रविवार, 27 नवंबर 2022

जड़ें

जिस वृक्ष की जड़ें भारत से निकालकर अरब में लगा दी गयी हों और उन्हें अरबी पोषण दिया जा रहा हो उस पेड़ के पत्ते, पुष्प और फल भारतीय कैसे हो सकते हैं! यह लाख टके का प्रश्न है जिसकी मिली-जुली संस्कृतिके नाम पर भारत में लगातार उपेक्षा की जाती रही है।मिली-जुली संस्कृतिइस्लामिक विस्तारवादियों का वह बहाना है जो भारत में अरबी मान्यताओं को स्थापित करने और भारतीय मूल्यों को समाप्त करने के लिए गढ़ा गया है।

शाक्य राजकुमार गौतम ने तो बुद्धत्व के लिए राज्य को त्याग दिया पर उनके अनुयाइयों द्वारा बौद्ध मत की स्थापना और राज्यसंचालन में उसके हस्तक्षेप के बाद से हमारी अपनी जड़ों को निरन्तर काटा जाता रहा है। इस काल में हमारी सनातन जड़ों को सत्ता से पोषण भी नहीं मिल सका, उनके रखवाले स्वयं भी कभी निष्क्रिय तो कभी असहाय होते रहे हैं। किसी संस्कृति के अस्तित्व के लिए उसकी जड़ों को काट देने की राज्याश्रित प्रक्रिया भारत के लिए बहुत बड़े संकट का कारण है। 1947 में सत्ता हस्तांतरण के बाद से ये प्रतिकूल स्थितियाँ और भी विकट होती रही हैं।  

जब तक धर्मांतरण को मतांतरण और भारतीय राष्टृवाद से जोड़ कर नहीं देखा जाएगा तब तक भारत पर असुरक्षा और पराधीनता के घनघोर बादल छाए रहेंगे। जिन्हें *भारतीयराष्ट्रवाद* से चिढ़ है उनके लिए हम इसके स्थान पर *मानवीयराष्ट्रवाद* का विकल्प रखना चाहेंगे।

भारतीय मुसलमान और ईसाई की चिंता मक्का-मदीना और येरुशलयीम को लेकर होती है, अयोध्या, काशी और मथुरा को लेकर नहीं। मोहनभागवत जैसे मानसिक पक्षाघात से पीड़ित लोग भारत के लाखों मंदिरों के इतिहास और उनसे जुड़ी भारतीय परम्पराओं को त्याग देने की बात करने लगे हैं। एक सच्चे भारतीय को इन सभी षड्यंत्रों की गहरायी को समझना होगा। नालंदा जैसे कई विश्वविद्यालयों को जलाकर नष्ट कर देने वाली आसुरी परम्परा के लोगों को संरक्षण देना भारत के सर्वनाश को आमंत्रित करना है। भारतीय संस्कृति को बचाये रखने के लिए भारत को अंगोला, स्लोवाकिया, ट्यूनीशिया, इस्तोनिया और आस्ट्रेलिया की नीति पर चलना ही होगा। इसके अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं है। जब अंगोला और ट्यूनीशिया जैसे देश असुरत्व को पहचान कर उससे मुक्ति पाने की दिशा में अग्रसर हो चुके हैं तो विश्वगुरु का दम्भ भरने वाले भारत को ऐसा क्यों नहीं करना चाहिए?  

हम कब तक इस तात्विक सत्य की उपेक्षा करते रहेंगे कि विभिन्न स्थानों और दिशाओं से प्रारंभ होकर एक ही बिंदु और दिशा की ओर होने वाली यात्रायें उन यात्राओं से भिन्न हैं जो एक ही बिंदु और दिशा से प्रारंभ होकर किसी दूसरे बिंदु और दिशा की ओर की जाती हैं। हमें यह झूठ बताया जाता रहा है कि सभी धर्म हमें ईश्वर की ओर ही ले जाते हैं। हम जीवमात्र के कल्याण की दिशा में प्रयत्नशील होते हैं जबकि कुछ लोग हमें देखते ही घात लगाकर मार डालने को अपने जीवन का उद्देश्य बना चुके हैं। हत्या करने वाले और मरने वाले की यात्रा की दिशा और उद्देश्य एकसमान कैसे हो सकते हैं!

