सोमवार, 30 अगस्त 2021

भाजपाशासित राज्यों में तालिबान हुकूमत की खुसुर-फुसुर

Quora पर एक व्यक्ति ने पूछा है कि क्या यह कहना उचित होगा कि उत्तरप्रदेश में तालिबान राज्य है?

इस तरह के पश्न पूछे जाने का आशय केवल एक creation of misleading thought हुआ करता है । अपवादस्वरूप कहीं कोई अराजक घटना हो जाय तो उसे तालिबानी हुकूमत कहना कितना उचित होगा, विशेषकर तब जबकि घटना की उसी के समाज द्वारा निंदा की जा रही हो!

तालिबान जिस शरीया को लागू करने की बात करते हैं अफ़गानिस्तान ही नहीं पाकिस्तान की भी बहुसंख्य जनता उससे दहशत में हैं । यदि आप हिंदूराज की बात करते हैं तो उससे पूरी दुनिया में कभी कोई भयभीत नहीं रहा । योगीराज की पुलिस तालिबान की तरह हर घर से 12 लोगों का ख़ाना वसूल नहीं करती । योगी पुलिस किसी स्कूल में घुसकर निर्दोष बच्चों को कत्ल नहीं करती । योगी पुलिस लड़कियों को उनकी माओं की गोद से छीन कर नहीं ले जाती । योगी जी तालिबान की तरह अपने सैनिकों से शादी करने के लिये 12 से 40 साल तक की स्त्रियों की सूची नहीं माँगते । और अंतिम बात यह कि अँधेरों की तुलना रोशनी से किए जाने का कोई औचित्य नहीं होता ।

इन दिनों सोशल मीडिया पर एक वीडियो प्रसारित हो रहा है, इंदौर में कुछ युवकों ने एक मुस्लिम कबाड़ी वाले को जय श्रीराम बोलने के लिए बाध्य किया । निश्चित ही यह एक अराजक घटना है जो निंदनीय ही नहीं दण्डयोग्य भी है । दूसरे धर्म के लोगों को हिंदूधार्मिक प्रतीकों या आदर्शों को स्वीकार करने या पालन करने के लिये बाध्य करना सनातन धर्म के सिद्धांतों के विरुद्ध है । यह एक षड्यंत्र भी हो सकता है, जो भी हो फ़िलहाल तो हिंदू-विरोधियों को बैठे ठाले हिंदू आतंकवाद प्रमाणित करने का एक अवसर मिल गया ।

अब्दुल समद याकूब पीटीआई के प्रवक्ता हैं और गज़ब के आदमी हैं । पाकिस्तान के रक्षा विशेषज्ञ कमर चीमा तो कभी-कभार दबी ज़ुबान से पाकिस्तान की ग़ुस्ताख़ियों को व्यंग्य में मुस्कराते हुये स्वीकार भी कर लेते हैं लेकिन अब्दुल समद तो सूरज को भी सूरज कहने से साफ़ नकार देते हैं । आज एक टीवी चैनल पर अब्दुल समद ने फरमाया कि अफ़गानिस्तान में तालिबान पर लगाये गये सारे इल्ज़ाम बेबुनियाद और इस्लाम को बदनाम करने के लिये हैं, वहाँ न तो कोई हत्या हुयी है और न किसी लड़की को उसके घर से ज़बरन उठाया गया है । यह सब कहने की ग़ुस्ताख़ी अब्दुल समद ने तब की जब टीवी चैनल पर अफ़गानिस्तान की एक लड़की मुस्कान भी मौज़ूद थी । पाकिस्तान के अब्दुल समद ने अफगानिस्तान की मुस्कान की बातों को भी नकार दिया । यानी अब्दुल समद याकूब ने टीवी मीडिया पर सरे-आम उस मुंसिफ़ की तरह व्यवहार किया जो विक्टिम को एक्यूज़्ड मान लेने का फ़ैसला पहले से ही कर चुका हो ।

जब मैं पढ़े-लिखे लोगों के ऐसे चरित्र को देखता हूँ तो लगता है कि शायद ऐसे ही लोगों की वज़ह से तालिबान ने शिक्षा का विरोध करना शुरू किया होगा, उन्हें लगा होगा कि ऐसे आचरण के लिए पढ़ायी-लिखायी में पैसे बरबाद करने की क्या ज़रूरत जो बिना पढ़े-लिखे ही आराम से किया जा सकता है । जो भी हो, ब्रिटेन के मुस्लिम उपदेशक अंजुम चौधरी ने जजिया कर को काफ़िरों पर लगाया जाने वाला टैक्स मानते हुये तालिबान को सलाह दी है कि वे अफ़गानिस्तान में रहने वाले ग़ैरमुस्लिमों पर उनकी सुरक्षा के बदले में जजिया कर लागू कर दें । अर्थात जो ग़ैरमुस्लिम जजियाकर नहीं देगा उसकी ज़िंदग़ी की कोई ग़ारण्टी नहीं । इस्लामिक क़ायदे के अनुसार भारत के भी बहुत से मुसलमान इसे उचित मानते हैं । “हिंदी सत्य” नामक “सच का सामना” करने वाले एक संगठन के अतिबुद्धिमान लोगों का मानना है कि औरंगज़ेब ने जो जजियाकर लगाया था उससे डर कर किसी भी निर्धन हिंदू ने धर्मांतरण नहीं किया था बल्कि वे तो सूफ़ी संतों से प्रभावित हो कर मुसलमान बने थे । मुझे लगता है कि इस थ्योरी के अनुसार तो अफगानिस्तान में रहने वाले ग़ैरमुस्लिम लोग अब तालिबान के इस्लामिक आचरण से प्रभावित होकर ज़ल्दी ही मुसलमान बन जायेंगे ।    

भारत में स्वर्णकाल फिर कब कब आयेगा

शूद्र अपनी राह छोड़ दे तो देश साधनविहीन और दरिद्र हो जाता है, वैश्य अपनी राह छोड़ दे तो संसाधनों का दुरुपयोग होता है और जन-जीवन संकटग्रस्त हो जाता है, क्षत्रिय अपनी राह छोड़ दे तो देश और समाज असुरक्षित हो जाता है, ब्राह्मण अपनी राह छोड़ दे तो अन्याय-अनीति और अनियंत्रित पाप से पूरा समाज पतन के गर्त में चला जाता है । सभी वर्ण के लोग निष्ठापूर्वक अपने-अपने दायित्वों का पालन करते रहें तो देश की समृद्धि, सुरक्षा और प्रतिष्ठा को शिखर तक पहुँचने से कोई रोक नहीं सकता । विदेशियों ने भारत की इस अद्भुत वर्णव्यवस्था के मूल को समझा और सीधे इसी पर प्रहार किया, नये ताने-बाने के साथ विकास की शोषणमूलक परिभाषा गढ़ी गयी, वर्ण-व्यवस्था को पाखण्ड और विकासविरोधी कहा गया, हमें वर्णव्यस्था के विरुद्ध एक हथियार के रूप में स्तेमाल किया जाने लगा, धीरे-धीरे हम स्वयं अपनी श्रेष्ठ व्यवस्था को गालियाँ देने लगे और आज न जाने कितने विकारों से जूझने के लिये बाध्य हो गये ।

शारीरिकश्रम करने वाले हों या मानसिकश्रम करने वाले, आज कोई भी अपने कर्तव्यों के प्रति निष्ठावान नहीं रहा । वैचारिक प्रदूषण समाज को भ्रमित करने में लगा है, झूठ को प्रतिष्ठित किया जाने लगा है । निर्धन को न्याय नहीं अन्याय मिलने लगा, सेना को सम्मान नहीं अपमान मिलने लगा, व्यापार में छल और पाप का बोलबाला हो गया, राष्ट्रद्रोही राष्ट्रनायक बनने लगे और राष्ट्रनायक इतिहास से लुप्त होने लगे ।

कोई काम संतोषजनक नहीं होता, समय पर नहीं होता, नीतिपूर्वक नहीं होतापुल और बाँध पहली वारिश में ही धराशायी क्यों हो जाते हैं? कोई भी फ़ाइल वर्षों तक आगे क्यों नहीं बढ़ती? बिना रिश्वत लिए कोई बात भी करने के लिए तैयार क्यों नहीं होता? कामगार काम को जैसे-तैसे भुगत कर निपटा देने के अभ्यस्त क्यों हो गये? अराजक तत्व राज्य के मालिक कैसे बनने लगे? साधु-संत भोगविलास के जीवन से विरत क्यों नहीं हो पा रहे? ये वे प्रश्न हैं जो बहुत लोगों के मन में उठते अवश्य हैं किंतु कभी चिनगारी नहीं बनते । ज्वलंत प्रश्न चिनगारी क्यों नहीं बन पाते, यह प्रश्न हर व्यक्ति को अपने आप से पूछना होगा ।

