बुधवार, 25 जनवरी 2023

हत्यारों के लक्ष्य पर पं. धीरेंद्रकृष्ण शास्त्री भी

         मैं आज तक नहीं समझ सका नूपुर शर्मा का अपराध, मैं आज तक नहीं समझ सका नूपुर शर्मा के पक्ष में खड़े होने वाले उन कई लोगों के अपराध जिनकी क्रूरतापूर्वक हत्या कर दी गयी, मैं आज तक नहीं समझ सका पालघर वाले वयोवृद्ध संत का कोई अपराध जिन्हें महाराष्ट्र पुलिस की उपस्थिति में पीट-पीट कर मार डाला गया। मैं नहीं समझ पा रहा हूँ पंडित धीरेंद्रकृष्ण शास्त्री का कोई अपराध जिनकी हत्या कर देने की पूर्वसूचना दी है किसी अमर सिंह (?) ने।

मैं आज तक नहीं समझ सका कि टीवी डिबेट्स में दहाड़-दहाड़ कर हिन्दुओं की हत्या करने, उन्हें गाँव छोड़कर चले जाने, सड़कों पर ख़ून बहा देने, राष्ट्रीय सम्पत्ति पर अवैध अतिक्रमण करने, लाल किले पर खालिस्तानी ध्वज लहराने, दिल्ली की सड़कों को महीनों तक आवागमन हेतु बाधित किए रहने, भारत को इस्लामिक देश बनाने, अयोध्या के निर्माणाधीन श्रीराम मंदिर को ढहाकर वहाँ पुनः बाबरी मस्ज़िद बनाने जैसी घोषणायें बारम्बार करने वाले निरंकुश, असामाजिक और राष्ट्रविरोधी लोगों के कृत्यों को राष्ट्रविरोधी अपराध क्यों नहीं माना जाता?

मैं यह भी नहीं समझ पा रहा हूँ कि कुरीतियों के नाम पर सनातन समाज को परिमार्जित करने का बीड़ा आयातित सम्प्रदाय के ठेकेदारों ने क्यों उठा लिया है जिनका सनातन समाज से दूर-दूर तक कोई सम्बंध नहीं है,… और जो स्वयं अपने समाज या सम्प्रदाय की कुरीतियों एवं अवैज्ञानिक किस्सों को सनातनियों पर थोपना चाहते हैं?

मैं यह भी नहीं समझ पा रहा हूँ कि एम.ए. उपाधिधारी श्याम मानव को, जिनकी शिक्षा में विज्ञान के विषय नहीं रहे हैं, विज्ञान की कितनी समझ है कि वे बात-बात में अधिकारपूर्वक विज्ञान और वैज्ञानिकता की बात ही नहीं करते बल्कि दूसरों को चुनौती भी देने लगते हैं? किसी बात की वैज्ञानिकता को परखने के लिए उनके पास उपलब्ध उपायों और मापदण्डों की वैज्ञानिकता क्या और कितनी है?

मैं यह भी नहीं समझ पा रहा हूँ कि अंधश्रद्धा निर्मूलन वाले श्याम मानव ने, चुनौती का सामना न कर पाने की स्थिति में पं. धीरेंद्र शास्त्री को लाखों रुपये का इनाम देने के लिए व्यवस्था कहाँ से की है?

मैं यह भी नहीं समझ पा रहा हूँ कि श्याम मानव ने अंधश्रद्धा निर्मूलन के लिए केवल सनातन समाज को ही क्यों चुना है?