सावधान! असुर तो झूठ बोलते रहेंगे, हमें झूठ और सच के अंतर को समझना होगा। 

सोमवार, 7 नवंबर 2022

         संविधान में सामाजिक और आर्थिक समानता के उद्देश्य से कुछ जातियों के लिए लाये गये आरक्षण की व्यवस्था के परिणामों की समय-समय पर समीक्षा की जानी थी जिस पर गभीरता और निष्ठापूर्वक कभी कोई चिंतन-मंथन नहीं किया गया। परिणामतः आरक्षण बढ़ता गया, आरक्षित समुदायों में नयी-नयी जातियों को सम्मिलित किये जाने के लिए आंदोलन होने लगे, आरक्षण राजनीति का एक महत्वपूर्ण विषय बन गया। सामाजिक और आर्थिक समानता तो नहीं हो सकी किंतु आरक्षण भारत के लिए एक अनिवार्य व्यवस्था के रूप में अवश्य स्वीकार कर ली गयी।

जिनके उत्थान करने का आप दावा करते हैं उन्हें बिना बैसाखियों के चलने के लिए कभी प्रोत्साहित क्यों नहीं किया गया? हर किसी को यह भरोसा क्यों दिलाया जाता रहा कि वे इन बैसाखियों के सहारे ही दौड़ने लगेंगे और उन लोगों से भी आगे निकल जाएँगे जो बिना बैसाखियों के ही दौड़ सकने की क्षमता रखते हैं। दूसरी ओर नौकरियों और पदोन्नतियों में आरक्षण की व्यवस्था कर आपने तो उन सक्षम लोगों की टाँगे ही तोड़ देने की क्रूरता की है जो किसी जघन्य अपराध से कम नहीं है।

बहुत हो गया, अब इस बात पर चिंतन होना चाहिए कि आरक्षण की पात्रता का आधार कितना समाज-मनोवैज्ञानिक और न्यायपूर्ण है!

कुछ जातियों को निर्धनता और सामाजिक असमानता का आधारभूत कारण मान लिया गया और जो इस सीमा में समाहित नहीं हो सके उन्हें अपनी निर्धनता और सामाजिक असमानता से जूझने के लिए छोड़ दिया गया।

तथाकथित उच्च जातियों की निर्धनता और सामाजिक पिछड़ेपन को मैंने बहुत समीप से देखा है। चलिए, स्वतंत्रता के सात दशक बाद आज बिहार और उत्तरप्रदेश के किसी गाँव में चलते हैं और कठोर निंदा एवं कटुआलोचना के लिए सहज उपलब्ध ब्राह्मण जाति को अपनी आँखों से देखते हैं।

गाँवों के लोगों में जाति से परे सभी लोगों का जीवनस्तर लगभग समान है, उनकी भाषा, विचारधारा और चिंतन में भी बहुत कुछ समानता देखने को मिलती है, यहाँ तक कि सामाजिक कुटैवों ने भी धर्म और जाति की सीमाओं को स्वीकार करने से मना कर दिया। वहाँ जाति की सीमाएँ हैं जो परिदृश्य में तब तक कहीं दिखायी नहीं देतीं जब तक कि उन्हें कण्ठ से वमन कर बाहर न निकाला जाय। मुझे आर्थिक और सामाजिक असमानता में जातियों का भेद कहीं दिखायी नहीं दिया। जहाँ तक शिक्षा की बात है तो उसमें व्यय होने वाली धन राशि कोई निर्धन व्यक्ति कैसे चुका सकेगा! आरक्षितों को तो सत्ताओं ने सुविधा दे दी है पर विप्र तो यहाँ भी वंचित है। आपने शिक्षा और आर्थिक सम्पन्नता को सामाजिक समानता के मूल्यांकन का जो आधार बनाया है उसने तो विरोधाभासी स्थिति उत्पन्न कर दी है, सामाजिक असमानता एवं वर्गभेद को और भी बढ़ा दिया है। संविधान निर्माताओं की बुद्धि में यह सामान्य न्याय की बात क्यों नहीं आ सकी कि यदि कोई निर्धन विप्र शिक्षा से वंचित होगा तो वह सामाजिक समानता में बैसाखियों के समकक्ष कैसे खड़ा हो सकेगा!  