शनिवार, 28 अगस्त 2021

सियासत से तालीम का रिश्ता

अफ़गानिस्तान में आठवीं फेल एक तालिब को शिक्षा मंत्री मनोनीत कर दिया गया है । कुछ लोग सवाल उठा रहे हैं कि मौत का खेल खेलने वाले अशिक्षित लोग सियासत कैसे करेंगे? शायद वे पूछना चाहते हैं कि गोली चलाने वाले लोग मंत्रालयों की तकनीकी विशेषज्ञता के अभाव में शासन कैसे कर सकेंगे? यह वर्तमान परिस्थितियों में वर्तमान परम्पराओं की ऐनक से पूछा गया वर्तमान का सवाल है जिसमें दो हजार साल पुरानी परिस्थितियों के पुनरावतरण की कल्पना से उत्पन्न एक हैरत अंगेज़ जिज्ञासा समायी हुयी है । 

मैं पुरानी परिस्थितियों में पुरानी परम्पराओं की ऐनक से अफगानिस्तान के भविष्य को देखने की कोशिश कर रहा हूँ इसलिए मुझे  समयचक्र को पीछे की ओर घुमाते हुये मंगोलिया, उज़बेकिस्तान, सीरिया और फ़िलिस्तीन आदि देशों के उस युग में जाना होगा जहाँ आज की तरह की विश्वविद्यालयीन शिक्षा-परम्परा नहीं थी । हमें सिकंदर, मोहम्मद बिन कासिम, चंगेज ख़ान, तैमूर लंग, ज़हीरुद-दीन मोहम्मद बाबर आदि की शिक्षा-दीक्षा पर भी एक दृष्टि डालनी होगी। ये सब अतिमहत्वाकांक्षी और अतिआक्रामक लोग थे जिनकी प्राथमिकताओं में सत्ता शीर्ष पर हुआ करती थी, शिक्षा नहीं । इन्होंने उन लोगों को लूटा या उन पर शासन किया जो उनकी अपेक्षा कहीं अधिक सभ्य और शिक्षित थे । सामने जब नंगी तलवारें हों, जेब में कानून हो, नैतिक मूल्य अनावश्यक मान लिये गये हों और तलवार वाला अपनी ज़िद में हो तो सभ्यता और शिक्षा का भी कोई मूल्य नहीं हुआ करता । जौहरी न हो तो हीरे का क्या मूल्य!

यूँ, हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि तालिबान लड़ाकों में अशिक्षित ख़ूँख़ार लड़ाके ही नहीं हैं बल्कि उच्चशिक्षित इंजीनियर्स और डॉक्टर्स भी शामिल हैं । अफगानिस्तान ही नहीं पाकिस्तान और भारत सहित दुनिया के दीगर कई देशों में भी बहुत से पढ़े-लिखे काबिल लोग इन्हीं तालिबान की विचारधारा और तौर-तरीकों के प्रशंसक हैं । तालिब का अर्थ अब ज्ञान के लिये जिज्ञासु किसी छात्र की मर्यादाओं को तोड़ कर एक विचारधारा हो गया है जो सत्ता पाने के लिए लाशों को कुचलते हुये आगे बढ़ने में विश्वास रखती है ।  

हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि पढ़े-लिखे जो-वाइडन ने तो अफ़गानिस्तान मामले में बता दिया है कि वे न तो दूरदर्शी हैं और न सही निर्णय ले सकने में सक्षम । पढ़े-लिखे अशरफ़ गनी ने बता दिया है कि वे अपने स्वार्थ के लिये अपने देश की जनता के साथ कितना भी बड़ा विश्वासघात कर सकते हैं । पढ़े-लिखे इमरान ख़ान ने बता दिया है कि वे कितने अजीब और कठपुतली शासक हैं । पढ़े-लिखे देवबंदियों ने अपने मुँह और आचरण से क्या बताया है यह बताने की नहीं गम्भीरतापूर्वक समझने की बात है ।

तालिबान की शासन व्यवस्था आज से दो हजार साल पहले की शासन व्यवस्था से प्रेरित है, यानी वे अफ़गानिस्तान को दो हजार साल पहले के युग में ले जाना चाहते हैं जहाँ आधुनिक तकनीकी ज्ञान और आधुनिक समाज व्यवस्था के लिए कोई स्थान नहीं है । वे उस बर्बर व्यवस्था को लागू करना चाहते हैं जहाँ क़त्ल-ओ-ग़ारत, क्रूरता और ज़ाहिलियत का बोलबाला हो, जहाँ कबीले के सरदार की सोच ही कानून हो और वही अंतिम सत्य भी । ऐसी व्यवस्था के लिए किसी राजनीतिशास्त्र, विधिशास्त्र, अर्थशास्त्र या समाजशास्त्र के ज्ञान का भला क्या औचित्य हो सकता है! वह बात अलग है कि तालिबान को क़त्ल-ओ-ग़ारत से सम्बंधित सारे हथियार और उपकरण अत्याधुनिक ही चाहिये जिनमें अत्याधुनिक तकनीक का स्तेमाल किया जाता है ।

क्रूरता और क़त्ल-ओ-ग़ारत के लिये पढ़ने लिखने की नहीं पोल-पोट, ईदी अमीन और किम-जोंग-उन होने की योग्यता चाहिये । बहरहाल, हम तो अपने प्यारे देश भारत के टीवी चैनल्स पर निहायत असभ्य व्यवहार करते हुये शिक्षित लोगों को दिन भर देखा करते हैं । हमारे गाँव का बउझड़ कहता है – “खेलोगे-कूदोगे बनोगे मंत्री, पढ़ोगे-लिखोगे बनोगे संत्री” ।  

रविवार, 22 अगस्त 2021

धारदार तारों के पार जीवन की आशा

काबुल हवाई अड्डे की ऊँची दीवाल पर शरीर को चीर देने वाले धारदार तारों की बाड़ है जिसके एक ओर अफ़गान नागरिकों की भीड़ है और दूसरी ओर अमरीकी सैनिक जो मदद के लिये उठे हाथों को थामने की कोशिश कर रहे हैं । अमेरिकी राष्ट्रपति जो वाइडन ने उस वक़्त तवे पर रोटी डालने से मना कर दिया जब कि तवा ग़र्म हो चुका था । यह किसी सत्ताधीश की दगाबाज़ी और क्रूरता हो सकती है लेकिन कोई सैनिक आम आदमी की उस भीड़ का हिस्सा होता है जो अपने जीवन में न जाने कितनी बार दर्द के थपेड़ों से जूझता रहा होता है ।  

आज टीवी चैनल्स पर उस दृश्य को देखर कलेजे में हूक उठने लगी है जिसमें काबुल हवाई अड्डे के बाहर खड़ी भीड़ के उठे हुये हाथ एक टोडलर बच्ची को हवा में ऊपर ही ऊपर उठाकर एक-दूसरे को सौंपते हुये आगे की ओर बढ़ाते जा रहे हैं, जहाँ अंतिम आदमी बच्ची को हवा में उछाल कर दीवाल पर खड़े किसी अनजान विदेशी सैनिक को सौंप देगा । यह भीड़ है जहाँ कोई किसी को नहीं जानता फिर भी भीड़ के हाथ सब कुछ जानते हैं कि आज उन्हें क्या करना है । हवाई अड्डे के बाहर खड़ी भीड़ पर बीच-बीच में तालिबानियों की गोलियाँ बरसने लगती हैं । बच्ची की दहशतज़दा माँ को उम्मीद है कि विदेशी सैनिक अंदर से एक इंसान होगा और उसकी बच्ची को अपने देश ले जाकर अपने परिवार का सदस्य बना लेगा । बहुत गहरे अँधेरे में यह रोशनी की एक बहुत तेज किरण है जो सिर्फ़ और सिर्फ़ एक पॉज़िटिव थॉट से उत्पन्न हुयी है । मैं कुछ क्षणों के लिये ख़ुद को उस बच्ची की माँ की भूमिका में देखने का प्रयास करता हूँ तो अंदर से बुरी तरह टूट जाता हूँ, नहीं ... इतनी शक्ति तो ईश्वर ने सिर्फ़ माँ को ही दी है किसी पुरुष को नहीं । शायद यही वज़ह है कि भारत और पाकिस्तान के बहुत से पुरुष उस माँ की अनंत पीड़ा का अनुभव ही नहीं करना चाहते और तालिबान को अल्लाह का कानून लाने वाले निज़ाम के रूप में ही देखने की ज़िद किए बैठे हैं ।

अमरीकी सेना का जहाज हवाई पट्टी पर कुछ दूर दौड़ने के बाद अब हवा में ऊपर उठ गया है जिसे देखते ही बच्ची की माँ पहले तो जमीन पर बैठी और फिर बेहोश होकर लुढ़क गयी । बेहद ख़ुशी और बेहद दर्द को एक साथ भोगती माँ होश में कैसे रह सकती है भला!

