शनिवार, 27 अप्रैल 2024

क्या मोदी चुनाव जीतने के बाद निजी सम्पत्ति छीन लेंगे

 

निजी और सामुदायिक सम्पत्ति

 

क्या सामुदायिक हितों के लिए व्यक्तिगत सम्पत्ति से आर्थिक संसाधन जुटाया जाना न्यायसंगत होगा?

कांग्रेस के सैम पित्रोदा सामुदायिक हितों के लिये विरासत में प्राप्त सम्पत्ति पर चालीस प्रतिशत तक टैक्स लिये जाने के पक्ष में हैं ।

निजी और सामुदायिक सम्पत्ति को लेकर सैम पित्रोदा के वक्तव्य और सर्वोच्च न्यायालय में चल रहे सत्ताइस साल पुराने एक प्रकरण में चल रही सुनवायी के साथ ही देश में एक सैद्धांतिक विमर्श प्रारम्भ हो गया है जो वामपंथी और दक्षिणपंथी सिद्धांतों के एक महत्वपूर्ण विषय को पुनः रेखांकित करने वाला सिद्ध हो सकता है ।

उत्तर प्रदेश के बिलासपुर निवासी डॉक्टर वीरेंद्र कुमार शर्मा इस विमर्श को आगे बढ़ाते हुये प्रश्न करते हैं – क्या निजी सम्पत्तियों को सामुदायिक सम्पत्ति माना जा सकता है?”

विज्ञान के छात्र रहे एक अन्य मित्र जल से भाप और भाप से जल में होने वाले रूपांतरणों का स्मरण दिलाते हुये एक और प्रश्न करते हैं – “क्या सामुदायिक सम्पत्तियों को निजी सम्पत्ति माना जा सकता है? कम से कम रेलवे के इस सरकारी विज्ञापन – रेल आपकी सम्पत्ति है”, से तो यही ध्वनि निकलती है।“

सम्पत्ति के अधिकार को लेकर आदिकाल से दुनिया भर में साम्यवाद, समाजवाद, पूँजीवाद और जिसकी लाठी उसकी भैंस वाले लाठीवाद जैसे कई “वाद” व्यावहारिक रूप में प्रचलित रहे हैं जिनके कारण रक्तसंघर्ष और बड़ी-बड़ी क्रांतियाँ भी होती रही हैं । बोल्शेविक क्रांति के बाद सोवियत रूस की साम्यवादी सरकार ने निजी सम्पत्तियों को लगभग समाप्त ही कर दिया जिसका तात्कालिक परिणाम यह हुआ कि एक वर्ष के भीतर ही सोवियत रूस के उत्पादन में भयानक गिरावट आयी और आधुनिक उन्नत संसाधनों के बाद भी रूस आर्थिक दृष्टि से जर्जर होने लगा । दूसरा दूरगामी परिणाम 26 दिसम्बर 1991 में सोवियत रूस के विघटन के रूप में सामने आया और पंद्रह पूर्व गणतंत्रों को स्वतंत्र देश मान लिया गया । इसका एक अन्य वर्तमान परिणाम यूक्रेन-रूस युद्ध के रूप में पूरी दुनिया आज भी देख रही है ।

निजी और सामुदायिक सम्पत्तियों के अधिकार को लेकर हमें सामाजिक और राजनैतिक पृष्ठभूमियों के भी कई बिंदुओं को ध्यान में रखना होगा –

1-    पश्चिमी देशों सहित दुनिया भर में राजाओं के सैद्धांतिक और नैतिक मूल्यों में हुये निरंतर पतन से वर्गसंघर्ष और फिर क्रांतियाँ फलीभूत होती रही हैं।

2-    एक-दूसरे का शोषण करना एक मानवीय दुर्बलता रही है। शोषक और शोषित व्यक्तियों की स्थितियों और सोच में समयानुसार उलट-फेर होता रहा है जिसके परिणामस्वरूप शोषक और शोषित व्यक्ति कभी स्थायी नहीं होते। एक ही व्यक्ति अपने जीवन में कभी शोषक तो कभी शोषित भी हो सकता है।