सत्यनारायण की कथा में निर्धन विप्र की चर्चा है, द्वापर युग में भी निर्धन विप्र सुदामा की चर्चा है, सतयुग और त्रेतायुग में भी विद्यानुरागी और सरल जीवनयापन करने वाले विप्रों की चर्चा है। कलियुग में तो ब्राह्मण सर्वाधिक दयनीय, वंचित, भिक्षाजीवी, विद्याविहीन और सामाजिक असमानता को भोगता हुआ जीने वाला कलंकित मनुष्य बनकर रह गया है। हाँ! कलियुग में जिन ब्राह्मणों ने अंग्रेज़ी पढ़ ली, सनातनविचारधारा और भारतीय संस्कृति के क्रूरता की सीमा तक कठोर निंदक बन गये, पश्चिमी संस्कृति के अनुरागी हो गये और भारतीय सभ्यता को सदा के लिए समाप्त करने के लिए हर तरह के षड्यंत्रों के खलनायक बन गये वे आर्थिक दृष्टि से समृद्ध हो गये, और स्वयं को उच्च सामाजिक स्तर का व्यक्ति मानने लगे।

“सामाजिक स्तर की समानता” एक ऐसा गढ़ा हुआ पाखण्ड है जिसका सही अर्थों में कोई अस्तित्व ही नहीं होता। सामाजिक स्तर पर समानता के जो वास्तविक क्षेत्र हैं उनमें शिक्षा और स्वास्थ्य है, निरपेक्ष न्याय है, बौद्धिकक्षमता एवं कुशलता के आधार पर उपयुक्त संसाधनों की उपलब्धता की सुनिश्चितता है। इन क्षेत्रों में तो बहुत बड़ी असमानता व्याप्त है जो निरंतर बढ़ती ही जा रही है। आप कौन सी सामाजिक समानता की बात करते हैं?

हमें यह स्वीकार करना होगा कि शिक्षा से सामाजिक स्तर का कोई सम्बंध नहीं है। यह किसे नहीं पता कि भ्रष्टाचार में सरकारों के संसाधन बनने वाले उच्चशिक्षित लोगों का सामाजिक स्तर कैसा होता है? क्रूरतम अपराधियों में उच्च शिक्षित भी सम्मिलित हैं। झूठे और मक्कार लोगों में उच्चशिक्षित भी सम्मिलित हैं। बड़ा सा बंगला, महँगी कार, महँगी शराब, घरेलू सेवकों की लम्बी कतार, सर्वांग लिपी-पुती अर्धनग्नपत्नी, गर्भपात करवाने के लिए लुच्चे डॉक्टर्स को नोटों की गड्डियाँ थमाने वाली बिनब्याही बेटियाँ, चरस-गाँजे के नशे में धुत्त बेटे... यही है न आपके उच्चसामाजिक स्तर का पता-ठिकाना!

आप कैसा भारत बनाना चाहते हैं? आप कैसे सामाजिक-स्तर का विकास करना चाहते हैं? आप सरकारी बैसाखियों पर वंचितों और अयोग्य लोगों को कब तक दौड़ाना चाहते हैं? तुम्हारी यह धूर्तता किसी भी समाज को समाप्त कर देने के लिए पर्याप्त है, अन्य किसी आयुध की आवश्यकता नहीं पड़ेगी।  

रविवार, 6 नवंबर 2022

सभी धर्म समान नहीं हैं

श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चाप्यवधार्यताम्।

आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्॥ पद्मपुराण, शृष्टि १९/३५७-३५८ 

पद्मपुराण ने स्पष्ट कर दिया है कि जो आचरण हमारे लिए अनुकूल नहीं है वह अन्य लोगों के लिए भी अनुकूल नहीं है। दूसरों के साथ भी वैसा ही आचरण किया जाना चाहिए जैसा कि हम दूसरों से अपने लिए चाहते हैं। यह है सनातन धर्म की वह विराट दृष्टि जो स्व के साथ-साथ लोककल्याण का भी मार्ग प्रशस्त करती है। इससे पृथक यदि कुछ है तो वह धर्म हो ही नहीं सकता। सभी तथाकथित धर्मों को एक समान स्वीकार करना उतना ही सत्य है जितना यह कि सभी द्रव “पीने योग्य” हैं और सभी कृत्य “स्तुत्य” हैं। कुँजड़े का हठ है कि वह अपने खट्टे बेर भी मीठे कहकर बेच देगा। दुष्टबुद्धि दलनायकों का हठ है कि वे अपने पापों को पुण्य मनवाकर ही सत्ता को छीन लेंगे। 

धार्मिक समानता का यह पाखण्ड उन द्रवों की स्वीकार्यता के दुष्प्रचार के लिए गढ़ा गया है जो हमारे स्वास्थ्य के लिए हानिकारक ही नहीं बल्कि प्राणघातक भी हैं। दूध और सल्फ़्यूरिक एसिड को, गन्ने के रस और हलाहल को, गोमुख से निकले जल और समुद्र के जल को एक जैसा स्वीकार कैसे किया जा सकता है?

