रविवार, 20 मार्च 2022

विवेक की फ़िल्म का प्रमोशन

             पता नहीं क्यों फ़िल्म प्रमोशन को कपिल शर्मा के फूहड़ कार्यक्रम का एक महत्वपूर्ण हिस्सा स्वीकार कर लिया गया । लोगों को लगने लगा कि पुरुष पात्रों को स्त्री पात्र बनाकर फूहड़ता परोसने वाले कपिल के मंच पर फ़िल्म प्रमोट करने से उन्हें अधिक से अधिक दर्शक मिलेंगे । बॉलीवुड में यह सोच बहुत ज़ल्दी एक लत में बदल गयी । विवेक भी इस लत के शिकार हुये और इसी कारण उन्हें आशा थी कि कपिल उनकी फ़िल्म द कश्मीर फ़ाइल्स को प्रमोट करेंगे । सौभाग्य से कपिल, जिसकी दृष्टि में देश और न्याय से बड़ा व्यापार होता है, ने इस फ़िल्म को प्रमोट करने से मना कर दिया ।

विवाद हुआ तो फ़िल्म अपने आप प्रमोट होने लगी । इसके बाद वैचारिक क्रांति की पताका थामे गायत्री देवी मिश्रा ने कुछ बच्चों को इस फ़िल्म की टिकट स्पॉन्सर करने की घोषणा कर दी, लगभग इसी समय इंदौर के डॉक्टर्स ने भी द कश्मीर फ़ाइल्स की टिकट प्रस्तुत करने पर परामर्श शुल्क में 50% छूट देने की और निरोगधाम, फ़र्रुखाबाद के डॉक्टर चंद्रकांत चतुर्वेदी ने भी कैंसर रोगियों के लिये निःशुल्क परामर्श की घोषणा की । इसके बाद यह क्रम बढ़ता ही चला गया, जैसे-जैसे इस फ़िल्म का विरोध बढ़ता गया वैसे-वैसे छोटे-छोटे दुकानदारों और खोमचे वालों से लेकर अन्य व्यापारियों ने भी द कश्मीर फ़ाइल्स को प्रमोट करने के लिये अपने सामानों की ख़रीद पर ग्राहकों को पर छूट देना प्रारम्भ कर दिया । आज अभी-अभी, निष्ठावान सनातनी और चिंतक प्रतीक बोराडे ने भी कई लोगों को इस फ़िल्म के टिकट स्पॉन्सर किये हैं । भारतीय फ़िल्म जगत में फ़िल्म के प्रमोशन का यह अद्भुत तरीका है जो स्वस्फूर्त प्रारम्भ हुआ है, वह भी बिना किसी लालच के ।

विवेक अग्निहोत्री, अनुपम खेर और पल्लवी जोशी आदि, टीम के सभी सदस्य बहुत भाग्यशाली हैं जो इस तरह के अद्भुत प्रमोशन के लाभार्थी बने हैं । मैं कृतज्ञ हूँ उन सभी लोगों के प्रति जिन्होंने स्वस्फूर्त चेतना से “द कश्मीर फ़ाइल्स” को प्रमोट करने का यह नया तरीका ईज़ाद किया है । इन लोगों ने भारत में फ़िल्म प्रमोशन का इतिहास बदल दिया है ।

 

गुरुवार, 17 मार्च 2022

मुझे नफ़रत होती है तुमसे

       तुम मुझे थर्ड डिग्री टॉर्चर करते रहो और कहो कि मैं चीखूँ भी नहीं, यह कैसे हो सकता है? माना कि यह मेरे व्यक्तित्व की एक दुर्बलता है किंतु सच यही है कि मुझे नफ़रत होती है तुमसे । नफ़रत के कारणों के होते हुये भी कोई संवेदनशील व्यक्ति नफ़रतविहीन प्रतिक्रिया कैसे दे सकता है!

हाँ! जब तुम झूठ और दुष्टता की सारी सीमायें तोड़ कर अपने सारे अपराध मुझ पर मढ़ देते हो तो मुझे तुमसे नफ़रत होती है । मेरे मन में नफ़रत के इस विशाल पर्वत को तुम्हीं ने जन्म दिया और पाल-पोस कर बड़ा किया है । वारिस पठान, अकबरुद्दीन ओवेसी, इरफ़ान लोन... आदि और टीवी पर सनातनियों के विरुद्ध आग उगलने वाले मौलवियों एवं इस्लामिक स्कॉलर्स की धमकियों को सुनते हुये कम से कम दो पीढ़ियाँ सहमी-सहमी रहने लगी हैं । राजा को इससे कोई अभिप्राय नहीं कि भारत के सनातनी लोग भय और हिंसा के साये में किसी तरह जीने-मरने के लिये विवश हैं ।