3-    भारतीय संविधान, भारत में रहने वाले हर देशी-विदेशी व्यक्ति को निजी सम्पत्ति रखने का अधिकार देता है किंतु उसी स्वतंत्र भारत में राजतंत्रात्मक जमींदारी प्रथा को समाप्त करने के लिये ज़मींदारी उन्मूलन एक्ट भी बनाया गया।

4-    प्राकृतिक और निजी संसाधनों एवं उनपर स्वामित्व के अधिकार को लेकर दुनिया भर में व्याख्यायें की जाती रही हैं।

5-    स्वामित्व और उपभोग के अधिकारों को पृथक-पृथक समझा जाना चाहिये। उपभोग के अधिकार को स्वामित्व के अधिकार में नहीं बदला जाना चाहिये जबकि 12 वर्ष तक कब्जे वाली सम्पत्ति के स्वामित्व का न्यायिक अधिकार उपभोक्ता को दे दिया गया है।

6-    सामुदायिक और स्व-उपार्जित सम्पत्तियों के बीच की सूक्ष्म विभाजन रेखा को स्पष्ट करते समय शब्दजाल की कूटता से बचना होगा।

7-    कोई व्यक्ति स्व-उपार्जन के माध्यम से ही प्राकृतिक संसाधन को निजी संसाधन बना सकता है किंतु पैतृक सम्पत्ति के निजी अधिकार को समाप्त करना व्यवहारविरुद्ध एवं प्राकृतिक न्याय के विरुद्ध होगा।

8-    लोकहित के उद्देश्य से पर्सनल और कम्यूनल प्रॉपर्टी के बीच संतुलन बनाये रखना राजसत्ताओं का नैतिक दायित्व है किंतु सारे प्रकरणों में भू-अधिग्रहण कानून (लैंड एक्वेजीशन एक्ट) की मनमानी व्याख्या या क्रियान्वयन नहीं किया जा सकता।

9-    किसी आदर्श न्यायाधीश को राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक पूर्वाग्रह जैसी मानवीय दुर्बलताओं से पूरी तरह मुक्त होना चाहिये किंतु सामान्यतः ऐसा बहुत कम देखने को मिलता है जिसके कारण उनके निर्णयों में शुचिता का पालन नहीं हो पाता ।

 

केस संख्या 1012/2002 की पृष्ठभूमि को भी समझना आवश्यक है । सर्वोच्च न्यायालय में 27 साल पुराने जिस प्रकरण पर नौ जजों की पीठ विचार कर रही है उसका प्रारम्भ सन् 1986 में तब हुआ जब एक विवाद को समाप्त करने उद्देश्य से महाराष्ट्र सरकार ने “महाराष्ट्र हाउसिंग एरिया डेवलपमेंट अथॉरिटी” के नियमों में एक लोकहितकारी परिवर्तन किया जिसके अनुसार यदि किसी मकान आदि अचलसम्पत्ति के सत्तर प्रतिशत उपभोक्ता उस सम्पत्ति को अधिग्रहीत करने के लिये सरकार से अनुरोध करते हैं तो सरकार उस अचल सम्पत्ति को लोकहित में अधिग्रहीत कर सकती है जिससे कि उन वंचित उपभोक्ताओं की आवश्यकतायें पूरी हो सकें और उन्हें लाभ हो सके।

