गुरुवार, 29 अप्रैल 2021

विषाणु युद्ध...

 बनाने चले थे वैक्सीन किंतु बन गया घातक बायो-वीपन । चीनियों की मासूम सी लगने वाली इस बात को मान लिया जाय तो भी मैं कहूँगा कि जिस उद्देश्य से वुहान में वैक्सीन की खोज की जा रही थी वह पूरी तरह अवैज्ञानिक और समाज में अनैतिक आचरण को प्रोत्साहित करने वाली थी जिसके परिणामस्वरूप सन् दो हजार उन्नीस में चाहे-अनचाहे हम सब कोरोना विषाणु युद्ध में झोंक दिये गये ।

यह जानते हुये भी कि संयमित यौन-सम्बंध ही एड्स का बचाव है, नैतिक आचरण को प्रोत्साहित करने के स्थान पर अनैतिक आचरण को प्रोत्साहित करने और क्रूर व्यापारिक उद्देश्यों के लिये एक ऐसे वैक्सीन की आवश्यकता का अनुभव किया गया जो असुरक्षित यौन सम्बंधों के बाद भी लोगों को एड्स से बचा सके । वैज्ञानिकों के इस अनैतिक और असामाजिक दृष्टिकोण का ख़ामियाजा अब पूरी दुनिया को भोगना पड़ रहा है ।

ईसवी सन् दो हजार में विदित हुआ कि वुहान स्थित इंस्टीट्यूट ऑफ़ वायरोलॉज़ी में चीनी वैज्ञानिक चमगादड़ों में पाये जाने वाले एक कोरोना वायरस के ज़ेनेटिक मैटेरियल में परिवर्तन कर एड्स की वैक्सीन तैयार करने का प्रयास कर रहे हैं । चीन पर अविश्वास करने वाले लोगों को यह संदेह था कि कहीं चीन वैक्सीन के बहाने से कोई विषाणु अस्त्र तो नहीं तैयार करने में लगा है? प्रयोगशाला में काम करने वाले एक कर्मचारी की असावधानी से एक दिन विषाणु को खुली हवा में आने का अवसर मिल गया और देखते-देखते उसने पहले तो चीन में और फिर पूरी दुनिया में तबाही मचानी शुरू कर दी । सारी दुनिया औद्योगिक वैश्वीकरण के सबसे बड़े दुष्प्रभाव से जूझने के लिये विवश हो गयी ।

वुहान की प्रयोगशाला से मुक्त होते ही कोरोना वायरस ने दुनिया को जहाँ के तहाँ ठहरने के लिये विवश कर दिया, भीड़ भरे बाजार निर्जन हो गये, सड़कें सूनी हो गयीं और लोग अपने-अपने घरों में कैद हो कर रह गये । मरघटों में शव रखने के लिये स्थान की कमी पड़ने लगी और कोरोना वायरस के व्यवहार से दिग्भ्रमित हुये डॉक्टर्स में भ्रांतियों की बाढ़ आ गयी । अनुमानों और हाइपोथीसिस को ही प्रमाण मानते हुये कोरोना वायरस, उसके संक्रमण एवं बचाव के तरीकों और चिकित्सा के सम्बंध में आये दिन नई-नई बातें गढ़ी जाने लगीं जो अगले कुछ ही दिनों में सही प्रमाणित न हो पाने पर बदल दी जाया करती थीं । संक्रमितों की जान बचाने के लिये वेंटीलेटर्स का उपयोग किया जाने लगा जो कुछ वैज्ञानिकों को उपयुक्त नहीं लगा । इस नयी व्याधि के लिये किसी के पास न तो कोई औषधि थी और न कोई वैज्ञानिक व्याख्या, सारे तीर अँधेरे में चलाये जाते रहे । डॉक्टर्स ने अनुमानों और जुगाड़ को ही वैज्ञानिक आधार मानते हुये लाक्षणिक चिकित्सा करनी शुरू कर दी । निजी चिकित्सालयों में धन की अभूतवर्षा होने लगी और रोगी कंगाल होने लगे । मृत्यु की सम्भावनाओं का सघन वातावरण तैयार किया जाता रहा जिससे चारो दिशाओं में भय व्याप्त हो गया । भय की बुलेट ट्रेन अनैतिक धन-वर्षा करने लगी । कोरोना वायरस के रिप्लीकेशन को रोकने के लिये किसी ने मलेरिया की दवाइयाँ दीं तो किसी ने ब्रॉड-स्पेक्ट्रम एण्टीवायरल-एज़ेण्ट दिये किंतु वायरस का रिप्लीकेशन रुकने के स्थान पर उसके नये-नये म्यूटेण्ट्स तैयार होने लगे जिन्होंने और भी तबाही मचानी शुरू कर दी । पहले से उपलब्ध हाड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन, इवरमेक्टिन, रेम्डेसिविर और फ़ैवीपिराविर से सफलता नहीं मिली तो कन्वल्सेंट प्लाज़्मा पर भरोसा किया गया, किंतु किसी के भी परिणाम पर्याप्त और संतोषजनक नहीं मिल सके । पहले से ही इण्टेलेक्चुअल ब्लैस्फ़ेमी के शिकार लोगों ने सत्य को अनदेखा करना जारी रखा और परिस्थितिजन्य जैविक अनुकूलन के लिये अपनी जीवनशैली में उपयुक्त परिवर्तन करने से मना कर दिया ।

विश्व स्वास्थ्य संगठन और शीर्ष वैज्ञानिकों की तरह एम.टेक की उपाधि प्राप्त वाराणसी के कलेक्टर कौशल राज शर्मा ने भी अप्रैल 2021 में रेम्डेसिविर का इन्डिस्क्रिमिनेटली स्तेमाल करने से डॉक्टर्स को कठोर शब्दों में मना किया तथापि सारी चेतावनियों की अनदेखी करते हुये रेम्डेसिविर इंज़ेक्शन की माँग बढ़ती ही गयी, इसके बावज़ूद कि वह पहले से ही अपने चिकित्सा उद्देश्यों में बारम्बार असफल होती रही है । एक ओर राजनीतिक विपक्षियों द्वारा कौशल राज शर्मा की विज्ञानसम्मत चेतावनी को मोदी की फासीवादी नीति के प्रमाण के रूप में प्रचारित किया जाने लगा तो दूसरी ओर संकट की घड़ी में हमेशा की तरह इस बार भी असामाजिक तत्वों ने लोगों की विवशता और पीड़ा में से अपने लिये अवसर तलाश लिये और ऑक्सीजन एवं रेम्डेसिविर इंजेक्शन की कालाबाजारी शुरू कर दी । वहीं हल्दी, कालीमिर्च, लौंग, चक्रफूल, दालचीनी, तुलसी, नीम और गिलोय जैसी पूरी तरह सुरक्षित और सहज उपलब्ध एण्टीवायरल औषधियों पर लोगों का अविश्वास बना रहा । सभ्य और विकसित मानव सभ्यता के युग में भी लोग इण्टेलेक्चुअल ब्लैस्फ़ेमी के शिकार होते रहने से स्वयं को रोक नहीं सके ।