आक्रमणकारी तालिबान के आने के बाद अफ़गानिस्तान की हर माँ चाहती है कि उनकी बच्चियाँ तालिबानियों के ज़ुल्मो-ओ-सितम से किसी तरह सुरक्षित बच जायँ भले ही उन्हें अनजान हाथों में क्यों न सौंपना पड़े । कोई नहीं जानता कि वे माएँ अपनी बच्चियों से जीवन में दोबारा कभी मिल भी सकेंग़ी या नहीं । अफ़गान माँओं के कलेजे के टुकड़ों की यह कहानी, पता नहीं इतिहास में दर्ज़ होगी भी या नहीं ।

..और यह सब हिंदुस्तान के किसी शायर को बिल्कुल भी दिखायी नहीं देता । मुझे हैरत है कि इतने क्रूरहृदय, संवेदनहीन, ज़िद्दी, पूर्वाग्रही और मानवताविरोधी लोग भी शायर कैसे हो सकते हैं! निश्चित ही यह शायरी एक खोखला आवरण है जिसे पहनकर रावण ने सीता का अपहरण किया था । हमें ऐसे आवरणों को पहचानना होगा । और आज मैं उन सभी शायरों को अपने हृदय से हमेशा के लिये ख़ारिज़ करने की घोषणा करने के लिये बाध्य हुआ हूँ जिन्हें तालिबान इंसान ही नहीं बल्कि देवता नज़र आने लगे हैं ।



हमें मत भूलो - अमाल

 

ज़िंदग़ी की तलाश में खण्डहरों से होते हुये सीरिया की एक शरणार्थी 

गोदनामे की कानूनी प्रक्रिया पूरी होते ही ब्रिटिश नागरिक ने तीन साल के उस अनाथ कुर्दिश बच्चे को गोद में उठाया और शिविर से बाहर निकल गया । बच्चे की बड़ी बहन जो कि अभी मात्र तेरह साल की थी, शरणार्थी शिविर में अपने छोटे भाई से बिछड़ने के दुःख के बाद भी ख़ुश थी । उसकी आँखों में आँसू थे और दिल में एक तसल्ली कि भाई को एक अच्छी ज़िंदगी जीने का अवसर मिल गया था ।  

कोरोना महामारी के समय जब योरोप में लॉक-डाउन किया गया तो फ़्रांस के कलाइस शरणार्थी शिविर में रहने वाले लगभग दो हजार शरणार्थियों और ग्रीस के लेस्बोस द्वीप स्थित मोरिया शरणार्थी शिविर के लगभग बीस हजार शरणार्थियों पर जैसे एक और कहर टूट पड़ा । बाहरी दुनिया से उनका सम्पर्क पूरी तरह कट गया और वे कैदी की तरह शिविर में रहने के लिये बाध्य हो गये । शरणार्थियों की सहायता करने वाली बहुत सी स्वयंसेवी संस्थाओं को भी कोरोना के कारण अपनी गतिविधियाँ बंद करनी पड़ीं जिससे शरणार्थियों की ज़िंदगी और भी बदतर हो गयी ।

मोरिया शिविर के कुल बीस हजार शरणार्थियों में से दस हजार शरणार्थी वे बच्चे हैं जिनमें से अधिकांश ने अपने माता-पिता दोनों को ही खो दिया है । योरोप के किसी देश का कोई नागरिक कभी-कभार इन शरणार्थी शिविरों में बच्चों को गोद लेने के लिये आता है तो कुछ बच्चों के भाग्य करवट लेकर उठ खड़े होते हैं लेकिन ऐसे भाग्यशाली बच्चे अपने पीछे अपने उन भाई-बहनों के लिये एक असहनीय पीड़ा छोड़ जाते हैं जिन्हें अभी तक किसी ने गोद नहीं लिया है । लोगों की प्राथमिकता प्रायः छोटे बच्चों को गोद लेने की होती है, जिसके कारण किशोरवय बच्चे अपने छोटे भाई-बहनों से बिछड़ने की पीड़ा के अथाह समुद्र में डूबने के लिये बाध्य होते हैं ।

इन शिविरों में सीरियन ही नहीं बल्कि इरिट्रियन और ईराकी आदि भी हैं । अमाल नौ साल की एक सीरियन बच्ची है जो शरणार्थी शिविर में अपनी माँ के साथ रहती है । एक दिन अमाल की माँ उसके लिये खाना लाने गयी तो कभी वापस नहीं आयी । एक ज़ियाण्ट पप्पेट गर्ल अमाल के दर्द को लेकर सीरियन तुर्किश सीमा के गाज़ियनपेट से ब्रिटेन के लिये आठ हजार किलोमीटर की पदयात्रा पर निकल चुकी है ।    

पिछले कुछ दशकों से युद्धों और जलवायु परिवर्तन के कारण न जाने कितने लोग पलायन के लिये विवश होते रहे हैं । सभ्य समाज की यह एक ऐसी त्रासदी है जिस पर विचार तो होता है किंतु काम नहीं होता । पलायन करने वाले परिवारों की समस्याओं की कल्पना भी नहीं की जा सकती । वे गम्भीर स्थितियों से होकर किसी तरह जी भर पा रहे हैं जो वास्तव में एक तरह का दण्ड है जो उन्हें चाहे-अनचाहे भोगना पड़ रहा है । उन्हें समाज की मुख्य धारा में आने के लिये जीवन भर संघर्ष करना होता है । दावानल, बाढ़, सूखा और भूस्खलन आदि प्राकृतिक आपदाओं के कारण होने वाले पलायन के अतिरिक्त युद्धों और मनुष्यकृत अनेक पापों के कारण कश्मीर, सीरिया, ईराक, इरिट्रिया और अब अफ़गानिस्तान से लोगों का पलायन पूरी दुनिया को झकझोरने वाला है ।

धर्मिक उग्रवादियों को सहयोग करते रहने वाले तुर्की के कुछ चिंतकों और कलाकारों ने मिलकर अमाल को जिस कामना के साथ पदयात्रा पर भेजा है वह कीचड़ में कमल खिलने जैसी घटना है । चेहरे पर छलकते गहरे दर्द के साथ अपनी ख़ामोशी से हर किसी को झकझोरती हुयी आगे बढ़ती जा रही अमाल का एक ही संदेश है – “हमें मत भूलो”।


क्या नहीं भूलना है? यह हमें और आपको सोचना है । हमने प्रकृति को भुला दिया और उसका अनादर किया । सत्ताधीशों ने मानवता को भुला कर अपने राजनीतिक स्वार्थों के लिये निर्दोष लोगों को युद्ध में झोंक दिया । हमने बेघर हो चुके उन लोगों की त्रासदी को भुला दिया जिसके लिये वे ज़िम्मेदार नहीं थे । समाधान खोजने के लिये हमें अपने सारे पापों को याद रखना होगा ।



शनिवार, 21 अगस्त 2021

रवीश दर्शन

         पूर्वी चम्पारण के जितवारपुर गाँव के रवीश कुमार पाँडे के अलावा एनडीटीवी में एक और रवीश हैं, नाम है रवीश रंजन शुक्ल जो यूपी के बहराइच से हैं । रवीश रंजन शुक्ल 13 अगस्त 2021 को अपने चहकू(ट्वीटर) पर लिखते हैं – “हर धर्म की नींव इंसानियत की बुनियाद पर टिकी है, लेकिन अफसोस, धर्म के कुछ ठेकेदार धर्म के नाम पर और धर्म के लिये हिंसा को जायज ठहरा रहे हैं । अब पूरी दुनिया में धर्म ही नफ़रत का पर्याय बन रहा है

प्रगतिवादी चश्मे से पहली नज़र में यह ट्वीट बहुत शानदार सा लगता है, लेकिन थोड़ा और आगे बढ़ने पर इसकी तासीर रफ़्ता-रफ़्ता समझ में आने लगती है । यूँ, एक शंका रह जाती है, जब “हर धर्म की नींव इंसानियत की बुनियाद पर टिकी है” तो किसी धर्म विशेष के प्रचार की और धर्मांतरण की क्या ज़रूरत? और क्यों लोगों को इस काम के लिये आज़ादी चाहिये?  

