शनिवार, 27 अप्रैल 2024

क्या मोदी चुनाव जीतने के बाद निजी सम्पत्ति छीन लेंगे

 

निजी और सामुदायिक सम्पत्ति

 

क्या सामुदायिक हितों के लिए व्यक्तिगत सम्पत्ति से आर्थिक संसाधन जुटाया जाना न्यायसंगत होगा?

कांग्रेस के सैम पित्रोदा सामुदायिक हितों के लिये विरासत में प्राप्त सम्पत्ति पर चालीस प्रतिशत तक टैक्स लिये जाने के पक्ष में हैं ।

निजी और सामुदायिक सम्पत्ति को लेकर सैम पित्रोदा के वक्तव्य और सर्वोच्च न्यायालय में चल रहे सत्ताइस साल पुराने एक प्रकरण में चल रही सुनवायी के साथ ही देश में एक सैद्धांतिक विमर्श प्रारम्भ हो गया है जो वामपंथी और दक्षिणपंथी सिद्धांतों के एक महत्वपूर्ण विषय को पुनः रेखांकित करने वाला सिद्ध हो सकता है ।

उत्तर प्रदेश के बिलासपुर निवासी डॉक्टर वीरेंद्र कुमार शर्मा इस विमर्श को आगे बढ़ाते हुये प्रश्न करते हैं – क्या निजी सम्पत्तियों को सामुदायिक सम्पत्ति माना जा सकता है?”

विज्ञान के छात्र रहे एक अन्य मित्र जल से भाप और भाप से जल में होने वाले रूपांतरणों का स्मरण दिलाते हुये एक और प्रश्न करते हैं – “क्या सामुदायिक सम्पत्तियों को निजी सम्पत्ति माना जा सकता है? कम से कम रेलवे के इस सरकारी विज्ञापन – रेल आपकी सम्पत्ति है”, से तो यही ध्वनि निकलती है।“

सम्पत्ति के अधिकार को लेकर आदिकाल से दुनिया भर में साम्यवाद, समाजवाद, पूँजीवाद और जिसकी लाठी उसकी भैंस वाले लाठीवाद जैसे कई “वाद” व्यावहारिक रूप में प्रचलित रहे हैं जिनके कारण रक्तसंघर्ष और बड़ी-बड़ी क्रांतियाँ भी होती रही हैं । बोल्शेविक क्रांति के बाद सोवियत रूस की साम्यवादी सरकार ने निजी सम्पत्तियों को लगभग समाप्त ही कर दिया जिसका तात्कालिक परिणाम यह हुआ कि एक वर्ष के भीतर ही सोवियत रूस के उत्पादन में भयानक गिरावट आयी और आधुनिक उन्नत संसाधनों के बाद भी रूस आर्थिक दृष्टि से जर्जर होने लगा । दूसरा दूरगामी परिणाम 26 दिसम्बर 1991 में सोवियत रूस के विघटन के रूप में सामने आया और पंद्रह पूर्व गणतंत्रों को स्वतंत्र देश मान लिया गया । इसका एक अन्य वर्तमान परिणाम यूक्रेन-रूस युद्ध के रूप में पूरी दुनिया आज भी देख रही है ।

निजी और सामुदायिक सम्पत्तियों के अधिकार को लेकर हमें सामाजिक और राजनैतिक पृष्ठभूमियों के भी कई बिंदुओं को ध्यान में रखना होगा –

1-    पश्चिमी देशों सहित दुनिया भर में राजाओं के सैद्धांतिक और नैतिक मूल्यों में हुये निरंतर पतन से वर्गसंघर्ष और फिर क्रांतियाँ फलीभूत होती रही हैं।

2-    एक-दूसरे का शोषण करना एक मानवीय दुर्बलता रही है। शोषक और शोषित व्यक्तियों की स्थितियों और सोच में समयानुसार उलट-फेर होता रहा है जिसके परिणामस्वरूप शोषक और शोषित व्यक्ति कभी स्थायी नहीं होते। एक ही व्यक्ति अपने जीवन में कभी शोषक तो कभी शोषित भी हो सकता है।

3-    भारतीय संविधान, भारत में रहने वाले हर देशी-विदेशी व्यक्ति को निजी सम्पत्ति रखने का अधिकार देता है किंतु उसी स्वतंत्र भारत में राजतंत्रात्मक जमींदारी प्रथा को समाप्त करने के लिये ज़मींदारी उन्मूलन एक्ट भी बनाया गया।

4-    प्राकृतिक और निजी संसाधनों एवं उनपर स्वामित्व के अधिकार को लेकर दुनिया भर में व्याख्यायें की जाती रही हैं।

5-    स्वामित्व और उपभोग के अधिकारों को पृथक-पृथक समझा जाना चाहिये। उपभोग के अधिकार को स्वामित्व के अधिकार में नहीं बदला जाना चाहिये जबकि 12 वर्ष तक कब्जे वाली सम्पत्ति के स्वामित्व का न्यायिक अधिकार उपभोक्ता को दे दिया गया है।

6-    सामुदायिक और स्व-उपार्जित सम्पत्तियों के बीच की सूक्ष्म विभाजन रेखा को स्पष्ट करते समय शब्दजाल की कूटता से बचना होगा।

7-    कोई व्यक्ति स्व-उपार्जन के माध्यम से ही प्राकृतिक संसाधन को निजी संसाधन बना सकता है किंतु पैतृक सम्पत्ति के निजी अधिकार को समाप्त करना व्यवहारविरुद्ध एवं प्राकृतिक न्याय के विरुद्ध होगा।

8-    लोकहित के उद्देश्य से पर्सनल और कम्यूनल प्रॉपर्टी के बीच संतुलन बनाये रखना राजसत्ताओं का नैतिक दायित्व है किंतु सारे प्रकरणों में भू-अधिग्रहण कानून (लैंड एक्वेजीशन एक्ट) की मनमानी व्याख्या या क्रियान्वयन नहीं किया जा सकता।

9-    किसी आदर्श न्यायाधीश को राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक पूर्वाग्रह जैसी मानवीय दुर्बलताओं से पूरी तरह मुक्त होना चाहिये किंतु सामान्यतः ऐसा बहुत कम देखने को मिलता है जिसके कारण उनके निर्णयों में शुचिता का पालन नहीं हो पाता ।

 

केस संख्या 1012/2002 की पृष्ठभूमि को भी समझना आवश्यक है । सर्वोच्च न्यायालय में 27 साल पुराने जिस प्रकरण पर नौ जजों की पीठ विचार कर रही है उसका प्रारम्भ सन् 1986 में तब हुआ जब एक विवाद को समाप्त करने उद्देश्य से महाराष्ट्र सरकार ने “महाराष्ट्र हाउसिंग एरिया डेवलपमेंट अथॉरिटी” के नियमों में एक लोकहितकारी परिवर्तन किया जिसके अनुसार यदि किसी मकान आदि अचलसम्पत्ति के सत्तर प्रतिशत उपभोक्ता उस सम्पत्ति को अधिग्रहीत करने के लिये सरकार से अनुरोध करते हैं तो सरकार उस अचल सम्पत्ति को लोकहित में अधिग्रहीत कर सकती है जिससे कि उन वंचित उपभोक्ताओं की आवश्यकतायें पूरी हो सकें और उन्हें लाभ हो सके।