आम आदमी विज्ञान के अद्भुत अवैज्ञानिक पक्ष के क्रूर दुश्प्रभावों को बड़ी असहायता के साथ भोगने के लिये विवश है । कोरोना वायरस से बचने के लिये जो भी उपाय अपनाये गये वे सभी अपर्याप्त प्रमाणित होते रहे । कोरोना की विशिष्ट औषधि से पूरी तरह अनजान विज्ञान जगत को लाक्षणिक और अनुमान आधारित चिकित्सा के भरोसे अँधेरे में हाथ-पाँव मारने के लिये विवश होना पड़ा । शीघ्र ही संक्रमितों की बढ़ती संख्या के कारण संसाधनों की कमी होने लगी । चिकित्सालयों में औषधियाँ नहीं हैं, ठोस हो चुके फेफड़ों में साँसें ठूँसने के लिये ऑक्सीजन नहीं है, लोग मरते जा रहे हैं । सदा की तरह असामाजिक और अवसरवादी राजनीतिज्ञ एक-दूसरे पर दोष थोपने में लगे हुये हैं और संघीय व्यवस्था चरमरा कर पूरी तरह ध्वस्त हो गयी है । जब राज्य और केंद्र एक-दूसरे के लिये घृणा और विद्वेष की फसलें बोने लगें और पारस्परिक मतभिन्नता शत्रुता की स्थिति को स्पर्श करने लगे तो संघीय व्यवस्था की अवधारणा पूरी तरह ध्वस्त हो जाती है । जब राजा निर्ममता से प्रकृति का दोहन और अपमान करने लगे तो प्रकृति के पास पूरे राज्य की उपेक्षा करने और दण्ड देने के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं हुआ करता । प्रकृति तो समय-समय पर हमें कई बार चेतावनी देती रही है किंतु हमारे पास उस चेतावनी को सुनने-समझने का समय ही कहाँ रहा ! आज समय ने हमें उठाकर पटक दिया है । हमारे सारे संसाधन व्यर्थ होने लगे हैं और चिकित्सा विशेषज्ञों ने अपनी वैज्ञानिक विश्वसनीयता को खो दिया है । पिछली कुछ शताब्दियों में विज्ञान इतना असहाय और दयनीय कभी नहीं रहा जितना कि आज ।  

मंगलवार, 27 अप्रैल 2021

रेम्डेसिविर नहीं है रामबाण फिर भी जारी कालाबाजारी...

         रेम्डेसिविर की कालाबाजारी हो रही है, लोग चीख मार-मार कर रो रहे हैं, प्रशासन और सत्ता को कटघरे में खड़ा किया जा रहा है, राजनीतिक चिल्ल-पों के लिये एक और हथियार मिल गया है । इससे आम आदमी में एक संदेश प्रसारित हो गया कि रेम्डेसिविर कोरोना वायरस की रामबाण दवा है । कोरोना वायरस ने आम आदमी को मेडिकल साइंस के सत्य को जानने-समझने का अवसर दिया है । हम चाहते हैं कि आम आदमी उस सत्य को भी जाने, दुर्भाग्य से जिसका प्रचार नहीं हो पा रहा और जिसे बताने के लिये बेचैन साइंटिस्ट नक्कारखाने में तूती की आवाज़ बनकर रह गये हैं । इस समय कोरोना वायरस के इलाज़ के लिये प्रचलित दवाइयों के बारे में साइंटिस्ट्स का क्या कहना है, जानिये आप भी –

“Remdesivir is a BSAA, Inhibits the replication of wide range of viruses by targeting viral proteins or host cell proteins used for the replication process. Remdesivir is ineffective after a patient is put on a ventilator, and is also ineffective for asymptomatic, mild, or moderate cases. It shortens progression of disease and hospital time. Not effective in lowering mortality or duration of mechanical ventilation.”

पिछले वर्ष 19 नवम्बर 2020 को Berkeley Lovelace Jr ने एक लेख लिखा था –“WHO tells doctors not to use Gilead’s Remdesivir as a corona virus treatment.” । इस लेख को cnbc.com पर देखा जा सकता है । दिनांक 24 अप्रैल 2021 को हिंदुस्तान टाइम्स के ई.पेपर संस्करण में पौलोमी घोष ने भी अपने लेख में मौलाना आज़ाद मेडिकल कॉलेज़ दिल्ली के डायरेक्टर प्रोफ़ेसर नरेश गुप्त के हवाले से चेतावनी देते हुये लिखा है – “A Covid-19 patient may collapse after being administered with Remdesivir and hence it is only recommended to be used discriminately by a doctor in a hospital.”

हम मानते हैं कि रेम्डेसिविर की किस्मत बहुत अच्छी है जिसे शुरुआत में हिपेटाइटिस-सी के इलाज़ के लिये खोजा गया जहाँ यह सफल नहीं हो सका किंतु बाद में इस खोटे सिक्के को सार्स के इलाज़ में चलाने की कोशिश की गयी जहाँ यह एक बार फिर सफल नहीं हो सका, और अब इसे कोरोना वायरस के इलाज़ में आज़माया जा रहा है । अभी तक यह स्पष्ट नहीं है कि इसके स्तेमाल से कोरोना वायरस के रिप्लीकेशन को रोकने में कितनी सफलता मिलती है । विशेषज्ञों और विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा रेम्डेसिविर को कुछ ख़ास स्थितियों में इमर्ज़ेंसी के तौर पर और ट्रायल के लिये स्तेमाल किये जाने की सिफ़ारिश की गयी है । कमाल की बात यह है कि रेम्डेसिविर ने अपनी तमाम असफलताओं के बाद भी ब्रॉड स्पेक्ट्रम एण्टीवायरल एज़ेण्ट का सम्मानजनक दर्ज़ा हासिल करने में बाजी मार ली है । जो दवा अपने फ़ार्मेकोलॉज़िकल प्रभाव में इतनी अनिश्चित है उसके लिये भारत में हो रही मारामारी कितनी उचित है!

हमारे देश में हल्दी, काली मिर्च, लौंग, दालचीनी, स्टार एनिस, गिलोय, तुलसी और नीम जैसी अनुभूत औषधियों की भरमार है जिन्हें कोई पूछने वाला नहीं है । कोरोना के इलाज़ में एक और आमधारणा पनपने लगी है कि इसके इलाज़ में घर बिक जाता है और मरीज़ अस्पताल से निकलकर घर नहीं सीधे मरघट ही पहुँचता है । इस दहशत ने आम आदमी को आयुर्वेद की शरण में जाने को बाध्य कर दिया है । यदि स्थिति बहुत कॉम्प्लीकेटेड नहीं है तो श्वासकुठार रस, संशमनी वटी, त्रिभुवनकीर्ति रस, महासुदर्शन काढ़ा, यशद भस्म, श्रंग भस्म और गिलोय सत्व के अतिरिक्त यदि पहले से कोई व्याधि है तो उसके सिम्प्टोमैटिक ट्रीटमेंट से आशातीत सफलता मिल रही है और लोग स्वास्थ्य लाभ कर  रहे हैं । दुर्भाग्य से आयुर्वेद, वैदिक संस्कृति, और भारतीय विज्ञान के प्रशंसक लोग भी इन्हें अपने व्यावहारिक जीवन में अपनाने से कतराते हैं, शायद इसीलिये इसे अभी तक सच्चा राज्याश्रय नहीं प्राप्त हो सका है । जिन औषधियों के प्रभाव अनिश्चित हैं उनके लिये मारामारी हो रही है और जो कारगर हैं उनके लिये हुकुम नहीं है ।

रविवार, 25 अप्रैल 2021

रास्ते और भी हैं...