यदि आप चमत्कार करने और औषधि के बिना ही किसी रोगी को रोगमुक्त कर देने के आश्वासनों को अपराध मानते हैं तो ऐसा करने वालों में पुजारी, बैगा-गुनिया, पादरी और मौलवी ही सम्मिलित नहीं हैं बल्कि जनता को झूठे आश्वासन देने वाले नेता, झूठे विज्ञापनों से जनता को मूर्ख बनाने वाले अभिनेता, काउंसलिंग द्वारा मनोविकार दूर करने वाले मनोचिकित्सक और कुछ रोगों में प्लेसीबो देने वाले उच्चशिक्षित चिकित्सक भी सम्मिलित हैं। कोरोना वायरस की कोई औषधि न होने पर भी दुनिया भर के चिकित्सकों द्वारा अ-तार्किक, अ-वैज्ञानिक और अ-विशिष्ट औषधि दे कर चिकित्सा करने का आश्वासन देने वाले चिकित्सकों के कृत्यों को भी अवैज्ञानिक, क्रूर और जनता को मूर्ख बनाकर धन कमाने वाला क्यों नहीं माना जाना चाहिये?

सनातन समाज सदा से मानता रहा है कि पाखण्ड जैसे जानबूझकर किए जाने वाले अपराधों और ज्ञान के अभाव में अंधविश्वास जैसी धारणाओं को दूर किये जाने के प्रयास समय-समय पर किये जाते रहने चाहिये किंतु इस कार्य के लिए अ-सनातनी लोगों द्वारा जानबूझकर सनातन समाज का ही बारम्बार चयन किया जाना दुष्टतापूर्ण कृत्य ही कहा जायेगा। सनातन समाज तो वह समाज है जिसमें कालक्रम में आयी कुरीतियों को दूर करने के लिए समय-समय पर महापुरुष जन्म ले कर अभियानपूर्वक इस तरह के शोधन-परिमार्जन करते रहे हैं। यह वह समाज नहीं है जहाँ धार्मिक-अध्यात्मिक-दार्शनिक और सामाजिक आदि विषयों के मुक्तविमर्श प्रतिबंधित हों या “सर तन से जुदा” के नारे लगा कर किसी को भी बलपूर्वक चुप करा दिये जाने की क्रूर और आपराधिक परम्परा रही हो।

कितना सन्यास

         प्रसंग है जगत् गुरु शंकराचार्य स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद के वक्तव्यों और चुनौतियों के संदर्भ में सन्यास परम्पराओं का।

बार-बार ऐसे अवसर आते रहे हैं जब मैं यह सोचने के लिए विवश होता रहा हूँ कि मंत्रियों और आधुनिक काल के ऐश्वर्यभोगी संतों में क्या अंतर है! बड़े-बड़े संत आमजनता के लिए दुर्लभ हैं। जितना बड़ा बाबा जनता से उतनी ही अधिक दूरी, वर्तमान साधुओं का ऐसा आचरण क्या आपको आश्चर्यचकित नहीं करता! ।

सनातनियों के चार आश्रम हैं – ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास। मैंने अपने जीवन में साधुओं-बाबाओं को राजनेताओं से भी अधिक ऐश्वर्यभोगी और विशिष्ट पाया है, जो गृहस्थाश्रम के अतिरिक्त अन्य किसी भी आश्रम के लिए शास्त्रसम्मत नहीं है। हमारे देश में राजर्षियों की परम्परा तो रही है पर राजसन्यासियों की कभी कोई परम्परा नहीं रही। “साधू ऐसा चाहिये जाको सरल सुभाउ” किंतु इसके विपरीत आज तो ऐसे राजसन्यासियों की कमी नहीं है जिनके दर्शन मात्र के लिये सीधी और तत्काल पहँच की सुविधा केवल राजनेताओं और उद्योगपतियों को ही उपलब्ध हो पाती है। इन संतों ने आमजनता से इतनी दूरी क्यों बना ली है? यदि वे वीतरागी हैं तो राजनेताओं और उद्योगपतियों के प्रति भी वही भाव क्यों नहीं रखते जो आम जनता के लिए रखते हैं?  