कल्पना कीजिये कोई भूमाफिया या अचलसम्पत्ति का स्वामी मुम्बई में एक चाल बनवाकर कुछ लोगों को रहने की सुविधा उपलब्ध करवाता है जिसके बदले में वह हर उपभोक्ता से एक निर्धारित धनराशि प्राप्त करता है। कुछ समय बाद सम्पत्ति का स्वामी उपभोक्ता से किराया तो लेता है पर जर्जर हो चुके चाल में न तो कोई सुधार करवाता है और न मूलभूत सुविधाओं को उपलब्ध करवाता है जिसके कारण उपभोक्ताओं को सामान्य जीवनयापन में कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। यह परिवाद जब शासन-प्रशासन के समक्ष लाया जाता है तो उसके सामाधान के विकल्पों पर विचार करना शासन-प्रशासन का दायित्व हो जाता है। अब चाल के स्वामी को सरकार द्वारा या तो सुधार के लिये बाध्य किया जाय या फिर सरकार उस सम्पत्ति का अधिग्रहण कर उसमें सुधार करवाये और उपभोक्ताओं की कठिनाइयों को दूर करे। जब सम्पत्ति-स्वामी ने चाल में सुधार करने से मना कर दिया तो सरकार ने प्रस्ताव रखा कि यदि कुल उपभोक्ताओं (किरायेदारों) के 70 प्रतिशत लोग उस चाल या भूमि को अधिग्रहीत करने का सरकार से अनुरोध करते हैं तो सरकार उस अचल सम्पत्ति का अधिग्रहण कर सकती है । तत्कालीन महाराष्ट्र सरकार द्वारा लोकहित में लिये गये इस निर्णय की सराहना की जानी चाहिये ।

निजी सम्पत्ति के स्वामियों ने प्रॉपर्टी ऑनर्स असोसिएशन बनाकर सरकार के इस नवनिर्मित नियम के विरुद्ध सन् 2001 में सर्वोच्च न्यायालय में सात जजों की पीठ के समक्ष वाद प्रस्तुत किया जिसमें महाराष्ट्र सरकार को प्रतिवादी बनाया गया। पीठ ने अगले वर्ष यानी सन् 2002 में यह वाद नौ जजों की पीठ के पास भेज दिया पर पीठ का गठन ही नहीं हो सका। बाइस साल बाद सन् 2024 में चीफ़ जस्टिस चंद्रचूड़ की पहल पर पीठ का गठन किया जाकर सुनवाई प्रारम्भ की जा चुकी है।

अब सर्वोच्च न्यायालय को संविधान के अनुच्छेद 39 (बी) और 31 (सी) के आलोक में यह विचार करना है कि –

1-    क्या कम्पनियों या निजी सम्पत्तियों को सामुदायिक संसाधन माना जा सकता है?

2-    ऐसे प्रकरणों में समुदाय की परिभाषा क्या होगी?

 

संविधान के अनुच्छेद 39 (बी) के अनुसार राज्य अपनी नीति से यह सुनिश्चित करेगा कि “समुदाय के भौतिक संसाधनों का स्वामित्व और नियंत्रण इस प्रकार वितरित किया जाय जो आम लोगों की भलाई के लिए सर्वोत्तम हो”।

संविधान का अनुच्छेद 14 समानता का और अनुच्छेद 19 स्वतंत्रता का अधिकार प्रदान करता है। इन मौलिक अधिकारों की रक्षा एवं अनुच्छेद 39 (बी) और अनुच्छेद 39 (सी) की स्पष्टता व क्रियान्वयन के लिये सन् 1971 में संविधान में संशोधन कर अनुच्छेद 31 (सी) को जोड़ा गया।

 

केंद्र सरकार की ओर से अटार्नी जनरल आर. वेंकरमण और सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता सरकार का पक्ष रख रहे हैं। कल दोनों पक्षों द्वारा अपने-अपने तर्क प्रस्तुत किये गये जिन्हें महाराष्ट्र के उपरोक्त वाद की पृष्ठभूमि के संदर्भ में समझने से स्थिति पूरी तरह स्पष्ट हो जाएगी –

सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी – यह कहना गलत होगा कि सरकार किसी निजी सम्पत्ति का अधिग्रहण नहीं कर सकती है, यदि ऐसा कहा गया तो यह अतिवाद होगा”।

अटॉर्नी जनरल – “मौलिक अधिकार और नीति निर्देशक तत्व को दो विपरीत ध्रुव नहीं माना जा सकता”।

न्यायालय – “क्या कोई कार, सेमीकंडक्टर या मोबाइल उत्पादक निगम समुदाय के भौतिक संसाधनों का गठन करेगा”?

अटॉर्नी जनरल – संविधान निर्माण करते समय “यूटोपियन या समाजवादी विचारधाराओं से उधार लिये गये सार्वजनिक भलाई के संसाधनों पर विचार करते समय प्रारम्भिक ध्यान कारखानों या भूमि जैसी मूर्त संपत्तियों तक ही सीमित रहा होगा, विशेषकर 18वीं और 19वीं शताब्दी में। संसाधन का सही अर्थ हमेशा राज्य के जनहितकारी उत्तरदायित्वों पर केंद्रित होगा“।

न्यायालय – “समुदाय की व्याख्या आप कैसे करते हैं, आप किसे समुदाय मानते हैं”?

अटॉर्नी जनरल – “समुदाय एक राष्ट्र हो सकता है या राष्ट्र का एक हिस्सा या एक भौगोलिक क्षेत्र जहाँ लोगों का जीवन जीने का एक व्यवस्थित तरीका है, एक समुदाय है”।

जस्टिस नागरत्ना – “संविधान की प्रस्तावना में न्याय (सामाजिक, राजनीतिक, और आर्थिक ) को सम्मिलित किया गया है। इसलिए संविधान द्वारा तय किये गये इस लक्ष्य को सुनिश्चित करने के लिए हमारे पास अनुच्छेद 39 है”।

न्यायालय – “क्या कम्पनी अथवा निजी संपत्तियों को सामुदायिक संसाधन माना जा सकता है”?

अटॉर्नी जनरल – “अनुच्छेद 39 (बी) सदा से सभी राजनीतिक और आर्थिक सिद्धांतों से स्वतंत्र रहा है । संसाधनों और ज़रूरतों के बारे में समाज की व्याख्या समय के साथ परिपक्व होती रहती है, ऐसे में अनुच्छेद 39 (बी) को आर्थिक दृष्टिकोण से देखना गलत होगा”।

जस्टिस बिंदल – “31 (सी) पहले ही निरस्त हो चुका है। क्या प्रावधान निरस्त होने के बाद संसद संशोधन करने, हटाने या जोड़ने आदि के लिए बाध्य है?”