रवीश रंजन शुक्ल बहराइची 16 अगस्त 2021 को चहकते हैं – अफ़गानिस्तान का असर कुछ तो पड़ना चाहिए । स्वतंत्रता दिवस के मौके पर दिल्ली-गाज़ियाबाद का इंटरनेशनल बॉर्डर कल बंद कर दिया गया था । कइयों की फ़्लाइट्स और ट्रेन छूट गई । आतंकी साया दिखाकर security State में बदल दो । इसी आतंकी साये में पलकर ये पत्तलकार जवान से बूढ़ा हो गया”।

सही बात है पंडित जी महाराज! महीनों शाहीन बाग में जमे रहे धरनों और दिल्ली की सरहदों पर स्थायी हो चले टिकैती धरनों के दौरान किसी की फ़्लाइट और ट्रेन नहीं छूटती लेकिन पंद्रह अगस्त को हाई एलर्ट के दिन कुछ घण्टों के लिये बॉर्डर बंद होने से बड़ी मुश्किल हो गयी ...क्योंकि छीनके लेंगे आज़ादी वालों के ख़ानदानी अपने मंसूबों में क़ामयाब नहीं हो सके । लेफ़्टियाना इरादों और उग्रवादी हरकतों को बौद्धिक कवरेज देने वाले सफ़ेदपोश लोग आज़ाद भारत के लिये सबसे बड़ी चुनौती बन गये हैं । 

दिनांक 19 अगस्त 2021 को शुक्ल जी ने एक लिंक देते हुये फिर एक चहक मारी – इस श्रंखला को पढ़िये और दिमाग को खोलिए । तालिबान की बंदूक से ज़्यादा उसकी जैसी सोच से हमें ख़तरा है

रवीशद्वय की सोच के हिसाब से ऐसा इशारा प्रायः मोदी, शाह और योगी की ओर हुआ करता है । बेगूसराय से कश्मीर भाया जेएनयू तक फैले तमाम पढ़े-लिखे लोगों को “हिंदुत्वा” वाली सोच तालिबानी सोच से भी अधिक भयानक लगती है । सावधान! इस सोच से देश ही नहीं बल्कि इंसानियत को भी ख़तरा है ।

शुक्ल जी ने 19 अगस्त 2021 को ही एक बार फिर चहक मारी, फ़रमाया – पिछला चुनाव पाकिस्तान के नाम पर और ये चुनाव तालिबान के नाम पर लड़ा जायेगा । तालिबानी आतंकियों के वीडियो में मुनव्वर राणा जैसों के बयान का तड़का लगेगा, फिर हिंदुओं को डराया जायेगा कि अफ़गानों की तरह तुम भी आने वाले समय में इसी तरह भागोगे । उप्र की चुनावी स्क्रिप्ट तैयार है

शुक्ल जी! क्या कैराना से हिंदुओं को नहीं भगाया गया? क्या कश्मीर घाटी से पंडितों को नहीं भगाया गया ? क्या पाकिस्तान से हिंदुओं को नहीं भगाया गया.....? रवीश जी! इस देश को आपके जैसे ब्राह्मणों से बेहद ख़तरा है जिन्हें दुनिया भर में होने वाले हिंसक दंगों, युद्धों और फ़तवों में कोई दोष दिखायी नहीं देता जबकि अपनी सुरक्षा के लिये प्रतिक्रियास्वरूप डिफ़ेंसिव मोड में आने वाले जेव्स और हिंदुओं में दोष ही दोष दिखायी देते हैं । विप्र जी! समाज को राह न दिखा सको तो भ्रमित भी मत करिये । उजाले की आप जैसे लोगों से उम्मीद नहीं लेकिन अँधेरा भी इतना मत फैलाइए जिसमें हमारे साथ-साथ आप भी डूब जायँ ।

गुरुवार, 19 अगस्त 2021

अफ़गानियों की ग़ुलामी की जंजीर

 जब इमरान ख़ान जैसा महान आदमी यह कहता है कि तलिबान ने अफगानिस्तान की जनता को अफगानिस्तान की गुलामी की जंजीरों से आज़ाद करके महान कार्य किया है तो इमरान को संयुक्त राष्ट्र संघ का आजीवन मालिक बना देने का मन होता है । अफगानिस्तान में तालिबानियों ने जिस “शांतिप्रिय तरीके से” रॉकेट लॉन्चर और गन से तबाही मचाते हुये अफ़गानिस्तान को अफगानिस्तान से आज़ाद कर दिया वह बेशक काबिल-ए-तारीफ़ है । काबुल हवाई हड्डे के रन-वे पर भागते अमेरिकी हवाई जहाज पर लटके हुये लोग अफगानिस्तान की आज़ादी की ख़ुशी में ज़श्न मनाने अमेरिका भाग जाने की हड़बड़ाहट में हैं । काबुल के घरों में अधेड़ तालिबानियों ने शरीया का पालन करते हुये शांतिप्रिय तरीके से तलाशी में बरामद होने वाली बच्चियों को उनकी अम्मियों से छिना कर उठा लिया है, शांति के इस आलम में ख़ुशी के मारे किशोर बच्चियाँ और उनकी अम्मियाँ चीख-चीख कर रो रही हैं जिससे काबुल में ज़न्नत जैसा माहौल बन गया है ।  

इस बीच यूएई से अशरफ़ गनी का वक्तव्य आया है कि वे अपनी “जान बचाने के लिये भागे” ...अपने देश की रहनुमाई की ज़िम्मेदारियों को छोड़कर अपनी जान बचाने के लिये पूरे देश के लोगों की जान को भाड़ में झोंककर भागे । इसलिये भागे कि काबुल में तालिबानी ख़ून-ख़राबा न करें, अपनी प्रजा की जान बचाने के लिये भागे । युद्ध के मैदान से राजा और सेनापति पीठ दिखाकर भाग खड़े हों तो सेना का क्या हश्र होता है, यह जानने के लिये इतिहास के मात्र एक-दो पृष्ठ पलटना ही पर्याप्त है । किसी देश का राष्ट्रपति इतना कमजोर होता है कि उसकी उपस्थिति के कारण उसकी जनता का कत्ले-आम शुरू हो जाय! सरदार की उपस्थिति के अभाव में तालिबानी ख़ून-ख़राबा नहीं करेंगे, यह बहुत ही क़माल का तर्क है !

भारत के लोगों को इस बात पर बिल्कुल भी शर्मिंदा नहीं होना चाहिये कि किसी समय इमरान ख़ान जैसा महान आदमी हमारे देश की धरती पर क्रिकेट खेलने आया करता था । इमरान से चार कदम आगे चलते हुये भारत के इस्लामिक स्कॉलर्स, एक्टिविस्ट, चिंतक और नेता मानते हैं कि शांतिप्रिय तालिबानियों को बदनाम करने के लिये बुरकानशीन औरतों को कोड़े लगाते हुये, बच्चियों को ज़बरन उनकी अम्मियों से छीन कर घसीटते हुये अपने साथ ले जाने, और काबुल हवाई अड्डे पर निहत्थे लोगों पर एके सैंतालीस से गोलियाँ बरसाने जैसे दृश्यों वाले नकली वीडियो प्रसारित किये जा रहे हैं, ऐसे वीडियोज़ की कोई प्रामाणिकता नहीं है । सपा के शफ़ीकुर्रहमान और पीस पार्टी के टर्मोइल पसंद नेता शादाब चौहान का मानना है कि “तालिबानी फ़ाइटर्स ऑफ़ फ़्रीडम” हैं जिन्होंने “अफ़गानिस्तान को अफ़गानियों की गुलामी” से आज़ाद करवा दिया है और अब वहाँ एहकाम-ए-इलाही निज़ाम-ए-मुस्तफ़ा का राज क़ायम होगा । कश्मीरी एक्टीविस्ट वकार भट्टी ने तालिबान को स्वीकार करते हुये बधाई दी है । आल इण्डिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन के असदुद्दीन ओवेसी जैसे न जाने कितने चर्चित (और दिल्ली, बंगाल एवं यूपी आदि के छिपे हुये बेशुमार) चेहरे मानते हैं कि भारत सरकार को तालिबानियों से बात करनी चाहिये । असदुद्दीन तो धमकी के अंदाज़ में कहते हैं कि “मोदी को तालिबान से बात करनी होगी”। इण्डिया के वकार भट्टी ने उत्साहित होकर भविष्यवाणी कर दी है कि अब पूरी दुनिया में गुलाम-ए-मुस्तफ़ा का राज आयेगा । ज़मात-ए-इस्लामी हिंद के अध्यक्ष सैयद सदातुल्लाह हुसैनी ने भी तालिबानियों को अफगानिस्तान की हुकूमत पर काबिज़ होने को जायज़ ठहराया है । कुल मिलाकर भारत के बहुत से नामचीन मुसलमानों को टीवी पर आने वाली ख़ौफ़नाक तस्वीरों पर यकीन नहीं है और वे इन तस्वीरों और हालातों को सिरे से नकार दे रहे हैं ।  