बाबाओं की ऐश्वर्य और विलासितापूर्ण जीवनशैली आम जनता को प्रभावित करती है, कदाचित् यही वह कारण है कि आज के टीवी पत्रकार उनके साथ सम्मानपूर्वक व्यवहार नहीं करते। अपने सहज गुणों-दुर्गुणों के साथ गृहस्थाश्रम में जीने वाले एंकर सन्यासी माने जाने वाले साधुओं को उनके आचरण और सत्य की परीक्षा देने के लिए चुनौतियाँ देने लगे हैं। भारतीय परम्परा के अनुसार ऐसी प्रवृत्तियाँ मानसिक क्लेशकारक और सामाजिक पतन की द्योतक हैं।

मैं दुःखी मन से सोचता हूँ – क्या सन्यासियों के प्रति पत्रकारों का ऐसा आचरण स्वीकार्य है? यह भी विचार करता हूँ कि क्या सन्यासियों को पक्षपातपूर्ण राजनीतिक टिप्पणियाँ करनी चाहिए?

वास्तव में सन्यास तो जड़ भरत वाली स्थिति होती है। उनका जीवन राग-विराग, हर्ष-विषाद, अच्छे-बुरे, लोभ-मोह, क्रोध ...आदि सभी मानसिक वृत्तियों से परे होता है। फिर क्यों करते हैं शंकराचार्य राजनीतिक टिप्पणियाँ? प्रश्न यह भी उठता है कि सामाजिक-राजनीतिक पतन की स्थिति में, फिर कौन है ऐसा जो न्यायपूर्वक टिप्पणियाँ कर सके, समाज को दिग्दर्शन के लिए प्रेरित कर सके?

भारतीय परम्परा में यह दायित्व ऋषियों-महर्षियों का होता है, सन्यासियों का नहीं। जगत्गुरु शंकराचार्य के पद पर आसीन रहे स्वामी स्वरूपानंद जी पत्रकार को थप्पड़ मार देने और अपने कांग्रेसप्रेम के कारण चर्चा के विषय बनते रहे, उन्हीं के उत्तराधिकारी हैं जगत्गुरु शंकराचार्य अविमुक्तेश्वरानंद जो खुल कर राजनीतिक दलों के समर्थन या विरोध में वक्तव्य देते रहे हैं। पंडित धीरेंद्रकृष्ण शास्त्री के इस प्रकरण से पूर्व स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद का तो मैंने नाम भी नहीं सुना था। कदाचित ही कोई प्रबुद्ध नागरिक जानता हो कि आज के इन शंकाराचार्यों का अध्यात्म, दर्शन, राजनीति या समाज के लिए क्या योगदान रहा है? समाज और राष्ट्र खण्डित हो रहा है, लवजिहाद की घटनायें हो रही हैं, सर तन से जुदा के नारे लगाये जा रहे हैं, सुप्रीम कोर्ट अपनी विश्वसनीयता खोता जा रहा है, अपराधी और अत्याचारी लोग मंत्री बन रहे हैं, छात्र राष्ट्रविरोध को अपना अधिकार मानने लगे हैं, विश्वविद्यालयों के छात्र जिस थाली में खाते हैं उसी को बम से उड़ाने की योजनायें बनाने लगे हैंदेश रसातल की ओर जा रहा है। यदि ये शंकराचार्य वीतरागी हैं तो हमें इनसे कोई परिवाद नहीं किंतु यदि इनमें राजनीतिक टिप्पणियाँ करने और उचित-अनुचित का विवेक है तो अभी तक राष्ट्र और समाज के प्रति इनकी क्या भूमिका रही है? भारत को जगत्गुरु रामभद्राचार्य, पंडित धीरेंद्रकृष्ण शास्त्री, डॉक्टर सुधांशु त्रिवेदी, अश्विनी उपाध्याय, पुष्पेंद्र कुलश्रेष्ठ, विष्णुशंकर जैन और अम्बर जैदी श्रंखला के ऋषियों-महर्षियों की आवश्यकता है जो सत्य, राष्ट्रधर्म और मानवधर्म के पक्ष में स्वस्फूर्त चेतना से प्रेरित खड़े दिखायी देते हैं।