एड. अंध्यारुजिना – “इसे लेकर चीफ़ ज़स्टिस ने भी एक बार कहा था कि निरस्त किए गए कानून किताबों में इटैलिक अक्षरों में लिखे होंगे जो यह संकेत देंगे कि इसे निरस्त कर दिया गया है। यह केवल जानने और पढ़ने के लिए रखा गया है”।

 

सर्वोच्च न्यायालय में सुनवाई अभी जारी है .....।

 

            वसीयत टैक्स के संदर्भ में सैम पित्रोदा के वक्तव्य और महाराष्ट्र के इस वाद पर सरकार के उद्देश्यों में अंतर को समझा जाना चाहिये। सैम पित्रोदा का वक्तव्य पैतृक सम्पत्ति पर वसीयत टैक्स लिये जाने के संदर्भ में है जबकि सॉलिसिटर जनरल के तर्क उस वाद के संदर्भ में हैं जो किरायेदार से किराया लेने के बदले में उपभोक्ता को सुविधायें न देने की स्वेच्छाचारिता के आर्थिक अपराध से जुड़ा हुआ है । व्यक्तिगत सम्पत्ति आगे भी व्यक्तिगत ही रहेगी जबतक कि लोकहित में उसकी आवश्यकता का कोई अन्य विकल्प उपलब्ध न हो।

“रेल आपकी सम्पत्ति है,…” – इसका अर्थ यह नहीं है कि सरकार ने राष्ट्रीय सम्पत्ति पर किसी व्यक्ति का अधिकार सुनिश्चित कर दिया है, भले ही हम सब उसका उपभोग क्यों न करते हों। वास्तव में यह अधूरी जानकारी है, रेलवे के इस विज्ञापन में सरकार व्यक्तियों को जो सूचना दे रही है वह सरकार के अनुरोध के संदर्भ में है। पूरा विज्ञापन इस प्रकार है – “रेल आपकी सम्पत्ति है, कृपया इसे क्षति न पहुँचायें, इसकी सुरक्षा में सहयोग करें”।

अधूरी बात का अर्थ कुछ भी हो सकता है किंतु इसी विज्ञापन को पूरा पढ़ा जाय तो अर्थ और उद्देश्य कुछ भिन्न ही स्पष्ट होते हैं, यथा – “रेल सार्वजनिक संपत्ति है किंतु उसकी रक्षा उसी प्रकार कीजिये जैसे कि वह आपकी अपनी निजी सम्पत्ति हो”।

निजी और सार्वजनिक सम्पत्तियों को लेकर सुस्थापित एक लोकहितकारी नियम पर चल रही सुनवाई का अर्थ यह कदापि नहीं है कि केंद्र सरकार के प्रधान मोदी जी वामपंथी हो गये हैं और चुनाव जीतने के बाद भाजपा सोवियत रूस की तरह देश में निजी सम्पत्तियों का अधिग्रहण कर लेगी। मोदी और भाजपा को वामपंथी कहना चुनावी दुष्प्रचार के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।   

 

शनिवार, 20 अप्रैल 2024

आयुर्वेदिक औषधियों की जाँच

 

जगदलपुर, छत्तीसगढ़ से प्रकाशित होने वाली “बस्तर पाती” पत्रिका के सम्पादक सनत जैन न्यायाधीशों से जानना चाहते हैं कि “आयुर्वेदिक औषधियों की गुणवत्ता की जाँच एलोपैथिक औषधियों की जाँच में प्रयुक्त होने वाली आधुनिक पद्धतियों से कैसे सम्भव है?” मूलतः इंजीनियर सनत जी व्यक्तिगत चर्चा में पूछते हैं –“धोती-कुर्ते के साथ गले में टाई लटकाने का क्या औचित्य है? भारतीय ज्ञान-विज्ञान के मूल्यांकन में किन मानदंडों का व्यवहार अधिक वैज्ञानिक, उपयोगी और व्यावहारिक होना चाहिये?

सनत जी के प्रश्न सैद्धांतिक हैं जिन पर विमर्श होना ही चाहिये। हमें ज्ञान और विज्ञान के अंतर को भी समझना होगा। ज्ञान अनंत है जबकि विज्ञान भौतिक होने के कारण सीमित है। विज्ञान विनाशकारी हो सकता है पर ज्ञान सदा रचनात्मक ही होता है।

आम जनता को भी यह समझना होगा कि एलोपैथिक और आयुर्वेदिक एवं यूनानी औषधियों की निर्माण विधि और उनके घटक द्रव्यों में मौलिक अंतर है जिसके कारण इनकी सम्यक जाँच आधुनिक पद्धतियों से पूरी तरह सम्भव नहीं है । एलोपैथिक औषधियों में जहाँ किसी एक या दो रसायनों के सम्मिश्रण या किसी जड़ी-बूटी के एक्टिव प्रिंसिपल्स से औषधियों का निर्माण होता है वहीं आयुर्वेदिक और यूनानी औषधियों में विभिन्न प्रकार की कई जड़ी-बूटियों या रसायनों या दोनों के सम्मिश्रण से औषधियों का निर्माण होता है जिसके कारण आधुनिक पद्धतियों के मानदंडों के अनुसार उनका मानकीकरण सम्भव नहीं हो पा रहा है। भारतीय दर्शन, सनातन विज्ञान और सनातन धार्मिक मूल्यों के मौलिक स्तम्भों पर विकसित एवं स्थापित आयुर्वेद में नैतिक मूल्यों के प्रति निष्ठावान रहते हुये औषधि निर्माण को प्राथमिकता दी जाती रही है। लोग पूर्ण विश्वास के साथ आयुर्वेदिक औषधियों का सेवन करते रहे हैं। आधुनिक काल में जहाँ हम सब पतन की ओर अग्रसर हैं, प्राचीन भारतीय मूल्यों के पालन में भी हुये पतन ने आयुर्वेदिक औषधियों की गुणवत्ता पर प्रश्नचिन्ह लगा दिये हैं । मूल्यों के पतन की स्थिति में किसी भी भौतिक संसाधन को अपनाकर सुधार की अपेक्षा नहीं की जा सकती।