राजा को इससे भी कोई अभिप्राय नहीं कि कुछ लोगों को इस्लामिक-कश्मीर चाहिये, उन्हें मस्ज़िद-मजार और दरगाह बनाने के लिये पूरा भारत चाहिये, इन्हें हर हाल में भारत में सिर्फ़ और सिर्फ़ इस्लाम चाहिये ...वह भी हिंसा और यौनदुष्कर्म करते हुये । क्या आपको नहीं लगता कि भारत के अधिसंख्य सनातनियों के पैसों पर परोपजीवी की तरह पलने वाले माननीयों के गिरोह के लोगों ने भारत का सर्वाधिक अहित किया है ।

मुझे नफ़रत होती है जब मैं झण्डाबरदारों को यह कहते हुये सुनता हूँ कि “द कश्मीर फ़ाइल्स” के प्रदर्शन पर प्रतिबंध लगना चाहिये क्योंकि इसके प्रदर्शन से आपसी भाईचारा और सौहार्द्य समाप्त हो जायेगा ।

कुछ लोग कहते हैं कि इस फ़िल्म में आधा सच दिखाया गया है । उनके अनुसार पूरा सच यह है कि कश्मीर में केवल हिंदुओं का ही नहीं बल्कि सभी धर्म के लोगों का जेनोसाइड किया गया था । इतना निर्लज्ज झूठ बोलने का दुस्साहस करने वालों के प्रति मुझे नफ़रत होती है ।

कश्मीर में जब यह सब हो रहा था तब मैं जयपुर में सर्जरी का अध्येता हुआ करता था और भारत के प्रधानमंत्री थे विश्वनाथ प्रताप सिंह । उसी समय मुझे कुछ कश्मीरी छात्रों से भी मिलने का अवसर मिला था । उनके द्वारा सुनाये गये कश्मीर के किस्से वातावरण को सुन्न कर दिया करते थे । मंडल आयोग की रिपोर्ट पर जयपुर जलने लगा था, जगह-जगह हिंसा और आगजनी हो रही थी और शहर में कर्फ़्यू लगा हुआ था । पता नहीं कैसे आरक्षण को लेकर प्रारम्भ हुआ विवाद हिन्दू-मुस्लिम दंगे में बदल गया था । यह सब हुआ, पर कश्मीर में जो हुआ उस पर पूरे देश में अभूतपूर्व सन्नाटा था । दिल्ली में कश्मीरी शरणार्थियों की भीड़ बढ़ती जा रही थी और भारत के तमाम राजनीतिक दल नैतिक कॉमा में जा चुके थे । आज उन्हीं राजनीतिक दलों के लोग कहने लगे हैं कि पुरानी बातों को उठाने से सौहार्द्य समाप्त हो जायेगा ।  यह कैसा सौहार्द्य है जो हमारी हत्या होने से समाप्त नहीं होता, हमारी बहनों-बेटियों के साथ किये गये नृशंस कुकृत्यों से समाप्त नहीं होता, हमारी सम्पत्तियों पर बलात् कब्ज़ा कर लेने से समाप्त नहीं होता, हमारे साथ की जाती रही हर तरह की क्रूरता और अन्याय से समाप्त नहीं होता, …किंतु जब हम न्याय की माँग करते हैं और अपने दर्दनाक इतिहास को स्मरणीय बनाने का प्रयास करते हैं तो सौहार्द्य समाप्त हो जाता है? मुझे तुम्हारे इस पाखण्डी सौहार्द्य से बहुत नफरत होती है ।  

ल्लो, हमने भी विवेक अग्निहोत्री को दे दी धमकी, अब तो ख़ुश!

एक राज्य के राजा ने “द कश्मीर फ़ाइल्स” देखे बिना ही इसका विरोध किया । राजा हैं, कोई मामूली आदमी नहीं हैं अतः दूसरे राज्य के डायरेक्टर, प्रोड्यूसर और अभिनेताओं का विरोध करना उनका दायित्व है,ठीक उतना ही दायित्व जितना कि हिन्दुत्व और अपने सम्राट को गरियाने का है ।

उनके राज्य के पवित्र सिनेमाघरों में फ़िल्म के प्रतिबंध तक की बातें उठने लगीं, कुछ सिनेमाघरों में ध्वनिरहित फ़िल्म चलायी गयी तो कुछ जगह फ़िल्म का विरोध किया गया ।