एक बार वज्जीसंघ के शत्रुराजा ने गौतम बुद्ध से पूछा – कृपया वे उपाय बतायें जिनसे वज्जीसंध को पराभूत किया जा सके? बुद्ध ने बड़ी चतुराई से रहस्य बताया – जब तक वज्जीसंघ के अट्टकुलों में एकता बनी रहेगी, मंत्रणाओं में सभी लोग उपस्थित होते रहेंगे, मंत्रीगणों और राजाओं के बीच अच्छा तालमेल रहेगा, प्रजा चरित्रवान बनी रहेगी, विद्वानों को सम्मान मिलता रहेगा ...तब तक वज्जीसंघ अपराजित बना रहेगा। राजा ने बुद्ध के उपदेश को ठीक उलट कर रणनीति बनायी और वज्जीसंघ को सदा के लिए समाप्त कर दिया। भारत में आज भी यही हो रहा है।  

रविवार, 22 जनवरी 2023

चमत्कार/पाखण्ड और जीवनपद्धति

         हर व्यक्ति वैज्ञानिक नहीं होता, उनकी सोच भी वैज्ञानिक नहीं होती, इसलिए हम कितने भी आधुनिक क्यों न हो जाएँ, आधिकांश आम लोगों में अंधविश्वास, चमत्कार और पाखण्ड के प्रति आकर्षण बना ही रहेगा। अंधविश्वास, चमत्कार और पाखण्ड का धर्म से कोई सम्बंध नहीं, तथापि यह बहुत से लोगों की जीवनशैली हो सकती है। मनुष्येतर प्राणियों में यह सब नहीं होता, उन्हें इस सबकी आवश्यकता भी नहीं हुआ करती, तो क्या इसकी आवश्यकता केवल मनुष्यों को ही हुआ करती है?

बाबाओं के चमत्कारी दरबारों, मौलवियों की दरगाहों और पादरियों की चंगाई सभाओं में लोग अपनी पीड़ा लेकर जाते हैं, हर स्थान पर लगभग एक जैसे ही दृश्य हुआ करते हैं, रोते-चीखते, उछलते-कूदते, नाचते-झूमते और विक्षिप्तों जैसा असामान्य व्यवहार करते हुये पीड़ित लोग, …जिन्हें अपनी भौतिक समस्याओं के समाधान के लिए किसी चमत्कार की आशा होती है, उनकी आशायें कितनी फलवती होती हैं इसका कोई सर्वेक्षण हमारे पास नहीं है। क्या सनातन धर्म, इस्लाम और ईसाइयत को बनाये रखने के लिए इन सबका होते रहना आवश्यक है?   

पी.सी. सरकार का जादू देखने के लिए लोगों की भीड़ उमड़ा करती थी, लोग पैसे देकर जादू देखते थे, इससे दर्शकों को कुछ समय के लिए सुख की अनुभूति होती थी। कौन नहीं जानता कि जादूगर की जीविका का सबसे बड़ा आधार उसका झूठ ही हुआ करता है! किसी सरकार ने इसे कभी प्रतिबंधित नहीं किया, किसी ने इसके विरुद्ध कोई आंदोलन नहीं किया।

फ़िल्म के अभिनेताओं-अभिनेत्रियों-खलनायकों और खलनायिकाओं का जीवन क्या वास्तव में वैसा ही होता है जैसा कि फ़िल्मों में वे प्रदर्शित करते हैं! राजनीतिक नेताओं के अश्वासनों और पाखण्डी जीवनचरित्र से हम सब अनभिज्ञ हैं क्या! एक ही नेता विभिन्न अवसरों पर अपनी पहचान को कभी मुसलमान जैसा, कभी ईसाई जैसा तो कभी सनातनी हिन्दू जैसा प्रदर्शित करता है। हम किसके ...और कौन से आचरण को पाखण्ड कहेंगे और किसे पाखण्ड से मुक्त रखेंगे?