कल्पना कीजिये कोई भूमाफिया या अचलसम्पत्ति का स्वामी मुम्बई में एक चाल बनवाकर कुछ लोगों को रहने की सुविधा उपलब्ध करवाता है जिसके बदले में वह हर उपभोक्ता से एक निर्धारित धनराशि प्राप्त करता है। कुछ समय बाद सम्पत्ति का स्वामी उपभोक्ता से किराया तो लेता है पर जर्जर हो चुके चाल में न तो कोई सुधार करवाता है और न मूलभूत सुविधाओं को उपलब्ध करवाता है जिसके कारण उपभोक्ताओं को सामान्य जीवनयापन में कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। यह परिवाद जब शासन-प्रशासन के समक्ष लाया जाता है तो उसके सामाधान के विकल्पों पर विचार करना शासन-प्रशासन का दायित्व हो जाता है। अब चाल के स्वामी को सरकार द्वारा या तो सुधार के लिये बाध्य किया जाय या फिर सरकार उस सम्पत्ति का अधिग्रहण कर उसमें सुधार करवाये और उपभोक्ताओं की कठिनाइयों को दूर करे। जब सम्पत्ति-स्वामी ने चाल में सुधार करने से मना कर दिया तो सरकार ने प्रस्ताव रखा कि यदि कुल उपभोक्ताओं (किरायेदारों) के 70 प्रतिशत लोग उस चाल या भूमि को अधिग्रहीत करने का सरकार से अनुरोध करते हैं तो सरकार उस अचल सम्पत्ति का अधिग्रहण कर सकती है । तत्कालीन महाराष्ट्र सरकार द्वारा लोकहित में लिये गये इस निर्णय की सराहना की जानी चाहिये ।

निजी सम्पत्ति के स्वामियों ने प्रॉपर्टी ऑनर्स असोसिएशन बनाकर सरकार के इस नवनिर्मित नियम के विरुद्ध सन् 2001 में सर्वोच्च न्यायालय में सात जजों की पीठ के समक्ष वाद प्रस्तुत किया जिसमें महाराष्ट्र सरकार को प्रतिवादी बनाया गया। पीठ ने अगले वर्ष यानी सन् 2002 में यह वाद नौ जजों की पीठ के पास भेज दिया पर पीठ का गठन ही नहीं हो सका। बाइस साल बाद सन् 2024 में चीफ़ जस्टिस चंद्रचूड़ की पहल पर पीठ का गठन किया जाकर सुनवाई प्रारम्भ की जा चुकी है।

अब सर्वोच्च न्यायालय को संविधान के अनुच्छेद 39 (बी) और 31 (सी) के आलोक में यह विचार करना है कि –

1-    क्या कम्पनियों या निजी सम्पत्तियों को सामुदायिक संसाधन माना जा सकता है?

2-    ऐसे प्रकरणों में समुदाय की परिभाषा क्या होगी?

 

संविधान के अनुच्छेद 39 (बी) के अनुसार राज्य अपनी नीति से यह सुनिश्चित करेगा कि “समुदाय के भौतिक संसाधनों का स्वामित्व और नियंत्रण इस प्रकार वितरित किया जाय जो आम लोगों की भलाई के लिए सर्वोत्तम हो”।

संविधान का अनुच्छेद 14 समानता का और अनुच्छेद 19 स्वतंत्रता का अधिकार प्रदान करता है। इन मौलिक अधिकारों की रक्षा एवं अनुच्छेद 39 (बी) और अनुच्छेद 39 (सी) की स्पष्टता व क्रियान्वयन के लिये सन् 1971 में संविधान में संशोधन कर अनुच्छेद 31 (सी) को जोड़ा गया।

 

केंद्र सरकार की ओर से अटार्नी जनरल आर. वेंकरमण और सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता सरकार का पक्ष रख रहे हैं। कल दोनों पक्षों द्वारा अपने-अपने तर्क प्रस्तुत किये गये जिन्हें महाराष्ट्र के उपरोक्त वाद की पृष्ठभूमि के संदर्भ में समझने से स्थिति पूरी तरह स्पष्ट हो जाएगी –

सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी – यह कहना गलत होगा कि सरकार किसी निजी सम्पत्ति का अधिग्रहण नहीं कर सकती है, यदि ऐसा कहा गया तो यह अतिवाद होगा”।

अटॉर्नी जनरल – “मौलिक अधिकार और नीति निर्देशक तत्व को दो विपरीत ध्रुव नहीं माना जा सकता”।

न्यायालय – “क्या कोई कार, सेमीकंडक्टर या मोबाइल उत्पादक निगम समुदाय के भौतिक संसाधनों का गठन करेगा”?