फ़िर अपनी प्रजा की याद आते ही राजा जी को लगा कि इससे मुसलमान तो ख़ुश हो जायेंगे पर हिन्दू नाराज हो जायेंगे इसलिये उन्होंने ऐलान किया कि वे स्वयं फ़िल्म देखेंगे । यूँ, राजा साहब आग को ख़ुश रखना अपना परम सौभाग्य मानते हैं, आग की विनाशक शक्ति से राजा साहब भयभीत रहते हैं, पानी को ख़ुश रखने से क्या लाभ! पानी में इतनी शक्ति कहाँ कि किसी के घर में आग लगा सके! बहरहाल, मीडिया में समाचार आते ही हिन्दू ख़ुश हो गये पर मुसलमान नाराज हो गये । फ़िल्म देखने के बाद उन्हें दोनों को ख़ुश करना था इसलिये वक्तव्य दे दिया कि फ़िल्म में आधा सच दिखाया गया है ।

यह पूछे जाने पर कि “वह कौन सा सच है जो नहीं दिखाया गया” राजा साहब ने फ़रमाया कि कश्मीर में अत्याचार तो मुसलमानों, सिखों, ईसाइयों और जैनियों के साथ भी हुआ था, बस उसे ही नहीं दिखाया गया”। राजा साहब शीघ्रता में थे इसलिये यह कहना भूल गये कि कश्मीर में तो “खग-मृग-चींटी-चुनगुन और पेड़-पौधों” के साथ भी अत्याचार हुआ था जिसे नहीं दिखाया गया है । यह एक अद्भुत वक्तव्य है जिस पर राजा साहब की बुद्धि और न्यायप्रियता की सराहना करनी होगी ।

योग्यतानिरपेक्ष धर्म का पालन करते हुये सिखों को अपने राज्य में मात्र सफाई कर्मचारी की नौकरी देने वाले कश्मीर में मुसलमानों के साथ किसने अत्याचार किया? कश्मीर में ग़ैर-इस्लामिक लोगों के साथ अत्याचार करने वाले महाअत्याचारी के साथ किसने अत्याचार किया? राजा जी का हुक्म है, ढूँढो उसे, कौन है वह?

अखिल विश्व के प्रति राजा जी की समदृष्टि प्रचण्डरूप से अद्भुत है । कश्मीर में 1947 से निरंतर मुसलमान राजाओं के होते हुये भी ग़रीब मुसलमानों को नौकरी नहीं मिली, सेना के मुस्लिम जवानों और मुस्लिम पुलिस कर्मियों की खुलेआम नृशंस हत्यायें होती रहीं और तुम कश्मीरी पंडितों के साथ हुये क्रूर अत्याचारों की बात करते हो, जिस बात को सुनते ही राजा जी कॉमा में चले जाते हैं उस विषय पर फ़िल्म बनाते हो, शर्म नहीं आती! विवेक अग्निहोत्री! तुम्हें हुक्म दिया जाता है कि हमारे राजा जी का सम्मान करना सीखो और भविष्य में “सच्ची ऐतिहासिक फ़िल्म” बनाने की पुनरावृत्ति से तौबा करो, वरना...।

हमें नये शब्द गढ़ने होंगे                         

दो सितम्बर 1946 से यह देश अपने साथ जो होता हुआ देखता रहा है वही यदि राज-नीति है तो हमें भारत की नयी पीढ़ी को कुराज-नीति और कुराज-नीतिज्ञ की परिभाषायें बतानी पड़ेगी । जब साधारण बोलचाल में राजनीति को गाली की तरह प्रयोग किया जाने लगे तो समझ लेना चाहिये कि यह शब्द अपने वास्तविक अर्थ खो चुका है । हम सब “राजनीति” के नाम से यथार्थ में जो होता हुआ देख रहे हैं वह कुराज-नीति है जिसे राजनीति कहकर संबोधित किया जा रहा है ।

समाज नये बोध के साथ नये शब्द गढ़ता है.. और इस तरह भाषा समृद्ध होती है । जिस तरह हमने राजनीति के वास्तविक बोध को विकृत कर दिया है उसी तरह असुरों ने वेद, ब्राह्मण, गाय, मनुस्मृति और गीता जैसे शब्दों से, उनके वास्तविक बोध को विलोपित करते हुये उन्हें विकृत बोध के साथ प्रस्तुत करना प्रारम्भ कर दिया है । सार्वजनिक मंचों और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के विभिन्न मंचों से प्रचारित किया जा रहा है कि ये शब्द पवित्रता के नहीं बल्कि दुष्टता और अपराध के द्योतक हैं इसलिये इन सबको समाप्त कर दिया जाना चाहिये । वेदों, पुराणों, मनुस्मृति और गीता जैसे ग्रंथों को जला दिया जाना चाहिये और ब्राह्मणों को उनकी सवर्ण मण्डली के साथ भारत से निष्कासित कर देना चाहिये या उनकी हत्या कर दी जानी चाहिये ।