सर्जरी से पहले हर रोगी को एक वचनपत्र हस्ताक्षरित करके चिकित्सक को देना होता है, …कि यदि ऑपरेशन सफल न हुआ तो असफलता का कोई दायित्व चिकित्सक पर नहीं होगा, …और यदि कोई कॉम्प्लीकेशन होते हैं तो उसके लिए भी चिकित्सक उत्तरदायी नहीं होगा। चिकित्सक नहीं तो फिर कौन होगा उत्तरदायी, क्या स्वयं रोगी या फिर ईश्वर? रोगी या ईश्वर की इसमें क्या भूमिका हो सकती है? चिकित्सक के पास तो विज्ञान का सत्य होता है फिर भी वह अपनी क्रिया की सफलता के प्रति सुनिश्चित क्यों नहीं होता? वह कौन सा घटक है जो शल्य कर्म की सफलता के प्रति चिकित्सक को सुनिश्चित नहीं कर पाता? कुछ है जो हमारी पकड़ से छूट गया है, कुछ है जो अभी भी रहस्य बना हुआ है। यह थोड़ा सा बचा हुआ रहस्य ही हमें एक अद्भुत संसार में ले कर जाता है जहाँ चमत्कार है और अविश्वसनीय सी जीवनशैलियाँ हैं। दुनिया भर की जनजातियों से लेकर उच्चशिक्षित लोगों में भी इस रहस्यमय संसार के प्रति एक स्थान शेष रहता है। अंगूर की शराब की नदी और बहत्तर हूरों के अद्भुत आकर्षण से तो उच्च शिक्षित इंजीनियर्स, डॉक्टर्स, प्रोफ़ेसर्स और विद्वान भी कहाँ मुक्त हो सके हैं! सत्य कहाँ है? रहस्य कहाँ है? पाखण्ड कहाँ है?              

प्रमाण

विषय है श्रद्धा-अंधश्रद्धा, विश्वास-अंधविश्वास और आस्था-अनास्था का। संदर्भ है बागेश्वर धाम वाले धीरेंद्र शास्त्री, मदर टेरेसा, पी.सी. सरकार, श्रीराम मंदिर, निजामुद्दीन औलिया की दरगाह और जामा मस्ज़िदों का। 

दृष्टिकोण

वे मानते हैं कि ईश्वर, धर्म, अध्यात्म, मूर्तिपूजा, मंत्र, भूत, प्रेत, जादू-टोना, ज्योतिष, जन्मकुण्डली, हस्तरेखाशास्त्र, चमत्कार, पाखण्ड और आयुर्वेद आदि विषयों का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं होता इसलिये समाज में इनका व्यवहार प्रतिबंधित हो जाना चाहिये। ।

           वे मानते हैं कि दुनिया में दो विषय हैं – विज्ञान और अविज्ञान।

कुछ लोग हमें बताते रहे हैं कि जिसे भौतिक प्रयोगों एवं प्रमाणों के आधार पर सिद्ध किया जा सके वही विज्ञानसम्मत है, शेष सब अविज्ञानसम्मत है। अर्थात आदिकाल में, जब मनुष्य को वैज्ञानिक तथ्यों की जानकारी नहीं थी, प्रयोगशालायें नहीं थीं, चिकित्सक नहीं थे, भौतिकशास्त्री नहीं थे... तब कुछ भी विज्ञानसम्मत नहीं था। नदियों का बहना, सूर्य से प्रकाश और ऊर्जा का धरती तक पहुँचना, बीज का उगना, पुष्प की सुगंध का हवा से होते हुये हमारी नासिका तक आना... कुछ भी विज्ञानसम्मत नहीं था। ...तो क्या इनका अस्तित्व नहीं था, या ये सब क्रियायें विज्ञानसम्मत नहीं थीं! ब्रह्माण्ड और एलोपैथिक चिकित्सा के कई रहस्य अभी तक अनसुलझे हैं, इन विषयों के प्रतिपादित सिद्धान्तों में “probable…” “it is thought…” और “expected to be…” जैसे शब्दों का व्यवहार भूरिशः किया जाता है। ये शब्द किसी सत्य निष्कर्ष की ओर नहीं ले जाते बल्कि संभावनाओं को व्यक्त करते हैं। ...तो क्या आज का विज्ञान सम्भावनाओं के स्तम्भों पर ठहरा हुआ है!