अटॉर्नी जनरल – संविधान निर्माण करते समय “यूटोपियन या समाजवादी विचारधाराओं से उधार लिये गये सार्वजनिक भलाई के संसाधनों पर विचार करते समय प्रारम्भिक ध्यान कारखानों या भूमि जैसी मूर्त संपत्तियों तक ही सीमित रहा होगा, विशेषकर 18वीं और 19वीं शताब्दी में। संसाधन का सही अर्थ हमेशा राज्य के जनहितकारी उत्तरदायित्वों पर केंद्रित होगा“।

न्यायालय – “समुदाय की व्याख्या आप कैसे करते हैं, आप किसे समुदाय मानते हैं”?

अटॉर्नी जनरल – “समुदाय एक राष्ट्र हो सकता है या राष्ट्र का एक हिस्सा या एक भौगोलिक क्षेत्र जहाँ लोगों का जीवन जीने का एक व्यवस्थित तरीका है, एक समुदाय है”।

जस्टिस नागरत्ना – “संविधान की प्रस्तावना में न्याय (सामाजिक, राजनीतिक, और आर्थिक ) को सम्मिलित किया गया है। इसलिए संविधान द्वारा तय किये गये इस लक्ष्य को सुनिश्चित करने के लिए हमारे पास अनुच्छेद 39 है”।

न्यायालय – “क्या कम्पनी अथवा निजी संपत्तियों को सामुदायिक संसाधन माना जा सकता है”?

अटॉर्नी जनरल – “अनुच्छेद 39 (बी) सदा से सभी राजनीतिक और आर्थिक सिद्धांतों से स्वतंत्र रहा है । संसाधनों और ज़रूरतों के बारे में समाज की व्याख्या समय के साथ परिपक्व होती रहती है, ऐसे में अनुच्छेद 39 (बी) को आर्थिक दृष्टिकोण से देखना गलत होगा”।

जस्टिस बिंदल – “31 (सी) पहले ही निरस्त हो चुका है। क्या प्रावधान निरस्त होने के बाद संसद संशोधन करने, हटाने या जोड़ने आदि के लिए बाध्य है?”

एड. अंध्यारुजिना – “इसे लेकर चीफ़ ज़स्टिस ने भी एक बार कहा था कि निरस्त किए गए कानून किताबों में इटैलिक अक्षरों में लिखे होंगे जो यह संकेत देंगे कि इसे निरस्त कर दिया गया है। यह केवल जानने और पढ़ने के लिए रखा गया है”।

 

सर्वोच्च न्यायालय में सुनवाई अभी जारी है .....।

 

            वसीयत टैक्स के संदर्भ में सैम पित्रोदा के वक्तव्य और महाराष्ट्र के इस वाद पर सरकार के उद्देश्यों में अंतर को समझा जाना चाहिये। सैम पित्रोदा का वक्तव्य पैतृक सम्पत्ति पर वसीयत टैक्स लिये जाने के संदर्भ में है जबकि सॉलिसिटर जनरल के तर्क उस वाद के संदर्भ में हैं जो किरायेदार से किराया लेने के बदले में उपभोक्ता को सुविधायें न देने की स्वेच्छाचारिता के आर्थिक अपराध से जुड़ा हुआ है । व्यक्तिगत सम्पत्ति आगे भी व्यक्तिगत ही रहेगी जबतक कि लोकहित में उसकी आवश्यकता का कोई अन्य विकल्प उपलब्ध न हो।

“रेल आपकी सम्पत्ति है,…” – इसका अर्थ यह नहीं है कि सरकार ने राष्ट्रीय सम्पत्ति पर किसी व्यक्ति का अधिकार सुनिश्चित कर दिया है, भले ही हम सब उसका उपभोग क्यों न करते हों। वास्तव में यह अधूरी जानकारी है, रेलवे के इस विज्ञापन में सरकार व्यक्तियों को जो सूचना दे रही है वह सरकार के अनुरोध के संदर्भ में है। पूरा विज्ञापन इस प्रकार है – “रेल आपकी सम्पत्ति है, कृपया इसे क्षति न पहुँचायें, इसकी सुरक्षा में सहयोग करें”।