थोपे हुये विकृतबोध को सत्य के रूप में स्थापित करने के जो षड्यंत्र भारत में किये जा रहे हैं वे तो आश्चर्यजनक है ही किंतु उससे भी अधिक आश्चर्यजनक है असुरों के विरुद्ध सुरों के संघर्ष का अभाव । वैचारिक शून्यता और सत्यनिष्ठा की दुर्लभता के इस युग में लेखनी, साहित्यकार और कलाकार की रचनाधर्मिता और भी महत्वपूर्ण हो गयी है । 

बुधवार, 9 मार्च 2022

चुनाव आयोग और अमेरिकी डॉलर

         पराजयोन्मुख नेताओं को चुनाव आयोग की विश्वसनीयता पर संदेह होता है, वे मानते हैं कि ईवीएम बेवफ़ा होती हैं और चुनाव आयोग उनकी शिकायतों पर कार्यवाही नहीं करता । आम जनता मानती है कि चुनाव-प्रचार के समय नियमों का उल्लंघन करने वाले नेताओं के विरुद्ध चुनाव आयोग कभी भी कठोर दण्डात्मक कार्यवाही नहीं करता, जिसके परिणामस्वरूप चुनाव एक पाखण्ड बन कर रहा गया है ।

मोतीहारी वाले मिसिर जी चुनाव आयोग के साथ-साथ माननीय सर्वोच्च न्यायालय की सत्य-निष्ठा पर भी प्रश्न खड़े करते हैं । चुनावी प्रक्रिया की पारदर्शिता को बनाये रखने में चुनाव आयोग की महत्वपूर्ण भूमिका होती है । चुनाव-प्रचार के समय पश्चिमी बंगाल में हुयी अभूतपूर्व हिंसा ने चुनाव आयोग की भूमिका और दायित्व पर भी प्रश्न खड़े किये हैं । मिसिर जी मानते हैं कि चुनाव प्रचार के समय, सरकार बनने पर फ़्री में दी जाने वाली चीजों और ऋणमुंचन का वादा करना विशुद्ध रूप से मतदाता को रिश्वत देने का वादा करना है । इस रिश्वत में व्यय होने वाली भारी-भरकम धनराशि की व्यवस्था कहाँ से की जाती है? माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने आज तक इस आपराधिक परम्परा पर कभी कोई संज्ञान क्यों नहीं लिया? जिन परम्पराओं से लोकतंत्र का अस्तित्व ही संकटग्रस्त हो जाय ऐसी गम्भीर समस्याओं के लिये भी न्यायालय को जनहितयाचिका की प्रतीक्षा क्यों रहती है?     

लोकतंत्र को निरंकुश और अराजक तंत्र में डूब जाने से बचाने के लिये इन प्रश्नों के उत्तर भारत के हर नागरिक को खोजने ही चाहिये ।

डॉलर की दादागीरी

वैश्विक बाजार में अमेरिकी डॉलर की दादागीरी चलती रही है किंतु अब अमेरिका द्वारा रूस पर लगाये गये व्यापारिक और आर्थिक प्रतिबंधों ने दुनिया को बा-ख़बर कर दिया है कि इसका विकल्प खोजे जाने की आवश्यकता है । द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद आई औद्योगिक क्रांति की आँधी में उड़ने को बेताब सारे देश इस बात से बेख़बर बने रहे कि उन्होंने धीरे-धीरे अपनी-अपनी मुद्रायें डॉलर के आगे समर्पित कर दी हैं । अमेरिकी डॉलर के हाथों में दुनिया भर की मुद्राओं की नकेल यूँ ही नहीं आ गयी, सच्चाई यह है कि हम सबने नकेल सौंप दी ।

अमेरिका ने रूस पर प्रतिबंधों की बौछार कर डाली है, किंतु वैश्वीकरण का तकाजा उसे ऐसा करने नहीं देगा, कुछ दिनों की मनमानी के बाद सबकी अक्ल ठिकाने आने वाली है । विश्व वह फेफड़ा है जिसे उद्योग की प्राणवायु चाहिये । बिना आदान-प्रदान के किसी उद्योग को चला पाने की कल्पना नहीं की जा सकती, सबके सूत्र एक-दूसरे से जुड़े हुये हैं । यूक्रेन-रूस के विनाशकारी युद्ध ने हमें बहुत कुछ सीखने का अवसर दिया है ।