हत्या और प्राणरक्षा के कृत्यों को, पाप और पुण्य को एक समान कैसे स्वीकारा जा सकता है? यौनदुष्कर्म करना और स्त्री को पूज्य मानना एक जैसे कृत्य कैसे हो सकते हैं? न्याय और अन्याय एक जैसे कैसे हो सकते हैं? यह अच्छे-बुरे, शुभ-अशुभ, हानिकारक-लाभदायक और शत्रु-मित्र के बीच की विभाजक रेखा के विवेक को समाप्त कर सब धान बाइस पसेरी तौलने का दानवी षड्यंत्र है। यह संस्कृति और अपसंस्कृति के विवेक को समाप्त करने का कुचक्र है। यह अपने अपराधों, हिंसा, कुकर्मों और क्रूरता को न्यायोचित सिद्ध कर पूरे विश्व में स्थापित करने की दुष्टता है।

समान लक्षण वाले बहुत सारे धर्मों को गढ़ने का औचित्य क्या है? चैतन्यावस्था में जब भी कभी एक धर्म पहचान लिया गया होगा तो फिर उस जैसे ही अन्य धर्मों को स्थापित करने के लिए युद्ध करने और हिंसा करने की आवश्यकता क्यों होती है? यदि सभी धर्म समान हैं तो एक धर्म की निंदा और किसी दूसरे धर्म की प्रशंसा के आधार पर धर्मांतरण की आवश्यकता ही क्यों है? यदि सभी धर्म समान हैं तो धर्म के आधार पर देश के विभाजन की आवश्यकता क्यों हुयी? यदि सभी धर्म समान हैं तो उनकी बहुलता, विविधता और भिन्नता की आवश्यकता ही क्या है? यदि सभी धर्म समान हैं तो धार्मिक हिंसा क्यों हो रही है? यदि सभी धर्म समान हैं तो सनातनी, यहूदी, ईसाई और ज़ेरोस्ट्र आदि मुस्लिमेतर लोग अल्लाह के शत्रु क्यों हैं और अल्लाह ने अपने शत्रुओं को जन्म ही क्यों लेने दिया? यदि सभी धर्म समान हैं तो रमजान का माह बीतते ही घात लगाकर अन्य धर्मों को मानने वालों को देखते ही उनकी हत्या कर देने की आवश्यकता इस्लामिक पुस्तकों में क्यों लिखी गयी है?

 

हमारे सामने साधु के वेश में राक्षस, दैत्य और दानव खड़े हो गये हैं जिन्हें उनकी सेना पवित्र सिद्ध करने और सच्चे साधु को पापी सिद्ध करने का दुष्प्रचार कर रही है। इस सेना में वे सभी लोग सम्मिलित हैं जो किसी भी तरह सम्पूर्ण मानव समाज पर अपना वर्चस्व स्थापित करने और सत्ता छीनने की ताक में लगे हुये हैं।

...और धर्म का तात्विक सत्य तो यह है कि धर्म बहुत हो ही नहीं सकते, जो बहुत हो सकते हैं वे सम्प्रदाय हैं धर्म नहीं। धर्म की प्रकृति और अस्तित्व सनातन है, परिवर्तनशील नहीं। इसीलिए इस्लाम या क्रिश्चियनिटी जैसा वैदिक सनातन धर्म का कोई विशिष्ट नाम नहीं है, सनातन धर्म मानवमात्र का धर्म है, अन्य जो भी स्थिति है वह व्यावहारिक स्तर पर या तो अधर्म (विचारशून्यता) है या फिर विधर्म (धर्म से विचलन)।  