            बिलखते हुये लोग विवश होकर अपनी आँखों के सामने अपने परिवार के सदस्यों को मरते हुये देख रहे हैं । गाँठ में पैसे हैं जो अब किसी काम के नहीं हैं । ऑक्सीजन और वेंटीलेटर्स की कमी का हंगामा हो रहा है । सरकार कहती है कि सब कुछ पर्याप्त है, डॉक्टर्स कहते हैं कि कुछ भी उपलब्ध नहीं है । हाईकोर्ट को कलम तोड़ धमकी देनी पड़ती है कि ऑक्सीजन की उपलब्धता में जो भी बाधा उत्पन्न करेगा उसे फाँसी दे दी जायेगी । क्या यह मोदी सरकार का अंतिम कार्यकाल होने वाला है?

रोगियों के लिये ऑक्सीजन नहीं है, वायुमण्डल प्रदूषित है, बड़े-बड़े ग्लेशियर्स पिघल रहे हैं और एक-एक परिवार में चार-चार डीज़ल या पेट्रोल वाहन रखना आम बात है, न सरकार ने कभी कोई कोटा निर्धारण किया न हमने कभी सोचा । पैसे के अहंकार में हम प्रकृति को हमेशा अपमानित करते रहे हैं । तमाम प्रदूषणों के बीच वैचारिक प्रदूषण ने एक बार फिर बाजी मार ली है किंतु हमने इस सबसे बड़ी समस्या को कभी समस्या माना ही नहीं ।  

कोरोना की दूसरी लहर का आतंक जारी है । भारत से भी अधिक बुरी स्थिति ईराक की हो रही है जहाँ पहले से ही बहुत कुछ ध्वस्त है । उच्च सुविधासम्पन्न देवता (माननीय जी) भी संक्रमित हो रहे हैं, सुपर स्पेशल सुविधायें बौनी साबित हो रही हैं, कुछ देवताओं की मृत्यु भी हो चुकी है । हम साधारण मानुष हैं, हमें अपने लिये देवताओं वाली सुविधाओं की अपेक्षा नहीं करनी चाहिये । हमें अपने लिये कुछ और सोचना होगा, बिल्कुल साधारण । 

कुछ चिकित्सक मानते हैं कि भाप लेने से कोरोना मर जाता है इसलिये भाप लेना लाभदायक है, कुछ मानते हैं कि भाप लेने से फेफड़ों और नाक को क्षति हो सकती है इसलिये भाप लेना हाँइकारक है । वैज्ञानिकों के भी परस्पर विरोधी वक्तव्य सामने आ रहे हैं । आम जनता भ्रमित है ...और सच तो यह है कि चिकित्सकों का भी एक बहुत बड़ा वर्ग भ्रमित है । हम इस विषय पर भी बात करेंगे किन्तु अभी नहीं । अभी तो हमें अँधेरे में अपने लिये एक सुरक्षित रास्ता तलाशना है । कोरोना ने हमारी सारी वैज्ञानिक उपलब्धियाँ को ठेंगा दिखा दिया है । जिनके पास पैसा है वे तमाम चिकित्सा के बाद भी जान गँवा रहे हैं और जो निर्धन हैं वे चिकित्सा के अभाव में जान गँवा रहे हैं । पैसा किसी काम का नहीं रहा । यह बात उन राष्ट्राध्यक्षों को भी समझनी चाहिये जो संसाधनों को हथियाने और बाजार को अपनी मुट्ठी में करने के लिये विश्वयुद्ध की तरफ़ निरंतर आगे बढ़ते जा रहे हैं ।

कोरोनाकाल में ही चीन की अर्थ व्यवस्था ने गति पकड़ ली है । इस मामले में फ़िलहाल अमेरिका अपने प्रतिद्वंदी चीन से पराजित हो चुका है । हम दुनिया के सबसे बड़े वैक्सीन उत्पादक हैं, फिर भी हमें बाहर से वैक्सीन आयात करनी पड़ रही है । हम रेम्डेसिविर का भी पर्याप्त उत्पादन कर सकते थे किंतु साल भर से निर्माताओं का पता नहीं क्यों मूड ही नहीं बन सका ।

युवाओं को अपने सपनों के लिये प्रतीक्षा करनी होगी । यह आपकी ही नहीं पूरी दुनिया के युवाओं की समस्या है और किसी भी स्थिति में ड्रग्स आपकी समस्या का समाधान नहीं है । कोरोना का प्रोजेक्ट 2025 तक चलने की ख़बर है । इस बीच हमें कोरोना वायरस के साथ ही रहना होगा... पूरी सूझ-बूझ के साथ । फ़िलहाल आम जनता का रुझान आयुर्वेदिक औषधियों की ओर होता जा रहा है । इम्यूनिटी बढ़ाने वाली आयुर्वेदिक औषधियों से बाजार भरे पड़े हैं, फेफड़ों के संक्रमण की चिकित्सा के लिये भी आयुर्वेद में ढेरों दवाइयाँ हैं वह भी विदाउट साइड-इफ़ेक्ट्स । रौद्र ताण्डव के बाद लास्य नृत्य होता है जो सृजन का नृत्य है... जीवन का नृत्य है । इसलिये युवा अपने कैरियर को लेकर निराश न हों । दूसरों पर आरोप लगाने की भी आवश्यकता नहीं, अभी तो मृत्यु के खेला से स्वयं को बचाने की आवश्यकता है । दवाइयों, वैक्सीन्स, ऑक्सीजन और वेंटीलेटर्स को रौंदता हुआ कोरोना आगे बढ़ता जा रहा है लेकिन रास्ते और भी हैं... हमें आगे बढ़ना होगा ।

रेम्डेसिविर की कालाबाजारी हो रही है किंतु गिलोय, कालीमिर्च, लौंग, हल्दी, सोंठ और नीबू आपकी पहुँच के भीतर है । जो मधुमेह के रोगी हैं और BGR 34 नहीं ख़रीद सकते उन्हें केवकाँदा और भुइनिम्ब का सेवन करना चाहिये । प्रकृति ने आपको वह सब कुछ दिया है जिसकी आपको आवश्यकता है । इस सबके बाद भी प्रकृति को आपसे जिस जीवनशैली की अपेक्षा है उसका पालन तो आपको करना ही होगा ...यहाँ कोई समझौता प्रकृति को स्वीकार नहीं है । आधुनिक देवताओं ने प्रकृति को अपने नियंत्रण में करना चाहा और प्राकृतिक शक्तियों से रार कर ली । रावण ने भी काल को अपने नियंत्रण में करना चाहा और काल से रार कर ली । जीवित रहने के लिये हमें प्रकृति की ही उपासना करनी होगी । आइये, जिसे हम छोड़ चुके हैं उसे फिर से अपना लें अन्यथा प्रकति अपना संतुलन स्थापित करने के लिये खण्ड प्रलय से कम में संटुष्ट नहीं होगी ।