जब मुद्रा नहीं थी, व्यापार तब भी था । जब डॉलर नहीं होगा, व्यापार तब भी होगा । हमें वस्तु-विनिमय की प्राचीनतम पद्धति को प्रचलन में लाना होगा, साथ ही कम से कम तीन मुद्राओं को विश्वव्यापार में डॉलर के समकक्ष खड़ा करना होगा । हर चीज का मूल्यांकन डॉलर से ही तय क्यों होनी चाहिये!

रविवार, 6 मार्च 2022

कश्मीर फ़ाइल्स

            विरोध के लिये विरोध करना दुष्टों का स्वभाव है, इसका सामना किया जा सकता है किंतु सांस्कृतिक धरोहर एवं भारतीय सभ्यता को नष्ट करने के लिये विरोध करना भारतीय लोकतंत्र के लिये सर्वाधिक घातक प्रवृत्ति है । विरोध ही नहीं, हम तो सातवीं शताब्दी से सांस्कृतिक आक्रमण का असफल सामना करते हुये कुछ न कुछ खोते भी आ रहे हैं ।

कश्मीर से कश्मीरी पंडितों के क्रूर निष्कासन पर आधारित विवेक रंजन अग्निहोत्री की फ़िल्म “कश्मीर फ़ाइल्स” खुलने के पहले ही विवादों में आ गयी, एनडीटीवी इण्डिया ने नकारात्मक टिप्पणी प्रसारित की, और कुछ लोग उसके प्रदर्शन पर रोक लगाने के लिये सर्वोच्च न्यायालय तक पहुँच गये । कश्मीर फ़ाइल्स, फ़िल्म नहीं, एक सच्चा इतिहास है जो उन लोगों को पसंद नहीं है जो झूठा इतिहास लिखते रहने के अभ्यस्त हैं ।

अब जब सर्वोच्च न्यायालय से हरी झण्डी मिलने के बाद यह फ़िल्म ग्यारह मार्च से सिनेमाघरों में प्रदर्शन के लिये तैयार है तो विवेक अग्निहोत्री को जान से मार डालने की धमकियाँ मिलनी शुरू हो गयी हैं । भारत की लोकतांत्रिक पद्धति में यह भी एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया है जिसमें आपराधिक और निरंकुश गतिविधियों के लिये भी पर्याप्त स्थान सदा उपलब्ध रहता है । पहले हर सम्भव बाधा उत्पन्न करो, सफलता न मिले तो हत्या पर उतारू हो जाओ । मैंने इस अलोकतांत्रिक प्रक्रिया को लोकतांत्रिक इसलिये कहा क्योंकि इसमें बहुत से ऐसे राजनेता भी सम्मिलित रहते हैं जो राजनीति को जनसेवा का नहीं बल्कि अपने वैभव का माध्यम मानते हैं । यह सब होता है, और कोई कुछ कर भी नहीं पाता । कश्मीर घाटी में स्थानीय मुसलमानों द्वारा वर्षों तक कश्मीरी पंडितों को आतंकित किया जाता रहा, उनकी बहू-बेटियों के साथ यौनदुष्कर्म होते रहे, उनकी हत्यायें की जाती रहीं और अंततः 1991 में उन्हें घाटी से निष्कासित कर दिया गया । भारत के नेता मौन धारण किये रहे, लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ की लेखनी को जंग लग गयी और हमेशा दोहरा चरित्र अपनाने वाले विघटनकारी वामपंथी आँखें बंद करके ख़ुश होते रहे । कश्मीर के मुस्लिम नेताओं की ख़ुशी का ठिकाना नहीं था, वे आश्वस्त हुये कि मुसलमान गज़वा-ए-हिन्द की ओर बढ़ चुके हैं ।

कश्मीर की फ़ाइल खुल गयी है, वे तथ्य खुल गये हैं जिन्हें गड्ढों में गाड़ दिया गया था और जिन पर कई दशक तक पूरा भारत मौन बना रहा । प्रीमियर शो में दर्शकों के घाव हरे हो गये, वे सिनेमा हाल में ही बिलखने लगे । वह सत्य, जिसे कालकोठरी में बंद कर दिया गया था, प्रकट होकर भारतीय लोकतंत्र की दुर्बलता को उजागर करने लगा । मुसलमानों द्वारा कश्मीरी पंडितों के क्रूर शोषण की कहानी को अब पूरी दुनिया के लोग देख और समझ सकेंगे । भारत के प्रति विदेशियों के दृष्टिकोण में परिवर्तन का एक और कोण खुल जायेगा । यही सब पसंद नहीं है उन सबको जो गज़वा-ए-हिन्द को अपने जीवन का अंतिम उद्देश्य मानते हैं ।  

