शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2011

यथार्थ के धरातल पर





मुझे गर्व है अपने देश पर 
जो 
सारे जहां से अच्छा है.
इसी 
"सारे जहां से अच्छे हिन्दोस्तां" के 
किसी भी शासकीय कार्यालय में 
जब भी जाता हूँ 
तो थोड़ी और लम्बी हो जाती है 
मेरे साथ होने वाले अन्यायों की सूची
जो 
स्थायी भाव से चिपकी हुयी है
मेरे भाग्य के साथ.
यह सूची 
मेरे जीवन का अनिवार्य अनुभव है 
जिसे लेकर 
बड़े,
फिर उनसे बड़े,
फिर उनसे भी बड़े,
फिर .......
............
फिर सबसे बड़े अधिकारी से मिलता हूँ मैं 
तो हर बार 
दंग रह जाता हूँ
यह सोच कर
कि महान लोकतंत्र के इतने विशाल प्रशासन को 
इतने मज़े से 
कैसे चला पा रहे हैं .....ये मुर्दे ?
मैं तो 
सारी संवेदनाओं के साथ जीवित होकर भी 
अपना छोटा सा घर नहीं चला पा रहा हूँ ढंग से.

खिसिया कर 
मैंने आईने गढ़ने शुरू कर दिए हैं 
जिनमें 
अपने विकृत चेहरे देख-देख कर 
मुस्कुराते हुए बाज़ नहीं आते ये मुर्दे.
चीखते आइनों से 
भर गया है मेरा घर. 
उधर .....
लोकतंत्र को और भी मज़े से चलाने 
रोज बढ़ती जा रही है 
नए-नए मुर्दों की भीड़ 
और अब तो 
आइनों के औचित्य पर भी लग गया है प्रश्न चिह्न .
सोचता हूँ 
उस कारीगर ने भी तो की है नाइंसाफी 
मेरे साथ.
आखिर .....
क्यों नहीं बनाया उसने कोई चौखटा 
जिसमें समा पाता मैं 
अपने पूर्ण अस्तित्व के साथ 
और सहेज पाता वे मूल्य 
जिनसे संस्कारित हुआ हूँ मैं.... 
...जिन्हें रट-रट कर बटोरी हैं डिग्रियां  
और .......जो हो जाती हैं मूल्यहीन 
इस धर्म प्राण देश में
आते ही  
यथार्थ के धरातल पर. 



  

सोमवार, 21 फ़रवरी 2011

उनके पास पता है उसका.

ठण्ड बढ़ती जा रही है 
मौसम सर्द से सर्द होता जा रहा है 
जमता जा रहा है सब कुछ 
रक्त भी .....और विचार भी.
लोग बर्फ हो गए हैं 
खामोश तो वे पहले से थे ही. 
मुझे गर्मी की तलाश थी.............. 
कहाँ मिलेगी ? 
इस बंद कमरे में ? 
उफ़ ! यहाँ कहाँ ?
तो चलो बाहर चलते हैं 
घने कुहरे में कहीं खोजते हैं  ..
पेड़ों से पूछते हैं ...
गेहूं की बालियों से पूछते हैं .......
दूब की पत्तियों से पूछते हैं ............
मैं निकलने ही वाला था 
कि तुम मिल गयीं 
गहरी नीली चादर ओढ़े 
सर से पावों तक ढकीं ...मुदीं ....
मैंने तुमसे गर्मी का पता पूछा 
तुम चुप थीं 
मैंने तुम्हें हिलाया 
तुम चुप थीं 
मैंने तुम्हारी चादर को छुआ 
वह सर्द थी ....
बेजान सी ...मुझे डर लगा
तुम कौन हो ? मैंने पूछा ...
एक सर्द आवाज़ आयी -
"उदासी"
मैंने कहा - झूठ 
वह तो तुम्हारी चादर का नाम है 
उसके भीतर कौन है यह बताओ 
तुमने कहा - "दर्द"
मैंने कहा - अच्छा है ...चलो अब 
मेरे साथ चलो 
दोनों मिल के गर्मी को तलाशेंगे
वह यहीं कहीं होगी 
मिलेगी ज़रूर
तुम चलो तो सही ....
आगे किरण बेदी से पूछ लेंगे
उनके पास पता है उसका.  