तालिबानी शांतिप्रिय हैं – इतना बड़ा सच बोलने का दुस्साहस केवल भारत और पाकिस्तान के कुछ मुसलमान ही कर सकते हैं । आज जबकि पूरी दुनिया में अफगानिस्तान को लेकर लोगों में तालिबानियों के विरुद्ध गुस्सा है, भारत और पाकिस्तान के मुसलमानों के वक्तव्य इस बात की सूचना देते हैं कि वे भारत में गज़वा-ए-हिंद का समर्थन ही नहीं करते बल्कि समय आने पर तालिबानियों की तरह हथियार उठाकर शांतिप्रिय बन जाने के लिये भी तैयार हैं ।

टीवी चैनल्स पर वकार भट्टी जैसे लोगों के अमृतबुझे इरादों से दुनिया को रू-ब-रू करवाया जा रहा है लेकिन कश्मीर की याना मीर, पाकिस्तान की मोना आलम और आरजू काज़मी जैसे लोगों के वक्तव्यों की उतनी चर्चा नहीं होती जितनी होनी चाहिये, यही कारण है कि हिंदुओं के मन में भारतीय मुसलमान दहशत के पर्याय बनते जा रहे हैं । एक सवाल अक्सर उठता है कि जब मुस्लिम नेता और चिंतक टीवी पर ज़हर उगलते हैं तो आम मुसलमान ख़ामोश क्यों रहता है? सीएए और एनआरसी के विरोध में मुखर रहने वाली ज़ामिया मिलिया इस्लामिया की छात्रायें आज अफ़गानिस्तान की लड़कियों की दुर्दशा पर ख़ामोश क्यों हैं? भारत का मुसलमान अफगानिस्तान के मुसलमानों की त्रासदी पर ख़ामोश क्यों है? जो मुसलमान मुसलमानों के न हुये वे हिंदुओं के कैसे हो सकते हैं?

बस्तर की रानू शील नाग इस बात से बेहद अ-चिंतित हैं कि यदि भारत के तालिबान समर्थक इस्लामपरस्त कट्टर मुसलमान, जो कि तालिबानियों को मुबारकवाद देते नहीं थक रहे हैं, हिंदुओं के ख़िलाफ़ गज़वा-ए-हिंद के लिये हथियार लेकर उठ खड़े हुये तो क्या भारत भी अगला अफ़गानिस्तान बन जायेगा? उनकी अ-चिंता इसलिये भी है कि जब विश्व की महाशक्तियाँ तालिबानियों को हैवानियत करने से नहीं रोक सकीं और अफगानिस्तान को अकेला छोड़ दिया गया तो इस बात की क्या गारण्टी कि भारत एक साथ तालिबानियों, पाकिस्तानियों और अपने भीतर के कट्टरवादियों का सामना कर सकेगा जबकि हमारे सांसद भी राष्ट्रीय मुद्दों पर कभी एकमत नहीं हो पाते?   

यह अ-चिंता केवल रानू शील नाग की ही नहीं है बल्कि देश भर में, विशेषकर पश्चिम बंगाल, यूपी और दिल्ली में हिंदू-मुस्लिम दंगों के लम्बे इतिहास ने भारत के लोगों को अ-चिंतित कर दिया है । भारत में जहाँ-तहाँ होने वाले वैचारिक बलात्कारों और तालिबानियों के स्वागत वाले बयानों से हिंदू समाज अ-भयभीत है । दुनिया भर के अ-शांतिप्रिय आम नागरिक अफ़गानिस्तान की घटनाओं से अ-चिंतित और अ-दहशत में हैं । किसी को नहीं पता कि ऐसी स्थितियों से निपटने के लिये भारत सरकार के पास क्या उपाय हैं! उधर मोतीहारी वाले मिसिर जी भी इस बात से बेहद अ-नाराज हैं कि भारत के साहित्यकार और बुद्धिजीवी अफ़गान समस्या पर आश्चर्यजनकरूप से अ-ख़ामोश क्यों हैं । हिंदी के साहित्यकार को समसामयिक घटनाओं, और समाज में तेजी से फैलते बौद्धिक प्रदूषण से कोई सरोकार दिखाई नहीं देता । यह ख़ामोशी नहीं शुतुर्मुर्गियाना हरकत है और लेखकीय प्रतिबद्धता से वादा-ख़िलाफ़ी भी जो कालजयी लेखन के लिये अत्यंत प्रशंसनीय और अनुकरणीय है । रानू शील जैसे करोड़ों भारतीयों को वर्तमान हालातों और गज़वा-ए-हिंद जैसी शांतिप्रियता से मुक्ति का कोई समाधान चाहिये तो यह उनकी मर्ज़ी, हम तो फ़िलहाल तालिबानियों के ख़ैर-मक़्दम की बात करने और उनका इस्तक़बाल करने की तैयारियों में व्यस्त हैं । औरतों की आज़ादी की बात करने वाली अरुंधती, स्वरा, बरखा और शेहला जैसी औरतें कहीं दिखाई नहीं दे रहीं, वे दिखतीं तो अफगानी बच्चियों की ख़ुशी में चार चाँद लग जाते ।

चलते-चलते यह बताना आवश्यक है कि यदि मैं रविश कुमार होता तो लिखता – “मोदी ने अफ़गानिस्तान में तीन बिलियन डॉलर खर्च करके भारत के साथ विश्वासघात ही नहीं किया बल्कि मोदी की नीतियों के कारण अफगान सेना ने तालिबानियों के सामने सरेण्डर कर दिया”।  

बुधवार, 18 अगस्त 2021

स्त्री की आवाज़

सहरा करीमी अफ़गानिस्तान की फ़िल्म निर्देशक और नामचीन अभिनेत्री हैं जो काबुल में तालिबानियों के वहशी इरादों से ख़ौफज़दा हैं । तालिबानी लड़ाके अफगानी लड़कियों को शादी करने के लिये ज़बरन उठा रहे हैं । बारह साल की बच्चियों के साथ उनकी उम्र से पाँच गुना अधिक उम्र वाले जवान तालिबानियों के जोड़े की कल्पना हमें एक पाशविक युग में खींच कर ले जाती है । नीले या काले रंग के मोटे कपड़े के तम्बू जैसे बुरके में किसी चलते-फिरते या लुढ़कते हुये ढेर की तरह दिखने वाली स्त्रियों के जीवन की सही-सही कल्पना करने के लिये कम से कम एक हफ़्ते उसी स्थिति में रहकर अनुभव करना होगा । उधर शरीया कानून को अल्लाह का हुक्म मानने वाले तालिबानी ज़ुल्म-ओ-सितम की सारी हदें पार कर दिया करते हैं, इधर भारत के देवबंदियों को अफगानिस्तान में अमन-ओ-चैन का आलम दिखायी देने लगा है । ज़ाहिर है कि देवबंदियों के सपनों में भारत के लिये भी वैसे ही अमन-ओ-चैन के आलम की तस्वीरें बड़ी हिफ़ाजत से सुरक्षित हैं । जो सेकुलर यह कहते नहीं थकते कि दुनिया के सभी धर्म इंसानियत का पाठ पढ़ाते हैं उन्हें एक बार अफगानिस्तान, यमन, सीरिया और पाकिस्तान जैसे देशों में कुछ दिन ज़रूर गुजारने ही चाहिये ।   

अफ़गानी नेताओं की नामर्दगी, गद्दारी और चीन-पाकिस्तान एवं अमेरिका के काकटेली षड्यंत्रों के परिणामस्वरूप उत्पन्न हुये नर्क को भोगने के लिये विवश अफ़गानी नागरिकों की सहायता के लिये जिन्हें सामने आना चाहिये वे नेपथ्य में पीछे चले गये हैं । उधर पाकिस्तान में उनकी आज़ादी के दिन तहर्रुश गेमिया हो गया । लगभग चार सौ लोगों की भीड़ ने एक स्त्री को तहर्रुश गेमिया का शिकार बना लिया । तहर्रुश गेमिया अरब का एक वहशी खेल है जिसमें “नामर्द-मर्दों” की भीड़ एक महिला को किसी सार्वजनिक स्थान में घेर कर उसे फ़ुटबाल की तरह इधर से उधर धक्के देती और हवा में उछालती हुयी खेलती है । उसके कपड़े धीरे-धीरे नोच कर फेक दिये जाते हैं फिर भीड़ उसके ज़िस्म को ज़िबह की तरह धीरे-धीरे नोचती है और वह सब कुछ करती है जिसे न तो कोई देख सकता है और न कोई उसका वर्णन कर सकता है । अल्लाहू अकबर के नारे लगाती भीड़ का वहशीपन धीरे-धीरे चरम की ओर बढ़ता है । यह भीड़ उस निरीह प्राणी की मालिक होती है जिसे लोग स्त्री कहते हैं । और कमाल की बात यह है कि दुनिया में बर्बरता को “सभ्यता” कहने वालों की कमी नहीं है ।