आयुर्वेद में औषधिनिर्माण को “संस्कार” माना जाता रहा है। औषधि संस्कार का अपघटन हमारे नैतिक मूल्यों के पतन का परिणाम है। आधुनिक विद्वानों (?) ने आयुर्वेद के लिए भी एलोपैथिक मानदण्डों को अपनाते हुये इनकी अवसान तिथि (एक्स्पायरी डेट) निर्धारित कर दी है जो कि पूरी तरह अवैज्ञानिक और भ्रष्टाचार को बढ़ाने वाली ही सिद्ध होती जा रही है। एलोपैथिक औषधियों की भी अवसान तिथि के विषय पर वैज्ञानिकों में मतभेद हैं। औद्योगिक कारणों से दशकों पहले अमेरिका के डिफ़ेंस विभाग की एक शाखा में अवसान तिथि को लेकर हुये शोध के निष्कर्षों को प्रचारित नहीं किया गया जिसमें यह बात उजागर हुयी कि एक्स्पायर्ड औषधियों में अधिकांश औषधियाँ अनुपयोगी नहीं हुआ करतीं, कुछ ही औषधियाँ हैं जो एक्स्पायर्ड होने के बाद अनुपयोगी हो जाती हैं । अधिकांश औषधियाँ की गुणवत्ता कम हो जाती है जिसकी पूर्ति के लिए उनकी उपयोग मात्रा में वृद्धि करके वांछित लाभ लिया जा सकता है। दूसरी ओर आयुर्वेदिक और यूनानी औषधियों के लिए अवसान तिथि निर्धारित करने का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। घटिया रख-रखाव और अवैज्ञानिक पैकिंग के कारण फफूँद लगने या ऑक्सीडाइज़्ड हो जाने से ये औषधियाँ निर्धारित की गयी आधुनिक अवसान तिथि से पहले भी अनुपयोगी ही नहीं हानिकारक भी हो सकती हैं। स्पष्ट है कि घटिया रख-रखाव और अवैज्ञानिक पैकिंग की जाँच की जानी चाहिए न कि औषधि की अवसानतिथि निर्धारित करके समस्या से मुक्ति पाने का भ्रम सुस्थापित कर दिया जाना चाहिये!

आप नये चावल और गेहूँ की अपेक्षा पुराने चावल और गेहूँ को अधिक उपयोगी मानते आये हैं, पुरानी से पुरानी शराब को अधिक प्रभावी मानते आये हैं । इन सबकी और जड़ी-बूटियों की प्रकृति एक ही है, क्या आप इनकी भी अवसानतिथि निर्धारित कर देंगे?

आयुर्वेदिक और यूनानी औषधियों के निर्माण में नैतिकता का पालन करते हुये निर्धारित घटक द्रव्यों, निर्धारित संस्कार विधि और निर्धारित तापमान का ही संयोग अपेक्षित है जिसके अभाव में उच्च गुणवत्तायुक्त औषधि का निर्माण सम्भव ही नहीं है। औषधि की अवसानतिथि निर्धारित करने की अपेक्षा उनके निर्माण की आयुर्वेदोक्त संस्कारविधि को अपनाये जाने की आवश्यकता है। 

गुरुवार, 18 अप्रैल 2024

बाबा और सार्वजनिक क्षमा

दिव्य आयुर्वेद फ़ार्मेसी निर्मित आयुर्वेदिक औषधियों के अपने दावों से पीछे हटते हुये बाबा रामदेव सर्वोच्चन्यायालय के सामने असहाय हो गये हैं और अब वे देश की जनता से सार्वजनिक क्षमा माँगने के लिये तैयार हैं।

इस विषय में न्यायालय में जो कुछ हुआ और जो कुछ हो रहा है मैं उससे सहमत नहीं हूँ। बाबा को दी गयी सर्वोच्च न्यायालय की धमकी और उनकी क्षमायाचना को स्वीकार न करने का निर्णय पक्षपातपूर्ण है और न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन करती है।

इस विषय में बाबा समझौतावादी हो सकते हैं पर मेरे पास सर्वोच्च न्यायालय के लिये कुछ महत्वपूर्ण जिज्ञासायें हैं जिनके समाधान जानने का अधिकार हर विज्ञानवेत्ता और न्यायप्रिय नागरिक को है अन्यथा सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय दोषपूर्ण माना जायेगा। लोकतंत्र में कोई भी निकाय अंततः आमजनता के प्रति उत्तरदायी होता है, अतः न्याय की पारदर्शिता के लिए माननीय सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष निम्न पाँच जिज्ञासायें प्रस्तुत हैं –

1-    यह एक स्थापित तथ्य है कि अपनी रासायनिक जटिलता के कारण एलोपैथिक औषधियों का व्यवहार विषय-विशेषज्ञ के परामर्श के अभाव में किसी रोगी के द्वारा नहीं किया जाना चाहिए, तब उनके सार्वजनिक विज्ञापन का उद्देश्य आम उपभोक्ता को प्रभावित करना और बिना चिकित्सक के परामर्श के उन्हें उपभोग के लिए प्रोत्साहित करना ही हो सकता है। क्या माननीय न्यायालय ने इसके विरुद्ध कभी कोई स्वसंज्ञान लिया?

2-    बाजार में स्वास्थ्य सम्बंधी ऐसे विज्ञापनों की भरमार है जो उपभोक्ता को सीधे-सीधे किसी उत्पाद के उपभोग या किसी फ़िज़िकल प्रक्रिया द्वारा स्वास्थ्यलाभ के लिये प्रोत्साहित और प्रभावित करते हैं जबकि ऐसे विज्ञापनों के सारे दावे झूठे और अवैज्ञानिक होते हैं। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ऐसे विज्ञापनों के लिए चिंतित क्यों नहीं है?    

3-    इण्डियन मेडिकल एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष एवं गवर्नमेंट मेडिकल कॉलेज कन्याकुमारी के प्रोफ़ेसर जे.ए. जयलाल द्वारा सर्जरी के माध्यम से धर्मांतरण के अवसर का उल्लेख करने के विरुद्ध माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने क्या कभी कोई स्वसंज्ञान लिया?

4-    कोरोनासंक्रमण के समय किसी भी देश के पास कोविड की कोई भी स्पेसिफ़िक औषधि नहीं थी फिर भी न जाने कितनी तरह की एलोपैथिक औषधियों द्वारा रोगियों की चिकित्सा की जाती रही और चिकित्सा एड्वाइज़री जारी की जाती रही जो पूरी तरह अवैज्ञानिक थी, इतना ही नहीं बचाव के प्रति भी डॉक्टर्स द्वारा दिए जाने वाले परामर्शों में कई बार विरोधाभास देखा गया। क्या माननीय न्यायालय की दृष्टि में एलोपैथिक चिकित्सा की सभी गतिविधियाँ वैज्ञानिक और आयुर्वेद की कोई भी चिकित्सा गतिविधि अवैज्ञानिक मान ली गयी है? यदि ऐसा है तो ऐसा मानने का वैज्ञानिक आधार क्या है?

5-    माननीय न्यायालय की दृष्टि में वैज्ञानिक दृष्टिकोण और अवैज्ञानिक दृष्टिकोण के जो भी मानदण्ड हैं क्या वे वास्तव में पूरी तरह सार्वकालिक और सार्वदेशज हैं?