शुक्रवार, 23 अप्रैल 2021

रावण

श्री राम को सेना सहित समुद्र पार कर श्रीलंका जाने के लिये सेतु का निर्माण करना था । सेतु निर्माण के संकल्प और सफलता के लिये हवन-पूजन आदि कर्मकाण्ड के लिये उस समय के प्रकाण्ड वेद-विद्वान एवं सर्वश्रेष्ठ पुरोहित के रूप में रावण को आमंत्रित किया गया । युद्ध की तैयारी में एक शत्रु को दूसरे शत्रु के सहयोग की आवश्यकता थी । सेतु निर्माण में पुरोहित बनकर रावण ने न केवल अपने शत्रु को सहयोग किया बल्कि यजमान राम को अपने उद्देश्य में सफल होने का आशीर्वाद भी दिया । विश्व इतिहास में नैतिक चरित्र के ऐसे उदाहरण दुर्लभ हैं ।

रावणकृत शिवताण्डव स्तोत्र हर किसी के लिये आसान गायन नहीं है, “जटाटवी गलज्जल प्रवाहपावितस्थले । गलेऽवलम्ब्य लम्बिताम भुजङ्गतुङ्गमालिकाम्” -जैसे अद्भुत शिवस्तोत्र का रचनाकार रावण, वेद-विद्वान और महान चिकित्सा विशेषज्ञ दशग्रीव हमारी घोर घृणा और तिरस्कार का पात्र हो गया । मंत्र-तंत्र दक्ष रावण रचित कई मंत्रों का प्रयोग तो वे लोग भी करते हैं जो उसके घोर विरोधी हैं और उससे घृणा करते हैं । आप रावण को एक नोटोरियस किंग कह सकते हैं किंतु उसकी उपलब्धियों की क्रेडिट से उसे कैसे वंचित कर सकते हैं!      

सामवेद की ऋचाओं के गायन में प्रवीण रावण ने वेदपाठ के स्वाभाविक उच्चारण के लिये पदपाठकी रचना की जिसे परवर्त्ती वेदपाठियों द्वारा अपनाया गया । शब्द और ध्वनि विज्ञान में दक्ष रावण ने शब्दों के अर्थानुरणन के लिये Onomatopoeia और alteration की विधि विकसित की । ज्योतिष विज्ञान को समृद्ध करते हुये दशग्रीव ने “रावणसंहिता” की रचना की । रावण द्वारा संस्कृत में रचित ग्रंथ प्रकृत कामधेनुने डेयरी एवं विटरनरी साइंस को समृद्ध किया, युद्ध कला के लिये युद्धिश तंत्रकी रचना की, फ़ार्मेकोलॉज़ी को समृद्ध करने के लिये डिस्टिलेशन की पद्धति का विकास किया और अर्क प्रकाशनामक ग्रंथ की रचना की । डाय्ग्नोसिस के लिये नाड़ी विज्ञान पर संस्कृत भाषा में रचना की जिसे आज भी “रावणकृत नाड़ी विज्ञानम्” के नाम से व्यवहृत किया जाता है । स्त्री रोग, प्रसूति तंत्र एवं बाल रोग में निष्णात रावण ने मंदोदरी के अनुरोध पर कुमार तंत्रनामक ग्रंथ की रचना की जिसमें इन विषयों से सम्बंधित एक सौ से अधिक रोगों की चिकित्सा का वर्णन किया गया है । शिव रसतंत्र और टॉक्ज़िकोलॉज़ी के आराध्यदेव हैं इसीलिये प्राचीन भारत के रस साधक” (फ़ार्मेकोलॉज़िस्ट) और टॉक्ज़िकोलॉसिट शिवभक्त हुआ करते थे । रावण की शिवभक्ति पर संदेह नहीं किया जा सकता । मर्करी और सल्फ़र के योग से औषधि निर्माण की विधि को विकसित करने वाला वैज्ञानिक रावण संगीत और कला में भी इस दुनिया को बहुत कुछ दे कर गया है । रुद्रवीणा वादन में दक्ष रावण ने वीणा जैसे एक यंत्र का भी आविष्कार किया जिसे आप रावणहत्था के नाम से जानते और उपयोग करते हैं ।

आज तो किसी रिसर्च का श्रेय लेने के लिये लोग सारी सीमायें तोड़ दिया करते हैं । भाषा-विज्ञान, वेद-विज्ञान, स्वर विज्ञान, युद्धकला, रसशास्त्र (फ़ार्मेकोलॉज़ी), मेडिकल साइंस, डेयरी एण्ड विटरनरी साइंस, ज्योतिष, संगीत, नीतिशास्त्र, प्रशासन और पौरोहित्य आदि में दक्ष विश्रवा पुत्र दशग्रीव वेदपाठी ब्राह्मण होते हुये भी आर्यावर्त्त में तिरस्कृत होता रहा । इस तिरस्कार को जस्टीफाइ करने के सैकड़ों तर्क दिये जाते रहे हैं । किंतु मुझे लगता है कि तिरस्कार की इस तीव्र आँधी में दशग्रीव की विद्वता और अद्भुत विलक्षणता की हम सभी अन्यायपूर्ण ढंग से उपेक्षा करते रहे हैं ।

किसी राजा का तिरस्कार तो हो सकता है किंतु किसी विद्वान और उसकी विद्वता का तिरस्कार किसी समाज के लिये श्राप से कम नहीं होता । भारत में स्वतंत्ररूप से देशी क्रायोजेनिक इंजन विकसित करने वाले इसरो के वैज्ञानिक नम्बीनारायण के साथ हमने क्या नहीं किया? उन्हें न केवल मानसिक बल्कि शारीरिक यातनायें भी दी गयीं, बल्कि पच्चीस साल तक जेल में भी बंद रखा गया, किस अपराध में? और इसका परिणाम यह हुआ कि स्पेस शटल के मामले में हमारी आत्मनिर्भरता को दशकों का धक्का लगा । हम लगभग तीन दशक पीछे चले गये ।

लोक हित के लिये राजाओं से जीवनभर युद्ध करने वाले श्रीकृष्ण को मथुरा से पलायन करना ही पड़ा । इसरो में शोध करने वाले हमारे वैज्ञानिक रहस्यपूर्ण ढंग से या तो गायब हो जाते हैं या फिर आत्महत्या कर लेते हैं । प्रतिभा पलायन और आत्महत्या की घटनाओं से आर्यावर्त्त अपनी वैज्ञानिक क्षमताओं को खोता जा रहा है । यदि आप सजग और हर पल चौकन्ने नहीं हैं तो आज कोई भी आपकी रिसर्च चुरा कर सारा श्रेय अपनी झोली में डाल लेता है और आप हाथ मल कर रह जाते हैं । चलिए छोड़िये, हम कलियुग से वापस त्रेतायुग में चलते हैं जहाँ रावण का वध हो चुका है और श्रीराम को अयोध्या लौटने के लिये तीव्र गति वाले वाहन की जुगाड़ करनी है ।