अधूरी बात का अर्थ कुछ भी हो सकता है किंतु इसी विज्ञापन को पूरा पढ़ा जाय तो अर्थ और उद्देश्य कुछ भिन्न ही स्पष्ट होते हैं, यथा – “रेल सार्वजनिक संपत्ति है किंतु उसकी रक्षा उसी प्रकार कीजिये जैसे कि वह आपकी अपनी निजी सम्पत्ति हो”।

निजी और सार्वजनिक सम्पत्तियों को लेकर सुस्थापित एक लोकहितकारी नियम पर चल रही सुनवाई का अर्थ यह कदापि नहीं है कि केंद्र सरकार के प्रधान मोदी जी वामपंथी हो गये हैं और चुनाव जीतने के बाद भाजपा सोवियत रूस की तरह देश में निजी सम्पत्तियों का अधिग्रहण कर लेगी। मोदी और भाजपा को वामपंथी कहना चुनावी दुष्प्रचार के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।   

 

शनिवार, 20 अप्रैल 2024

आयुर्वेदिक औषधियों की जाँच

 

जगदलपुर, छत्तीसगढ़ से प्रकाशित होने वाली “बस्तर पाती” पत्रिका के सम्पादक सनत जैन न्यायाधीशों से जानना चाहते हैं कि “आयुर्वेदिक औषधियों की गुणवत्ता की जाँच एलोपैथिक औषधियों की जाँच में प्रयुक्त होने वाली आधुनिक पद्धतियों से कैसे सम्भव है?” मूलतः इंजीनियर सनत जी व्यक्तिगत चर्चा में पूछते हैं –“धोती-कुर्ते के साथ गले में टाई लटकाने का क्या औचित्य है? भारतीय ज्ञान-विज्ञान के मूल्यांकन में किन मानदंडों का व्यवहार अधिक वैज्ञानिक, उपयोगी और व्यावहारिक होना चाहिये?

सनत जी के प्रश्न सैद्धांतिक हैं जिन पर विमर्श होना ही चाहिये। हमें ज्ञान और विज्ञान के अंतर को भी समझना होगा। ज्ञान अनंत है जबकि विज्ञान भौतिक होने के कारण सीमित है। विज्ञान विनाशकारी हो सकता है पर ज्ञान सदा रचनात्मक ही होता है।

आम जनता को भी यह समझना होगा कि एलोपैथिक और आयुर्वेदिक एवं यूनानी औषधियों की निर्माण विधि और उनके घटक द्रव्यों में मौलिक अंतर है जिसके कारण इनकी सम्यक जाँच आधुनिक पद्धतियों से पूरी तरह सम्भव नहीं है । एलोपैथिक औषधियों में जहाँ किसी एक या दो रसायनों के सम्मिश्रण या किसी जड़ी-बूटी के एक्टिव प्रिंसिपल्स से औषधियों का निर्माण होता है वहीं आयुर्वेदिक और यूनानी औषधियों में विभिन्न प्रकार की कई जड़ी-बूटियों या रसायनों या दोनों के सम्मिश्रण से औषधियों का निर्माण होता है जिसके कारण आधुनिक पद्धतियों के मानदंडों के अनुसार उनका मानकीकरण सम्भव नहीं हो पा रहा है। भारतीय दर्शन, सनातन विज्ञान और सनातन धार्मिक मूल्यों के मौलिक स्तम्भों पर विकसित एवं स्थापित आयुर्वेद में नैतिक मूल्यों के प्रति निष्ठावान रहते हुये औषधि निर्माण को प्राथमिकता दी जाती रही है। लोग पूर्ण विश्वास के साथ आयुर्वेदिक औषधियों का सेवन करते रहे हैं। आधुनिक काल में जहाँ हम सब पतन की ओर अग्रसर हैं, प्राचीन भारतीय मूल्यों के पालन में भी हुये पतन ने आयुर्वेदिक औषधियों की गुणवत्ता पर प्रश्नचिन्ह लगा दिये हैं । मूल्यों के पतन की स्थिति में किसी भी भौतिक संसाधन को अपनाकर सुधार की अपेक्षा नहीं की जा सकती।

