रविवार, 21 अप्रैल 2019

औद्योगिक शैली का हमारी संस्कृति और सभ्यता पर प्रभाव


आधुनिक विकासवादियों ने इण्डस्ट्रियल कल्चरनामक एक नये पद की संरचना करके यह भ्रम उत्पन्न करने में पूर्ण सफलता प्राप्त कर ली है कि यह भी एक प्रकार की कोई संस्कृति है जो विकास के लिये अनिवार्य है । मैं कभी भी इसे संस्कृति स्वीकार नहीं कर सका इसलिये इस पद का हिंदी अनुवाद औद्योगिक शैलीकिया जाना उचित समझता हूँ । सभ्यता संस्कृतिका वह प्रकटस्वरूप है जो नितांत व्यक्तिगत होकर भी अपने व्यापक प्रभाव के कारण समाज में निर्दुष्ट प्रकाशित होता है । इण्डस्ट्रियल कल्चरमें, प्रथमतः प्रकाशित हो सकने जैसा कुछ भी है ही नहीं, दूसरे, यह अपने जिस भी रूप में प्रकट होता है वह निर्दुष्ट नहीं है । 
भारतीयों के मस्तिष्क में पश्चिमी जगत के बारे में स्थापित हो चुके विचार एक ऐसे स्वप्न जगत की आभासी रचना करते हैं जहाँ उच्च मानवीय आदर्श हैं, निष्ठावान लोग हैं, वैज्ञानिक उपलब्धियों से सुसज्जित चमत्कारपूर्ण जीवन जीने के समस्त संसाधन हैं, जीवन को सुविधाजनक बनाने वाले अत्याधुनिक उपकरण हैं, वैज्ञानिकविकास है, सुखी जीवन है, सुसंस्कृत और सुसभ्य समाज है । किंतु यह उतना ही सच है जितना किसी भारतीय फ़िल्म स्टूडियो का बनावटीपन और उसके बाहर फैली सड़ाँध भरी गन्दगी जिसे फ़िल्म के दर्शक कभी नहीं जान पाते ।
पश्चिमी जगत औद्योगिक विकास का दीवाना है । इस दीवानेपन ने उसे मानवीयता की सारी सीमायें तोड़ फेकने के लिये उत्साहित और प्रेरित किया है । पैसे की दीवानगी से प्रेरित पश्चिमी उद्योगपतियों ने स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी निर्मम और क्रूर उद्योग की अपसंस्कृतिमूलक शैली स्थापित करने के पाप का दुस्साहस किया है । इसका ताज़ा उदाहरण है स्वाइन फ़्लू । आप स्मरण कीजिये, लगभग सारी नयी-नयी बीमारियाँ पश्चिमी देशों से ही शेष विश्व में फैलती रही हैं फिर मामला एंथ्रेक्स का हो, सार्स का हो, ईबोला का हो या बर्डफ़्लू का । आप जानते हैं कि AIDS के मामले में भी कारण हैतीनहीं योरोपीय देश ही रहे हैं । कोई आश्चर्य नहीं कि आने वाले समय में न्यूक्लियर बम नहीं बल्कि क्रूर स्वास्थ्य उद्योगही वर्तमान सभ्यता के विनाश का कारण बने । 
          दुर्भाग्य से स्वास्थ्य के क्षेत्र में होने वाले आविष्कारों के व्यावहारिक उपयोगों की निरापदता सिद्ध करने केलिये थर्ड पार्टी साइंस रिसर्चका अभी तक उतना प्रचलन नहीं हो सका है जितना होना चाहिये । यद्यपि कुछ आदर्श वैज्ञानिकों ने सैद्धांतिक क्रांति करते हुये थर्ड पार्टी साइंस रिसर्चका बीड़ा उठाया हुआ है किंतु अनैतिक प्रोपेगैण्डा के इस युग में उनकी रिसर्च के परिणाम आम जनता तक बहुत कम पहुँच पाते हैं । 