हिन्दुओं को अपने अस्तित्व की लड़ाई पाकिस्तान और बांग्लादेश में भी लड़नी पड़ रही है और भारत में भी । मोहनदास करमचंद होते तो उनसे पूछता, क्या अब भी तुम मंदिर में कुरान की आयतें पढ़ने के हठ पर अड़े रहोगे और किसी मस्ज़िद में हनुमानचालीसा पढ़े जाने के प्रश्न को इस्लाम विरोधी मानते रहोगे?

आज का मंथन

         सनातन धर्म में मूर्ति पूजा

विश्व की सभी सभ्यताओं में धार्मिक या अध्यात्मिक अनुष्ठानों के लिये किसी न किसी रूप में मूर्तियों का प्रयोग होता रहा है । फिर एक समय आया जब लोगों ने मूर्तियों का विरोध प्रारम्भ कर दिया । यह भी कहा गया कि निराकार ब्रह्म की उपासना करने वाली सभ्यता में साकार मूर्ति का प्रयोग विरोधाभासी होने से पाखण्ड है ।

यह सच है कि शक्ति निराकार है, मूर्ति साकार है । ब्रह्म निराकार है, सृष्टि साकार है । यह भी सच है कि हमारी स्थूल काया को भोजन से मिलने वाली शक्ति निराकार है किंतु रोटी साकार है । स्थूल से सूक्ष्म की प्राप्ति एक नित्य साधना है जो स्थूल काया के लिये आवश्यक है । जब यह स्थूल काया नहीं रहेगी तब हमें स्थूल भोजन की भी आवश्यकता नहीं रहेगी ।

         देशप्रेम

मृत्यु के भय से यूक्रेन के लोग देश छोड़कर विदेशों में शरण ले रहे हैं, मृत्यु का सामना करने विदेशों में बसे यूक्रेनी नागरिक अपने देश वापस आ रहे हैं ।

ज़ेलेंस्की चने के झाड़ पर चढ़कर आसमान में छलाँग लगाने के लिये संघर्षरत हैं । चने के झाड़ के नीचे यूक्रेन तबाह हो रहा है, यह तबाही कोई सरकार नहीं झेलती, आम नागरिक झेलते हैं ।

रूस के लोग, जो अपेक्षाकृत सुरक्षित हैं, युद्ध रोकने के लिये अपनी ही सरकार के विरुद्ध प्रदर्शन कर रहे हैं । यूक्रेन के लोग, जो हर पल मृत्यु का सामना कर रहे हैं, युद्ध रोकने के लिये नहीं कोई प्रदर्शन नहीं कर रहे । भारतीय चिंतन कहता है – “विपत्ति में प्राणरक्षा सर्वोपरि है, जीवन ही नहीं रहेगा तो किसी संकट का सामना कौन करेगा!

लोकतंत्र/राजतंत्र

वरिष्ठ पत्रकार सतीश के सिंह और आशुतोष का आरोप है कि

- हिन्दूवादियों ने देश को धर्म और जाति में बाँटकर समाज को रसातल में पहुँचा दिया है । अर्थात, भारतीय समाज धर्म और जाति निरपेक्ष होना चाहिये। मैं जानना चाहता हूँ कि क्यों?

- इन्हीं पत्रकारों की यह भी एक प्रचण्ड माँग है कि सभी धर्म और जाति के लोगों को सत्ता में प्रतिनिधित्व मिलना ही चाहिये । अर्थात, भारतीय समाज धर्म और जाति सापेक्ष होना ही चाहिये। मैं जानना चाहता हूँ कि क्यों?  