आयुर्वेद में औषधिनिर्माण को “संस्कार” माना जाता रहा है। औषधि संस्कार का अपघटन हमारे नैतिक मूल्यों के पतन का परिणाम है। आधुनिक विद्वानों (?) ने आयुर्वेद के लिए भी एलोपैथिक मानदण्डों को अपनाते हुये इनकी अवसान तिथि (एक्स्पायरी डेट) निर्धारित कर दी है जो कि पूरी तरह अवैज्ञानिक और भ्रष्टाचार को बढ़ाने वाली ही सिद्ध होती जा रही है। एलोपैथिक औषधियों की भी अवसान तिथि के विषय पर वैज्ञानिकों में मतभेद हैं। औद्योगिक कारणों से दशकों पहले अमेरिका के डिफ़ेंस विभाग की एक शाखा में अवसान तिथि को लेकर हुये शोध के निष्कर्षों को प्रचारित नहीं किया गया जिसमें यह बात उजागर हुयी कि एक्स्पायर्ड औषधियों में अधिकांश औषधियाँ अनुपयोगी नहीं हुआ करतीं, कुछ ही औषधियाँ हैं जो एक्स्पायर्ड होने के बाद अनुपयोगी हो जाती हैं । अधिकांश औषधियाँ की गुणवत्ता कम हो जाती है जिसकी पूर्ति के लिए उनकी उपयोग मात्रा में वृद्धि करके वांछित लाभ लिया जा सकता है। दूसरी ओर आयुर्वेदिक और यूनानी औषधियों के लिए अवसान तिथि निर्धारित करने का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। घटिया रख-रखाव और अवैज्ञानिक पैकिंग के कारण फफूँद लगने या ऑक्सीडाइज़्ड हो जाने से ये औषधियाँ निर्धारित की गयी आधुनिक अवसान तिथि से पहले भी अनुपयोगी ही नहीं हानिकारक भी हो सकती हैं। स्पष्ट है कि घटिया रख-रखाव और अवैज्ञानिक पैकिंग की जाँच की जानी चाहिए न कि औषधि की अवसानतिथि निर्धारित करके समस्या से मुक्ति पाने का भ्रम सुस्थापित कर दिया जाना चाहिये!

आप नये चावल और गेहूँ की अपेक्षा पुराने चावल और गेहूँ को अधिक उपयोगी मानते आये हैं, पुरानी से पुरानी शराब को अधिक प्रभावी मानते आये हैं । इन सबकी और जड़ी-बूटियों की प्रकृति एक ही है, क्या आप इनकी भी अवसानतिथि निर्धारित कर देंगे?

आयुर्वेदिक और यूनानी औषधियों के निर्माण में नैतिकता का पालन करते हुये निर्धारित घटक द्रव्यों, निर्धारित संस्कार विधि और निर्धारित तापमान का ही संयोग अपेक्षित है जिसके अभाव में उच्च गुणवत्तायुक्त औषधि का निर्माण सम्भव ही नहीं है। औषधि की अवसानतिथि निर्धारित करने की अपेक्षा उनके निर्माण की आयुर्वेदोक्त संस्कारविधि को अपनाये जाने की आवश्यकता है। 

गुरुवार, 18 अप्रैल 2024

बाबा और सार्वजनिक क्षमा

दिव्य आयुर्वेद फ़ार्मेसी निर्मित आयुर्वेदिक औषधियों के अपने दावों से पीछे हटते हुये बाबा रामदेव सर्वोच्चन्यायालय के सामने असहाय हो गये हैं और अब वे देश की जनता से सार्वजनिक क्षमा माँगने के लिये तैयार हैं।