जनवरी 1976 में Fort Dix NJ के एक सैनिक की ऑटोप्सी से ओरिजिनल स्वाइन फ़्लू का पहला केस उद्घाटित हुआ था तथापि उसकी मृत्यु के कारणों में स्वाइन फ़्लू की भूमिका पूरी तरह स्पष्ट नहीं थी । इसके पश्चात् 2009 के वसंत तक स्वाइन फ़्लू का कोई भी केस सामने नहीं आया । इसके कुछ ही महीनों बाद स्वास्थ्य के बाज़ार में एक वैक्सीन ने पदार्पण किया जिसकी सुरक्षाविश्वसनीयता के लिये किसी क्लीनिकल ट्रायल की कोई आवश्यकता तक नहीं समझी गयी । इस बीच फ़िलाडेल्फ़िया के एक होटल में 34 लोगों की मृत्यु Legionnair’s disease से हो गयी जिसे NIH (नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ हेल्थ) ने स्वाइन फ़्लू से होना प्रचारित किया । अमेरिकी मीडिया और सरकारी अधिकारियों ने स्वाइन फ़्लू का हउवा खड़ा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी ।
सामान्यतः किसी वैक्सीन को निर्माण के पश्चात ट्रायल आदि की प्रक्रिया से गुज़रने में एक वर्ष का समय लगता है किंतु “1976 स्वाइन फ़्लू वैक्सीनमात्र कुछ ही हफ़्तों में आविष्कृत होकर बाज़ार में आ गयी । पैसा कमाने के शॉर्टकट तरीके को अपनाते हुये यू.एस.पब्लिक हेल्थ सर्विसेज के वैज्ञानिकों द्वारा वैक्सीन बनाने के लिये स्वाइनफ़्लू के वाइल्ड स्ट्रेन में एक ऐसे स्वाइन फ़्लू वायरस के जीन्स का मिश्रण किया गया जो मैनमेड था और अपेक्षाकृत अधिक घातक था । दस सप्ताह में यह वैक्सीन अमेरिका के 50 मिलियन लोगों को लगाया गया जिसमें से 25 की मृत्यु हो गयी और 565 लोग Guillain Barre Syndrome के शिकार हो गये । सरकार की योजना शतप्रतिशत जनता के वैक्सीनेशन की थी किंतु वैक्सीन के कॉम्प्लीकेशंस से मचे हड़कम्प के कारण यूएस सरकार को अपना वैक्सीन प्रोग्राम दस सप्ताह बाद ही बन्द करना पड़ा ।
इंफ़्ल्युन्जा के लिये Orthomyxovirus समूह के इंफ़्ल्युंजा ए नामक उपसमूह में से एक वायरस है H1N1. जिसके सात सौ से भी अधिक स्ट्रेन्स का पता लगाया जा चुका है । फ़्लू वायरस के इतने सारे स्ट्रेन्स और फिर उनमें सहज म्यूटेशन की अधिकता स्वाइन फ़्लू वैक्सीन की उपयोगिता को अवैज्ञानिक सिद्ध करने के लिये पर्याप्त हैं ।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के सदस्यों के साथ वैक्सीन निर्माताओं और फ़ार्मास्युटिकल्स के आर्थिक सम्बन्ध विचारणीय हैं और विश्व स्वास्थ्य संगठन की विश्वसनीयता पर प्रश्न खड़े करते हैं । वैक्सीन किस तरह एक निर्मम भयादोहक उद्योग बन गया है इसे जानने के लिये टिम ओशी का लेख -  गुडबाय स्वाइन फ़्लू : बुटीक पैंडेमिकपढ़ा जा सकता है । 
इस पूरे क्रूर और अवैज्ञानिक खेल में WHO की विश्वसनीयता इसलिये और भी संदेह के घेरे में आती है कि आख़िर उसे मई 2010 में Pandemic की परिभाषा अचानक क्यों बदलनी पड़ी ? नयी परिभाषा के अनुसार पैण्डेमिक के लिये अब किसी बीमारी का गम्भीर और मारक होना तथा कई देशों में फैलना आवश्यक नहीं रह गया है । निश्चित ही इस परिभाषा के पीछे कोई वैज्ञानिक तथ्य न होकर एक क्रूर अर्थशास्त्र झाँक रहा है ।