 

इतिहास बताता है कि मानवरचित कोई भी शासन व्यवस्था त्रुटिरहित नहीं होती । व्यवस्था की ढेरों बुराइयों के बाद भी आज दुनिया में लोकतंत्र का बोलबाला है, तथापि मैं राजतंत्र के पक्ष में हूँ ।

आज भारतीय लोकतंत्र, सत्ता में सभी सम्प्रदायों और जातियों की सक्रिय भागीदारी के लिये हुंकार भरता हुआ दिखायी देता है । जाति-धर्म और वर्गभेद के धुरविरोधी रहनेवाले वामपंथी और धर्मनिरपेक्ष विचारधारा के लोग भी धार्मिक और जातीय आधार पर सत्ता में प्रतिनिधित्व की अनिवार्यता पर बल देते हुये दिखायी देते हैं ।

दुर्भाग्य से, धर्म और जाति को हवा नहीं देने के लिये संकल्पित लोगों द्वारा ही धर्म और जाति की जड़ें और भी मज़बूत करने के लिये किये जाने वाले षड्यंत्रों से आम आदमी अपनी रक्षा कर पाने में सफल नहीं हो पाता ।

उत्तरप्रदेश में हो रहे विधानसभा चुनावों में राजनीतिक दलों के नेताओं का भी सारा गुणा-भाग इसी समीकरण के चारो ओर घूमता रहता है । ऐसे नेताओं को हवा देने वाले दुर्बुद्धिजीवियों की हमारे देश में एक बड़ी संख्या उपलब्ध है जो पानी बुझाने के लिये आग फैलानेऔर दंगे समाप्त करने के लिये दंगाइयों के पक्ष में वकालतकरते हुये देखे जा सकते हैं । बड़ी-बड़ी डिग्रीधारी इस समूह के लोगों के पास सांख्यिकीय आँकड़े होते हैं जिनका अपनी शर्तों पर विश्लेषण करने और निष्कर्ष निकालने का साम्यवादी हठ होता है, इस हठ को वे लोकतंत्र के लिये आवश्यक मानते हैं । इसे मैं और सरल कर दूँ, यथा - उनकी समस्या होती है कि मिर्च के पौधे से गन्ने का पौधा कैसे उगाया जाय, फिर उनकी शर्त होती है कि इस समस्या का समाधान बुधग्रह पर खड़े होकर साइबेरिया के संदर्भ में करके बताइये, अपना मनुवादी ज्ञान मत बघारिये ।

आरक्षण के पक्ष में चीख-चीख कर कुतर्क करने वाले ये दुर्बुद्धिजीवी राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री से लेकर कलेक्ट्रेट के चपरासी तक हर धर्म और जाति के लोगों को प्रतिनिधित्व देना लोकतंत्र की अनिवार्य शर्त मानते हैं । ऐसे लोग इन्हीं शर्तों के साथ भारतीय समाज को धर्म और जातिविहीन बनाने की वैचारिकी (आइडियोलॉज़ी) के साथ विश्वविद्यालयों से लेकर यू-ट्यूब और टीवी चैनल्स पर प्रस्तुत होते रहते हैं । मैं इसे कुतर्कवाद कहता हूँ ।

भारतीय समाज वर्ण व्यवस्था को मानता है, जाति व्यवस्था तो उनकी आजीविका के लिये अपनाये गये शिल्प या कर्म विशेष में विशिष्टता का द्योतक है जिसे न तो वैदिक ऋषियों ने बनाया, न मनु ने और न ब्राह्मणों ने । यह व्यवस्था स्वयं ही विकसित हुयी थी जो अब अपने सही अर्थों में समाप्त हो गयी है, केवल जातियों के नाम भर शेष रह गये हैं जिनका कोई औचित्य नहीं रहा ।

राजतंत्र में जाति और धर्म के आधार पर प्रतिनिधित्व का कोई हठ नहीं होता, जो जिस योग्य है वह उसी तरह की भागीदारी का अधिकारी हो जाता है । ब्राह्मण वर्ण के परशुराम क्षत्रिय वर्ण के राम की चरण वंदना करते हैं । भारतीय वैदिक व्यवस्था में संत और ऋषि किसी भी वर्ण के क्यों न हों वे हर किसी के लिये पूज्य माने जाते रहे हैं । यहाँ योग्यता को अधिकृत किया गया है, धर्म, वर्ण या जाति को नहीं, यही कारण है कि भारत की राजतांत्रिक व्यवस्था में प्रायः ब्राह्मणेतर लोग ही राजा और ब्राह्मण वर्ण के लोग अमात्य और महामात्य होते रहे हैं । भारत का इतिहास बताता है कि राजतंत्र में कभी किसी ने धर्म या समूह के प्रतिनिधित्व के आधार पर सत्ता में भागीदारी की दावेदारी नहीं की । 

समस्या की जड़ यहाँ है

रोमिला थापर, अरुंधती राय, आशुतोष, पुण्यप्रसून वाजपेयी, बरखा दत्त, विनोद दुआ, कन्हैया, ख़ालिद और इसी मानसिकता के और न जाने कितने लोगों की एक परम्परा है जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती जा रही है । हमें उनके चिंतन और अर्थहीन क्रिटिक पर दुःख करने की अपेक्षा इस समस्या के मूल पर चिंतन करना होगा जो फ़्रेंकफ़र्त स्कूल से अनुप्राणित और पोषित है ।