  

रविवार, 20 फ़रवरी 2011

मैं घोटालों के लिए टैक्स नहीं दूंगा

आज गीत से पहले कुछ बातें हो जाएँ .....
पहली बात यह कि दैनिक भास्कर के माध्यम से देश के शीर्ष उद्योगपतियों ने जो पहल की है वह स्वागत योग्य है ....इनका कहना है कि वे सरकार को घोटाले करने के लिए नहीं देश के विकास के लिए टैक्स देते हैं ...यदि सरकार टैक्स के पैसों का दुरुपयोग करेगी तो वे टैक्स क्यों दें ?
बिल्कुल ठीक ...हम भी टैक्स नहीं देंगे ........और किसी को भी नहीं देना चाहिए .....भले ही हम साल में करोड़ों का टैक्स नहीं देते ....पर हम जैसे हज़ारों का टैक्स देने वालों की संख्या ही देश में अधिक है .......हम जो सालाना टैक्स देते हैं उसके उपयोग का खुलासा होना चाहिए ........पूरे देश से अपील है मेरी ....इस मुहिम में शामिल होने के लिए. 
 दूसरी बात है  अपने मन्नू भैया का बेचारगी भरा वक्तव्य जिसमें उन्होंने हथियार डालते हुए फरमाया कि "मजबूर हूँ पर उतना गुनाहगार नहीं" ... ...विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश के प्रधानमंत्री ने बड़ी बेचारगी और बेशर्मी के साथ स्वीकार कर लिया है कि गुनाहगार तो हैं पर उतने नहीं जितना मीडिया ने प्रचारित कर दिया है या जितना लोग समझ रहे हैं ...... मुझे लगता है कि हमारे प्रधान मंत्री का यह एक गैरजिम्मेदाराना वक्तव्य है. हम नहीं समझते कि उनके सामने कुर्सी से चिपके रहने की कोई मजबूरी है.
तीसरी बात है नक्सलियों के अहिंसक हथियार के बढ़ते प्रयोग के सामने सरकार की लाचारी. सरकार से अपनी मांगें मनवाने के लिए किसी शासकीय अधिकारी या कर्मचारी का अपहरण नक्सलियों का कारगर हथियार साबित हो रहा है. यह एक अत्यंत गंभीर विषय है मुट्ठी भर हथियार बंद लोगों के सामने एक लोकतांत्रिक सरकार का गिरवीं हो जाना एक बड़े खतरे का पूर्व संकेत है ...... मजे की बात यह है कि मलकानगिरी के कलेक्टर का सुराग सरकार को नहीं लग पाया अभी तक ...पर मानवाधिकार वालों को पता है कि नक्सलियों ने कहाँ छिपाया है ...लगता है कि नक्सली अपहरण के बाद सीधे स्वामी अग्निवेश को फोन करके सूचित करते हैं कि आ जाओ फलां जगह ...वार्ता कर लेते हैं. अभी कुछ ही दिन पहले स्वामी अग्निवेश की मध्यस्थता में नक्सलियों ने बस्तर में अगवा किये गए कुछ पुलिस वालों को सरकारी नौकरी छोड़ देने की शर्त पर रिहा किया    है ....और अब अपने कुछ साथियों को जेल से छोड़ देने की शर्त के साथ कलेक्टर का अपहरण .....यह तो कबीला तंत्र हो गया ........हम सरकार से जानना चाहते हैं कि क्या हम कबीला युग में वापस आ गए हैं ? 

मैं आप सभी को आमंत्रित करता हूँ कि कृपया अपनी टिप्पणियों से अपने विचार प्रकट करें ......और देश की समस्याओं के बारे में अपनी जागरूकता और सक्रियता का परिचय दें.

और अब आज का गीत ......जो कि गीत कम ....एक सच्चा दस्तावेज़ अधिक है ...

बीजिंग से 

माओवाद के सुर में जहां रोकर भी है गाना 
पता बारूद की दुर्गन्ध से तुम पूछकर आना .

बिना दीवारों का कोई किला ग़र देखना चाहो 
तो बस्तर के घने जंगल में चुपके से चले आना. 

धुआँ बस्तर में उठता है तो बीजिंग से नज़र आता
हमारे खून से लिखते हैं माओ का वे अफ़साना.

वे लिख दें लाल स्याही से तो ट्रेनें भी नहीं चलतीं 
कटीले तार के भीतर डरा-सहमा पुलिस थाना .

यहाँ इस देश की कोई हुकूमत है नहीं चलती 
कि बंदूकों से उगला हर हुकुम सरकार ने माना .

जो रखवाले थे हम सबके वे अब केवल उन्हीं के हैं
नूरा कुश्तियों में ही ये बंटते अब खजाने हैं .