अभी कोरोना विषाणु और उसके जेनेटिक वैरिएण्ट्स ने चिकित्सा के मूर्धन्य विद्वानों को खूब नचाया। विश्वस्वास्थ्य संगठन के विद्वानों ने कोरोना वायरस सिण्ड्रोम को कोरोना वायरस डिसीस माना और विद्वान चिकित्सकों ने स्पेसिफ़िक ट्रीटमेंट न होते हुये भी कोरोना संक्रमितों की चिकित्सा की, किन उपायों से चिकित्सा की? जब कोरोना वायरस की कोई औषधि ही नहीं है तो चिकित्सा में जिन औषधियों का व्यवहार किया जाता रहा उनका वैज्ञानिक आधार क्या था? क्या वे उपाय विज्ञानसम्मत थे? क्या आज दिनांक तक कोरोना वायरस, उसके वैक्सीन, उसकी चिकित्सा आदि विषयों पर बारम्बार सिद्धांतों में परिवर्तन नहीं किये जाते रहे हैं? सत्य सार्वकालिक होता है, क्षण-क्षण परिवर्तनकारी नहीं होता... तो क्या चिकित्साविज्ञान सत्य से अभी बहुत दूर है? फिर तो जो सत्य के समीप नहीं है उसका व्यवहार ही क्यों होना चाहिये, उसके व्यवहार को विज्ञानसम्मत कैसे माना जा सकता है?

धीरेंद्र शास्त्री, संत शक्तियों से सम्पन्न मदर टेरेसा, न जाने कितने पादरी-मौलवी, मनोरोगचिकित्सकों द्वारा की जाने वाली काउंसलिंग एवं प्लेसीबो चिकित्सा, ताबीज, कलावा, रक्षासूत्र, कोरोना संक्रमितों की अनुमान और लक्षणों के आधार पर की जाने वाली चिकित्सा, और क्लीनिकल ट्रायल्स में दिये जाने वाले प्लेसीबो के बीच एक बहुत पतली सीमा रेखा है जिसे पहचानना बहुत आवश्यक है... सभी के लिए नहीं, केवल उन लोगों के लिए जो शास्त्रार्थरसिक हैं।

हमें सेंटाक्लॉज़ के उपहारों से बँधी उन कहानियों पर भी विचार करना होगा जो बालमन पर दीर्घकाल तक छायी रहती हैं। हमें “आशा”, “धैर्य” और वाच एण्ड वेट” जैसे शब्दों की वैज्ञानिकता और उनके व्यवहार पर भी चिंतन करना होगा।

        हम मानते हैं कि अंध-विश्वास, पाखण्ड और अंधश्रद्धा जैसे विषय हमें सत्य की ओर नहीं ले जाते, सत्य से दूर ले जाते हैं किंतु माँ की लोरी और दादी की कहानियों का क्या किया जाय जो बच्चों को बहुत प्रिय हैं!

रविवार, 1 जनवरी 2023

कोरोना का नया डीएनए भाई बी.एफ़.७

         पिछले तीन वर्षों में कोरोना ने अपनी प्रभूत वंशवृद्धि करने में सफलता प्राप्त कर ली है। न जाने कितनी औषधियों और वैक्सीन्स का सफलतापूर्वक सामना करते हुये नये-नये नामों के साथ आने वाले वैरिएण्ट्स ने पूरे विश्व को भयभीत बनाये रखा। चिकित्सा छात्रों के लिए उन सबके नाम याद रख पाना भी भारी होने लगा। प्रकृति के वैज्ञानिक मोतीहारी वाले मिसिर जी ने तब भी कहा था – “कऽतना नामकरन कऽरब हो, अतना वैरिएण्ट्स होइहन स के नमव ऐ कऽम परि जाई, कोरोनवा के बंस ना रुकी”।

