सोमवार, 28 नवंबर 2011

ZEAL OR ZEN ?


किसी जापानी से यह प्रश्न किया जाय तो उसका उत्तर होगा - "ज़ील भी ज़ेन भी". किन्तु भारतीय मानसिकता के अनुसार केवल "ज़ील" या फिर "ज़ेन", एक साथ दोनों नहीं. पहला उत्तर समझौतावादी सा है जबकि दूसरे उत्तर में इसका अभाव स्पष्ट दिखाई देता है. किन्तु इस ज़रा से प्रश्न के ज़रा से उत्तर में ही छिपा है भारत का वर्त्तमान और भविष्य. भारत के वर्त्तमान और भविष्य से जुड़े इस महत्वपूर्ण विषय पर चर्चा करने से पहले ज़रा रजनीश से भी मिलते चलें, कदाचित् उनका उत्तर आपको अच्छा लगे.
 तो रजनीश का उत्तर है - "ज़ील से ज़ेन की ओर...". रजनीश की यात्रा स्थूल से सूक्ष्म की ओर होती है. वे कन्फ्यूशियस या ताओ की तरह किसी एक ही खूंटे से बंधे रहने की ज़िद नहीं करते. वे कहते हैं, न तो ओर्थोडोक्स बने रहने की आवश्यकता है और न एक्सट्रीमिस्ट.जब वे "सम्भोग से समाधि की ओर" यात्रा करने की बात करते हैं तो वे ऊर्जा के विनाशकारी विस्फोट को बचाते हुए उसके लिए एक दिशा निर्धारित करने की बात करते हैं. यह दिशा साधक को हलचल से प्रशान्तावस्था की ओर ले जाती है...अनेकांत से एकांत की ओर ले जाती है. उनकी यात्रा मार्ग में सब कुछ देखते हुए ...उसे छोड़ते हुए आगे बढ़ते जाने की है. आगे बढ़ने की प्रक्रिया में पीछे का सब कुछ छोड़ना ही पड़ता है. प्रतिक्षण हम कुछ नया पाते हैं और ठीक उसी क्षण कुछ पुराना छोड़ देते हैं.  
किसी सामान्य व्यक्ति के लिए वर्त्तमान को स्वीकारना और उसके अनुरूप भविष्य की रणनीति बनाना इतना सरल नहीं है. हम स्वीकारते कम हैं निषेध अधिक करते हैं......यह निषेध जटिलता उत्पन्न करता है .......अब वह सहज नहीं रह जाता ....जो सहज था अब जटिल हो जाता है. चीन के CHE'N की अपेक्षा जापान के ZEN में निषेध की अपेक्षा स्वीकार अधिक है और यही उनका बौद्धत्व है. 
यहाँ एक रोचक विचार मेरे मन में आ रहा है. जब हम ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति की बात करते हैं तो प्रतीत होता है कि जहाँ जटिलता है सरलता भी वहीं है. जहाँ अन्धकार है प्रकाश भी वहीं है. बस, एक की अनुपस्थिति ही दूसरे की उपस्थिति है. इसे मैं यूँ कहना चाहता हूँ कि जहाँ प्रेम है वहीं घृणा भी है, जहाँ बुद्धिमत्ता का अंत होता है मूर्खता भी वहीं से शुरू हो जाती है . शत्रुता की सीमा जहाँ समाप्त होती है मित्रता की सीमा वहीं से आरम्भ हो जाती है. जिन्हें हम ध्रुव कहते हैं वे वस्तुतः बिंदु का विस्तार मात्र हैं. 
अब मैं इसी बात को कुछ और ढंग से कहना चाहता हूँ. कोई भी व्यक्ति धूर्तता और सज्जनता के तुल्य गुणों का स्वामी होता है. राग और विराग दोनों भाव  एक ही व्यक्ति में समान इंटेंसिटी में मिलते हैं. हम जितने सद् चरित्र हैं उतने ही दुश्चरित्र भी. पृथिवी के दोनों ध्रुवों को पृथक नहीं किया जा सकता .....पृथक कर देने से तो उसका अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा. परस्पर विपरीत गुण वाले भावों का स्थान एक ही होता है. यह जो द्वैत है वह वस्तुतः अद्वैत की ही दो स्थितियाँ हैं. इन स्थितियों के विस्तार को समझ न पाने के कारण ही हम द्वन्द में पड़े रहते हैं. 
कहते हैं कि प्रेम चोपड़ा रजत पटल के बाहर परम सज्जन व्यक्तियों में से एक हैं. जबकि उनके दर्शक उनकी दुर्जनता को ही उनकी सत्यता मान बैठते हैं. प्रेम चोपड़ा सज्जन भी हैं और दुर्जन भी. वे अन्दर से सज्जन हैं तो बाहर से दुर्जन. ऐसा व्यक्ति इस स्थिति को बदलने की भी क्षमता रखता है. दोनों विपरीत गुणों की समान तीव्रता है वहाँ. मनुष्य एक ऐसा पात्र है जहाँ एक बार में बस एक ही भाव प्रकट हो पाता है. यह हमारे चाहने पर निर्भर करता है कि हम किस क्षण में किस भाव को प्रकट करना चाहते हैं. इसका अर्थ यह हुआ कि समाज का हर व्यक्ति स्वयं के अन्दर की प्रतिभा को प्रकट कर सकता है ....निखार सकता है. जापानियों और चीनियों के सुखमय जीवन, दीर्घायु, राष्ट्रीय भावना, नैतिक चरित्र और भौतिक प्रगति का कारण यही है कि उन्होंने पूरी  ईमानदारी से स्थूल और सूक्ष्म की सत्ता को स्वीकार किया है. 
अभी मैंने ऊर्जा के विस्फोट की बात की थी. स्वाभाविक है, जहाँ ऊर्जा अधिक होगी वहाँ विस्फोट भी अधिक तीव्र होगा. कई बार हम अपनी ऊर्जा का सही आकलन नहीं कर पाते, या तो वास्तविक से न्यून या अधिक समझ बैठने की त्रुटि कर बैठते हैं. इसीलिये कभी हनुमान को उनकी शक्ति का स्मरण कराना पड़ता है.....तो कभी रावण को उसकी औकात बतानी पड़ती है. यह प्रक्रिया समाज में निरंतर होती पायी जाती है. हमें किसी को हतोत्साहित करना पड़ता है तो किसी को उत्साहित. zeal हमारे अन्दर की कार्योन्मुख शक्ति है......ऊर्जा का एक प्रवाह...जिसे zen  के नियंत्रण और सही दिशा देने की आवश्यकता होती है. ध्यान रहे, zen केवल साधना और उससे प्राप्त बुद्धत्व ही नहीं है बल्कि ऊर्जा को एक सही दिशा देने की विधा भी है. zen से संचालित हुए बिना zeal का अस्तित्व अनियंत्रित अश्व की तरह होता है ...तब zeal की ऊर्जा को zealotry में परिवर्तित होते देर नहीं लगती...और हमारे बीच की कोई प्रतिभा देखते-देखते अभिशाप बन जाती है ....स्वयं अपने लिए.....और समाज के लिए भी.
आपने देखा होगा, जिन्हें हम शरारती बच्चे कहकर दूर भगाते हैं वे बहुत ऊर्जावान होते हैं ....अपेक्षाकृत उन बच्चों के जो बिल्कुल सीधे सादे होते हैं. जो बच्चे चंचल होते हैं उनकी जिज्ञासाएं शांत होते ही वे स्वयं भी शांत होने लगते हैं .....पर यदि उनकी जिज्ञासा शांत न हो पाए तो ? तो यह ऊर्जा किसी भी दिशा में जा सकती है. हमें बच्चे की चंचलता को कोसने की अपेक्षा उसकी ऊर्जा को एक सही दिशा देने का प्रयास करना चाहिए. चीन और जापान अपने देश की प्रतिभाओं को पहचानने और उनको सही दिशा देने में चूक नहीं करते. क्या हम उनसे कुछ सीख लेंगे ?                                      

