों की जाति से प्रजा की जाति पूरी तरह भिन्न हुआ करती है । हमारे देश में प्रशासनिक अधिकारी नामक एक तीसरी जाति और होती है जो सत्ताधीशों के लिए हथियार का काम करती है । आदर्श के भूखे और जागरूक लोगों को  सत्ताधीशों और उनके हथियारों की धूर्तता कभी रास नहीं आती ।

सत्ताधीशों की योजनाओं और आश्वासनों के छल को समझने के लिए हमें सत्ताधीशों और संतों के उद्देश्यों एवं उनकी कार्यप्रणाली को ध्यान में रखते हुए विश्लेषण करना चाहिए । सत्ताधीश चौथ वसूलने वाले दबंगों की जाति का वह संगठित धड़ा है जिसने शोषित प्रजा से ही बड़ी चालाकी और धूर्तता से चौथ वसूलने के अधिकार को प्राप्त कर लिया है । अर्थात् भेड़िए ने खरगोश का शिकार करने की मान्यता खरगोश से ही प्राप्त कर ली है । आम आदमी को यह स्वीकार करना होगा कि भेड़िए से किसी सात्विक गुण की आशा नहीं की जा सकती । मर्यादापुरुषोत्तम या विक्रमादित्य जैसे लोग विरले ही होते हैं । रावण, कंस और जरासन्ध की भीड़ से मर्यादापुरुषोत्तम के आदर्शों की आशा नहीं की जानी चाहिए ।   
हम सत्ताधीशों से यह आशा नहीं कर सकते कि वे शासन तंत्र के आदर्श मूल्यों को जीते हुए लोककल्याण में प्रवृत्त होंगे । यह एक उच्च मानवीय गुण है जो सात्विक संतों के ही आचरण में मिल सकता है । इसका सबसे बड़ा प्रमाण है दुनिया भर में फैले आतंकवाद को पोषित करने वाले आर्थिक स्रोतों को संरक्षण देने वाले देशों के राजनीतिज्ञों की महत्वाकांक्षाएं । शक्तिसम्पन्न देश चाहें तो आतंकवाद को समूल नष्ट करने में विलम्ब नहीं होगा ।
मिथ्या आश्वासनों, दम्भपूर्ण मिथ्या प्रदर्शनों और आत्म प्रशंसा के आडम्बर में मुग्ध राजनीतिज्ञ से लोककल्याण की आशा करना व्यर्थ है । 

समाज अपनी स्वाभाविक ऊर्जा से लुढ़कता हुआ चलता है, लोग अपनी दिव्य ऊर्जा से आगे बढ़ते हैं, सत्ता का उसमें कोई योगदान नहीं होता, प्रत्युत सत्ताएं तो उनके मार्ग की अवरोधक ही होती हैं । यह सब लिखने का उद्देश्य आलोचना करना नहीं अपितु वास्तविकता को समझ कर स्वीकार करना और तदनुसार अपने उत्थान का मार्ग स्वयं तलाश करना है । 