श्रीलंका की धरती पर लड़े गये युद्ध में अयोध्या की विजय हुयी, लंकेश का वध कर दिया गया । विजयी श्रीराम के पास एयरोप्लेन नहीं था, श्रीलंका से वापस आने के लिये उन्हें अपने शत्रु रावण के पुष्पक विमान का सहारा लेना पड़ा । आज के खोजी वैज्ञानिकों ने पता लगाया है कि उस समय श्रीलंका में रावण के पास कई एक एयर हैंगर्स थे जिनमें विमानों को रखा जाता था । यह खोज अभी भी चल रही है ।

जिस रावण का पतन उसके अहंकार के कारण हुआ, उसी ने अपने आराध्य शिव को अपने सिर काट-काट कर समर्पित कर दिये थे । क्या अर्थ है इसका? वाज़ ही अ मॉन्स्टर ऑफ़ टेन हेड्स? नो, मेडिकली सच अ मॉन्स्टर कैन नॉट सर्वाइव, हैव यू सीन अ सच पर्सन इवर? वी मे हैव टू हेड लाइंस इन अवर पाम्स बट नेवर टू हेड्स ऑन अवर नेक । इट इज़ सिम्बोलिक, जस्ट सिम्बोलिक । कथा है कि विश्रवापुत्र बचपन से ही बहुत सुदर्शन और बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न था । माँ ने बच्चे के गले में एक माला पहना दी जिसके मनकों में उसके चेहरे का प्रतिबिम्ब दिखायी देता था । साथियों ने इसीकारण उसे दशग्रीव कहना शुरू कर दिया । किंतु मुझे लगता है कि विश्रवा पुत्र की विलक्षणता के कारण उसे दशग्रीव की संज्ञा दी गयी होगी । ही वाज़ अ सुपर इंटेलीज़ेण्ट पर्सन हैविंग मल्टीडायमेंशनल पर्सनॉलिटी – “बहुमुखी प्रतिभा” । अपने अहंकार को समाप्त करने के लिये ही रावण ने अपनी दक्षतायें और उपलब्धियाँ अपने आराध्य को समर्पित करने का प्रयास किया जिसे सिम्बोलिकली “सिर काट कर चढ़ाना” कहा गया ।  

हमने रावण की बहुत सी उपलब्धियों को अपना तो लिया है किंतु उसका लेश भी श्रेय हम रावण को देना नहीं चाहते । कम से कम ज्योतिष और चिकित्सा विज्ञान में रावण की उपलब्धियों को स्वीकार करते समय हमें उसका ऋणी होना ही चाहिये । हमें विभीषण का भी ऋणी होना चाहिये जिसने रावण की मृत्यु का रहस्य हमारे आराध्य श्रीराम के समक्ष उजागर कर दिया किंतु हमने विभीषण का भी अपमान किया और उसके नाम को ही विश्वासघात का मुहावरा बना डाला । श्रीराम विजयी होकर वापस अयोध्या पहुँचे, तो हमने राम के पारिवारिक जीवन की इतनी निंदा कर डाली कि उन्हें अग्नि परीक्षा के बाद भी अपनी पत्नी को राजमहल से निष्कासित करना पड़ा । हम आर्यावर्त के निवासी न तो रावण के साथ न्याय कर सके, न विभीषण के साथ, न श्रीराम के साथ और न श्रीकृष्ण के साथ । हम अपने सनातनधर्म के साथ भी न्याय कहाँ कर पा रहे हैं! न हम अपने धर्म को अक्षुण्ण रख पा रहे हैं, न अपने मंदिरों को लुटने और तोड़े जाने से बचा पा रहे हैं, न अपने देश की सीमाओं को बचा पा रहे हैं और न अपने समाज को धर्मांतरण से बचा पा रहे हैं फिर भी हमें अपने आर्यत्व पर इतना गर्व है कि हम फूले नहीं समाते । 

बुधवार, 14 अप्रैल 2021

सावधान ! कोरोना का खेला चालू आहे...

सत्ता में बैठे लोगों ने कोरोना युद्ध की कमान तो अपने हाथ में ले ली लेकिन अब संक्रमण एवं मौतों को नियंत्रित न कर पाने की पराजय का ठीकरा डॉक्टर्स और जनता पर फोड़ कर अपनी अकाउण्टेबिलिटी से पल्ला झाड़ लिया है । कैमरे और लाइट की दुनिया में आने से पहले मैं बायोटेक्नोलॉज़ी का छात्र रहा हूँ और वायरोलॉज़ी एवं सेलुलर बायोलॉज़ी में अच्छी रुचि होने के कारण कोरोना युद्ध के लिये बनायी जाने वाली नीतियों का तमाशा भी समझता रहा हूँ । आज एक-एक कर जब सारी सच्चाइयाँ सामने आती जा रही हैं तो राजनैतिक दलों के प्रवक्ता स्वीकार करने लगे हैं कि केवल सत्ता को ख़ुश करने के लिये वैज्ञानिकों ने झूठे आँकड़े पेश किये और वैक्सीन की असंतोषजनक कार्मुकता को छिपाया । डॉक्टर्स और वैज्ञानिकों पर आरोप लगाते समय असावधानीवश भाजपा के प्रवक्ता धोखे में अपनी कार्यप्रणाली की पोल भी खोलने लगे हैं । सत्ता को ख़ुश करने के लियेयह एक ऐसा सच है जो सत्ता की कार्यप्रणाली, आई.ए.एस. अधिकारियों और वैज्ञानिकों से सत्ता की अपेक्षाओं की वास्तविकता को कटघरे में खड़ा करता है । इसका अर्थ यह हुआ कि सत्ता ऐसा वातावरण निर्मित कर सकने में असफल रही है जिसमें आई.ए.एस. अधिकारी, डॉक्टर्स और वैज्ञानिक सही तथ्य प्रस्तुत कर सकें, वे बाध्य हैं सत्ता को एन-केन प्रकारेण ख़ुश करने के लिये जिसके लिये उन्हें झूठे आँकड़े और झूठी बातें निर्मित करनी पड़ती हैं । इस तरह की कार्यप्रणाली से सत्ता ख़ुश होती है लेकिन उसका ख़ामियाजा जनता को ही नहीं बल्कि पूरी सभ्यता को भुगतना पड़ता है ।

अब जब कोरोना का डबल म्यूटेण्ट दहशत मचाता घूम रहा है और स्थिति नियंत्रण से बाहर हो गयी तो राजनीतिज्ञों ने आरोप लगा दिया कि जनता ने ही नियमों का पालन नहीं किया । राजनीतिज्ञों का दूसरा आरोप है कि डॉक्टर्स ने कोरोना वायरस की प्रकृति, वैक्सीन की कार्यक्षमता और कोविड 19 के उपचार के बारे में सही तथ्यों को छिपाकर सत्ता को अँधेरे में रखा (यानी विश्वासघात किया?) ।