शुक्रवार, 25 नवंबर 2011

हिमालय के पार ...लाल ड्रेगन का भौतिक आध्यात्मवाद

      श्चिमी देशों में, सांस्कृतिक-आध्यात्मिक समृद्धता से संपन्न पूर्वी देशों की सूची में भारत के साथ-साथ चीन का नाम भी आदर के साथ लिया जाता है. मेरे मन में एक बात सदा बनी रही कि भारत कभी विस्तारवादी नहीं रहा ...कदाचित यह उसका आध्यात्मिक प्रभाव रहा हो पर इसके विपरीत चीन का इतिहास विस्तारवाद के लालच में आकंठ डूबा प्रतीत होता है. अपनी सीमाओं के विस्तार के लिए रक्त बहाने को सदा तैयार रहने वाले चीन की आध्यात्मिक संपदा मेरे  लिए उत्सुकता का कारण रही है. अहिंसा परमोधर्मः ......सर्वे भवन्तु सुखिनः .......और विश्वबंधुत्व की कामना करने वाले भारत का विस्तारवादी न होना समझ में आता है .....यह समझ में आता है कि भारत के जन-जीवन पर उसकी आध्यात्मिक विरासत के प्रभाव का प्रमाण भारत के इतिहास में यत्र-तत्र प्रकीर्णित है. किन्तु चीन का आध्यात्म ? 
    भारत के विश्वबंधुत्व के आदर्श के विपरीत चीनी आदर्श अपने समाज तक ही केन्द्रित रहा है. भारत ने प्राणिमात्र के कल्याण की सदा कामना की किन्तु चीन ने कल्याण पाने वालों की संख्या सीमित कर दी,  उनका कल्याण भाव तो मंगोलिया से लेकर प्रशांत महासागर में फैले दक्षिण पूर्वी देशों के पूरे चीनी समुदाय के लिए भी कभी नहीं रहा.
        रहस्यमय चीन के ज्ञात तथ्यों पर विचार करने से चीन के आध्यात्मिक स्वरूप पर प्रकाश की कुछ किरणें पड़ती हैं. छाऊ काल (५००-२२१ ईसा पूर्व ) में चीनियों का दार्शनिक ज्ञान अपने उत्कर्ष पर रहा है . यह उनके जीवन, समाज, और व्यावहारिक संबंधों के विषय पर केन्द्रित रहा है जिसमें आध्यात्मिक पक्ष को उतना महत्त्व नहीं दिया गया. उन्होंने संसार को निस्सार न मानते हुए सार युक्त माना और मनुष्य जीवन को निरंतर सुखमय बनाने के प्रयासों पर चिंतन किया. छुआंग त्जु के शब्दों में -"चीन का चिन्तक शांत रहने पर साधु बनता है और अशांत होने पर राजा"  अर्थात साधु होना चिंतन की कुछ शर्तों के होने का परिणाम है.....और इनके उल्लंघन का परिणाम है शासक होना. चीन में शासकों ने प्रायः मर्यादाओं  का उल्लंघन ही किया है. न्यूनाधिक यही स्थिति आज भी है. 
          चीनी समाज कठोर अनुशासन का पक्षधर रहा है. जबकि मानव स्वभाव सहजता का . इसी कारण वहाँ चिंतन की दो धाराओं का विकास हुआ. एक धारा का प्रतिनिधित्व कन्फ्यूशियस ने किया जिसके परिणामस्वरूप चीनियों ने अपनी परम्पराओं को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए एकाग्रता, शक्ति संचय और युद्ध की कलाओं का विकास किया जबकि दूसरी धारा का प्रतिनिधित्व ताओवाद के जनक लाओ त्जु ने किया जिसके परिणामस्वरूप प्रकृति के रहस्यों को जानने और उनके अनुरूप जीवन को जीने का सरलतम रूप अपनाया गया. चीनियों की जटिल जीवन शैली में उनकी लिपि के बाद दूसरा स्थान कदाचित उनका परस्पर विरोधी जीवनदर्शन रहा है. कोई चीनी अपने जीवन का प्रारम्भ कन्फ्यूशियस दर्शन से करता है और समापन ताओ दर्शन से. हम कह सकते हैं कि जिस प्रकार भारत में मनुष्य जीवन को चार आश्रमों में बाटा गया है उसी तरह चीन में दो आश्रमों की व्यवस्था की गयी है- कन्फ्यूशियस आश्रम और ताओ आश्रम. दोनों आश्रमों की स्पष्ट विभाजन रेखा वहाँ के सामाजिक जीवन में स्पष्ट परिलक्षित होती है. जहाँ कन्फ्यूशियस आश्रम भोगवाद ,   कठोर सामाजिक अनुशासन,  पारस्परिक प्रतिद्वंदता, कुंग-फू की रोमांचक हलचलों और दूसरों को अपने वश में करने की राजसिक भावना से भरा हुआ है वहीं ताओ आश्रम प्रकृति के रहस्योद्घाटन, प्रकृति के अनुरूप सहज प्रवाहमयी जीवनशैली और वृद्धावस्था की सहज शांत स्थिति का प्रतीक है. कुंग-फू उनकी भौतिक आवश्यकता है तो ताओवाद उनकी वार्धक्योपजन्य विवशता. इसे ठेठ भाषा में कहें तो चीनी दर्शन "जब तक शरीर में दम है तब तक हमले करो ...और जब बुढापे में अशक्त हो जाओ तो माला जपो" के व्यवहारवाद पर आश्रित है. 
     ईसा प्रथम शताब्दी में चीनियों ने बौद्ध दर्शन को स्वीकार करना प्रारम्भ किया. ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी में छू ह्सी ने कन्फ्यूशियसवाद, ताओवाद और बौद्धदर्शन को एक में समेटते हुए नव कन्फ्यूशियसिज्म का प्रवर्तन किया.  
       यहाँ यह ध्यातव्य है कि जहाँ भारत के आर्ष ग्रन्थ स्तुति, उपदेश, गुरु-शिष्य संवाद, जिज्ञासा और समाधान की सहज लोकतांत्रिक शैली में लिखे गए हैं वहीं चीनी दर्शन ग्रन्थ निर्देश शैली में लिखे गए हैं. चीनियों की तमो-राजसिक वृत्ति का स्पष्ट प्रभाव उनकी लेखन शैली में भी दृष्टिगोचर होता है. यही नहीं, उनकी गोपनीयता बनाए रखने की वृत्ति और जटिल जीवन शैली की स्पष्ट झलक उनकी लिपि में भी दृष्टिगोचर होती है. चीनी भाषाओं की लिपियाँ विश्व की सर्वाधिक जटिल लिपियाँ हैं. वस्तुतः लिपि के नाम पर अक्षरों और मात्राओं के स्थान पर केवल प्रतीक भर होते हैं . विश्व की अन्य भाषाएँ जहाँ व्याकरण की मर्यादाओं का पालन करती हैं वहीं चीनी लिपियाँ व्याकरण से पूरी तरह मुक्त हैं. उनके लिखे संकेत चिन्हों का अर्थ मात्र स्वर के उतार-चढ़ाव से ही भिन्न हो जाता है इसी कारण चीनी भाषा का किसी दूसरी भाषा में सही-सही अनुवाद दुर्लभ ही नहीं प्रत्युत असंभव है. चीनी अपनी गोपनीयता बनाए रखने में यहाँ भी सफल रहे हैं. मंडारिन, जोकि चीन की अधिकृत भाषा है, अपनी ध्वनियों के प्रभाव से श्रोता पर बौद्धिक नहीं अपितु एक सम्मोहक प्रभाव छोड़ती है. सम्मोहन में तर्क नहीं बल्कि वशीकरण का प्रभाव होता है और यही चीनियों की आवश्यकता है जो कि उनकी तानाशाही मनोवृत्ति की द्योतक है. 
     सम्मोहन और रहस्यमयता की तीव्र अभिलाषा चीनियों के जीवन में कुछ ऐसे घुल मिल गयी है जैसे जल में चीनी. उच्चारण से लेकर गायन और वादन तक में चीनियों का यह रहस्यपूर्ण सम्मोहन व्याप्त है. उनके चित्रों के रंग रहस्य का जादू बिखेरते प्रतीत होते हैं.  यह रहस्यपूर्ण सम्मोहन ही चीनी शासकों की निरंकुश सत्ता का   गोपनीय सूत्र रहा है. 
    अपनी परस्पर विरोधी दार्शनिक विचारधाराओं के होते हुए भी चीन में कहीं द्वंद्व नहीं है ....यह अपने आप में एक रहस्य हो सकता है. हो सकता है कि इसका कारण उनकी द्विआश्रम व्यवस्था में छिपा हो. युवावस्था में भोग और जीवन के उत्तरार्ध में मोक्ष की साधना. यही है चीन का भौतिक आध्यात्मवाद जिसका अनुसरण करते हुए वह पूरे विश्व के बाज़ार को निगलता जा रहा है. कन्फ्यूशियसनिज्म इस बात के लिए प्रशंसनीय है कि वह अपने अनुयायियों में राष्ट्रवाद का संचार करने में सफल रहा है. जबकि भारतीय दर्शन अपनी उत्कृष्टता एवं वैज्ञानिकता के बाद भी ऐसा नहीं कर सके.         
     