इन तीन वर्षों में कोरोना ने चिकित्साजगत और वैज्ञानिकों को धता बताने में कोई कमी नहीं छोड़ी। चिकित्सा विज्ञान की वैज्ञानिकता, सत्यता और निष्ठा संदिग्ध होती चली गयी। न जाने कितनी बार औषधियों और जीवनशैली में परिवर्तन किए गये किंतु हर बार कोरोना वैज्ञानिकों को चकमा देने में सफल होता रहा। कभी लॉकडाउन हुआ तो कभी इसे अनावश्यक समझा गया, कभी फ़ेसमास्क लगने की बात कही गयी तो कभी उसके अनुपयोगी होने की बात कही गयी। कभी वैक्सीनेशन पर बल दिया गया तो कभी हर्ड इम्यूनिटी को अधिक महत्वपूर्ण माना गया। चिकित्सा जगत आज भी इन्हीं भ्रमों को बनाये रखते हुये कोरोना का सामना करने का पाखण्ड कर रहा है।

जिस समय में भारत सहित दुनिया भर में कोरोना ने हाहाकार मचा रखा था उसी समय हमारे पड़ोसी देश ने अपनी निर्धनता और तकनीकी असहायता के कारण सब कुछ अल्लाह पर छोड़ दिया। मौलानाओं नें भाषण दिए कि अल्लाह ने कोरोना को काफिरों के लिए भेजा है, मुसलमानों को इससे घबराने की कोई आवश्यकता नहीं। पाकिस्तान में लॉकडाउन का इतना कड़ा प्रतिबंध नहीं, औषधियाँ नहीं, फ़ेसमास्क नहीं, प्रोटेक्टिव किट नहीं, वैक्सीन नहीं, रोटी नहीं, कुछ नहीं...। कुछ मौतें हुयीं वहाँ भी, तो कहा गया कि उनका अल्लाह में ईमान नहीं था। अन्य देशों की तुलना में पाकिस्तान ने कोरोना का सामना न करते हुये भी विजय प्राप्त कर ली। मौलानाओं का विश्वास अल्लाह पर और अधिक बढ़ गया। पाकिस्तान के मित्र चीन ने इसका श्रेय हर्ड इम्यूनिटी को दिया और अपने आर्थिक वर्चस्व को बनाये रखने के लिए कई बार लॉकडाउन को समाप्त किया।

इस बीच आयुष काढ़े की अच्छी धूम रही। राज्याश्रय के अभाव में भी आयुर्वेदिक एण्टीऑक्सीडेण्ट्स ने मौन रहते हुये ही अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हुये कोरोना का सफलतापूर्वक सामना किया। ...और अब कुछ आधुनिक शीर्ष वैज्ञानिक भी आयुर्वेदिक एण्टीऑक्सीडेण्ट्स को कोरोना की रोकथाम के लिए अधिक महत्वपूर्ण स्वीकार ही नहीं करने लगे, बल्कि उपयोग हेतु उनकी खुलकर अनुशंसा भी करने लगे हैं।   

 

विषाणु के नये वैरिएण्ट्स

 

कुछ ही समय पूर्व कोरोना के बी.ए.२.१०.१ और बी.ए.२.७५. के सम्मिश्रण से बने एक्स.बी.बी वैरिएण्ट को अधिक घातक माना जा रहा था। अब यह स्थान बी.एफ़.७ ने ले लिया है। हर नया वैरिएण्ट पूर्वापेक्षा अधिक सशक्त होकर सामने आ रहा है। वैज्ञानिकों के लिए यह चिंता का विषय होना चाहिये किंतु इस तथ्य की निरंतर उपेक्षा की जा रही है।

वैरिएण्ट्स को लेकर मैं पहले भी कुछ लेख लिख चुका हूँ, पुनः विनम्र निवेदन कर रहा हूँ कि शिक्षित लोग, विशेषकर जेनेटिक्स, वायरोलॉजी और मेडिकल के छात्र एवं विशेषज्ञ वैरिएण्ट्स के निर्माण के कारणों पर ध्यान देने की कृपा करें। क्या यह सत्य नहीं है कि हमने इन तीन वर्षों में कोरोना के नये-नये वैरिएण्ट्स को जन्म देने के लिए इस विषाणु को भरपूर सुविधायें उपलब्ध करवायी हैं!