मैं कोरोना के शुरुआती दिनों को याद करता हूँ जब फ़िल्म सिटी में रसूखदार लोग और जनता को उपदेश देने वाले नेतागण गले में मास्क लटकाकर या ठोड़ी के पास सरका कर घूमा करते थे । मौलाना मोहम्मद साद के धार्मिक मरकज़ में देश-विदेश के लोगों का जमावड़ा लगा रहा और दिल्ली के अधिकारी उनसे नियमों का पालन करने के लिये प्रार्थना करते रहे । शाहीन बाग का जमावड़ा हो या किसान आंदोलन का या फिर कुम्भ स्नान का ताजा मामला, सभी जगह भीड़ को नियंत्रित करने में असफल प्रशासन और सरकार ने अपनी दुर्बलताओं और असमर्थताओं का ही प्रदर्शन किया है । एक ओर लॉक-डाउन और ठीक उसी समय अनियंत्रित भीड़ के आगे पानी भरती हमारी सत्ता । जन आंदोलनों और सामूहिक धार्मिक क्रियाकलापों पर न सत्ता का नियंत्रण था और न सुप्रीम कोर्ट ने ही कोई प्रभावी संज्ञान लिया । विरोधाभास की चरम स्थिति के साथ जनता को अपने हाल पर मरने के लिये छोड़ दिया गया और अब सत्ता के प्रवक्ता कहते घूम रहे हैं कि वैक्सीन समाधान नहीं है, हर किसी को सोशल डिस्टेंसिंग का पालन ही होगा ।

जहाँ तक डॉक्टर्स और साइंटिस्ट्स की बात है तो यह समझना होगा कि सत्ता ने अपने तंत्र को सच बोलने के लिये उपयुक्त स्थितियाँ निर्मित नहीं कीं और जिसने सच बोला भी तो उसकी बात को सुना ही नहीं गया । कोरोना वैक्सीन के वर्तमान इण्डीविडुअल की सेलुलर कार्मुकता अनिश्चित है, उसकी क्षमता और कार्य-अवधि भी बहुत कम है, और सच बात तो यह है कि आज कोरोना की जितनी भी वैक्सीन्स व्यवहार में लायी जा रही हैं वे सब आज भी अपने ट्रायल फ़ेज़ में ही हैं यह इसी से प्रमाणित है कि वैक्सीन के दूसरे डोज़ के अंतराल के बारे में डॉक्टर्स को भी पूरी दृढ़ता और विश्वास के साथ कुछ भी पता नहीं है, सब कुछ अनुमानों और हाइपोथीसिस के सहारे आगे होता जा रहा है । साइण्टिस्ट्स ने तो यह भी बता दिया कि इस वैक्सीन के उपयोग से कोरोना के कई और नये म्यूटेण्ट्स बनने की सम्भावना है और मात्र एक साल बाद ही यह वैक्सीन निष्प्रभावी हो जायेगा । इस सबके बाद भी वैक्सीन के पीछे जनता की गाढ़ी कमायी में आग लगायी जा रही है । दुःखद बात यह है कि जॉन्सन एण्ड जॉन्सन की वह वैक्सीन ख़रीदने का मन भारत ने बना लिया है जिसे उसके वैस्कुलर इम्बोलिज़्म वाले साइड इफ़ेक्ट के कारण अमेरिका ने रिजेक्ट कर दिया है । 

दुनिया भर की प्राचीन सभ्यतायें इस तरह के संकटों का समय-समय पर सामना करती रही हैं । कहीं प्रकृति ने संतुलन बनाया तो कहीं उन्नत सभ्यताओं ने सत्य का अनुसंधान करते हुये सामाजिक जीवनशैली में अस्पर्श्यता को अपनाया । कभी विदेशी आक्रमणकारियों ने तो कभी राजनीतिक बेहयाई ने भारत की प्राचीन जीवनशैली को वैदिक और मनुवादी सोच कहते हुये विकृत किया और सोशल डिस्टेंसिंग को ब्राह्मणवादी अभिषाप कहते हुये छुआछूत की विकृत परिभाषायें गढ़ डालीं जबकि भारतीय समाज की वर्णव्यवस्था नेचुरो-साइंटिफ़िक व्यवस्था रही है जहाँ किसी प्रकार के सामाजिक वर्गभेद का कोई स्थान नहीं होता । आज हर कोई छुआछूत का ही उपदेश “सोशल डिस्टेंसिंग” के नाम से देने लगा है । स्पर्श में डिस्क्रिमिनेशन और भोजन में शुचिता की आवश्यकता को यदि आप छुआछूत कहते हैं तो आज पूरी दुनिया को क्या उसी की आवश्यकता नहीं है?              

कोरोना की दवाइयाँ अज्ञात हैं, रोकथाम के जो ज्ञात उपाय हैं वे संतोषजनक परिणाम दे सकने में असफल रहे हैं फिर भी इलाज़ हो रहा है और रोकथाम के उपाय भी अपनाये जा रहे हैं । आर.टी.पी.सी.आर. कोरोना की विश्वसनीय जाँच नहीं है फिर भी जाँच आवश्यक है । यह उसी तरह है जैसे हमें हमें रेल का टिकट तो लेना पड़ेगा भले ही रेलों का परिचालन पूरी तरह बंद ही क्यों न हो । यह कैसी वैज्ञानिक सोच है जिसका कोई औचित्य मेरे जैसे विज्ञान के विद्यार्थी रहे व्यक्ति की भी समझ से परे है! क्या कोई मुझे बतायेगा कि, -

1-   यह जानते हुये भी कि कोरोना की जाँच के लिये आर.टी.पी.आर. विश्वसनीय उपाय नहीं है, दूसरी ओर वैज्ञानिक भी स्वीकार करते हैं कि फेफड़ों की कोशिकाओं के तरल द्रव्य (ब्रॉन्को-एल्विओलर लैवेज़) की जाँच से कोरोना संक्रमण की कहीं अधिक भरोसेमंद जानकारी मिल सकेगी, तब आर.टी.पी.आर. पर इतना समय और धन ख़र्च करने की क्या आवश्यकता है?  

2-   Marcia Frellick ने 30 मार्च 2021 के अपने एक लेख – “COVID Vaccines could lose their punch within a year” में मौज़ूदा वैक्सीन की हकीकत का बयान कर दिया है और अब यह जानते हुये भी कि वैक्सीन से उत्पन्न होने वाली इम्यूनिटी हमें कोरोना से हमेशा के लिये राहत नहीं दे सकेगी इसलिये हमें इम्यूनिटी की अगली खेप के लिये फिर कुछ नया करना ही होगा, तब वैक्सीन के पीछे इतना पागलपन क्यों?

3-   विश्व के कई देश वैक्सीन ख़रीद पाने की स्थिति में नहीं हैं, पैंडेमिक से मुक्ति के लिये रोकथाम की सामूहिक प्रक्रियायें अपनायी जानी चाहिये । यदि आप वैक्सीन को इतना प्रभावी मानते हैं तो क्या उसके सिद्धांतों का ईमानदारी पालन कर रहे हैं ? ग़रीब देशों में वैक्सीनेशन किये बिना संक्रमण की श्रंखला को तोड़ पाना सम्भव नहीं है, इस बहुत बड़ी चुनौती का किसी के पास क्या समाधान है?

-अचिंत्य की कलम से कोरोना चिंतन 

महल में अब कभी नहीं आयेंगे मँझले युवराज...