बुधवार, 23 नवंबर 2011

आपके लिए चायपानी की व्यवस्था करती हूँ मुनिवर!

    
भी जानते हैं कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में सृष्टि संचालन का विभागीय उत्तरदायित्व विष्णु जी का है. व्यवस्था-अव्यवस्था के बीच विष्णु जी अपना उत्तरदायित्व पूरा करने में व्यस्त रहते हैं. उनका तंत्र जटिल है किन्तु उन्हें तुरंत पता चल जाता है कि गड़बड़ी कहाँ हो रही है. उनके पास ब्रह्मा जी द्वारा डोनेटेड ब्रह्मांड का सर्वशक्तिशाली कम्प्यूटर है. आकाशगंगाओं से लेकर आवारा घूमते धूमकेतुओं, उल्कापिंडों के नियंत्रण, कृष्णविवर के राक्षसत्व, कृष्णऊर्जा के नियमन.....आदि पर सफलतापूर्वक नियंत्रण कर पाने में सक्षम विष्णु जी आज कल कुछ अधिक परेशान से हैं.     
    एक्चुअली, व्यवस्था कुछ ऐसी है कि संचालन व्यवस्था में गंभीररूप से गड़बड़ियाँ होने पर विष्णु को स्वयं अवतार लेकर ब्रह्माण्ड के एक नाचीज से पिंड -"धरती" पर आने को विवश होना पड़ता है. यही नियम है......और इसका वे न जाने कबसे पालन करते चले आ रहे हैं. कभी कच्छप रूप में तो कभी सुअर के रूप में.....अपने कर्त्तव्य पालन में कभी कोताही नहीं की उन्होंने . घृणित अवतार लेने में भी पीछे नहीं हटे . कभी-कभी  कोफ़्त तो होती थी पर ब्रह्मा के प्रति सम्मान भाव होने के कारण विष्णु जी कुछ कह नहीं पाते, बस मन मसोसकर रह जाते . आज विष्णु जी जैसे ही भोजनावकाश में घर आये तो लक्ष्मी जी ने ताड़ लिया ...अवश्य आज कोई गंभीर बात है. मन नहीं माना तो पूछ ही दिया - "क्या बात है, आजकल बहुत चिंतित रहते हैं प्रभु ?" 
    विष्णु जी गंभीर प्रकृति के देवता हैं. अपने दुःख किसी से नहीं बताते ...लक्ष्मी जी को भी नहीं. लक्ष्मी जी को यह अहंकार है कि ब्रह्माण्ड के संचालन के लिए विष्णु जी को उनकी जितनी आवश्यकता है उतनी और किसी की नहीं. पर आज बड़ी विनम्रता से लक्ष्मी जी ने बारम्बार प्रभु से पूछा तो बताना ही पडा. यूँ तो कलयुग के कारण विष्णु जी लक्ष्मी से कुछ दबते थे पर आज बहुत दिनों का गुबार बाहर आ ही गया, बोले -  "कुछ नहीं देवी! बस, मन कुछ खिन्न सा है. सोचता हूँ, ब्रह्माण्ड की निर्माणकर्ता और संचालनकर्ता एजेंसी एक ही होनी चाहिये थी. जब संभाल सकने की कुव्वत नहीं थी तो सृष्टिकर्ता बने ही क्यों ? और बने ही थे तो अपना किया खुद ही समेटने की दम भी होनी चाहिए थी. मैं तो परेशान हो गया हूँ इन बुढऊ की मनमानी से. बुज़ुर्ग हैं.... कुछ कह भी नहीं सकता, और कोई होता तो पूछता अवश्य - क्यों बनाया इस मनुष्य नामक प्राणी को  ? इतनी सृष्टि की ...जी नहीं भरा अभी तक....इसे भी बना दिया...मेरी जान की आफत ....इतनी बार अवतार लेकर गया पर सुधरने का नाम ही नहीं लेता. ऊपर से इनकी जनसंख्या और बढ़ती जा रही है. कैसे संचालन करूँ, कुछ समझ में नहीं आता. सबसे बुरी स्थिति भारत की है. कितनी बार गया हूँ वहाँ....पर स्थिति जस की तस. वहाँ के लोग बातें दर्शन की करते हैं ...आध्यात्म तो जैसे इनकी जेब में है ..पर मल विसर्जन तक की तमीज नहीं सीख पाए. आदर्शों के तड़के के बिना कोई बात नहीं करते पर बस चले तो जोंक बनकर एक दूसरे का रक्त पी जाएँ. मैं कब तक धर्म संस्थापनार्थाय जाता रहूँगा वहाँ ? अमेरिका, यूरोप, अफ्रीका, आस्ट्रेलिया ...कहीं भी तो नहीं गया मैं कभी. भारत कितनी बार गया हूँ ....बोर हो गया. एक बार तो यूरोप जाने का अवसर मिल पाता....धर्मसंस्थापनार्थाय ......"
लक्ष्मी जी ने किंचित मुस्कराते हए कहा - " प्रभु जिसे अधिक चाहते हैं उसी के पास तो बारबार जाना चाहते हैं......." 
    विष्णु जी को इस अवसर पर लक्ष्मी जी का यह परिहास अच्छा नहीं लगा, बोले - "आप तो पूरी धरती पर विचरण करती रहती हैं न! इसीलिये परिहास सूझ रहा है. इन हठीले और भ्रष्ट भारतीयों से पाला पड़ा होता तो पता चलता. वेद, पुराण, स्मृति, इतने अवतार .....क्या नहीं दिया है मैंने इन्हें......जो किसी को नहीं दिया वह सब दिया है इन्हें. पर नहीं ...सुधरने का नाम तक नहीं लेते....बल्कि ये इतने शातिर हो गए हैं कि भगवान को भी रिश्वत चढ़ाने से बाज़ नहीं आते. ये सत्य के नाम पर झूठ का व्यापार करते हैं. निर्लज्ज इतने कि हर धूर्त भी स्वयं को आर्य घोषित किये बैठा है ......"
     विष्णु जी अभी कुछ और कहते कि तभी नारायण-नारायण करते नारद जी का पदार्पण हो गया. आते ही कनखियों से विष्णु की ओर देखते हुए लक्ष्मी जी को समाचार दिया- "प्रभु के लिए अशुभ हो तो हो पर आपके लिए तो शुभ संवाद है देवी ! ...भारत में लोकपाल बिल बन भी गया तो सत्यनिष्ठ लोकपाल लायेंगे कहाँ से ? ...अभी तो अन्ना को अपनी टीम के लिए ही सत्यनिष्ठ मानुष खोजे नहीं मिल रहे हैं......" 
नारद जी के वचन सुनकर लक्ष्मी जी मुदित हुईं. अपनी विजय को कुछ छिपाते कुछ प्रकट करते सिंहासन से उठ खड़ी हुईं, यह कहते हुए कि " आपके लिए चायपानी की व्यवस्था करती हूँ मुनिवर! अभी जाइयेगा मत, कुछ और भी चर्चा करनी है आपसे". 
विष्णु जी का भोजन गया भाड़ में, समझ गए कि अब कई घंटे देवी को फुरसत नहीं मिलेगी....सो भूखे पेट ही फिर लग गए अपने कम्प्यूटर में. उधर नारद जी ने जैसे मिर्च झोंक दी, बोले- "लगे रहो प्रभु ! लगे रहो ...."   