हमने ज़िंदगी खुद की खरीदी तो बुरा क्या है 
यहाँ सरकार भी उनको नज़र करती है नज़राना . 

  

शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2011

बिना रिश्ते......

पथिक तुम कौन ?
ज़ो हो उठते बेचैन
तनिक ज़ो होती मैं उदास
कहो ........
तुम्हें मुझसे क्या आस ?
जब-जब तड़पती मैं 
तुम्हारे होठ पलकों के  
बंद करते द्वार   
उमड़ पड़ते 
और तब तेरे  नयन.
भला क्यों इस तरह उमड़े 
बिना रिश्ते
क्यों ......
पथिक तुम कौन हो मेरे ?

यह तो मेरा .....सिर्फ़ मेरा है .....

कहीं कुछ पिघलता सा देखती हूँ मैं 
तुम्हारे वक्ष में  
भोले पथिक !
किन्तु इतना  जान लो 
यहाँ 
सख्त पहरे हैं पिघलने पर    
जाओ .......कहीं दूर चले जाओ     
जहाँ न पहुंचे आँच .....ये कमबख्त .
दफ़न क्यों हो रहे तुम भी
....यूँ बेवजह ............
दिया अधिकार किसने ये ? 
यह तो मेरा ..............सिर्फ मेरा है 
जीते जी दफ़न होना 
आग में सती होना
रीत ऐसी ही चली है 
और तुम भी चुपचाप 
यह सब देखते रहना.


जब कभी दिल में तुम्हारे 
मौसम हो पतझड़ का
सूखे पत्तों को लेकर हाथ  
मुझे चुपके से करना याद 
मैं उतरूंगी नयन तेरे 
पलकें बंद करके फिर
बसूँगी ख़्वाब में तेरे.    

मौसमी पंछी

बंध गयी खूंटे से मैं एक बार 
मौसमी पंछी यहाँ आते बहुत हैं  
पर वक़्त पर अपने  ....... 
बस 
वर्ष में एक बार .

बुधवार, 16 फ़रवरी 2011

कुछ कतरनें ....

यात्रा 

जब हम ट्रेन में होते हैं 
तो पूरी तरह फुर्सत में होते हैं 
जब हम फुर्सत में होते हैं 
तब बहुत अच्छे समीक्षक और विश्लेषक होते हैं 
जब हम समीक्षा करते हैं 
तब इमानदारी का बेहतरीन प्रदर्शन करते हैं 
क्योंकि वह केवल 
प्रदर्शन की चीज होती है.
ख़त्म होते ही यात्रा 
हम पुनः अपनी दुनिया में लौट आते हैं, 
दुनिया में लौटते ही 
पुनः व्यस्त हो जाते हैं
व्यस्त  होते ही 
पूरी तरह बेइमान हो जाते हैं .
अब पता चला ......
कि समाप्त होते ही यात्रा 
वापस क्यों ले ली जाती है टिकट.
काश !
हमारे घरों और दफ्तरों में भी होते ट्रेन के डिब्बे 
ताकि बिता पाते हम 
पूरी ज़िंदगी 
एक इमानदार यात्रा करते हुए.

बगावत 

हम 
उनके आने का लंबा इंतज़ार करते हैं
आते  ही 
फूल माला पहनाते हैं 
उनकी लफ्फाजी पर 
तालियाँ बजाते हैं 
क्योंकि हमारे बीच का एक आदमी 
अचानक ऐश्वर्यवान हो जाता है 
आम से ख़ास हो जाता है 
हमें परी कथा के जादू सा 
सम्मोहित करता है यह खेल.
फिर एक दिन 
अचानक पता चलता है .....
कि  वह भी एक घोटालेवाज़ है 
हवा में सुगबुगाहट होती है ......
कि वह भी एक दगावाज़ है 
पिछले उन सभी लोगों की तरह 
जिनका इंतज़ार करते रहते थे हम .....
जिनको फूल मालाएं पहनाते रहते थे हम  .....
सिलसिला बदस्तूर जारी है 
क्योंकि हम पर सम्मोहन हावी है 
और हम परम्परावादी हैं .
घोटाले भी 
यूँ ही होते रहेंगे 
क्योंकि उन्हें इसका हक 
हम आगे भी देते रहेंगे ......
और यूँ भी 
हम कौन मिस्री हैं 
ज़ो तीस सालों में ही 
बगावत पर उतर आयेंगे ?