 

भारत का एक आम नागरिक

-       डॉ. के.के. मिश्र, kaushalblog@gmail.com

                                                              

सोमवार, 25 मार्च 2024

गुणसूत्रों की वैश्विक उड़ान

*भारतीयों में विदेशी मूल के गुणसूत्रों का ऐतिहासिक और वैज्ञानिक तथ्य*

यह सर्वविदित और सर्वस्वीकार्य है कि भारत ने अपनी ओर से कभी किसी विदेशीभूमि को आक्रांत नहीं किया। विभिन्न कारणों से विदेशी राज्यों के साथ सुरक्षात्मक युद्ध अवश्य होते रहे हैं पर हमने विजित देशों पर कभी अपना आधिपत्य स्थापित नहीं किया। जबकि इसके विपरीत भारतभूमि बारम्बार विदेशी आक्रमणकारियों से आक्रांत होती रही है। इन आक्रमणकारियों में भारत के पड़ोसी ही नहीं मध्य एशियायी, सुदूर यूरोपीय और अफ़्रीकी देश भी सम्मिलित रहे हैं।

गुजरात के राखीगढ़ी गाँव में मिले नरकंकालों के विदेशी गुणसूत्र इस बात के प्रमाण हैं कि भारत की शस्य सम्पन्नभूमि पर विदेशी आक्रमणकारी रहते रहे हैं, न कि इस बात के प्रमाण हैं कि भारतीयों के गुणसूत्र उनके विदेशी होने का तथ्य प्रस्तुत करते हैं!

इस कलंक को अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि भारत के विभिन्न रजवाड़ों पर विभिन्न विदेशी आक्रमणकारियों का आधिपत्य रहा है, यहाँ तक कि अबीसीनिया (इथियोपिया) से मुस्लिम शासकों द्वारा पकड़ कर लाये गये एक दास मलिक अंबर ने भी भारत के दक्कन क्षेत्र के एक राज्य अहमदनगर में अपना गुलाम वंश स्थापित कर लिया था। भारत के दक्षिणी और पश्चिमी समुद्र तटीय क्षेत्रों में आज भी अफ़्रीकी मूल के लोग निवास करते हैं। गुजरात के सिद्दी लोग भी इथियोपियायी मूल के विदेशी ही हैं जिन्होंने स्थानीय भारतीयों से विवाह सम्बंध भी स्थापित किये हैं, उनकी संतानें भारत की नागरिक अवश्य हैं पर सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के आधार पर उन्हें भारतीय नहीं माना जा सकता।

राजतांत्रिक काल में सुदूर देशों से राजाओं के विवाह सम्बंध तत्कालीन राजनीति का एक महत्वपूर्ण भाग हुआ करता था । यही कारण है कि एक-एक राजा की कई रानियाँ हुआ करती थीं। चंद्रगुप्त मौर्य की यूनानी पत्नी कार्नेलिया हेलेना के वंशज भी भारतीय बनकर हमारे बीच में हैं। तुर्कीमंगोल एवं उज़्बेकिस्तान के मंगोलियन मुगल, अरबी, मिस्री, तुर्की, बैक्ट्रिया/बल्ख़ के वाल्हीक, तत्कालीन विशाल आर्यावर्त्त के सीमावर्ती देशों के पड़ोसी, यहाँ तक कि पुर्तगाली, डच, फ़्रेंच और ब्रिटिशर्स आदि यूरोपियंस भी विभिन्न कारणों से भारत में रहते रहे हैं। इन सभी लोगों ने भारतीयों से वैध या अवैध संतानें उत्पन्न की हैं। भारत के श्रेष्ठ घरानों की स्त्रियों से बलात् व्यभिचार की घटनाओं से तत्कालीन भारतीय समाज कलंकित होता रहा है।

सिकंदर के ग्रीक और मिस्री सैनिकों में से कई लोग यहाँ की सम्पन्नता देखकर वापस गये ही नहीं और भारत के ही पर्वतीय क्षेत्रों में बस गये। ऐसी न जाने कितनी घटनायें हुयी होंगी। रेशम मार्ग से आने-जाने वाले व्यापारी काफ़िलों में से भी कुछ लोग भारत में न बसते रहे हों ऐसा सम्भव नहीं लगता। सामान्य स्थितियों में भी सीमावर्ती देशों के ठीक पड़ोसियों के बीच वैवाहिक सम्बंध स्थापित होना पूरे संसार की रीति रही है। वनस्पतियों की तरह प्राणियों के गुणसूत्र भी भौगोलिक सीमाओं को स्वीकार नहीं किया करते। भारत-नेपाल की तरह नेपालियों और तिब्बतियों, तिब्बतियों और चीनियों, चीनियों और मंगोलियों, मंगोलियों और रूसियों, रूसियों और अन्य यूरोपीयों के बीच गुणसूत्रों का आदान-प्रदान सदा से होता रहा है, इसे न कभी रोका जा सका है और न कभी रोका जा सकेगा। इंदिरा नेहरू घांदी (अपभ्रंश गांधी) के वंशजों में ईरान और इटली जैसे विदेशी मूल के गुणसूत्र पिरोये जाते रहे हैं। ये सब भी आज भारतीय ही हैं। आज तो आवागमन के संसाधनों और अन्य कारणों से विदेशियों से विवाह या विवाहेतर सम्बंध सामान्य होते जा रहे हैं। क्या ऐसे विदेशीमूल के भारतीयों के गुणसूत्रों के आधार पर प्राचीन भारत के मूल भारतवंशियों के बारे में कोई अवधारणा बनाकर उसे वैज्ञानिक कहना उचित और न्यायसंगत होगा?

भारत का नागरिक होने और भारतीयहोने में सैद्धांतिक और व्यावहारिक अंतर हैं, दोनों के भेद को मिटाया नहीं जा सकता। कुछ लोगों के गुणसूत्रों के आधार पर भारतीयों को विदेशी सिद्ध करना उस कूटअभियान का भाग है जिसका उद्देश्य भारतीय संस्कृति को समाप्त कर अपना वर्चस्व स्थापित करना रहा है।  


भारतीयों के D.N.A. में Africa और Iran...