मंगलवार, 22 नवंबर 2011

इतिहास की सार्थकता



सिंहावलोकन वाले राहुल सिंह जी के गवेषणात्मक आलेख - "साहित्यगम्य इतिहास" से प्रेरित हो इतिहास का विद्यार्थी न होते हुए भी इतिहास की सार्थकता के विषय पर कुछ मनन करने के लिए बाध्य हुआ हूँ. 
आलेख पर टिप्पणी करते हुए जी.के. अवधिया जी ने ऐतिहासिक घटनाओं के संकलन और क्रमिक विकास के तारतम्य में लुप्त अंशों की पूर्ति पर मनगढ़ंत लेखन के स्थान पर उसे छोड़ देने की ओर संकेत किया है ( ....अजा भक्षणम्  की ईमानदार टीप की तरह ).
राहुल जी ने इतिहास के तीन स्वरूपों पर चर्चा की है - शब्दगम्य, वस्तुगम्य और बोधगम्य. अपने आलेख के प्रारंभ में ही वे कहते हैं - ".....जन केन्द्रित और समग्र मानव इतिहास के लिए विभिन्न सामाजिक विज्ञानों का सहयोग और सहकार आवश्यक है......" 
मैं इसमें केवल एक बात और जोड़ना चाहता हूँ, विभिन्न सामाजिक विज्ञानों के सहयोग और सहकार के साथ-साथ रसायन विज्ञान का सहयोग भी कहीं-कहीं प्रामाणिक इतिहास लेखन के लिए आवश्यक है. 
शब्द गम्य, वस्तुगम्य और बोधगम्य इतिहास का युक्तियुक्त सामंजस्य ही इतिहास को उसके लक्ष्य तक पहुंचा सकता है. इतिहास लेखन में शुद्धबुद्धि के साथ तटस्थतापूर्वक सत्यावलोकन कर लेखन किया जाना अपेक्षित है . मुंडे-मुंडे मतिर्भिन्ना के अनुसार बोधगम्यता के कई स्तर होने से बोधन और विवेचना का कार्य पाठक का उत्तरदायित्व है. 
ऐतिहासिक साहित्य में ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर साहित्य रचा जाता है. तथ्य तो ऐतिहासिक रहता है किन्तु उसका प्रस्तुतीकरण साहित्यिक. इस प्रस्तुतीकरण में कल्पना का होना स्वाभाविक है. किन्तु यह कल्पना ऐसी होनी चाहिए जिससे इतिहास के मूल स्वरूप में कोई परिवर्तन न हो सके. महाभारत और रामायण  ऐसी ही रचनाएँ हैं. आधुनिक युग में यशपाल, आचार्य चतुरसेन, धर्मपाल और पुरुषोत्तम नारायण ओक से लेकर 
लज्जा की लेखिका तसलीमा नसरीन जैसे लोग भी ऐतिहासिक साहित्य लेखकों/लेखिकाओं में शामिल हैं.   
इतिहास में मनगढ़ंत लेखन की विवशता विचारणीय है. यह विवशता भी हो सकती है और एक शरारत भी. यदि यह सात्विक विवशता है तो समाविष्ट प्रक्षिप्तांश बोध में सहयोगी सिद्ध होंगे. किन्तु यदि यह शरारत है तो ऐसे प्रक्षिप्तांश भ्रमकारक ही होंगे .  
निर्विवादरूप से इतिहास का एक स्रोत प्रशस्तिलेख भी है किन्तु प्रशस्तिलेखों में से इतिहास खोजना पड़ेगा, जोकि आसान नहीं है. इतिहास केवल घटना और तथ्य ही नहीं उसका युक्तियुक्त संयोजन भी है अन्यथा इतिहास का औचित्य ही समाप्त हो जाता है. वह फिर साहित्य भर रह जाएगा या फिर चाटुकारों का स्तुतिगान.
आयुर्वेद के दार्शनिक विचारों में इतिहास को भी "ऐतिह्य प्रमाण" के रूप में स्वीकार किया गया है. किन्तु प्रक्षिप्तांशों या "मनगढ़ंत लेखन" के कारण प्रमाण की विश्वसनीयता पर ही प्रश्नचिन्ह लग जाता है.
इतिहास लेखन वस्तुतः इमानदारी से भरा एक श्रमसाध्य कार्य ही नहीं अपितु सामाजिक-वैश्विक उत्तरदायित्व भी है. हमारे देश में इतिहास के साथ बहुत छेड़छाड़ हुयी है......ऐसा विचार कई लोगों का है. सच्चा इतिहास जहाँ हमें प्रेरणा देता है वहीं मिथ्या इतिहास हमें हमारी जड़ों से विलगाने का कार्य करता  है. इतिहास के साथ एक दुर्भाग्य यह भी जुड़ा हुआ है कि वह प्रायः विजितों के द्वारा लिखवाया जाता है. ऐसे में घटनाओं की प्रामाणिकता इतिहास की सार्थकता पर प्रश्न खड़े करती है.    
   राहुल जी ने अमरीका के प्रसिद्ध विधिवेत्ता ऑलिवर वेन्डल होम्स के शब्दों का उल्लेख किया है ...''इतिहास का पुनर्लेखन होना चाहिए क्योंकि इतिहास कारणों और पूर्ववृत्त के ऐसे सूत्रों का चयन है, जिनमें हमारी रूचि है और रूचियाँ पचास वर्षों में बदल जाती हैं।'' 
मैं होम्स के विचारों से लेश भी सहमत नहीं हूँ, क्या हमें हमारी वर्त्तमान रुचियों के अनुसार महाभारत का पुनर्लेखन करना चाहिए ? तब इससे तो इतिहास का मूल स्वरूप ही समाप्त हो जाएगा. पुनर्लेखन के स्थान पर पुनर्बोधन की आवश्यकता को तो स्वीकारा जा सकता है....वह भी इस शर्त के साथ कि पुनर्बोधन वर्त्तमान रुचियों के अनुरूप नहीं बल्कि वर्त्तमान रुचियों की प्रासंगिकता के सन्दर्भ में हो. महाभारत जैसा ऐतिहासिक साहित्य भारतीय समाज के लिए एक आदर्श मानक है जो समसामयिक भी था और सार्वकालिक भी. और हम मानते हैं कि किसी आदर्श के पुनर्लेखन की आवश्यकता नहीं होती.     
राहुल जी के शब्दों में -  "अंगरेज इतिहासकार ईएच कार अपनी प्रसिद्ध कृति ''इतिहास क्या है?'' में दिखाते हैं- ''ऐतिहासिक तथ्य मात्र वे हैं, जो इतिहासकारों द्वारा जांच के लिए छांटी गयी हैं'' वे स्पष्ट करते हैं कि लाखों लोगों के बावजूद सीजर का रूबिकन पुल पार करना महत्वपूर्ण हुआ (और मुहावरा बन गया) वे आगे कहते हैं- ''सभी ऐतिहासिक तथ्य इतिहासकारों के समसामयिक मानकों से प्रभावित हुई अभिव्यक्ति के परिणामस्वरूप हम तक आते हैं।'' 
सत्य है, सम्पूर्ण घटनाओं को इतिहास लेखन का विषय नहीं बनाया जा सकता. घटनाओं के चयनित अंश ही इतिहास के विषय बन पाते हैं. अब यह चयनकर्ता पर निर्भर करता है कि वह किस घटना को महत्वपूर्ण मानता है और किसे नहीं. यहाँ इतिहासकार की रुचियाँ, अवलोकन, बोधन, समसामयिक मानक, पूर्वाग्रह, स्वार्थ, दबाव,   ...आदि कई घटक हैं जो इतिहास लेखन को प्रभावित करते हैं.....और अंततः इन सबसे प्रभावित होती है इतिहास की प्रामाणिकता.  
इतिहास के व्यवस्थित लेखन का प्रारम्भ भले ही अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में हुआ हो पर भारत में भारतीयों की आवश्यकता का इतिहास तो बहुत पहले लिखा जा चुका था. प्राच्य मनीषियों की दृष्टि में घटना से अधिक महत्त्व घटना के कारणों और उसके पीछे मनुष्य की वृत्तियाँ रही हैं. इसीलिये माया की नश्वरता को जानने वाले श्रीमद्भग्वदगीताकार ने वृत्तियों के संकलन, उनके सूक्ष्म अवलोकन और विश्लेषण पर अधिक ध्यान दिया. उन्होने इतिहास को केवल तथ्यात्मक संकलन ही नहीं अपितु प्रशस्त जीवन के एक मार्ग के रूप में प्रतिष्ठित किया. यही कारण है कि फ्रिट्ज़ऑफ़ कापरा जैसे लोगों को यह कहना पड़ा कि भारतीय अपनी  धार्मिक-आध्यात्मिक ऊर्जा वेदपाठ से नहीं अपितु रामायण, महाभारत और गीता से लेते हैं. मुझे लगता है कि इतिहास की सार्थकता यहीं से प्रारम्भ होती है. 