इधर भारत में देवबंदी मौलवियों, नेताओं और गज़वा-ए-हिंद के सपने देखने वाले कट्टरवादियों ने अफ़गानिस्तान में तालिबानियों के कुकर्मों को “अल्लाह की हुकूमत एवं शांति और अमन की व्यवस्था की शुरुआत” बताते हुये तालिबानियों की तारीफ़ में कसीदे पढ़ना शुरू कर दिये हैं । भारत की आधुनिक और उच्च शिक्षित हिंदू जनता गंगा-जमुनी तहज़ीब, ईश्वर अल्लाह तेरो नाम और धर्मनिरपेक्षता के पालने में झूलती हुयी मीठी-मीठी नींद ले रही है ।

सहरा करीमी ने फ़िल्म, कला और आधुनिकता की हवा में साँस लेने के जो सपने देखे थे वे उन्हें टूटते से दिखायी देने लगे हैं । वे चाहें तो दुनिया के किसी भी देश में उनके हुनर के लिये उनका स्वागत किया जा सकता है और वे चैन से अपनी ज़िंदगी गुजार सकती हैं किंतु वे अपनी मातृभूमि छोड़कर भाग रहे अफगानियों और राष्ट्रपति अब्दुल गनी की तरह नामर्द नहीं हैं, बल्कि दहशत में होने और सिर पर मँडराते आसन्न संकटों के बावज़ूद वे अफ़गानिस्तान छोड़ने के लिये तैयार नहीं हैं । दुनिया को ऐसी मर्दानी नारीशक्ति पर गर्व होना चाहिये ।

अफ़गानिस्तान में तालिबानियों को अल्लाह का कानून लागू करने की बेताबी है और इसके लिये वे इंसानियत के कानून का क़त्ल करने पर आमादा हैं । अफ़गानी मर्दों ने जहाँ अपने बच्चों और स्त्रियों को ज़हन्नुम में मरने के लिये छोड़ने का निर्णय लेकर इंसानियत को शर्मसार किया, वहीं सहरा करीमी और गवर्नर सलमा जैसी नारी शक्तियों ने अफगानिस्तान की मिट्टी को गौरवान्वित किया है । जो ख़ुद को इंसान मानते हैं उन्हें अफगानिस्तान की नारी शक्ति पर शरीया के नाम पर ढाये जा रहे ज़ुल्म-ओ-सितम के ख़िलाफ़ अफगानिस्तान की आवाज़ बन कर खड़े होना ही होगा वरना मातृशक्ति की चीखें धरती से इंसानी युग को हमेशा के लिये ख़त्म कर देंगी ।

इन पंक्तियों को लिखे जाने तक अफगानी मर्दों ने भी भूल सुधार करते हुये अपनी मर्दानगी को पहचानना शुरू कर दिया है । भारत को अफ़गानी नागरिकों को शरण देते वक़्त छिपकर आये हुये तालिबानियों से सावधान रहना होगा । ध्यान रहे हमारे आसपास अब कोई डाकू खडग सिंह नहीं है जो घोड़ा वापस कर देगा बल्कि केवल और केवल रावण हैं जो सीता को मरते दम तक वापस नहीं करेंगे ।   

शनिवार, 7 अगस्त 2021

अब जागो प्यारा रे

सुमिता धर बसु ठाकुर

            आठ बहनों वाले पूर्वांचल में हिंदी साहित्य की साधना करने वालों में सुमिता धर वसु ठाकुर एक चर्चित रचनाकार रही हैं जिन्होंने इसी वर्ष जून महीने में चुपचाप अपनी अंतिम यात्रा के लिये प्रस्थान कर दिया । उनके इस असामयिक प्रस्थान ने मुझे हतप्रभ कर दिया । त्रिपुरा के अगरतला की निवासी सुमिता हिंदी और बंग्ला की अच्छी रचनाकार थीं । कुछ साल पहले आकाशवाणी, शिलॉन्ग के अकेला भाई द्वारा अहिंदीभाषी साहित्यकारों को हिंदी साहित्य के प्रति प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से एक साहित्यिक कार्यक्रम आयोजित किया गया था । सुमिता से मेरी भेंट इसी कार्यक्रम में हुयी थी जो बाद में अच्छे सम्बंधों में बदल गयी ।

सुमिता धर बसु “पूर्वोत्तर सृजन पत्रिका” और अन्य कई साहित्यिक संस्थाओं से जुड़ी रही हैं । फ़ोन पर हमारी देर तक देश की स्थितियों और साहित्य पर चर्चायें हुआ करतीं । वे कभी मूड में होतीं तो हारमोनियम लेकर गाने बैठ जातीं और मैं फ़ोन पर उनके गाये गीत या भजन सुनता रहता ।

कुछ महीने पहले एक दिन सुमिता का फ़ोन आया था, थकी और टूटती आवाज़ में बताया कि उन्हें साँस लेने में परेशानी हो रही है और वे आई.सी.यू. में हैं । स्वास्थ्य जानकारी लेने के लिये मैं उन्हें प्रायः फ़ोन करता रहा । एक दिन फ़ोन उनके पति ने उठाया और बताया कि सुमिता बात करने की स्थिति में नहीं हैं । इसके बाद बातचीत का सिलसिला उनके पति की ओर शिफ्ट हो गया । रिपोर्ट से मुझे लगता कि अगरतला के डॉक्टर बड़ी कुशलता के साथ अपना काम कर रहे थे । उन्हें मधुमेह था और उनकी दोनों किडनी असहयोग आंदोलन पर उतारू हो चुकी थीं । मुझे आशा थी कि गम्भीर स्थिति के बाद भी एक दिन मधुर सुर में सुमिता का फ़ोन आयेगा और वे चहकना शुरू कर देंगी, किंतु ऐसा हो नहीं सका । वे प्रायः फ़ोन पर कहा करतीं – “अगरतला की ख़ूबसूरत वादियों में आपका स्वागत है”। मैं परिहास में कहता – “बस्तर के जंगल में बाघ और भालू आपका स्वागत करने के लिये लालायित हैं”।

सम्मोहक व्यक्तित्व की धनी और कोकिलकंठा सुमिता धर वसु ठाकुर आज हमारे बीच नहीं हैं । उनके पति अपने बेटे के साथ अकेले रह गये हैं । पंछी उड़ चुका है और मैं आकाश में उसकी उड़ान की राह का पीछा कर रहा हूँ । मैं स्मृतियों के तहखानों के दरवाजों पर दस्तक देकर चेरापूँजी में सुमिता के साथ बिताये कुछ पलों को अपने पास बुलाता हूँ । अकेला भाई भोजन की व्यवस्था में लगे हुये हैं, सुमिता गाछ के नीचे बैठकर एक फ़िल्मी गीत गा रही हैं – चल उड़ जा रे पंछी...।  

मात्र इन दो वर्षों में ही हमने अपने कई अपनोंको खो दिया है, हमारे आसपास के बहुत से लोग असमय ही अपनी अंतिम यात्रा के लिये प्रस्थान कर चुके हैं । मैं अपने कमरे में अकेला हूँ, माटी-बानी की निराली कार्तिक और भाई मूरालाल के गाये कबीरबानी के शब्द अचानक हो गये रीतेपन को भरने का प्रयास करने लगे हैं– “हिये काया में बर्तन माटी रा...” ।

“हिये काया में...” पूरा होते ही लालभाई एक लम्बा सा आलाप लेते हैं, एक दूसरा भजन शुरू हो जाता है – “अपणा साहिब ने महल बनायी बणजारा रे... अब जागो प्यारा रे...”। निराली कार्तिक दोहराती हैं – “अपणा साहिब ने महल बनायी बणजारा रे...”।