दूसरी शताब्दी में सातवाहन राजवंश के राजा सातकर्णी द्वारा स्थापित कांकेर राज्य को भारत की आज़ादी के साथ ही पंद्रह अगस्त 1947 को भारत गणराज्य के एक हिस्से के रूप में सौंप दिया गया था । लगभग दो साल पहले ही कांकेर पैलेस को उसका वारिस मिला था, पूरे महल में ख़ुशियों की बहार आ गयी थी और जॉली बाबा के चेहरे पर आत्मतुष्टि मिश्रित प्रसन्नता की रौनक थी । जॉली बाबा, यानी कांकेर राजपरिवार के मँझले युवराज, यानी महाराज कुमार सूर्य प्रताप देव जी, यानी राजसी गरिमा के साथ सादगी और मिलनसारिता से भरपूर एक व्यक्तित्व । महल के सेवकों के साथ उनका व्यवहार दोस्ताना हुआ करता, इतना दोस्ताना कि महल की पुष्पवाटिका हो या फ़ॉर्म-हाउस उन्हें कर्मचारियों के साथ कुछ न कुछ करते हुये देखा जा सकता था ।

वे बहुत कम बोलते और प्रायः पूर्ण मनोयोग से मेरी बातें सुनते रहते । परिचितों के साथ महफ़िल सजाने, लिखने-पढ़ने और अपनी प्राचीन परम्पराओं को सहेजने के शौकीन जॉली बाबा को खाने-पीने का भी शौक हुआ करता । रसोयी में कोई न कोई प्रयोग करते रहना उनका प्रिय खेल हुआ करता । एक दिन उन्होंने सेवक को इशारा करके रसोयी से मेरे लिये गुलगुले मँगवाये । मेरे एक गुलगुला खाते ही उन्होंने मुस्कराते हुये पूछा – “आप इसकी रेसिपी का कुछ अनुमान लगायेंगे”? मैंने ऐसा स्वादिष्ट और फ़्लेवर्ड गुलगुला पहले कभी नहीं खाया था, मैंने मुस्कराते हुये सिर हिलाया – “यह तो आपको ही बताना होगा”। ....और फिर उन्होंने जो कुछ बताया वह मेरे लिये अकल्पनीय था । ऐसे अद्भुत प्रयोग जॉली बाबा ही कर सकते हैं । उन्हें पता था कि मुझे दूध पीना पसंद है, एक रात महल के लॉन में महफ़िल जमी तो मेरे लिये हलके हरे रंग का दूध मँगवाया गया । हल्के फ़्लेवर के साथ स्मूदी जैसा गाढ़ा और स्वादिष्ट दूध, मैंने पूछा – “एक और प्रयोगक्या है इसमें?” जॉली बाबा ने मुस्कराते हुये बताया – “कीवी का पल्प और कुछ और चीजें”। जिन दिनों एपिक चैनल वाले डॉक्टर गौरव मल्होत्रा ने “राजा-रसोयी और अन्य कहानियाँ” के एक एपीसोड में बम्बू चिकेन के बारे में जॉली बाबा पर एक दृश्य फ़िल्माया था उस समय वे “ट्रेडीशनल क्यूजिंस ऑफ़ छत्तीसगढ़” पर एक किताब लिख रहे थे ।

एक दिन सुबह-सुबह पैलेस की दीवाल के पास पके पीले फलों से लदे दो-तीन बड़े वृक्ष दिखायी दिये । पास जाकर देखा, अरे यह तो खिरनी है । मैंने जॉली बाबा को उलाहना दिया – “आपने कभी बताया नहीं खिरनी के बारे में”? मासूम सा उत्तर मिला – “मुझे इसके उपयोग के बारे में कुछ नहीं मालुम इसलिये नहीं बताया”। मैंने कहा – “माइमोसॉप्स हेक्ज़ेण्ड्रा, इसके फल मीठे और पौष्टिक होते हैं, दरगाह पर चढ़ाते हैं लोग । बचपन में उदेतापुर के पास एक खिरनी वाला बाग हुआ करता था, हम बच्चे लोग खिरनी के लिये धमाचौकड़ी मचाया करते थे । बाद में कई साल बाद गाँव गया तो पता चला कि खिरनी वाले बाग का तो अब कहीं नाम-ओ-निशां भी नहीं रहा । इसके बाद मुम्बई में एक बार गोराई बीच पर खिरनी बिकते हुये देखी थी ...और आज एक मुद्दत के बाद यहाँ देख रहा हूँ”।

फ़ॉर्म हाउस पर ट्यूब वेल के हौज़ में ग़र्मियों की एक शाम स्नान की मस्ती, महल की बघवा खोली के गाइड बने जॉली बाबा, राजमहल की एण्टिक्स के बारे में विस्तार से बताते हुये जॉली बाबा, राजमहल के एक हिस्से में अपने विदेशी अतिथियों के लिये पंचकर्म थेरेपी केंद्र खोलने के बारे में विचारविमर्श करते हुये जॉली बाबा, महल के पीछे के खेतों और जंगली पेड़ों पर बैठी चिड़ियों का दूर से उनकी बोली सुनकर ही परिचय कराते जॉली बाबा, महल के दशहरा उत्सव में एक सामान्य नागरिक की तरह भीड़ में खड़े जॉली बाबा ढेरों दृश्य हैं जो आज मेरी आँखों के सामने एक-एक कर आते जा रहे हैं ।

कुछ महीने पहले जॉली बाबा से फ़ोन पर बात हुयी थी, वे मिलना चाहते थे किंतु कोरोना संक्रमण के कारण मेरा पैलेस जाना सम्भव नहीं हो सका । उन्होंने मेरे साथ मिलकर बहुत कुछ करने के लिये कुछ सपने देखे थे, मैं ही समय नहीं निकाल सका । अब वह समय कभी नहीं आयेगा । घूमक्कड़ी के शौकीन जॉली बाबा मात्र पैंतालीस की उम्र में आज सुबह बिना कुछ बताये एक अनंत यात्रा पर निकल पड़े । मैं हतप्रभ हूँ, जॉली बाबा अब नहीं हैं ।

महाराज कुमार सूर्य प्रताप देव 

रॉयल फ़ेमिली के कुछ ख़ुशनुमा पल जो अब स्तब्ध हो गये हैं   

सादगी से परिपूर्ण आम लोगों के साथ महाराज कुमार सूर्य प्रताप देव (सफेद पतलून और टी शर्ट में) 

अपने ही महल के परिसर में भीड़ का एक हिस्सा बने जॉली बाबा (भगवा कुर्ते में)

जॉली बाबा को अच्छा लगता है राजमहल के विभिन्न हिस्सों की साज-सज्जा में पुरानी चीजों का उपयोग 

महल का कोना-कोना आज उदास है ।

कांकेर पैलेस को लगता है जैसे जॉली बाबा यहीं कहीं हैं 

शनिवार, 10 अप्रैल 2021

माओ की जन अदालत में कोबरा बटालियन के जवान की पेशी

         3 अप्रैल 2021 को तर्रेम के जंगलों में हुये गुरिल्ला युद्ध में युद्धबंदी बनाये गये सी.आर.पी.एफ़. की कोबरा बटालियन की 210वीं वाहिनी के जवान राकेश्वर सिंह मनहास को अंततः 8 अप्रैल को माओ की जनअदालत में पेश किया गया जहाँ उन पर आरोप लगाये गये और फिर निर्णय का अधिकार लगभग बीस गाँवों के हजारों लोगों के जनसमूह पर छोड़ दिया गया । उपस्थित जनसमूह में माओ समर्थकों ने सैन्यबलों पर अत्याचारों का आरोप लगाते हुये सैनिक को सजा देने का आग्रह किया जबकि अन्य कई ग्रामीणों ने रिहा कर दिये जाने का फ़ैसला सुनाया । इट सीम्स टु मी ऐज़ इफ़ स्क्रिप्टेड एण्ड वेल ड्रामेटाइज़ ।