हम मानते हैं कि प्रकृति के कुछ घटक वैरिएण्ट्स का स्वाभाविक निर्माण करने में सहायक होते हैं किंतु यह एक दीर्घकालिक प्रक्रिया है। तीन वर्षों के अल्प काल में कोरोना के इतने सारे वैरिएण्ट्स का अस्तित्व में आना प्राकृतिक घटना नहीं माना जा सकता, निश्चित ही यह ह्यूमन इंड्यूस्ड घटना है। प्रकृति और सत्य के लिए समर्पित निष्ठावान वायरोलॉजिस्ट्स और चिकित्सा विज्ञान के वैज्ञानिकों को इस दिशा में गम्भीरतापूर्वक चिंतन करना चाहिए।  

सांस्कृतिक क्षरण

        ईसाई नव वर्ष 2022 की अंतिम अर्धरात्रि, पूरा आर्यावर्त हर्षोल्लास में डूब गया... मुझे छोड़कर। दीपावली पर पटाख़ों से होने वाले वायुप्रदूषण से पर्यावरण को होने वाली अपूरणीय क्षति पर भाषण देने और कार्यशालायें आयोजित करने वाले महाविद्वान भी ईसाई नववर्ष पर पटाखों का आनंद लेते रहे। पर्यावरण की चिंताओं से मुक्त, कहीं कोई निषेध नहीं, कोई भाषण नहीं, कोई अनुरोध नहीं...  । पर्यावरण का यह धर्मनिरपेक्ष स्वरूप चिंतनीय होना चाहिये ...जो नहीं है, वैश्विक स्तर पर कहीं भी नहीं है।

ईसाई नववर्ष अर्धरात्रि के बाद से ही प्रारम्भ हुआ माना जाता है... भोर होने के पहले से ही बधाइयों और शुभकामनाओं की वर्षा प्रारम्भ हो गयी है। सनातन नववर्ष चैत्र प्रतिपदा को सूर्य की प्रथम किरणों के साथ प्रारम्भ हुआ माना जाता है, अर्धरात्रि के बाद से नहीं। मैंने कुछ लोगों को रामधारी सिंह दिनकर जी की कविता भेज दी है।

मैं इसे सांस्कृतिक क्षरण मानता हूँ जो अपनी गौरवशाली और वैज्ञानिक परम्पराओं पर विदेशी अवैज्ञानिक और आयातित परम्पराओं के वर्चस्व का कारण बन गया है।

सांस्कृतिक क्षरण एक ऐसा कैंसर है जो समाज और राष्ट्र की स्वस्थ इकाइयों की हत्या के मूल्य पर पल्लवित और फलित होता है जिसका अंतिम परिणाम होता है सभ्यांतरण और राष्ट्रांतरण। हमने देखा है ईसाई नववर्ष के सामने सनातन नववर्ष का उल्लास बहुत फीका पड़ता जा रहा है मानो वेंटीलेटर पर अंतिम साँसे ले रहा कोई रोगी। भारत को जीवित रखने के लिए हमें इस रोगी की प्राणरक्षा करनी ही होगी।

ईसा मसीह से एक जनवरी का कोई सम्बंध नहीं, ईसाई देशों में भी नया वित्त वर्ष एक अप्रैल से ही प्रारम्भ माना जाता है। तथापि एक जनवरी से नव वर्ष मनाया जाना एक अंधानुकरण और वैश्विक हठ के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। आइये! हम संकल्प लें कि आने वाले चैत्र प्रतिपदा को हम सब मिलकर पूरे हर्षोल्लास और विविध सांस्कृतिक कार्यक्रमों के साथ नववर्ष मनाएँगे।