गुरुवार, 17 नवंबर 2011

हमें भूत ने जकड़ लिया है क्योंकि हमने भूत को पकड़ लिया है

आज यह सब एक स्वप्न जैसा लगता है. समय बदल गया है ...और समय के साथ-साथ परम्पराएं और मान्यताएं भी. बचपन में पर्वों पर गंगा स्नान की परम्परा का साक्षी रहा हूँ. तब कोसों दूर से धूल भरी पगडंडियों से होते हुए पैदल चलकर आते गाँव के लोगों का उत्साह देखते ही बनता था. गंगा स्नान के लिए आने वाले यात्रियों की भीड़ में स्त्री-पुरुष, बाल-वृद्ध सभी होते थे. स्त्रियों के लिए अलग घाट होता था. किनारे, रेती पर पंडों की चटाइयां बिछी रहतीं. वे लोगों को घाट की गहराई और घडियालों के बारे में चिल्ला-चिल्ला कर सचेत करते रहते थे. स्नान करने वाले लोग अपने कपड़े-लत्ते और सारा सामान पंडों की चटाई पर रखकर निश्चिन्त हो स्नान करते. बाद में मंत्रोच्चारण के साथ पंडा जी सभी के माथे पर चन्दन का लेप करते.   तब बदले में वे किसी से कुछ माँगते नहीं थे, लोग श्रद्धावश पंडों के चरण स्पर्श कर दक्षिणा देते.... ताम्बे का एक नए का सिक्का या तीन पैसे या बहुत हुआ तो दस नए पैसे का सिक्का. तब छः नए पैसे का एक आना हुआ करता था. इकन्नी-दुअन्नी ......प्रचलन में थीं. द्विज लोग ब्रह्मगाँठ वाले जनेऊ साल भर के लिए पंडों से बड़ी श्रद्धा के साथ खरीदा करते.     
कुछ विशेष पर्वों पर मेलों का आयोजन भी होता था. मुझे स्मरण है गर्मियों में किसी एक पर्व पर गंगा के किनारे भूतों-प्रेतों का मेला भी लगता था. मजेदार दृश्य हुआ करते थे. दो-चार ओझा जैसे लोग, गोल घेरे के बीच में जलती धूनी, धूनी में काँटों वाली लोहे की गर्म होती जंजीर, लोगों का हुजूम, गोल घेरे में एक ओर भूत-प्रेत पीड़ितों का पंक्तिबद्ध समूह. सब कुछ बड़ा रहस्यमय सा लगता...जैसे किसी और दुनिया में आ गए हों. लोगों की उत्सुक दृष्टियाँ पीड़ितों और ओझाओं के चेहरों पर जमीं रहतीं.
झाड-फूक का काम कई बैचेज में होता था. पीड़ितों को एक पंक्ति में बैठने को कहा जाता. साथ के आये लोग ओझा को पीड़ित की हिस्ट्री बताते. कुछ लोगों को माथे में तिलक लगा कर और भभूत देकर कुछ निर्देशों के साथ तुरंत विदा कर दिया जाता. इन निर्देशों में किसी अच्छे चिकित्सक से परामर्श करने का परामर्श भी शामिल रहता. शेष लोग भूमि पर हाथ जोड़े बैठे रहते. अगले चरण में सारे ओझा समवेत स्वर में गायन प्रारंभ करते और उनके गायन के साथ ही प्रारम्भ होता पीड़ितों का झूमना. कोई झूमता, कोई सर हिलाता, कोई हंसता, कोई अट्टहास करता , कोई रोने लगता, कोई चीखने लगता, तो कोई ओझा लोगों को ही चुनौती देने लगता. स्त्रियों के बाल बिखर जाते ...वस्त्र अस्त-व्यस्त होने लगते, तब ओझा उन्हें शालीन रहने की, डांटते हुए समझाइश देता.
माना जाता था कि वे सभी भूतों या प्रेतों से आवेशित हैं. यह निर्णय ओझा ही करते कि कौन व्यक्ति भूतावेशित है और कौन प्रेतावेशित. प्रेतावेश सबसे गंभीर माना जाता. कुछ भूत प्रेत कुछ शर्तों की पूर्ति के साथ ज़ल्दी ही मान जाते और आवेशित व्यक्ति के शरीर को हमेशा के लिए छोड़ देने का प्रोमिस करते. तब ओझा उन्हें गंगामाई की कसम दिलाते और गंगा का जल उन पर छिड़कते. 
कुछ बदमाश किस्म के भूत-प्रेत ओझा से उलझ जाते तब ओझा भी उनसे संग्राम के लिए तैयार हो जाते.