इस विषय में न्यायालय में जो कुछ हुआ और जो कुछ हो रहा है मैं उससे सहमत नहीं हूँ। बाबा को दी गयी सर्वोच्च न्यायालय की धमकी और उनकी क्षमायाचना को स्वीकार न करने का निर्णय पक्षपातपूर्ण है और न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन करती है।

इस विषय में बाबा समझौतावादी हो सकते हैं पर मेरे पास सर्वोच्च न्यायालय के लिये कुछ महत्वपूर्ण जिज्ञासायें हैं जिनके समाधान जानने का अधिकार हर विज्ञानवेत्ता और न्यायप्रिय नागरिक को है अन्यथा सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय दोषपूर्ण माना जायेगा। लोकतंत्र में कोई भी निकाय अंततः आमजनता के प्रति उत्तरदायी होता है, अतः न्याय की पारदर्शिता के लिए माननीय सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष निम्न पाँच जिज्ञासायें प्रस्तुत हैं –

1-    यह एक स्थापित तथ्य है कि अपनी रासायनिक जटिलता के कारण एलोपैथिक औषधियों का व्यवहार विषय-विशेषज्ञ के परामर्श के अभाव में किसी रोगी के द्वारा नहीं किया जाना चाहिए, तब उनके सार्वजनिक विज्ञापन का उद्देश्य आम उपभोक्ता को प्रभावित करना और बिना चिकित्सक के परामर्श के उन्हें उपभोग के लिए प्रोत्साहित करना ही हो सकता है। क्या माननीय न्यायालय ने इसके विरुद्ध कभी कोई स्वसंज्ञान लिया?

2-    बाजार में स्वास्थ्य सम्बंधी ऐसे विज्ञापनों की भरमार है जो उपभोक्ता को सीधे-सीधे किसी उत्पाद के उपभोग या किसी फ़िज़िकल प्रक्रिया द्वारा स्वास्थ्यलाभ के लिये प्रोत्साहित और प्रभावित करते हैं जबकि ऐसे विज्ञापनों के सारे दावे झूठे और अवैज्ञानिक होते हैं। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ऐसे विज्ञापनों के लिए चिंतित क्यों नहीं है?    

3-    इण्डियन मेडिकल एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष एवं गवर्नमेंट मेडिकल कॉलेज कन्याकुमारी के प्रोफ़ेसर जे.ए. जयलाल द्वारा सर्जरी के माध्यम से धर्मांतरण के अवसर का उल्लेख करने के विरुद्ध माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने क्या कभी कोई स्वसंज्ञान लिया?

4-    कोरोनासंक्रमण के समय किसी भी देश के पास कोविड की कोई भी स्पेसिफ़िक औषधि नहीं थी फिर भी न जाने कितनी तरह की एलोपैथिक औषधियों द्वारा रोगियों की चिकित्सा की जाती रही और चिकित्सा एड्वाइज़री जारी की जाती रही जो पूरी तरह अवैज्ञानिक थी, इतना ही नहीं बचाव के प्रति भी डॉक्टर्स द्वारा दिए जाने वाले परामर्शों में कई बार विरोधाभास देखा गया। क्या माननीय न्यायालय की दृष्टि में एलोपैथिक चिकित्सा की सभी गतिविधियाँ वैज्ञानिक और आयुर्वेद की कोई भी चिकित्सा गतिविधि अवैज्ञानिक मान ली गयी है? यदि ऐसा है तो ऐसा मानने का वैज्ञानिक आधार क्या है?

5-    माननीय न्यायालय की दृष्टि में वैज्ञानिक दृष्टिकोण और अवैज्ञानिक दृष्टिकोण के जो भी मानदण्ड हैं क्या वे वास्तव में पूरी तरह सार्वकालिक और सार्वदेशज हैं?

 

भारत का एक आम नागरिक

-       डॉ. के.के. मिश्र, kaushalblog@gmail.com