*भारत पर हो रहे सांस्कृतिक आक्रमणों का सामना करने के लिये हमें तथाकथित विद्वानों के झूठ का सतत विरोध करना ही होगा अन्यथा उनका झूठ ही भारत में सत्य की तरह स्थापित हो जायेगा और हमारी अगली पीढ़ियाँ अपने आपको एवं अपनी प्राचीनता को पूरी तरह भूल जायेंगी।* - मोतीहारी वाले मिसिर जी।

गिरिजेश वशिष्ठ ने रहस्योद्घाटन किया है कि भारतीयों के गुणसूत्रों में अफ़्रीका और ईरान के लोगों के गुणसूत्र पाये गये हैं । अपने एक वीडियो में वे बताते हैं कि भारतीयों की मौलिकता पर "पहली बार वैज्ञानिक पड़ताल” की गयी है।

आर्यों और भारतीयों को लेकर इतिहासकारों, वैदिक साहित्य और तथाकथित वैज्ञानिकों के बीच चल रहे बौद्धिक संघर्ष से हम सब परिचित हैं। पत्रकार गिरिजेश मानते हैं कि कुछ लोग तो अपना (भारतीयों का) इतिहास लाखों-करोड़ों वर्ष प्राचीन बताते रहते हैं पर यह बताने का उनके पास कोई वैज्ञानिक आधार नहीं होता। वे इस संघर्ष पर विराम लगाते हुये कहते हैं –“सच क्या है हमारा, ...हिन्दुस्तान के लोगों के डी.एन.ए. की पहली बार जाँच की गयी है। दुनिया भर की प्रजातियों के डी.एन.ए. से भारत के 2700 लोगों के डी.एन.ए. का मिलान किया गया है (जिससे आर्यों को विदेशी सिद्ध किया जा सके? किसी अमेरिकी, यूरोपीय या अफ्रीकी को यह आवश्यकता और जिज्ञासि क्यों नहीं होती कि उनके गुणसूत्रों में कोई मिलावट तो नहीं? यह आवश्यकता हम भारतीयों को ही क्यों होती है?)।

डार्विन के विकासवाद का वैज्ञानिक सिद्धांत आज अवैज्ञानिक स्वीकार किया जा चुका है। गिरिजेश को लगता है कि वैज्ञानिक अवधारणाओं के अतिरिक्त और कुछ सत्य हो ही नहीं सकता। ‘इट सीम्स’, ‘मे बी’, ‘प्रोबेबिलिटी’ और ‘हाइपोथीसिस’ जैसे शब्दों के साथ आगे बढ़ता आज का विज्ञान कितना वैज्ञानिक है इसका पता तो कोरोनाकाल में एक बार फिर पूरी दुनिया को चल चुका है। दूसरी ओर भारतीय गणित, खगोल विद्या, शिल्प, स्थापत्यविज्ञान, शब्दभेदी बाण, युद्ध विज्ञान, हस्तिवेद, वृक्षायुर्वेद, शल्यचिकित्सा, आयुर्वेद और विमान आदि उपलब्धियों को अवैज्ञानिक और पूरी तरह काल्पनिक मानने वाले अतिविद्वानों की भारत में कमी नहीं है।   

अयोध्या में श्रीराम मंदिर के प्राचीन अस्तित्व जैसे विषयों पर संतों के ऐतिहासिक वक्तव्यों और सर्वोच्च न्यायालय में दिये गये गणितीय एवं पुरातात्विक साक्ष्यों का एक तरह से परिहास करने वाले पत्रकार जी मानते हैं कि विज्ञान सम्पूर्ण और अंतिम है। उन्होंने Bio-Skive प्रयोगशाला में कार्यरत प्रिया मूर्जानी के एक शोध, जो कि फ़ॉसिल्स के डी.एन.ए. विश्लेषण पर आधारित है, का उल्लेख करते हुये बताया कि दक्षिण एशिया में सर्वाधिक विभिन्नताओं वाले लोग रहते हैं। उनके अनुसार 2700 भारतीयों के गुणसूत्र नमूनों में तीन समूहों के गुणसूत्र मिलने की हुयी पुष्टि से यह प्रमाणित होता है कि भारतीय आदिवासी अफ़्रीका से आये थे, भारतीय आर्य ईरान से आये थे और शेष भारतीय अज़रवेजान एवं कज़ाख़िस्तान से आकर भारत में बस गये थे (अर्थात् भारत एक निर्जन क्षेत्र था जहाँ विदेशी लोग आकर बसते रहे हैं, यदि नहीं तो फिर मूल भारतीय कौन हैं, कहाँ हैं?)।

प्रिया मूर्जानी के शोधों के आधार पर गिरिजेश जी ने बताया कि भारतीयों में "यूरेशियन स्टेम परिवार", "प्राचीन ईरानी किसान" और "हण्टर गेदर" के गुणसूत्र मिले हुये हैं।

विदेशी आगमन की एक धारा में यूरेशियन स्टेम परिवार के लोग अज़रबेजान एवं कज़ाख़िस्तान से ईसापूर्व दस हजार साल पहले भारत आकर बस गये थे, वे खेती और शिकार करते थे, भारतीयों में यह सभ्यता उसी समय की है। विदेशी आगमन की दूसरी धारा में अफ़्रीका से आये हण्टर गेदर लोग थे जो आज के भारतीय आदिवासी हैं और ईसापूर्व दस हजार से लेकर पाँच हजार साल पहले भारत आकर बस गये थे। विदेशी आगमन की तीसरी धारा में चार हजार सात सौ से लेकर तीन हजार वर्ष ईसापूर्व बड़ी संख्या में ईरानी लोग भारत आकर बस गये। ये लोग प्राचीन किसान थे।

गिरिजेश जी के अनुसार –


यह जाँच वैज्ञानिक तरीके से की गयी है। जो वैज्ञानिक तरीके से साबित हो जाय मैं उसे ही मानता हूँ जबकि भारतीय ग्रंथों की रचना कल्पनाओं और संभावनाओं पर आधारित है, जिस समय भारत में ग्रंथ लिखे गये तब इंटरनेट नहीं था । अमेरिका, योरोप या चीन से कोई जानकारी लेनी हो तो प्राचीन भारतीय लोग इंटरनेट के अभाव में नहीं ले सकते थे वे केवल उन देशों से आने वाले यात्रियों पर ही (ज्ञान के लिये) निर्भर थे (अर्थात अमेरिका, योरोप और चीन से भारत आने वाले यात्री वैज्ञानिक हुआ करते थे?) हमारे यहाँ से बाहर जाने वालों का कोई उल्लेख मिलता नहीं (अर्थात् हमारे यहाँ कोई वैज्ञानिक था ही नहीं)।

यह रिपोर्ट विज्ञान और धर्म के बीच मील का पत्थर सिद्ध होगी।

समय-समय पर विदेशी लोग भारत आकर बसते रहे हैं जिसमें सूफ़ीसंत भी हैं जिन्होंने भारत आकर यहाँ के लोगों को इस्लाम की बहुत सी अच्छाइयाँ बतायीं।



 