प्रकृति ने धर्म में बहुलता की एक सूक्ष्म व्यवस्था केवल जीवन रहित पिण्डों एवं जीवनयुक्त शरीरों में की है। ब्रह्माण्डीय पिण्डों के धर्म एवं अन्य सभी जीवित कोशिकाओं के धर्म में केवल चेतना का अंतर है, धर्म को इसी स्तर पर समझे जाने की आवश्यकता है। भारतीय मनीषियों ने धर्म के तात्विक और व्यावहारिक स्तरों पर चिंतन कर लोककल्याण के लिए एक सर्वस्वीकार्य आचरण की अनुशंसा की है जिन्हें हम धर्म के दश लक्षणों के रूप में सुनते और जानते आये हैं 

“धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः ।

धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम्॥“ - मनुस्मृति ६.९१                      

शुक्रवार, 26 अगस्त 2022

भारतीय राजनीति के दो मौलिक तत्व

मोतीहारी वाले मिसिर जी भारतीय राजनीति के दो मूल तत्व बताते हैं, प्रथम यह कि राजनीति एक ऐसी बटलोई है जिसमें कुछ भी पका कर खाया जा सकता है। बस, खाने वाले में दृढ़इच्छा शक्ति होनी चाहिये। क्रांतियों और युद्धों का इतिहास बताता है कि पकाने वाला कोई और होता है, खाने वाला कोई और होता है। और द्वितीय यह कि भारत में भले ही गणतंत्र और राजतंत्र के लिए सदा संघर्ष होता रहा है किंतु यहाँ की प्रजा राजतंत्र के लिए स्वयं को सर्वाधिक उपयुक्त प्रमाणित करती रही है

वे यह भी बताते हैं कि आम भारतीय अपने नायक को मनुष्य के रूप में नहीं बल्कि केवल भगवान के रूप में ही स्वीकार करना चाहता है। भगवान कृष्ण, भगवान बुद्ध, भगवान भीम, भगवान गांधी, भगवान नेहरू, भगवान लालू और उनके पुत्र, भगवान मुलायम, भगवान ... आदि इसके उदाहरण हैं। भगवानों के सहारे सत्ता कबाड़ने में बहुत बड़ा सहयोग मिलता है। जब हम अयोग्य किंतु धूर्त होते हैं तो हमें अपने प्रभुत्व के लिए एक भगवान गढ़ने और उसका भक्त होने की आवश्यकता होती है। हम भगवान के नाम पर सत्ता के लिए संघर्ष करते हैं और राजा बनते हैं। भगवानों की श्रेणी में माओजेदांग, कार्ल मार्क्स, लेनिन और स्टालिन के बाद इंदिरा, सोनिया, राहुल और मोदी भी आते हैं। जब हम किसी व्यक्ति और उसकी बातों को धरती का अंतिम सत्य मानने लगते हैं तो वह व्यक्ति भगवान हो जाता है और उसकी कही हर बात ईश्वरीय आदेश हो जाया करती है। राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक गुण्डागर्दी का इतना व्यापक स्वरूप और कहीं देखने को नहीं मिलेगा।

भारतीय राजनीति के उत्कर्ष और अपकर्ष के उभय तत्वों का मंत्रज्ञान भगवान बुद्ध ने एक बार अजातशत्रु के मंत्री वर्षकार को भी दिया था।    

“नृपराज्य-गणराज्य-नृपराज्य” सत्ता व्यवस्था का यह एक स्वाभाविक चक्र है। भारत में लगभग एक हजार साल तक गणतंत्रात्मक और राजतंत्रात्मक परम्पराओं को स्थापित करने के लिए तत्कालीन सत्ताओं में संघर्ष होता रहा है। गणराज्य नृपराज्य में और नृपराज्य गणराज्य में बदलते रहे हैं। महावीर स्वामी और गौतम बुद्ध के समय में उत्तरपूर्वी भारत गणराज्यों का प्रधान क्षेत्र था जिनके मुख्य प्रतिनिधि लिच्छवि, विदेह, शाक्य, मल्ल, कोलिय, मोरिय, बुली और भग्ग आदि हुआ करते थे।

एक बार अजातशत्रु ने अपने मंत्री वर्षकार को गौतम बुद्ध के पास भेजकर वज्जीसंघ को जीतने का उपाय पूछा। बुद्ध ने आनंद को संबोधित करते हुये अप्रत्यक्ष रूप से मंत्री वर्षकार को उत्तर दिया – “हे आनंद!