संग्राम के प्रथम चरण में वे फिर कोई सस्वर गीत गाना प्रारंभ करते. छोटे बदमाश प्रेत उतने से ही तड़पने लगते, मध्यम बदमाश प्रेतों पर गंगा जल छिड़क कर उन्हें भस्म कर देने की धमकी दी जाती, फिर भी नियंत्रण में न आने पर उन पर जल छिड़का जाता. इससे वे चीखते और पीड़ित को मुक्त कर देने का वचन देने लगते. बड़े बदमाश प्रेतों के लिए मिर्च की धूनी दी जाती. सुपर कोटि के बदमाश प्रेतों के लिए ओझा किसी देवी का कोई भयानक गीत गाते और गर्म-गर्म लोहे की काँटों वाली जंजीर से अपनी ही पीठ पर प्रहार करते. प्रहार के साथ ही सुपर बदमाश प्रेत तड़पने लगता ...और अंत में ओझा को विजय प्राप्त हो जाती. एपीसोड के अंत में सबको प्रसाद वितरित किया जाता. उधर जूनियर ओझा अगले बैच की तैयारी शुरू कर देते ....दोपहर बाद तक ओझा लोग अदृश्य आत्माओं से जूझते रहते. 
जहाँ यह सब हो रहा होता उसके ठीक आगे... मात्र बीस कदम की दूरी पर हमारे बाबा की कुटिया थी जहाँ वे सन्यासी होने के बाद से रहा करते थे. मैंने अपने बाबा से पूछा, ये सब क्या है ? उन्होंने बताया ...."कुछ नहीं, दुर्बल मानसिकता के लोग अंधविश्वासों से ग्रस्त हैं, ओझा अपने व्यापार में मस्त हैं....लोग जब तक मूर्ख बने रहेंगे .....इन धूर्तों का व्यापार चलता रहेगा." 
लोग बाबा का बड़ा सम्मान करते थे. मैंने कहा, लेकिन ये लोग जब आपके पैर छूकर आशीर्वाद लेने आते हैं तो आप इन्हें मना क्यों नहीं करते. वे कहते- " कई बार समझाया कि क्यों पाप कर्म में लगे हो, पर ये मानते नहीं. पैर छूते हैं तो मना तो नहीं किया जा सकता." 
तब मैं बहुत छोटा था, शायद आठ या नौ साल का रहा होऊंगा. अब परिस्थितियाँ बदल गयी हैं ...परिवेश बदल गए हैं. भूत-प्रेत आधुनिक हो गए हैं....और दबंग भी. हो सकता है वे किसी के सो जाने के बाद रात में कम्प्युटर में घुस कर नेट पर सर्फिंग भी करते हों. अब गंगा किनारे वाले वे ओझा नहीं रहे. होते तो पता नहीं कैसे निपटते इन आधुनिक हाई टेक भूत-प्रेतों से ? खैर, यह तो परिहास रहा. पर वास्तविकता यह है कि हममें से बहुत लोग ऐसे भी हैं जो शिक्षित या उच्च शिक्षित हो कर भी भूत (अतीत) को पकड़ कर रहते हैं. पहले अशिक्षितों को भूत सताते थे अब पढ़े लिखे लोग भी भूतप्रेमी हो गए हैं. वे वर्त्तमान को स्वीकार नहीं कर पाते. विभिन्न कुंठाओं से ग्रस्त ये लोग भूत को वर्त्तमान बना नहीं सकते इसलिए भूत को पकड़ कर बैठे हुए हैं. किसी कल्पना या अतीत को ही वर्त्तमान माने बैठे हैं. हाल्यूसिनेशन और ड़ेल्यूजन ही उनके जीवन का सत्य हो गया है. वे स्वेछा से, जब चाहें तब समय को पीछे नहीं ले जा सकते कि घटित का प्रत्यक्ष कर सकें. जो वर्त्तमान से पराजित हो कर भी ...हठ में उसके अस्तित्व को स्वीकार भी नहीं करना चाहते .... उनके लिए हाल्यूसिनेशन और ड़ेल्यूजन ही भूत को पकड़े रहने में सहायक हो पाते हैं. भूत भी इसीलिये उनका पीछा नहीं छोड़ता .....जकड़ लिया है उसने . किन्तु अतीत में रहने की जिद से जीवन नहीं जिया जा सकता. इसके लिए अपने वर्त्तमान को स्वीकार करना ही होगा. 
मेरी करुण विनती है ऐसे लोगों से कि वे समय को पीछे ले जाने का असंभव कार्य करने का हठ न करें. कल्पना को एक सीमा तक ही स्थान दें वर्त्तमान को या तो अपने पुरुषार्थ से आकार दें या फिर जो भी सामने है उसे ही स्वीकार करें. हमें भूत ने सिर्फ इसलिए जकड़ा हुआ है क्योंकि हमने खुद ही भूत को पकड़ा हुआ है....उस अतीत को पकड़ा हुआ है जिसका आज कोई अस्तित्व ही नहीं है. हमें अतीत के उस गर्त से निकल कर बाहर आना ही होगा. 