 ऊंह .......छोडो भी 

हमने तो संसद को
पान की दूकान पर चलते देखा है 
जहाँ किसी भी
राष्ट्रीय महत्व के विषय पर
अच्छी  बहस होती है, 
वह भी .....
बिना किसी जूतम पैगार के 
बिना एक भी माइक और फर्नीचर को तोड़े 
बिना किसी का मुंह नोचे.
फ़र्क ...सिर्फ़ इतना है 
कि  यहाँ पहले से कोई एजेंडा नहीं होता 
और देश का एक भी पैसा खर्च नहीं होता.
चर्चा के विषय कुछ भी हो सकते हैं, यथा .....
कोई ऐसा विषय .......
जिसकी तारीफ़ में 
कसीदे पढ़ते हों सब 
मगर रोमांस के लिए चल देते हों 
उसके विरोधी के साथ 
.....जैसे कि 'इमान' .

या कोई ऐसा विषय ........
जो समाज को 
नए सिरे से परिभाषित कर रहा हो
मूल पर ब्याज की तरह लुभा रहा हो 
.............जैसे कि 'भ्रष्टाचार' .

या फिर ऐसा विषय ......
जो व्यवस्था का नहीं 
बल्कि अव्यवस्था का संरक्षक हो 
शोर इतना हो 
कि रफ़्तार का पता ही न चलता हो 
और सब कुछ बना रहे 
वहीं का वहीं 
.............जैसे कि 'प्रशासन' .

या फिर कोई सदाबहार विषय ........
जो बिना नीति के चलता हो 
अयोग्यता ही जिसकी योग्यता हो  
घृणास्पद   किन्तु स्तुत्य हो
..............जैसे कि 'राजनीति' .

या  कोई सर्वप्रिय विषय .......
जिसका उद्देश्य हो बाँधना 
समाज  और मनुष्य को 
किन्तु व्यवहृत होता हो 
इन्हें तोड़ने और बिखेरने में 
...........जैसे कि 'धर्म'.

ऊंह  .......छोडो भी 
संसद कहीं भी लगे 
उसका महत्व ही क्या है 
किसी आम आदमी के लिए ? 
.....जैसे कि 'मैं' .




शुक्रवार, 11 फ़रवरी 2011

गंगा सी बहती जाऊंगी


कुछ न कहूँगी, सब सह कर भी  
चुपके से आँसू पी लूँगी.
जाने कितनी चोटें खाकर 
चलना सीखा आज संभलकर 
साथ ज़ो दोगे, तो भी  न लूँगी 
कांटे निर्भय हो चूमूँगी.

इश्क से मैंने इश्क किया है 
जहर मिले तो वो भी अमृत है 
मैं दीवानी भेद न जानूँ  
पी के ज़हर मैं शहर घूमूँगी.


मैं धरती हूँ रंग-बिरंगी 
तुम तो छूँछे नीलगगन हो 
मैं कजरी गैया सी दुधारू 
तुम तो दुहने में ही मगन हो 
लेकर मैं निर्मल शीतल जल
पल भर को भी बिन ठहरे ही 
गंगा सी बहती जाऊँगी.


मैं वर्षा की बूँद नहीं हूँ 
बदली से आँसू बन ढरकूँ   
तुम पर्वत केवल पथरीले 
क्यों मैं जब-तब टप-टप टपकूँ   
घाव लगे हों कितने भी मुझको
दिखने मैं कोई घाव न दूँगी.


आज भी धधके धरती ये भीतर
कोई क्या जाने कितनी है कातर. 
हर हलचल में भी हँसती हूँ 
पीड़ा के सागर ढोती हूँ.
जब कोई सीता ठौर न पाती 
आकर मुझमें ही वो समाती. 
अपना सीना चीर मैं लूँगी 
मैं धरती हूँ सब सह लूँगी. 



गुरुवार, 10 फ़रवरी 2011

शाश्वत कवितायें


बहुत पहले लिखी गयी थीं 
कुछ शाश्वत कवितायें 
......................
उनमें से एक कविता थी ......
सृष्टि की,
एक विलय की,
एक प्रेम की,
और एक विरह की.
...................
फिर एक दिन लिखी शैतान ने
एक कविता शोषण की......
और खुश होता रहा 
गा-गा कर  अपनी कविता  
तब 
साधु को भी लिखनी पड़ी 
एक कविता 
त्याग की 
और बस ....
..............
इसके बाद नहीं लिखी गयी 
कोई कविता. 
हम तो छूने का प्रयास भर करते हैं 
इन्हीं कविताओं को 
अपनी क्षमता भर 
फिर कर देते हैं रूपांतरण
या भाषांतरण
.....और जोड़ते हैं 
साहित्य में 
सिर्फ एक छोटी सी कड़ी 
बड़े गर्व के साथ .
पर शायद ....वह शक्ति नहीं रही अब 
शब्दों में 
कि कविता कर सके 
कोई क्रान्ति.
हे दयानिधे ! वह शक्ति दो हमें 
कि भर सकें 
शब्दों में कुछ आग  
और रची जाएँ कुछ  
जलती हुई कवितायें.  