निराली कार्तिक और लालभाई के गाये भजन आज मुझे कुछ अधिक ही स्पर्श करने लगे हैं ।

हिंदुस्तान पर होता जा रहा है इस्लामिक कब्जा

 लज्जा के बाद डॉक्टर तस्लीमा नसरीन को बांग्लादेश से निर्वासित होना पड़ा । यह सत्य बोलने के विरुद्ध ग्रेट इण्डिया के कट्टरपंथ की असहिष्णु प्रतिक्रिया थी जिसने तस्लीमा नसरीन को भारत में शरण लेने के लिये विवश किया किंतु लाख चिरौरी-विनती के बाद भी उन्हें भारत की नागरिकता नहीं मिल सकी । ग्रेट-इण्डिया के चार हिस्सों- भारत, बांग्लादेश पाकिस्तान और अफ़गांस्तान के कट्टरपंथियों ने भारत सरकार को सत्य का साथ न देने के लिये विवश कर दिया है ।

हम गंगा-जमुनी आचरण की लाख दुहायी देते रहें किंतु सत्य यह है कि स्वतंत्रता के समय से ही भारत में मुस्लिम दबंगई की जड़ें इतनी गहरायी तक जम चुकी थीं कि प्रतिक्रियात्मक ध्रुवीकरण को रोका नहीं जा सका, यह सम्भव भी नहीं था । बाबा साहब अम्बेडकर ने इस सम्बंध में पहले ही अपनी दूरदर्शी भविष्यवाणी कर दी थी जिसे तत्कालीन हुक्मरानों ने मानने से इंकार कर दिया था ।  

“लड़के लिया है पाकिस्तान हँस के लेंगे हिंदुस्तान” के नारों को कभी भी दफ़न नहीं किया जा सका बल्कि वे स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद की राजनैतिक स्थितियों में खूब उर्वरा शक्ति प्राप्त करते रहे । सन 1947 के भारत का कट्टरवाद आज अपनी प्रगति पर है । ग़्रेट इण्डिया के दो हिस्सों- बर्मा और श्रीलंका को छोड़ दें तो अफ़गानिस्तान, बांग्लादेश, पाकिस्तान और भारत कट्टरवाद से कराह रहे हैं । यह कराह हाल-फिलहाल रुकती दिखायी नहीं देती । यह कराह सत्ता के जन्म की प्रसव पीड़ा है जो हर राजनेता को बहुत प्रिय है । नये जमाने में इसे और भी पीड़ादायक बनाने के नये-नये प्रयास बहुत सफल हुये हैं, गोया बिना एनेस्थीसिया दिये सीज़ेरियन ऑपरेशन का इन्नोवेटिव एक्सपेरीमेंट ।

हाल ही में पश्चिमी बंगाल और दिल्ली में बिना एनेस्थीसिया के सीज़ेरियन ऑपरेशन करके हिंदू जनमानस को प्रचंड क्षति पहुँचाने के कीर्तिमान रचे गये हैं । लोकतंत्र की यह विचित्र महिमा है जहाँ बहुसंख्यक नहीं बल्कि अल्पसंख्यक महत्वपूर्ण होता है क्योंकि उसे साध कर सत्ता कबाड़ना बहुत सरल हो गया है । अल्पसंख्यक को रिझाने के लिये बहुसंख्यक के विभाजन और उन्मूलन की पीड़ादायी योजनायें कारगर प्रमाणित होती जा रही हैं । पश्चिम बंगाल में ममता ने हिंदुओं के विरुद्ध आग उगलकर मुसलमानों को ख़ुश कर दिया, बदले में उन्हें बंगाल की सल्तनत मिल गयी । रही बात हिंदुओं की तो यदि उन्हें जीवित रहना है तो ममता को वोट देना ही होगा । सत्ता कबाड़ने का यह गलियारा केजरी को भी बहुत पसंद है । वे दिल्ली में रोहिंग्याओं को साधने में लगे हुये हैं, दिल्ली के जागरूक मुसलमानों की बात छोड़ दें तो वहाँ का कट्टर मुसलमान वोट के बदले कुछ भी करने के लिये तैयार है । यह दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल की शातिराना बुद्धि का कमाल है कि दिल्ली को कट्टरपंथी मुसलमानों के लिये अवैध कब्जे का अड्डा बना दिया गया है । यह एक सियासती सौदा है जो हिंसा और अत्याचार की मण्डी में परवान चढ़ता है । दिल्ली पुलिस के जवान सादी वर्दी में मुसलमानों को कहीं भी मजार या मस्ज़िद बनाने के लिये पूरी गुण्डागर्दी के साथ सुरक्षा उपलब्ध करवाने में पूरी मुस्तैदी से लगे हुये हैं, फिर वह स्थान चाहे कोई मंदिर हो, कोई प्राचीन किले का खण्डहर हो या पशुओं के लिये छोड़ा गया कोई चारागाह । दिल्ली पुलिस के जवानों द्वारा पत्रकारों को ऐसे स्थानों पर जाने से न केवल रोका जा रहा है बल्कि उन्हें स्थानीय लोगों से बात भी नहीं करने दी जा रही है । क्रिटिक की दुहाई देने वाले केजरी और भारत भर के अतिबुद्धिजीवी लोग जिसमें रविश कुमार और पुण्यप्रसून वाजपेयी जैसे अतिमुखर लोग भी सम्मिलित हैं, दिल्ली पुलिस की इस गुण्डागर्दी पर कोई सवाल नहीं उठाते ।

भारत के अतिबुद्धिजीवियों का क्रिटिकप्रेम धर्मनिरपेक्षवादी है जिसे इस्लाम और क्रिश्चियनिज़्म से बेइंतहा मोहब्बत है और हिंदू धर्म से बेइंतहा नफ़रत । हिंदुओं का दुर्भाग्य यह है कि इस क्रिटिक को सुरक्षा उपलब्ध करवाने में दिल्ली पुलिस के जो जवान तैनात हैं वे भी हिंदू ही हैं । हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि मुट्ठी भर अंग्रेज़ों ने भारतीयों पर ज़ुल्म-ओ-सितम के लिये गद्दार भारतीयों को ही अपना हथियार बनाया था । सत्ता को पता हो गया है कि हिंदुओं पर ज़ुल्म करने के लिये हिंदू बहुत ही बफ़ादार कौम है ।

इस्लामिक आतंकवाद पर मोतीहारी वाले मिसिर जी का दृष्टिकोण मंथनयोग्य है, बे बताते हैं – “ग़्रेट इण्डिया की सत्तायें विनाश की ओर तीव्रता से अग्रसर होती जा रही हैं । इस्लामिक कट्टरवाद पर लगाम कसने के लिये ग्रेट इण्डिया को फिर से जीवित होना होगा । अफ़गानिस्तान और पाकिस्तान से लेकर भारत तक बहुत से मुसलमान ऐसे भी हैं जो वाकई में आतंकवाद के विरुद्ध उठकर खड़े हो जाना चाहते हैं । लोकतंत्र यदि संख्या का ही तंत्र है तो भारत की मुख्यधारा के समर्थक मुसलमानों की कमी नहीं है, बस सबको एक बार उठकर खड़े होने की और आतंकियों को हथियार उपलब्ध करवाने वाले धन्नासेठ देशों का बहिष्कार करने की हिम्मत जुटाने की आवश्यकता है”।

रविवार, 1 अगस्त 2021

देवी-देवताओं के तिरस्कार के बहाने

 एक युवक ने शिवलिंग पर पैर रखकर फ़ोटो खिचवाया और फिर उसे सोशल मीडिया पर डाल दिया । तिरस्कार की इससे भी बढ़कर घटनायें होती रही हैं जिन्हें हतोत्साहित किया जाना चाहिये किंतु दुर्भाग्य से ऐसा हो नहीं पाता क्योंकि इनका उद्देश्य ही हिंसा और अस्तित्व को चुनौती देना हुआ करता है । सम्बंधित समाज के लोगों को ऐसी प्रवृत्तियों पर अंकुश रखना चाहिये किंतु अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर वह भी नहीं पाता । किसी समुदाय को उकसाने के लिये जब भी कभी ऐसी कोई घटना होती है तो वह भीड़ को उत्तेजित करती है और धार्मिक दंगे हिंसक एवं वीभत्स आकार लेने लगते हैं । एक सीधा सा तरीका यह है कि ऐसी घटनाओं की अनदेखी की जाय और सामाजिक एवं धार्मिक सौहार्द्य बनाये रखा जाय ।