इस प्रकरण पर मोतीहारी वाले मिसिर जी की प्रतिक्रिया -

"...यह सत्य से परे जाकर अपना-अपना वर्चस्व स्थापित करने का युग है। हर कोई एन-केन-प्रकारेण अपनी प्राचीनता सिद्ध करने और अपने समुदाय की उपलब्धियों को महिमामण्डित करने का प्रयास कर रहा है। इस विश्वसमुदाय में केवल भारतीय ही ऐसे अपवाद हैं जो अपनी सभ्यता को बाहर से आयातित और सर्वाधिक नवीन सिद्ध करने के प्रयास में प्राणपण से जुटे हुये हैं। हमें सावधान रहना होगा रोमिला थापर जैसे इतिहास गढ़ने वाले स्वयंभू रचनाकारों से; गिरिजेश वशिष्ठ, रविश कुमार और पुण्य प्रसून वाजपेयी जैसे पत्रकारों से; दिव्या द्विवेदी और शुति पांडेय जैसे प्रोफेसर्स से; अरुंधती राय जैसी लेखिकाओं से और साक्षी जैसी एंकर्स से । ये वे लोग हैं जो भारत पर सांस्कृतिक आक्रमण करने और भारतीयों के मन में हीन भावना उत्पन्न करने में ही गौरव का अनुभव करते हैं। दुर्भाग्य से ऐसे लोगों में उस ब्राह्मण वर्ग के लोगों की अधिकता है जिन्हें भारतीय समाज में ज्ञान-विज्ञान और धर्म का पथप्रदर्शक मानकर सम्मानित किया जाता रहा है। प्रिया मूर्जानी के शोध फ़ॉसिल्स पर आधारित हैं। जहाँ दुनिया भर के लोग आक्रमण करने आते रहे हों ऐसे देश में दो हजार सात सौ लोगों के सेम्पल की जाँच करके यह पता कर लिया गया कि वे सब विदेशीगुणसूत्र मिश्रित भारतीय ही हैं, उनमें से कोई भी युद्ध में मारा गया विदेशी सैनिक या भारत भ्रमण करने आया विदेशी पर्यटक या कारवाँ वाले युग में भारत में व्यापार करने के लिए आने वाले हजारों व्यापारियों में से विभिन्न कारणों से मरने वाला या उनमें से भारत में ही बस गया कोई भी विदेशी नहीं था; न ही हमारी स्त्रियों से यौनदुराचार करने वाले विदेशी सैनिकों की संतानों में से कोई था।

हमें ऐसे अवैज्ञानिक विज्ञानवेत्ताओं के मिथ्या दुष्प्रचार से सावधान ही नहीं रहना होगा बल्कि उसका पूरी दृढ़ता और तथ्यों के साथ खण्डन भी करते रहना होगा अन्यथा उनका सतत दुष्प्रचार ही सच बनकर स्थापित हो जायेगा। हमने रोमिला थापर जैसे स्वयंभू और कूट इतिहासकारों के झूठ का कभी विरोध नहीं किया जिसके कारण हमारी अभी तक की पीढ़ियों को भारत और विश्व का मिथ्या इतिहास पढ़ाया जाता रहा है।"

 

गिरिजेश वशिष्ठ का संक्षिप्त परिचय – गिरिजेश जी एक वरिष्ठ पत्रकार हैं जो इंडिया टुडे, जी न्यूज़ और दैनिक भास्कर आदि समूहों में कार्य कर चुके हैं। विज्ञान और वैज्ञानिक शोधों पर ही पूर्ण विश्वास करने वाले गिरिजेश की शिक्षा के बारे में इंटरनेट पर जानकारी मुझे नहीं मिल सकी। यूँ, मेरा अनुभव है कि विज्ञान के अंधभक्त लोगों में सबसे बड़ी संख्या उन लोगों की है जिन्हें विज्ञान के बारे में कुछ पता नहीं होता। ऐसे लोग भारत, हिंदुत्व, वैदिक ग्रंथ, धर्म, आर्यन इन्वेज़न और ‘भारतीयों की मौलिकता की वैज्ञानिकता’ जैसे विषयों पर पूरे आत्मविश्वास के साथ अपना पक्ष रखते हुये देखे जाते हैं। यू-ट्यूब पर अपने चैनल knockingnews.com के संस्थापक गिरिजेश वशिष्ठ भारतीयों को विदेशी, अवैज्ञानिक और मूर्ख सिद्ध करने के प्रयासों के प्रति पूरी निष्ठा के साथ समर्पित रहते हैं।  

भारतीयों को विदेशी सिद्ध करने वाले गिरिजेश जी का यह वीडियो प्रिया मूर्जानी के शोध पर आधारित है। भारतीय मूल की प्रिया मूर्जानी यूनीवर्सिटी ऑफ़ कैलीफ़ोर्निया की बर्क्ले रिसर्च इंस्टीट्यूट के मोलीकुलर एण्ड सेल बायोलॉजी विभाग में सहायक प्रोफ़ेसर हैं और ह्यूमन पापुलेशन ज़ेनेटिक्स और इवोल्यूशनरी बायोलॉजी पर केंद्रित विषयों पर शोध करती हैं। म्यूटेशन और रीकॉम्बीनेशन जैसे विषयों पर मूर्जानी के शोध जेनॉमिक डाटा एनालिसिस पद्धति पर आधारित होते हैं। उनका पता है – Priya Moorjani, University of California, Berkeley Stanley Hall, Rm 308C

 

मंगलवार, 20 फ़रवरी 2024

दक्षिणपंथ, वामपंथ और कट्टरवाद

दक्षिणपंथ की तरह वामपंथ में भी परम्परायें होती हैं जिनका पालन किया जाता है । वामपंथ की तरह दक्षिणपंथ में भी क्रांति को एक आवश्यक घटना के रूप में स्वीकार किया जाता है। फिर अंतर क्या है इन दोनों में? यह अंतर है अपेक्षा और बाध्यता को लेकर। दक्षिणपंथ में कट्टरता का कोई स्थान नहीं होता जबकि वामपंथ कट्टरता को शांति और व्यवस्था के लिए आवश्यक मानता है। सोवियत रूस के विघटन के पीछे वामपंथ की इसी कट्टरता की भूमिका थी।   

दक्षिणपंथ में देश-काल-वातावरण के अनुसार व्यवस्थाओं और परम्पराओं के पालन की अपेक्षा की जाती है जबकि वामपंथ में देश-काल-वातावरण की उपेक्षा कर पश्चिमी व्यवस्थाओं और परम्पराओं के पालन की बाध्यता थोपी जाती है।

यह दुष्प्रचार है कि दक्षिणपंथ में क्रांति का कोई स्थान नहीं होता। विश्व के प्रथम गणतांत्रिक देश में राजा के विरुद्ध प्रजा को क्रांति का अधिकार था और उन्होंने यह किया भी। वज्जीसंघ के अट्टकुल राजाओं के पतन के विरुद्ध हुयी क्रांति इसका सबसे बड़ा प्रमाण है। इस क्रांति की प्रच्छन्न नायिका थी आम्रपाली।  

भारतीय राजनीति के इतिहास में वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को जिस तरह अमर्यादित भाषा और लांछनों के साथ अपमानजनक विरोध का सामना करना पड़ता है वह अपूर्व है। इस राजनीतिक आक्रमण में विभिन्न विचारधाराओं के लोग एकसाथ खड़े दिखाई देते हैं। यह सत्ता का संघर्ष है या फिर विचारधाराओं का!