पाश्चात्य औद्योगिक शैली के सिद्धांत उत्पादमूलक व्यापार को प्राथमिकता देते हैं जिसमें बेचने के लिये उत्पाद पहले निर्मित किया जाता है, बाद में उसकी आवश्यकता निर्मित की जाती है, यानी कुछ भी स्वाभाविक और आवश्यक नहीं होता । यही वह सिद्धांत है जो विज्ञान, उद्योग और व्यापार को क्रूरतम बनाता है । हम स्वाइन फ़्लू की आधुनिक औषधि के निर्माण के माध्यम से इस बात को समझने का प्रयास करेंगे । 
स्वाइनफ़्लू की दवा के नाम से दुनिया भर में प्रसिद्ध टैमीफ्लू (ओसेल्टैमीवर फ़ॉस्फ़ेट) का निर्माण सब्ज़ियों को स्वादिष्ट बनाने के लिये स्तेमाल होने वाले एक मसाले से किया जाता है जिसका नाम है चक्रफूल या बादियान । इसका छोटा सा वृक्ष चीन और ताइवान का निवासी है, भारत में यह अरुणांचल प्रदेश में पाया जाता है जिसे स्टार अनिस या इल्लिसियम वेरम के नाम से जाना जाता है ।  इसमें पाये जाने वाले शिकिमिक एसिड का औषधीय प्रभाव न्यूरामिनाइडेज़ इनहिबिटर्स होता है अर्थात् यह स्वाइन फ़्लू के वायरस की वृद्धि की प्रक्रिया में जेनेटिक मैटेरियल के रिप्लीकेशन को रोकता है । सन 2005 में यह औषधि एवियनफ़्लू (बर्डफ़्लू) के लिये प्रभावी मानी गयी किंतु बाद में इसे स्वाइन फ़्लू के लिये भी विश्वस्वास्थ्य संगठन द्वारा प्रभावी एवं प्रशंसनीयकरार दिया गया जिससे बढ़ती माँग के कारण पूरी दुनिया के रसोईघरों से चक्रफूल गायब होने लगा । ऐसी स्थिति में जापान की सोफ़िया यूनीवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने इसके विकल्प के रूप में एक और जड़ी-बूटी को खोज निकाला जिसे जिंक्गो बाइलोबा के नाम से जाना जाता है । चिकित्साविज्ञानियों में स्वाइन फ़्लू पर टैमीफ़्लू के प्रभावों एवं दुष्प्रभावों को लेकर परस्पर विरोधी विचार हैं । इसके स्तेमाल से सामान्य उल्टी और सिरदर्द से लेकर लिवर में सूजन, एलर्जिक रिएक्शन, एपीडर्मल नेक्रोलिसिस (चमड़ी का गलना), कार्डियक एरीदमिया (हृदय-गति,गति की लयबद्धता में कमी), मानसिक विकार, मधुमेह में वृद्धि, आँतों से ख़ून आना आदि साइड इफ़ेक्ट्स तो पाये ही गये हैं गुइलेन बेयर और स्टीवेंस ज़ॉन्सन जैसे गम्भीर सिण्ड्रोम और मृत्यु होने की भी शिकायतें पायी गयी हैं । चिंतन का विषय यह है कि हमारे गरम मसालों में से एक चक्रफूल ने आज तक कभी किसी के स्वास्थ्य को नुकसान नहीं पहुँचाया किंतु जैसे ही उसके एक घटक को अलग किया गया वैसे ही वह हानिकारक हो गया । शरीर के किसी अंग को काट कर अलग कर देने से शरीर का जो हाल होता है वही हाल चिकित्सा विज्ञानियों ने चक्रफूल का कर दिया है । अब प्रश्न यह उठता है कि क्या टैमीफ़्लू का निर्माण इतना आवश्यक था ? यदि आवश्यक था तो चक्रफूल एवं जिंक्गो बाइलोबा के उपयोग को ही क्यों नहीं प्रचारित किया गया ? और इसका सीधा सा उत्तर यह है कि यदि सरलतम उपलब्ध उपायों को प्रचारित किया जायेगा तो छद्म रिसर्च और अनैतिक प्रचार की बदौलत टैमीफ़्लू बनाने वाली रोश कम्पनी हर साल कई बिलियन डॉलर का व्यापार कैसे कर पाती ! 