सर्वे भवन्तु सुखिनः ........ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः !!!
                     

सोमवार, 14 नवंबर 2011

सोचा ही नहीं


हमने तो 
ये कभी
सोचा ही नहीं
चाँद भी 
इस तरह
जलता है क्यूँ ? 

हिचकियों के 
ले थपेड़े
सिन्धु भर-भर 
नयन तेरे
डूबने को 
हैं बुलाते 
कौन जाने 
डूबकर 
कोई कुछ पाया भी है ?

कोई डुबाने पे अड़ा
डूबने को 
कोई खड़ा
खेल का ये सिलसिला 
जाने यूँ 
चलता है क्यूँ ?

आँसुओं की 
धार में वो 
साथ हमको 
बहा ले जायेंगे 
भावना के 
फेक पांसे 
वेदना दे जायेंगे.

प्रेम का नाम ले 
छल गए 
वो हमें,
दर्द पीने को ये 
दिल 
तड़पता है क्यूँ ? 

वो 
हर घाट पर
जा रहे 
रूठ कर 
"प्यास 
हमको नहीं 
घाट को थी लगी "
पीके जी भर पथिक 
झूठ कहता है क्यूँ ?
उनके हर झूठ पर 
दिल 
मचलता है क्यूँ ?              

रविवार, 13 नवंबर 2011

......एक अधूरा सफ़र.....

कनु सान्याल ! 
.......नक्सली सिद्धांत के जनक...... 
.........एक लम्बा संघर्ष ......फिर आपसी असहमति ..............पथ पत्थर बन गया ...टकराया तो चोट खुद को लगी .........
 .....और फिर वृद्धावस्था में हताशा की स्थिति में आत्मह्त्या अर्थात समस्या से सिद्धांत और पुनः सिद्धांत से समस्या तक का एक अधूरा सफ़र......
अवसरवादी ताक में रहते हैं.....कब कोई अच्छा सिद्धांत जन्म ले और कब वे उसका अपहरण कर अपने कबीले में शामिल कर लें ....अपने तरीके से ....अपने हित के लिए. वे वैचारिक अपहरण में प्रवीण हैं.......इसीलिये सत्ता सुख के भागी हैं ......
पिछले एक दशक से दक्षिण बस्तर में नक्सली हिंसा का तांडव चल रहा है. मानवाधिकारवादियों का आरोप है कि पुलिस द्वारा बीजापुर जिले के तीमापुर आदि गाँवों को जला दिया गया, वनोपज के लिए विख्यात गाँव बासागुडा को उजाड़ दिया गया......यह सब एक दृष्टि में अत्याचार ..उत्पीडन जैसा लगता है. पुलिस के अपने तर्क हैं. किसी भी एक पक्ष में कुछ कहना विवेकपूर्ण नहीं है...पर चुप भी रहना उचित नहीं. एक बात में सभी की सामान्य स्वीकारोक्ति है...और वह यह कि समस्या सत्ताजन्य है.....तो समाधान भी सूत्रधार को ही करना होगा. किन्तु सूत्रधार को इस खेल में आनंद आ रहा है.....शायद बचपन में ये लोग तालाब में ढेले फेककर मेढकों को मारते रहने के अभ्यस्त रहे होंगे. बड़े हो गए पर वृत्ति नहीं बदली. 
मैं सिद्धांत से समस्या तक के सफ़र की बात कर रहा था. मुझे लगता है कि नक्सली सिद्धांतों में हुए विचलन के कारण उनका आन्दोलन 'आतंक' बन गया है और उनका सिद्धांत 'समस्या'.  बेशक,  इसे पोषित भी किया गया है ..किसने किया है पोषित ? यह रहस्य नहीं है. कुछ महीने पहले रायपुर से प्रकाशित एक प्रतिष्ठित दैनिक समाचारपत्र ने एक आंकड़ा प्रस्तुत किया था .......नक्सलियों को कौन कितना चन्दा/ टैक्स देता है . इस लम्बी सूची में व्यापारियों से लेकर औद्योगिक घराने और सरकारी सेक्टर तक सभी शामिल थे. इसी सूची में यह भी विवरण था कि किस नक्सली नेता के पास कितने करोड़ की संपत्ति है. तब किसी ने अखबार की खबर पर कोई ध्यान नहीं दिया था. आज एस्सार पर गाज गिर गयी ....पर सच इतना ही नहीं है ...हमाम में अभी बहुत से नंगे और भी हैं जो बड़ी खुशी से नहा रहे हैं.  हाँ ! अब वे थोड़ा सचेत अवश्य हो गए हैं. हमाम का ही एक नंगा अदालत लगाकर बैठ गया है. 
नक्सल समस्या के पल्लवित होने के कारणों में एक बात और भी समझ में आ रही है .....आदिवासियों में नेतृत्त्व का अभाव. बस्तर का आदिवासी सारी समस्यायों से अकेले ही जूझ रहा है.....सोनी सोढ़ी का परिवार नक्सलवाद की गिरफ्त में है और खुद सोनी पुलिस की. इस समीकरण पर ध्यान देने की फुरसत लोगों के पास शायद नहीं है.
ध्यान इधर भी देने की फुरसत किसी के पास नहीं है कि जंगलवार कॉलेज के लोग आत्महत्या क्यों कर रहे हैं? नक्सली उन्मूलन में उनमें कोई रूचि क्यों नहीं है ? क्यों वे ज़ल्दी से ज़ल्दी अपनी ट्रेनिंग ख़त्म कर घर भाग जाना चाहते हैं ? प्रश्न इतने ही नहीं हैं ........पर उनको उठाने से क्या लाभ क्योंकि अभी  तक कोई भी ऐसा नज़र नहीं आया जो समस्या उन्मूलन के प्रति वास्तव में गंभीर हो.

शनिवार, 12 नवंबर 2011

अथ टिप्पणी कथा ........