दो बातें हैं, सत्ता के लिए विचारधारा, और विचारधारा के लिए सत्ता। हम सब आये दिन सत्ता के लिए विचारधाराओं को पल-पल बदलते देखते हैं । कभी भाजपा से सपा में तो कभी सपा से कांग्रेस में ...। जब वैचारिक विश्लेषण एवं मूल्यांकन का अभाव होता है और सत्ता ही प्रमुख होती है तो दल-बदल जैसी घटनायें होती हैं। यह राजनीतिक पतन का संकेत है । विचारधाराओं में परिवर्तन का आधार यदि विश्लेषण एवं मूल्यांकन हो तो यह स्वाभाविक है और इसे होना चाहिए, इस आधार पर किया गया दलबदल उपयुक्त हो सकता है या फिर स्वार्थपूर्ण भी।

राम और विक्रमादित्य का राज्यारोहण विचाधारा के लिए सत्तारोहण का उदाहरण है। लालू-राबड़ी का राज्यारोहण सत्ता के लिए विचारधारा गढ़ने का उदाहरण है। विश्व भर में होने वाले सारे राज्यारोहण इन्हीं दो सिद्धांतों के आसपास घूमते दिखायी देते हैं।

*जीवन का व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामुदायिक और सामाजिक स्वरूप*

...ये क्रमशः बड़े होती इकाइयों के जटिल होते स्वरूप हैं जिनसे होते हुये किसी व्यक्ति को आगे बढ़ना होता है। इस यात्रा में त्याग, सहिष्णुता और उदारता की अपेक्षा होती है। हर छोटी इकाई को अपने से बड़ी इकाई के साथ सामंजस्य बनाते हुये आगे बढ़ना होता है। सुखी और समृद्ध समाज एवं राष्ट्र के लिए यह सब आवश्यक है।  

जब व्यक्ति समाज से जुड़ता है तो वह विराट होता है, जब विराट होता है तो उसे दूसरों के हितों के बारे में सोचने की आवश्यकता होती है, यही आवश्यकता हमें किसी संगठन, विधि और शासन की ओर ले जाती है। जब हम सोचना प्रारम्भ करते हैं तो आवश्यक नहीं कि हम सब एक जैसा सोचें ...और बस यहीं से प्रारम्भ होता है टकराव का दर्शन।

हमारी लोकयात्रा प्रारम्भ होती है चिंतन-मंथन के बाद निष्पन्न हुए किसी दर्शन के साथ... फिर गढ़े जाते हैं कुछ प्रतीक । लोग प्रतीकों की व्याख्या करते हैं ...अपनी-अपनी समझ और सीमाओं के विस्तार के साथ, जिसके बाद होते हैं टकराव। यह पूरी यात्रा फ़िल्म निर्माण की तरह होती है। लेखक, पटकथालेखक और फ़िल्म निर्देशक वे तीन प्रथम व्यक्ति होते हैं जो अपनी फ़िल्म को भौतिक स्वरूप में बनने से पहले ही देख चुके होते हैं। ये लोग फ़िल्मदृष्टा हैं ...मंत्रदृष्टा ऋषियों की तरह। मंत्रों पर विवाद होता है, फ़िल्म पर भी विवाद होता है, दोनों की व्याख्यायें अलग-अलग तरह से की जाती हैं। इस तरह के विवादों का समाधान कैसे हो!

समाधान के लिए हमें समाज को अन्य दृष्टियों से भी देखना होगा, एक समाज-राजनीतिक सोच विकसित करनी होगी। प्राचीन भारतीय परम्परा में जिस तरह की सोच विकसित की गयी उसमें कोई वाद नहीं था, उदारता और समावेषिता थी। पश्चिमी देशों ने व्यक्तिवाद, समाजवाद, समुदायवाद, उदारवाद ..आदि कई सोचों के साथ प्रयोग किए, संघर्ष हुए, क्रांतियाँ हुयीं और कभी न समाप्त होने वाली अशांति की ओर पूरी दुनिया बढ़ चली। भारतीय भी अपनी वीणा एक ओर रख कर खूब बजने वाले ढोल को बजाने लगे और आज विरोध एवं हिंसा की आग में देश को झोंक कर व्यक्तिगत स्वार्थपूर्ति में लग गये हैं।

*समुदायवाद का राजनीतिक-सामाजिक दर्शन*

समुदायवाद विभिन्न समुदायों को इकाइयों में बाँटकर उनके हितसंरक्षण की छद्मराजनीति का मार्ग निर्मित करता है जिसमें प्रतिभाओं की बलि दे दी जाती है और विकास के पथों को अवरुद्ध कर दिया जाता है। जिन्हें राज्यारोहण के लिए दुर्बल और लचर समाज चाहिए वे समुदायवाद के पोषक होते हैं। जो समाज को सशक्त और जागरूक देखना चाहते हैं वे समुदाय की तो बात करते हैं किंतु उनकी कार्यसूची में समुदायवाद का कोई स्थान नहीं होता। हमें समुदाय की विराटता और समुदायवाद की संकुचित उठा-पटक को समझना होगा।

*अतिबुद्धिवाद*

कोई नशा सेवन करके जो कुछ भी बका जाता है उससे बड़ा ज्ञान और कुछ नहीं होता। ऐसे ज्ञान के लिए किसी तात्विक विमर्श या प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती । हमारा देश अतिबुद्धिवाद से ग्रस्त है। विश्वविद्यालयों में पढ़ाने वाले अतिविद्वान प्रोफ़ेसर्स हों या किसी विषय में डाक्टरेट किये हुये डॉक्टर साहब, उनका ज्ञान अद्भुत होता है, तर्क अद्भुत होते हैं। जीवन के उद्देश्य विचित्र होते हैं, सब कुछ किसी परिग्रही जैसा लगता है। प्रस्तुत हैं कुछ उदाहरण –

भारत में हिन्दूधर्म की स्थापना अठारहवीं शताब्दी में हुयी। आर्य भेंड़ चराते थे और मांसाहारी थे, ब्राह्मण भी मांसाहारी थे। एशिया माइनर और सोवियत रूस के मूलनिवासी आर्यों को भारत आते ही संस्कृत का ज्ञान हो गया और उन्होंने वेद लिख डाले। कुछ लोगों के अनुसार आर्यों ने भारत के मूलनिवसियों के वेद चुरा लिये। कुरआन और हिब्रू बाइबल विश्व के प्राचीनतम धार्मिक ग्रंथ हैं। वेद, महाभारत और रामायण में चरित्रहीन लोगों की कहानियाँ भरी पड़ी हैं।

ऐसा अद्भुत ज्ञान उच्च शिक्षित अतिबुद्धिमानों द्वारा बघारा जाता है और हम सब उनके ज्ञान को स्वीकार करने के लिए बाध्य हैं।

क्या हमें अपने बच्चों को विश्वविद्यालयीन शिक्षा के लिए भेजना चाहिये या शिक्षा में आमूलचूल परिवर्तन के लिए एक जुट होकर आंदोलन करना चाहिये?