 
चक्रफूल, Star anise, Badiane, Illicium verum 

 
Fossil tree, Ginkgo biloba, Salisburia adiantifolia 


भविष्य का इतिहास




घटनाओं की पुनरावृत्ति ब्रह्माण्डीय घटनाक्रम का परिणाम है इसीलिये तो इतिहास भी ख़ुद को दोहराता रहता है । किंतु आज हम बीते हुये इतिहास की नहीं, भविष्य के इतिहास की बात करेंगे... उस इतिहास की बात..., जिसकी भूमिका बहुत कुछ रची जा चुकी है । घटनायें, जो होने वाली हैं उनका पूर्वानुमान अब कठिन नहीं रह गया । चलिये, कुछ उड़ान भी भर ली जाय जिससे घटित होने वाला इतिहास ठीक-ठीक देखा जा सके ।

हुआ यह कि बेशुमार प्रदूषण ने अंततः एक दिन चेतावनी दे दी कि बस ! अब और नहीं, तुम्हें अपने लिये एक नया आशियाना खोजना ही होगा । अन्न-जल-हवा... सब कुछ विषाक्त हो गया, लोग विचित्र बीमारियों से ग्रस्त होकर मरने लगे । भारत के राजाओं को पहले तो लगा कि यह सब आम जनता के लिये है, हमारे लिये तो अभी भी सब कुछ पूर्ण शुद्ध रूप में सेवकों द्वारा उपलब्ध करवाया जाता रहेगा ...सदा की तरह .. किंतु ऐसा हुआ नहीं । कुछ राजा भी तड़प-तड़प कर मर गये तो बाकी राजाओं के कान खड़े हुये । उन्हें वैज्ञानिकों की बात माननी पड़ी ।
तय हुआ कि शीघ्र ही किसी दूसरे ग्रह की खोज की जाय । कारिंदों की तरह वैज्ञानिकों ने हुक़्म की तामील की । भाग-दौड़ शुरू हो गयी । वैज्ञानिकों ने मंगल ग्रह को उपयुक्त पाया और वहाँ नयी बस्तियाँ बसानी शुरू कर दी गयीं । ममता, मायावती, उमा भारती, राहुल, सोनिया, वाड्रावंश, अब्दुल्लावंश, मुफ़्तीवंश, मुलायमवंश, लालूवंश, आज़म ख़ान, योगी, मोदी,...जैसे सभी राजाओं ने मंगल ग्रह पर जाकर अपने-अपने लिये सुरक्षित इलाके खोज लिये । आडवाणी जैसे लोगों को धरती पर ही छोड़ दिया गया, नये ग्रह पर उनकी कोई भूमिका किसी को नज़र नहीं आयी । ज़रूरत के कुछ वैज्ञानिकों, सेवकों और चमचों को भी दरबार सजाने के लिये मंगल पर बुला लिया गया ।
यह वह समय था जब राजा तो थे किंतु उनके राज्य नहीं थे, राज्यों की सीमायें नहीं थीं, प्रजा नहीं थी । सभी राजा शासन करने की प्रचण्ड इच्छा से लबालब भरे हुये थे । शेष लोग उनकी भक्ति के लिये स्वयं को तैयार कर चुके थे, उन्हें धरती की तरह यहाँ भी शासित ही रहना था । इसी बीच पता चला कि ब्रह्माण्डीय डार्क मैटर के वेश में कन्हैया, उमर ख़ालिद, शबनम लोन, उमर अब्दुल्ला आदि भी मंगल ग्रह पर पहुँच गये हैं ।
हुकूमत के मौलिक अधिकार को लेकर प्रारम्भ हुयी वैचारिक सुगबुगाहट शीघ्र ही एक सैद्धांतिक युद्ध में बदल गयी । हमेशा आपस में लड़ते रहने वाले राजवंश के लोग एक मंच पर आ गये और उन्होंने तय किया कि राजवंशों में नये लोगों को प्रवेश नहीं दिया जाना चाहिये ।
शबनम लोन ने ख़िलाफत में मोर्चा खोल दिया कि मंगल ग्रह किसी की बपौती नहीं है, अपनी-अपनी दमखम के आधार पर कोई भी व्यक्ति अपने लिये एक नया मुल्क बना सकता है, उसकी सीमायें तय कर सकता है और सुल्तान बन सकता है । मोदी और उनके साथ के लाइक माइण्डेड राजाओं ने कहा – “हमारे पूर्वजों ने तो पहले ही कह दिया था ...वीर भोग्या वसुंधरा