फ़्रेंकफ़र्त स्कूल यानी योरोप की नागफनी भारत में

दिन जिस भारत के शिक्षाविद और राजनीतिज्ञ यह समझ लेंगे कि जब तक राजनीति और समाजशास्त्र की पुस्तकों में कार्लमार्क्स, ल्यूकाश, थियोडोर अडोर्नो, लेनिन, और शॉपेनहॉर जैसे लोगों के सिद्धांत पढ़ाये जाते रहेंगे तब तक भारत में किसी भी तरह के सुधार की आशा करना व्यर्थ है”, उसी दिन से भारत में सुधार की तीव्र गति दिखायी देनी शुरू हो जायेगी ।

एक अंतरराष्ट्रीय षड्यंत्र के अंतर्गत हमारे पाठ्यक्रमों से राजनीति, दर्शन और समाजशास्त्र में भारत के मौलिक चिंतन को पूरी तरह लुप्त कर दिया गया है । चाणक्य, विक्रमादित्य, विदुर आदि के चिंतन को कलंकित घोषित किया किया जा चुका है । नयी पीढ़ी से अनुरोध है कि कचरे में फेके जा चुके भारतीय चिंतन का एक बार अध्ययन करके तो देख लें, शर्त यही है कि उन्हें अपने सारे पूर्वाग्रहों और निर्णयों को कुछ देर के लिये परे हटाना हो ।

विकृत मार्क्सवादी चिंतन से ग्रस्त, मार्क्सवादी मॉडर्निज़्म के लिये समर्पित और व्यक्तिगत जीवनशैली में मोनार्ची के तत्वों से युक्त परस्पर विरोधाभासी और जटिलतम ताने-बाने में जकड़े किसी प्राणी को देखते ही समझा जा सकता है कि वह आधुनिक भारतीय प्रशासनिक सेवा का कोई उच्च अधिकारी अथवा किसी विश्वविद्यालय का प्रोफ़ेसर हो सकता है ।

हम स्वतंत्र भारत के लोग यह जानते और भोगते आये हैं कि हमारे प्रशासनिक सेवाओं के अधिकारियों का व्यवहार एक निरंकुश राजा की तरह होता है, उनकी योजनायें प्रजा के लिये नहीं बल्कि अपने सम्राट के हितलाभ के लिये होती हैं । सम्राट के हित गोरे पादरियों द्वारा छोड़ी गयी जूठन को समृद्ध करते रहने में सिद्ध होते हैं ।

कुछ चिंतक इस बात से परेशान हैं कि हमारी विकृत हो चुकी शिक्षा समाज को घुन की तरह खोखला करती जा रही है । हमें इण्डियन एजूकेशन के मौलिक तत्वों पर चिंतन करना होगा जिसकी जड़ें फ़्रेंकफ़र्त स्कूल से लेकर जेएनयू तक फैली हुयी हैं । आज भारत का शायद ही कोई विश्वविद्यालय हो जहाँ इसकी फूल-पत्तियाँ न पायी जाती हों ।  

कोचिंग सेंटर्स में प्रशासनिक सेवाओं के अभ्यर्थियों के लिये दी जाने वाली शिक्षा भारत को कितना विकृत कर रही है इसका अनुमान भी आम आदमी को नहीं लग पाता और हम गम्भीर योरोपीय विकृति के शिकार होते रहते हैं ।

आधुनिकता का आदर्श

एडोर्नो जैसे लोगों को दर्शन और समाजशास्त्र का विद्वान माना जाता है जो सभी प्रचलित परम्पराओं को तोड़ने, परिवार और समाज के तानेबाने को छिन्न-भिन्न करने और व्यक्तिगत रुचियों को सर्वोपरि रखने के लिये आइडियलिज़्म ऑफ़ मॉडर्निटीजैसे विकृत सिद्धांत प्रतिपादित करते हैं । योरोपीय समाज के लिये उनके सिद्धांत उपयोगी हो सकते हैं जहाँ की लोकपरंपरायें न तो समृद्ध रही हैं और न वैदिक सिद्धांतों से अनुप्राणित । हम अलास्का की जीवनशैली को भारत के लिये आदर्श नहीं मान सकते किंतु भारतीय शिक्षाविदों को जीवन का सार तत्व वहीं दिखायी देता है ।