बुधवार, 14 फ़रवरी 2018

बदमाश औरतें

सर्दियों की एक दोपहर । मरीज़ों की भीड़ के बीच डाकिए ने पैकेट थमाया, एक कागज पर हस्ताक्षर लिए और चला गया । ओपीडी निपटाने के बाद एक बजे भोजनावकाश में पैकेट खोला तो सामने थी “बदमाश औरतें” ।
मेरी कल्पना के मंच पर चेहरे को काले नकाब से ढके, हाथ में बंदूक उठाए घोड़े को भगाती पुतली बाई नुमा कुछ औरतें धूल के गुबार उड़ाती हुईं निकल गईं । थोड़ा साहस जुटाया... किताब खोली... तब तक पुतलीबाई जा चुकी थी । वह वापस नहीं आई, मैंने चैन की सांस ली किंतु...
किंतु...  पहले सफ़े पर ही अस्पताल का एक कमरा दिखाई दिया । यह बर्न यूनिट था, अपनी ख़ास गंध के साथ । सफ़ेद पट्टियों में लिपटे ज़ख़्म... कराहते लोग... कुछ ज़िंदगी तो कुछ दर्द से मुक्ति के लिए मौत माँगते लोग । उफ़्फ़ ! दर्द... दर्द... दर्द... और दर्द । बेड नम्बर एक पर ही मिल गई चुन्नियों में लिपटे दर्द ... दर्द की महक और ख़ामोश चीखों वाली हीर । ख़ामोशियों के जंगल में वक़्त धीरे से मुस्कराया, हीर ने मेरी तरफ़ नज़रें उठाकर देखा फिर बोली  “अभी और इम्तहां बाकी है ....” । मैंने कहा – “बिना इम्तहां भी कोई ज़िंदगी होती है भला”! 
बात सुनकर हीर मुस्कराई, दर्द मुस्कराया, कुछ और नज़्में भी मुस्कराने लगीं । अस्पताल के वार्ड में रात घिर आई थी, अँधेरों ने फफोलों को छू दिया, सिसकती रात के ज़िस्म से फिर रिसने लगीं कुछ नज़्में ।
ठहरी हुई औरत भीतर से कितनी भरी हुई है... यह कोई नहीं जानता और वह झील की तरह शरीफ़ मान ली जाती है । दुनियादारी की मानें तो यही रिवाज़ है ।
कभी-कभी भरी हुई कोई औरत ठहर नहीं पाती... वह झील नहीं...  बहती हुई सरिता बन जाती है और पुराने रिवाज़ टूटने लगते हैं । पास खड़े बरगद को किसी रिवाज़ का टूटना अच्छा नहीं लगता... तो पल भर में बहती नदी सैलाब के आरोपों से घेर दी जाती है । दुनियादारी की मानें तो यह भी एक रिवाज़ है ।
रिवाज़ें जब टूटती हैं तो “आग पर कदम” रखने पड़ते हैं । यह आग सवाल करती है, हीर भी सवाल करती है ...और सवाल करने वाली हर औरत की तरह चुप-चुप रहने वाली शर्मीली हीर भी एक “बदमाश औरत” बन कर नज़्मों की छाती में सुलगते अक्षरों की अगन बो देने के लिए बेताब हो उठती है । आग बो देने का यह संकल्प ही हीर की संवेदनाओं को झील से निकालकर बहती नदी बना देता है । सूखे पेड़ पर टंगी कविता बह उठती है, किसी रचनाकार की रचनाधर्मिता का यह चरम बिंदु है ।
औरतें कविता नहीं लिखतीं, ख़ुद हो जाती हैं कविता... और बेदर्द दुनिया की बेहयाई तो देखिए कि बड़ी चालाकी से हर हमदर्दी का लफ़्ज़ औरत के ज़िस्म से लिबास उतारने और उसे तवायफ़ बनाने में जुट जाता है । लेकिन हक़ीकत का एक और पहलू यह भी है कि हीर की सबसे छोटी नज़्म “तवायफ़-1” पल भर में में लोगों को नंगा कर देती है और पाठक भौंचक हो देखता रह जाता है ।
हीर की नज़्मों में अँधेरे की ग़िरफ़्त में घुटती रोशनी की कुछ कतरे हैं, आनंद की तलाश में छटपटाते दर्दों के काफ़िले हैं, बेपनाह मोहब्बत में डूबे बेहद नाज़ुक शीशे हैं, दुनिया को नंगा करती चीखें हैं, शराफ़त के चोले में दम घुटकर मर जाने से इंकार कर देने वाली बदमाश औरते हैं और है शाश्वत प्रेम की तलाश । यह तलाश ही साहित्य को प्रवाह देती है और उसे मरने से बचाती है ।   
धुप्प अँधेरेमें कहीं कंकरीली कहीं दलदली तो कहीं तपती रेतीली धरती पर भटकने की अभ्यस्त हीर ने पता नहीं कब अपने आसपास बिखरी...  नम हो चुकी राख में से चिंगारियाँ खोजकर अपने सीने में सहेज लेने में महारत हासिल कर ली थी... नदी की रेत में से सोने के बारीक कण खोजते किसी वंचित सोनझरिया की तरह । हीर की सहेजी ये चिंगारियाँ अब सम सामयिक साहित्य की ही नहीं बल्कि सैद्धांतिक क्रिटिक की भी अमानत बन चुकी हैं ।      

नज़्म हमारे आपके चारों ओर हर वक़्त साया बनकर चलती है पर दिखती कभी नहीं । नज़्म को देखन के लिए हीर जैसी आँखें चाहिए । जब कोड़े बरसते हैं तो नज़्म गर्भ में आती है । इस नज़्म के पैदा होने की राह में चुनौतियाँ भी कम नहीं हैं, हाथों में छुरे लिए चारों ओर खड़े ज़र्राह मौके की तलाश में हैं । नज़्म को गर्भपात से ख़ुद को बचाना होगा । हीर को यह बात अच्छी तरह पता है इसलिए एक सजग गर्भिणी की ज़िम्मेदारियों को निभाती हुई हीर ने दर्द की कई मंजिले तय कर ली हैं । हीर की यह यात्रा... यह तलाश... यह क्रांति... अनवरत चालू है... उन्हें यह पक्का यक़ीन है कि कुछ अधूरी नज़्में...  ताउम्र का साथ निभा जाती हैं...  लिखे जाने के इंतज़ार में । 


गुरुवार, 8 फ़रवरी 2018

बस्तर को बूझा ही किसने

मड़िया-आमा-चार क्या कहने
महुआ मस्ती फूलों के गहने
अचरज से भर मसला सबने    
बस्तर को बूझा ही किसने ।

बघवा जब तक रहे विचरते
गीत सुने मैना के सबने
क्यों मौन है मैना जंगल सूने
बस्तर को बूझा ही किसने ।

प्राण घुटे घोटुल के अपने
चतुरों ने आ बेचे सपने
चारागाह बनाया सबने 
बस्तर को बूझा ही किसने ।

जंगल नदिया बिखरे प्रस्तर
ले रत्न गर्भ में सोया बस्तर    
आया जो भी लगा वो छलने

बस्तर को बूझा ही किसने ।