कन्हैया ने देखा कि यहाँ तो युद्ध जैसे हालात उत्पन्न हो रहे हैं किंतु गनीमत यह थी कि आयुधों के अभाव में मल्लयुद्ध के अतिरिक्त और कुछ सम्भावना फ़िलहाल वहाँ नहीं थी । कन्हैया को पृथ्वी ग्रह पर अपने हिरासत वाले दिनों का ख़ौफ़ ताज़ा हो आया तो उसने अरेबिक हिक़मत से व्यूह रचना शुरू कर दी । 
जिस समय मोदी आदि अपने-अपने राज्यों के लिये प्राकृतिक सम्पदा सम्पन्न किसी भूभाग की खोज में लगे हुये थे उस समय उमर अब्दुल्ला और कन्हैया जैसे लोग मंगल पर आराम कर रहे थे । उन्हें राज्य के लिये किसी भूभाग को खोजने की कोई ज़ल्दी नहीं थी ...और न कोई चिंता । ये लोग बचपन में मोहम्मद बिन क़ासिम के किस्सों के साथ-साथ कौवा और गिलहरी वाली कहानी पढ़ चुके थे । कन्हैया ने मौज में आकर गुनगुनाया - "तू चल मैं आता हूँ ...चुपड़ी रोटी खाता हूँ ..हरी डाल पर बैठा हूँ ..." 
इधर गिलहरी की तरह बड़े परिश्रम से मोदी आदि राजाओं ने अपने-अपने लिये भूभागों की खोज कर ली और अपने-अपने राज्य स्थापित कर लिये । राज्य स्थापित होते ही मायावती ने मूलनिवासी होने का दावा करते हुये स्वयं को पूरे मंगल ग्रह की एकमात्र स्वामिनी घोषित कर दिया । संयोग से मंगल पर राष्ट्रवाद जैसी अवधारणाओं का अभी तक उदय नहीं हो सका था ।
अतिक्रमण सम्प्रदाय के पुरोधा उमर अब्दुल्ला ने अपने लोगों के साथ एक रात मोदी के राज्य पर चढ़ाई कर दी और एक बड़ा हिस्सा हथिया लिया । वीरभोग्या वसुंधरा का सिद्धांत फलीभूत हो गया, मोदी जैसे राजागण चिचियाते रह गये ...उनकी सुनने वाला कोई नहीं था ।
नये ग्रह पर मायावती नामक अतिमहत्वाकांक्षी स्त्री मूलनिवासी की बहस छेड़ चुकी थी और मोदी आदि राजाओं को अपदस्थ कर अपनी दावेदारी के लिये हाथ-पाँव मार रही थी । मूलनिवासी की बहस के खण्डन-मण्डन में हर कोई कूद पड़ा । मोदी आदि राजाओं ने कहा – “हम सभी धरती से आकर यहाँ बसे हुये हैं, कोई भी समुदाय यहाँ के मूलनिवासी की दावेदारी कैसे कर सकता है “?  
कन्हैया और शबनम लोन ने देखा तो एक दिन उन्होंने भी आपस में मंत्रणा की मंगल किसी की बपौती नहीं है । यहाँ कौन हुक़ूमत करेगा यह मोदी कैसे तय कर सकते हैं ! हममे से हर किसी को मंगल पर हुकूमत करने का अधिकार है । हमें मोदी के हजार टुकड़े कर देना चाहिये और उनके राज्य पर अपनी हुकूमत क़ायम कर लेनी चाहिये । वीरभोग्या वसुंधरा का सिद्धांत हमारे लिये भी लागू होता है ।
शीघ्र ही पूरे मंगल पर हुक़ूमत का अधिकारविषय पर ग्रहव्यापी बहस छिड़ गयी ।
जिस समय भारतीय राजा बहस में लगे हुये थे ठीक उसी समय शी जिन पिंग नामक छोटी-छोटी आँखों वाला एक महाकाइयाँ आदमी चुपचाप मंगल की ज़मीन पर खूँटे गाड़ता हुआ अपने राज्य की सीमा निर्धारित करने में लगा हुआ था । शी जिन पिंग निरंतर खूँटे गाड़ता हुआ आगे बढ़ता जा रहा था उसे रोकने वाला वहाँ कोई भी नहीं था ।