हिंदुओं के देवी-देवता प्रतीकात्मक हैं, न उनका मान होता है न अपमान । जो निराकार और निर्गुण है उसका कैसा मान और कैसा अपमान! यह दर्शन की बात है किंतु भीड़ को तत्व-दर्शन से कोई मतलब नहीं होता, न वह इसे समझती है । वह तो इसे अपने अस्तित्व के लिये चुनौती के रूप में देखती है । भीड़ का दर्शन प्रतिक्रियात्मक और हिंसक होता है, यह एक गम्भीर स्थिति है जिसका सामना पूरे विश्व को करना पड़ रहा है । फ़्रांस में जब कोई धार्मिक प्रतिक्रियावादी घटना होती है तो उसकी हिंसक प्रतिक्रिया भारत में भी होती है । समस्या यह नहीं है कि हिंदुओं के देवी-देवताओं के अपमानजनक तरीके से तिरस्कार किये जाने की घटनायें बढ़ती जा रही हैं और टीवी पर होने वाली डिबेट्स में लोग इसे स्वीकार करने और निंदा करने के स्थान पर वातावरण को और भी उत्त्जित कर देते हैं । किसी बड़े समुदाय या राष्ट्र को चुनौती देने के लिये प्रतीकों से ही शुरुआत होती है । किसी देश के ध्वज का अपमान उस देश के हर निवासी का अपमान है । ध्वज हमारे राष्ट्र का प्रतीक है, देवी-देवता हिंदुओं की दार्शनिक मान्यताओं के प्रतीक हैं ।

आख़िर ऐसी घटनायें बारम्बार क्यों हो रही हैं ? पिछली कुछ शताब्दियों से हम देखते रहे हैं कि सहिष्णुता और अनदेखी के परिणाम हमारे अस्तित्व पर बहुत भारी पड़ते रहे हैं । भारत-विभाजन की पीड़ा को कैसे अनदेखा किया जा सकता है! कश्मीर से पंडितों के निष्कासन की घटना अंतिम नहीं है । उत्तर-प्रदेश के कई गाँवों में हिंदुओं को गाँव छोड़ देने की धमकियाँ दिये जाने की घटनायें बहुत कुछ चेतावनी दे रही हैं । आरोपों-प्रत्यारोपों की आवश्यकता नहीं, शासन-प्रशासन को अपने दायित्वों का पालन करना होगा ।

धर्मांतरण लोकतंत्र का अमोघ अस्त्र बन गया है

पुलिस अभिलेखों और विभिन्न सर्वेक्षणों के आँकड़ों से पता चलता है कि सत्ता में असामाजिक और अराजक तत्वों की भरमार होती जा रही है जो भारत के प्रबुद्धजीवियों के लिये गम्भीर चिंता का विषय है । प्रबुद्धजीवी मतदाता ऐसे लोगों को वोट नहीं देता इसलिये ऐसे प्रत्याशियों को अपने लिये एक ऐसा वर्ग उत्पन्न करना होता है जो उन्हें वोट दे सके । विगत कई दशकों से भारतीय राजनीति में भाड़े के गुण्डों का एक विशाल वर्ग उत्पन्न किये जाने के लिये राजनेताओं के संरक्षण में “मतदाता उद्योग” खड़ा किया जाता रहा है । इसका परिणाम यह हुआ है कि भारत में जागरूक मतदाताओं की अपेक्षा अराजक मतदाताओं की भीड़ बढ़ने लगी है, और यही अपराधी नेताओं का इष्ट भी है ।   

हमें लोकतांत्रिक व्यवस्था के काले पक्षों को भी देखना चाहिये, और काला पक्ष यह है कि सत्ता के लिये वोट चाहिये, वोटों के लिये अंधसमर्थक मतदाता चाहिये, अंधसमर्थन के लिये धर्मांतरित लोगों की भीड़ चाहिये और भीड़ को अपना समर्थक बनाने के लिये लालच का बाजार चाहिये । लालच कभी किसी को कर्मठ नहीं बनाता जो किसी भी देश और समाज की उन्नति की सबसे बड़ी आवश्यकता है बल्कि लालच से मनुष्य की आत्मा को ख़रीदकर मक्कारों और आतंकियों के समूह तैयार किये जाते हैं । लोकतंत्र का यह सर्वाधिक विद्रूप पक्ष है जिसमें जातीय उन्मूलन और अमानवीय घटनाओं के बीज पोषित किये जाते हैं ।

ऊपर जिस “मतदाता उद्योग” की बात की गयी है उसके टूल्स में धर्मांतरण, जातीय विद्वेष और सामाजिक विभाजन के अतिरिक्त विदेशी आततायियों, भगोड़ों और अपराधियों को संरक्षण देना सम्मिलित किया गया है । भारतीय राजनीति में सृजन के स्थान पर विखण्डनकारी और विध्वंसक गतिविधियों ने अपना सुदृढ़ स्थान बना लिया है ।

दिल्ली में “मतदाता उद्योग” के लिये प्रधानमंत्री आवास योजना का सहारा लिया गया है । इस योजना के लाभार्थियों में सत्तर प्रतिशत संख्या उन रोहिंग्याओं की है जो अपनी अराजक और हिंसक गतिविधियों के लिये म्यानमार से निकाल दिये गये थे । इन रोहिंग्या को न केवल पैसे दिये जाते हैं बल्कि राजनीतिक संरक्षण भी दिया जा रहा है जिससे कि वे समय समय पर जातीय दंगे करने के लिये तैयार रहें । दिल्ली की रोहिंग्या बस्ती के मुसलमान किसी शरणार्थी की तरह नहीं बल्कि चिंगेज ख़ान के सैनिकों की तरह रहते हैं । उनके व्यवहार में दबंगई और गुस्ताख़ी साफ देखी जा सकती है जो राजनीतिक संरक्षण के बिना कतई सम्भव नहीं है । राजतंत्र के समय भी भारत में ऐसे देशद्रोही राजाओं और सेनापतियों की कमी नहीं थी जिन्होंने मुस्लिम आक्रांताओं को देशी राजाओं पर आक्रमण करने के लिये आमंत्रित किया । दुर्भाग्य से, भारतीय राजनीति की इतनी पतित परम्परा आज तक समाप्त नहीं हो सकी है जिसके लिये यहाँ की प्रजा भी कम दोषी नहीं है जो दूसरों के बहकावे में आकर जातीय खण्डों और विद्वेषों में ही अपना उत्थान देखने की अभ्यस्त हो गयी है ।

“मतदाता उद्योग” के एक महत्वपूर्ण टूल के रूप में धर्मांतरण का प्रमुख स्थान है जिसने केरल और छत्तीसगढ़ आदि राज्यों की तरह अब पञ्जाब में भी अपनी जड़ें जमा ली हैं । सिख परम्परा का यह पतन हर भारतीय के लिये पीड़ादायी है । भारत-विभाजन के समय हिंसा और यौनदुष्कर्म के शिकार लोगों में सबसे बड़ी संख्या सिखों की ही थी । आज उन्हीं सिखों के वंशजों को यह याद दिलाने की आवश्यकता आ पड़ी है कि उनके पूर्वजों के शिकारी वे मुसलमान थे जिन्हें आज वे अपना मित्र मानने लगे हैं । सनातनी हिंदू समाज की रक्षा के लिये गुरुअर्जुन सिंह जी और गुरुगोविंद सिंह जी ने जिस सिख पंथ को अपने बलिदान से सुदृढ़ किया था आज वह बिखरने लगा है । सिखों का एक समुदाय अब स्वयं को हिंदू नहीं मानता, उन्हें भारत से अलग अपने लिये एक खालिस्तान चाहिये । पञ्जाब में ऐसे लोगों की संख्या निरंतर बढ़ती जा रही है जिनके आदर्श अब गुरु नानक देव और गुरु गोविंद सिंह जी नहीं बल्कि मोहम्मद साहब और यीशु हो गये हैं, उनका हृदय भारत के लिये नहीं बल्कि येरुशलम और पाकिस्तान के लिये धड़कने लगा है । वीरों और बलिदानियों की भूमि पञ्जाब नशे और धर्मांतरण के जाल में जकड़ती जा रही है । सिखों का यह धर्मांतरण गुरु गोविंद सिंह और बंदा बैरागी जैसे न जाने कितने सिखों के बलिदान का घोर अपमान है । सिख भूल रहे हैं कि गुरु अर्जुन देव को तपते हुये तवे पर धीरे-धीरे भून डालने की नारकीय यातना देने वाले कौन थे, वे भूल रहे हैं कि बंदा बैरागी के शरीर के मांस को तपते हुये चिमटों से नोच-नोच कर और फिर हाथी से कुचल कर क्रूर यातना देने वाले कौन थे । पञ्जाब के सिखों का ईसाई और इस्लामिक कट्टरपंथियों के जाल में फ़ँसते जाना न केवल पीड़ादायी है बल्कि आत्मघाती भी है ।