सभी लोगों को सादर नमस्कार ! 
कुछ दिनों के लिए बाहर चला गया था ...आज वापस आया हूँ. इस बीच कई लोगों की पोस्ट्स देखने का अवसर नहीं मिल सका. 
पिछले कुछ दिनों से कुछ अपवादों को छोड़ कर अपनी पोस्ट्स पर मैंने टिप्पणियों का विकल्प बंद कर दिया था. अब पुनः प्रारम्भ कर रहा हूँ. बंद करने का कारण यह था कि एक ब्लोगर द्वारा टिप्पणियों को लेकर मुझ पर दो आरोप लगाए गए थे, पहला यह कि मैं ब्राह्मणवादी हूँ और दूसरा यह कि टिप्पणियाँ खोने के डर से मैं उनके द्वारा नापसंद किये गए ब्लोगर्स का विरोध नहीं कर पाता एवं तटस्थता की स्थिति में हूँ.  
मैंने इन आरोपों का उत्तर टिप्पणियों का विकल्प बंद करके देने का प्रयास किया. मेरे द्वारा निर्धारित समय सीमा के समाप्त हो जाने के बाद भी मैं अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो सका अस्तु विकल्प पुनः प्रारम्भ कर रहा हूँ. मैं एक बात और कहना चाहता हूँ कि मैं जो भी लिखता हूँ वह टिप्पणियों के लिए नहीं लिखता. लेखन का उद्देश्य टिप्पणियाँ नहीं हैं......अभिव्यक्ति है. टिप्पणियाँ तो विमर्श के लिए हैं ...जिससे विचारों और लेखों को और परिष्कृत किया जा सके. यूं भी मेरे ब्लॉग पर टिप्पणियों की सख्या इतनी नहीं होती कि मुझे टिप्पणियों का लालची कहा जा सके. मैंने इसके लिए कभी कोई प्रयास भी नहीं किया. कभी करूंगा भी नहीं.
लोग टिप्पणियों को इतना महत्त्व क्यों देते हैं.....इसके विश्लेषण में जाने पर दुःख होता है. बस एक बात कहूंगा कि कुछ लोग जीने के लिए खाते हैं तो कुछ लोग खाने के लिए जीते हैं. यही बात लेखन और टिप्पणियों के बारे में भी है. 
इस पूरी कथा का प्रारम्भ ब्लोगर्स के आपसी विवादों...टिप्पणियों-प्रतिटिप्पणियों....अशोभनीय भाषा के प्रयोग, एक-दूसरे को नीचा दिखाने की वृत्ति, आत्म्श्लाधा, महान होने के प्रदर्शन ...आदि से होता है. ब्लोगिंग में बहुत कुछ अच्छा हो रहा है तो बहुत कुछ अशोभनीय भी हो रहा है. अभी तक हिन्दी ब्लोगिंग में संविधान की आवश्यकता पर गंभीरता से विचार नहीं हो सका है.....इसीलिये अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दुरुपयोग संभव हो सका. 
कभी किसी की पोस्ट पर .....किसी नुक्कड़ पर मुझे कुछ भला नहीं लगा तो अपने तरीके से मैंने उसका विरोध भी किया. यह संभव नहीं है कि विरोध का तरीका वही हो जो लोग चाहते हों. विरोध करने वाला बाध्य नहीं है आपके तरीके से विरोध करने के लिए. आप चाहते हैं कि लोग आपके नापसंद लोगों का विरोध आपके तरीके से करें .....यदि वे अपने तरीके से करते हैं तो वे भी दुश्मन की श्रेणी में शामिल घोषित कर दिए जाते हैं .....मैं मानसिक रूप से इस वृत्ति पीड़ित हुआ हूँ. हर व्यक्ति की विरोध करने की अपनी सीमा और अपने तरीके होते हैं. आप किसी गलत घटना के विरोध की कामना कर सकते हैं किन्तु किसी तरीके विशेष के लिए बाध्य नहीं कर सकते. लोग मेरे विरोधियों का विरोध नहीं करते हैं इसलिए मेरे द्वारा उन पर छीटाकशी करना या उन्हें अपमानित करने वाली पोस्ट्स बारम्बार लिखना .....उन्हें कटघरे में खडा करना प्रशंसनीय नहीं कहा जा सकता. 
मुझे कुछ ब्लोग्स पर जाने में डर लगने लगा है.....पता नहीं लोग किस बात पर अपमानित करने लगें. पता नहीं वे हमसे किस प्रकार की टिप्पणियाँ चाहते हैं .....पता नहीं उनकी हमसे क्या अपेक्षाएं हैं .....हम नहीं जानते ...या जानते भी हैं तो उन्हें पूरी कर पाने में समर्थ नहीं हैं ......यह असमर्थता भी उनके लिए एक विषय बन जाता है. वे हिंसा का विरोध करते हैं पर हिंसक तरीके से क्रांति में विश्वास रखते हैं. उनके पास आदर्श की बाते हैं किन्तु आचरण में कहीं झलकता भी नहीं. वे देश की सेवा करना चाहते हैं किन्तु देशवासियों से झगड़ा करने में पीछे नहीं रहते. वे अश्लीलता का विरोध करते हैं पर अपने ब्लोग्स में अश्लील शब्दों के प्रयोग से परहेज नहीं करते. वे स्वयं सम्मान की अपेक्षा करते हैं पर दूसरों को अपमानित करने में एक क्षण की भी देरी नहीं लगाते. हम नहीं जानते उनका यह कैसा देश प्रेम है ???
मैं कई बार कह चुका हूँ कि सशक्त विरोध के समर्थ स्वर मर्यादित भाषा से ही निकल सकते हैं ....अमर्यादित भाषा से नहीं. गालियाँ दुर्बलता की प्रतीक हैं ....पौरुष की नहीं. 
....किन्तु यदि लोग गालियों की भाषा में विश्वास रखते हैं तो हम क़ानून को अपने हाथ में नहीं ले सकते. गाली का बदला गाली नहीं है ...अब इसके लिए यदि आप हमें कायर और मानसिक रूप से दुर्बल कहना चाहें तो कह सकते हैं.
हर किसी से विवाद करना देशभक्ति का प्रतीक नहीं है. देशप्रेम के लिए देशवासियों से झगड़ा करना आवश्यक नहीं है. अपराधी को दंड देने का काम हमारा नहीं है....क़ानून का है. हाँ ! यदि क़ानून लोक कल्याणकारी नहीं है तो हम क़ानून बदलने की बात कर सकते हैं ...हम व्यवस्था बदलने के लिए क्रान्ति कर सकते हैं...किन्तु इसके लिए हिंसा करने का अधिकार हमारा नहीं है.
हमने प्रयास किया .......किन्तु अपनी बात समझा सकने में असफल रहे और अब सब कुछ इश्वर के हाथों में सौप देने की विवशता के साथ हम पुनः प्रकृतिस्थ हो वापस आ रहे हैं अपनी दुनिया में..........


सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः 
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु माँ कश्चिद् दुःखमाप्नुयात