मंगलवार, 8 फ़रवरी 2011

माँ ! सरस्वती वर दे !




माँ ! सरस्वती वर दे !
वर दे ! वर दे !! वर दे !!!
सृजनशील हो मेरी लेखनी 
ऐसी मति कर दे.

शब्द और स्वर की देवी तुम 
ज्ञान सुधा बरसातीं 
तुम्हीं नाद में, तुम्हीं साज में 
सुर-सरगम भरतीं .
तेरा सुत हूँ, सुधा पिला दे 
मेरी  नीरस वाणी में माँ 
अमृत रस भर दे .


शब्द शक्ति ही महाशक्ति है 
यही सृष्टि और यही प्रलय है.
रहे प्रभावी शब्द शक्ति माँ 
ऐसी धी कर दे.

पाप बढ़ा, संताप बढ़ा और 
झुलस रही धरती
श्रद्धानत हो विनय करूँ मैं 
प्रेम बहा कर सारे जग को माँ !
क्षमावान कर दे.

हों संवेदनशील हृदय सब 
मन निर्मल गंगाजल.
बुद्धि शुद्धि हो, हो प्रकाशमय
तन प्रभात सा चमके
नष्ट तिमिर कर, सकल सृष्टि को 
प्रभावान कर दे 
जीवन की गति सबल-सरस हो 
ऐसी लय कर दे !

किया निरादर गुरुकुल से 
दान हुआ व्यापार.
सरस्वती सुरसतिया हो गयी,
लक्ष्मी भई लछिमिनियाँ.
साध सका ना तेरी साधना 
बिखर गए सुरताल
मैं शरणागत बन आया आज 
कि अब तो सुर सुमधुर कर दे 
माँ ! सरस्वती वर दे !!!

सोमवार, 7 फ़रवरी 2011

बाँध सको तो ....


मुझे पता है 
तुम्हारी आँखों में तैरता नशा 
वसंत की
मादक हवा का नहीं 
बल्कि 
उस सन्देश का है
ज़ो 
किसी बाग़ में झूमते 
आम के बौर ने भेजा है .
आम तो बावरा है 
और ........
हवा का भी क्या भरोसा 
कब गर्म हो जाय ,
और कब ठंडी,
कब सामने से चले
और कब पीछे से,
रुक जाए 
कब चलते-चलते
और 
कब झकझोर कर रख दे .........
................पूरे बगीचे को.
धरती पर ..........
न जाने कब लग जाएँ 
टूटे बौर .........
या, कच्ची अमियों के ढेर .
हवा का क्या ठिकाना ?
प्रिय सखी !
तुम तो केवल ........
उठा सको 
तो उठा लेना
हवा के पंखों पर बैठी सुरभि को 
और .......
बाँध सको 
तो बाँध लेना 
अपनी स्मृति के आँचल में 
आम का बौरायापन ...........
आम का बौरायापन .



शनिवार, 5 फ़रवरी 2011

यह तय हुआ.

ज़ख्म अंधेरों ने दिए थे ख़ूब 
छिप गया था चाँद  
उगते प्रेम का,
हो गया था बादलों की ओट....... 
पर घड़ी भर बाद ही 
वह आ गया हंसता हुआ,
उम्मीदें बच गईं फिर ख़ाक होने से .
क्या ख़ूब है गर्मी तुम्हारे इश्क की 
पिघलते द्वंद्व के हिमनद
बहे हैं इन दिनों .
सैलाब कब ठहरे हुए  
देखे किसी ने आज तक !
आओ कश्ती खोल दें हम प्यार की
गा उठा है गीत कोलंबस कोई
ढूंढ लेंगे रास्ता हम भी नया.
दोस्ती कितनी पुरानी
प्रेम से है 
दर्द की.
रोक कर इनको करें क्या 
चलो ......इनको छोड़ दें रिसता हुआ
बस, प्रेम को सिज़दा करें
सिज़दा करें ...... यह तय हुआ.