- जब तक वज्जियों के अधिवेशन एक पर एक और सदस्यों की प्रचुर उपस्थिति में संपन्न होते हैं;

- जब तक वे अधिवेशनों में एक मन से बैठते हैं, एक मन से उठते हैं और एक मन से संघकार्य सम्पन्न करते हैं;

- जब तक वे पूर्वप्रतिष्ठित व्यवस्था के विरोध में नियमनिर्माण नहीं करते, पूर्वनियमित नियमों के विरोध में नवनियमों की

अभिसृष्टि नहीं करते और जब तक वे अतीत काल में प्रस्थापित वज्जियों की संस्थाओं और उनके सिद्धांतों के अनुसार कार्य करते हैं;

- जब तक वे वज्जि-अर्हतों और गुरुजनों का सम्मान करते हैं, उनकी मंत्रणा को भक्तिपूर्वक सुनते हैं;

- जब तक उनकी नारियाँ और कन्यायें शक्ति और अपचार से व्यवस्थाविरुद्ध व्यसन का साधन नहीं बनायी जातीं;

- जब तक वे वज्जिचैत्यों के प्रति के प्रति श्रद्धा और भक्ति रखते हैं, जब तक वे अपने अर्हतों की रक्षा करते हैं, उस समय तक हे

आनंद! वज्जियों का उत्कर्ष निश्चित है, अपकर्ष सम्भव नहीं।

अजातशत्रु ने भगवान बुद्ध के संदेश में छिपे निहितार्थ को समझा और लिच्छविगणतंत्र की व्यवस्था में पारस्परिक फूट, संस्था सिद्धांतों के बहिष्कार, नैतिक व चारित्रिक पतन, आर्थिकभ्रष्टाचार, कदाचार, स्वेच्छाचारिता, गुरु और स्त्री का अपमान, वेश्यावृत्ति और लोकरक्षा के प्रति उदासीनता आदि दुर्गुणों को संचारित करके लिच्छवि गणतंत्र की जड़ें काट डालीं और वैशाली गणतंत्र को समाप्त कर मगध राजतंत्र स्थापित किया। बाद में लॉर्ड मैकाले ने भी यही मंत्र ब्रिटिश सत्ता को देकर भारत की जड़ें काट डालीं और भारत को सदियों के लिए अपना वैचारिक और आर्थिक दास बना लिया। ...और अब भारत का गणतंत्र एक बार फिर राजतंत्र को आमंत्रित कर रहा है। भारत के सभी गण-सदस्यों में गौतम बुद्ध शाक्य के उसी सिद्धांत की नकारात्मक व्याख्या और पालना की होड़ लगी हुयी है। ममता, लालूपुत्र, मुलायमपुत्र और सोनियापुत्र ही नहीं बल्कि अन्य कई लोग भी यदि सम्पूर्ण भारत नहीं तो कम से कम एक-एक राज्य के स्वतंत्र शासक बनने के लिए ही सही, किसी भी स्तर तक गिरने के लिए तैयार हैं।  

खदबदाहट

आज से लगभग 137 वर्ष पूर्व कुछ लोगों ने भारत में एक वृक्षारोपण किया था जिसपर कई पंछियों ने समय-समय पर अपना बसेरा बनाया। अब एक-एक कर कई पंछी दशकों पुराने पेड़ को छोड़कर कहीं और के लिए उड़ान भरने लगे हैं। आरोपों-प्रत्यारोपों की बौछारें भी आने लगी हैं। कहा जा रहा है कि दशकों पुराना पेड़ अब लोकतांत्रिक नहीं रहा। पेड़ से लटकी डालों ने स्पष्टीकरण दिया है कि जो पंछी उड़ कर कहीं और जा रहे हैं वे आवश्यकता से अधिक महत्वाकांक्षी होते जा रहे थे और वृक्ष के मालिक (जवाहरलाल नेहरू) का स्थान स्वयं लेना चाहते थे। पंछियों ने इस स्पष्टीकरण को यह कहते हुये अस्वीकार कर दिया है कि यह उड़ान, महत्वाकांक्षा के लिए नहीं बल्कि लोकतांत्रिक मूल्यों की पुनर्स्थापना के लिए है। यानी खदबदाहट सत्ता की नहीं बल्कि वैचारिक है। और हाँ! 18 दिसम्बर 1885 को यह वृक्षारोपण किया था ब्रिटिश नागरिक ए. ओ. ह्यूम, दादा भाई नौरोजी और दिनशा वाचा जैसे कुछ लोगों ने, किंतु बाद में गांधी जी ने नेहरू जी को इसका मालिक बना दिया। नेहरू अब नहीं रहे किंतु उस वृक्ष पर एकमात्र स्वामित्व आज भी उन्हीं का माना जाता है।