जनताना सरकार की कार्यप्रणाली और जन-अदालत के तौर तरीकों का संदेश प्रसारित किये जाने की दृष्टि से माओवादियों का यह एक प्रदर्शन मात्र था । इससे पहले कोबरा जवान को रस्सी से बाँधकर तीन दिन तक तर्रेम के आसपास के पंद्रह गाँवों में घुमाया गया जिससे माओवादियों के दो उद्देश्य पूरे हुये, पहला यह कि गाँवों में उनकी दहशत की बादशाहत में थोड़ा और इज़ाफ़ा हुआ और दूसरा यह कि उन्होंने सरकार सहित पूरी दुनिया को यह संदेश देने में सफलता प्राप्त कर ली कि दण्डकारण्य में माओ की जनताना सरकार की हुक़ूमत चलती है छत्तीसगढ़ सरकार की नहीं । भारत की स्वतंत्रता के बाद भी कश्मीर से लेकर दण्डकारण्य तक भारतीय सैन्यबलों को कई बार इस तरह की स्थितियों का सामना करना पड़ा है । यह हमारी सम्प्रभुता के दावों की सच्चायी उजागर करने का एक उदाहरण मात्र है ।

1947 में भारतीय उपनिवेश का सत्ता हस्तांतरण हुआ था जिसको लेकर भारत में रहने वाले कई गुटों में तभी से सत्ता की छीना-झपटी चल रही है । अलगाववाद की तमाम पगडण्डियाँ बन चुकी हैं । भारत को खण्डित कर अपने-अपने कुनबे स्थापित कर हुक़ूमत के सपने देखने वालों की कमी नहीं है । पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी सार्वजनिक मंचों से कई बार ख़ून की नदियाँ बहाने और चुनाव के बाद अपने राजनैतिक शत्रुओं को सजा देने की बात कह चुकी हैं । भारत में सत्ता को लेकर ख़ून की नदियाँ बहाने का इरादा रखने वाले लोग लोकतंत्र को मात्र एक हथियार की तरह स्तेमाल करने लगे हैं ।

भारत के सामने अपनी सम्प्रभुता की रक्षा करने की चुनौती है, एक ओर सत्तालोलुप राजनैतिक दल हैं तो दूसरी ओर है माओवादी सरकार जिसके दहशत के साम्राज्य को टक्कर देने का साहस फ़िलहाल कहीं दिखायी नहीं देता ।

अपने लैपटॉप पर यह सब लिखते-लिखते अचानक मेरी दृष्टि सामने एक जगह अटक जाती है जहाँ मैं ईंटों से लदे गधों के एक समूह को एक दूसरे के पीछे जाते हुये देख रहा होता हूँ । मेरी इच्छा होती है कि मैं इस दृश्य को अपने कैमरे के हवाले कर दूँ और कैप्शन में लिख दूँ –“परम्परा ढोते-ढोते हम कितने सहनशील और फिर प्रतिक्रियाविहीन हो जाया करते हैं”।

 –फ़िल्म सिटी नोयडा से अचिंत्य

शुक्रवार, 9 अप्रैल 2021

माओगुरिल्लाओं की दिनचर्या की कुछ झलकियाँ, अचिंत्य की कलम से...

देश-काल-परिस्थितियों के अनुसार शासनतंत्र स्थापित और तिरोहित होते रहते हैं । हो सकता है चीन के समाज और चीनियों की आवश्यकताओं के लिये माओ ज़ेदॉन्ग (माओ-त्से-तुंग) की नीतियाँ उपयुक्त रही हों किंतु कोई भी एक राजनैतिक व्यवस्था सार्वदेशज और सार्वकालिक नहीं हो सकती । चीन ने अपनी आवश्यकता के लिये भारत से बौद्ध धर्म आयात किया तो भारत के कुछ लोगों ने अपनी आवश्यकता के लिये चीन से उनका माओवाद आयात कर लिया । माओवाद यानी हिंसा से सत्ता की प्राप्ति ।

विश्व भर के रक्तरंजित इतिहास से तो हमने यही जाना है कि सत्ता का रास्ता बंदूक की नली से होकर गुजरता है ...किंतु हमेशा नहीं । सत्ता का रास्ता छल से भी होकर गुजरता है और शिवत्व की राह से होकर भी । फिर भी कोई भी सत्ता आज तक कभी स्थायी नहीं हो सकी । ओट्टोमन साम्राज्य की तरह ब्रिटिश साम्राज्य और मुगल सल्तनत को भी अंततः एक दिन अस्त होना ही पड़ा ।    

यहाँ प्रस्तुत हैं जनवादीक्रांति की राह पर बस्तर के जंगल में माओगुरिल्लाओं के एक दिन की कुछ झलकियाँ –   

भारतीय सुरक्षा बलों को गोलियों और विस्फोटकों से उड़ाने के लिये साथियों को अंतिम निर्देश देते गुरिल्ला अधिकारी 

माओ का सांस्कृतिक विभाग, रात में मोटर सायकल की हेड लाइट की रोशनी में जनवादी गीतों और नाटकों के माध्यम से ब्रेन वाश के रिहर्सल की तैयारी 


भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी (माओवादी) की जनताना सरकार के गुरिल्ला अधिकारी

 बुलंद हौसलों के साथ माओवादियों का प्रचारतंत्र, कामरेड गुरिल्लाओं के पीछे ट्राईपोड्स पर रखे हैं उनकी गतिविधियों की शूटिंग के लिये जंगल में अत्याधुनिक कैमरे


रक्तक्रांति के लिये जंगल में गुरिल्लाओं की ट्रेनिंग

जंग का ऐलान, माओ कैम्प में हथियारों के ज़खीरे का निरीक्षण और प्रदर्शन

जंगल है सर्वाधिक सुरक्षित ठिकाना, घर भी वही, युद्धक्षेत्र भी वही और जनताना सरकार का कार्यालय भी
 वही 


गुरिल्ला टुकड़ी ने भोजन तैयार कर लिया है, भारत सरकार को अपनी निर्भयता और बुलंद हौसलों का संदेश देने के लिये भोजन से ठीक पहले एक फ़ोटो सेशन भी ज़रूरी है 

रक्तक्रांति की राह पर, जंगल में अगले पड़ाव की योजना बनाते माओगुरिल्ला 

जंगल-जंगल रक्तक्रांति के लिये लाव-लश्कर के साथ भोजन के बाद अगले पड़ाव की ओर, साथ में है दवाइयों की पेटी लिये एक महिला गुरिल्ला

स्थानीय निवासियों के ब्रेन वाश की तैयारी में ढपली और जनवादी गीतों के साथ माओगुरिल्ला मण्डली