इतिहास के पृष्ठों में लिखा है कि स्वतंत्रता से पूर्व अप्रैल 1946 में ब्रिटिश इण्डिया की 15 कांग्रेस राज्य समितियों को अपना अध्यक्ष चुनना था जिसे वायसराय की एक्ज़ीक्यूटिव काउंसिल का वाइस प्रेसीडेंट बनाया जा सके, काउंसिल के वाइस प्रेसीडेंट को ही सत्ता हस्तांतरण के बाद स्वतंत्र भारत का प्रधानमंत्री भी नामांकित किया जाना तय था। अंग्रेजों ने कांग्रेस के अतिरिक्त तत्कालीन अन्य किसी भी क्रांतिकारी दल को सत्ता हस्तांतरण के लिए उपयुक्त नहीं माना और कांग्रेस को ही भारत का भाग्यविधाता मनोनीत कर दिया।

इससे पहले 1940 में रामगढ़ अधिवेशन में मौलाना अबुल कलाम आज़ाद को कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया था जो अप्रैल 1946 तक अपने पद पर बने रहे। भविष्य की राजनैतिक सम्भावनाओं को देखते हुये वे आगे भी अध्यक्ष बने रहना चाहते थे किंतु 20 अप्रैल 1946 को गांधी ने नेहरू के पक्ष में अपनी एकमात्र पसंद से सभी प्रतिद्वंदियों को सूचित किया जबकि कांग्रेस के अन्य लोग सरदार वल्लभ भाई पटेल को भारत के प्रथम प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहते थे इसलिए 15 में से 12 राज्य समितियों में पटेल को ही कांग्रेस अध्यक्ष बनाये जाने की स्वाभाविक सहमति बनी। यह वह समय था जब प्रदेश कांग्रेस कमेटी ही अध्यक्ष को मनोनीत कर सकती थी या चुन सकती थी।  

ब्रिटिश सत्ता वाले 15 में से 12 राज्य समितियों ने पार्टी अध्यक्ष के लिए पटेल को नामित किया जबकि नेहरू को एक भी प्रदेश कांग्रेस कमेटी ने नामित नहीं किया। गांधी की इच्छा को पूरा करते हुये कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्य आचार्य कृपलानी द्वारा नेहरू का नाम एक कागज पर लिखकर प्रस्तावित किया गया जबकि इसके लिए उनके पास कोई अधिकार नहीं था। यह पूरी तरह घरमानी मनमानी थी जिसमें आम सहमति का कोई स्थान नहीं था। सुभाष चंद्र बोस को पहले ही किनारे लगाया जा चुका था। तत्कालीन भारतीय राजनीति में गांधी की इच्छा, असहयोग, हठ और आमरण अनशन की धमकी ही सर्वोपरि हुआ करती थी। दूसरी ओर अनधिकृत और अलोकतांत्रिक रूप से सरदार पटेल पर दबाव डाला जाने लगा कि वे नेहरू के पक्ष में अपना नाम वापस ले लें। नेहरू अतिमहत्वाकांक्षी थे, वे कांग्रेस में दूसरा स्थान लेने के लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं थे, नेहरू की महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए गांधी का पूरा समर्थन ही नहीं बल्कि हठ भी सर्वोच्च था। मौलाना आज़ाद और राजेंद्र प्रसाद जैसे नेताओं को इसका सदा पश्चाताप बना रहा कि उन्होंने गांधी की इच्छा पूरी करने के लिए सत्य और निष्ठा का गला घोंटते हुये नेहरू का समर्थन किया।

यह खदबदाहट भारत के सभी राजनैतिक दलों में है, चाहे वह सत्ता में हो या विपक्ष में। व्यक्तिगत महत्वाकांक्षायें सत्य और निष्ठा का गला घोटती रही हैं। विभिन्न पेड़ों से उड़कर यत्र-तत्र विचरण कर रहे सभी पंछियों को एक मंच पर एकत्र होकर अब देश और समाज के बारे में सोचना चाहिये। यूँ भी, स्वतंत्रता के समय अधिकांश देशी राज्य स्वतंत्र थे और कभी ब्रिटिश राज्य के अधीन नहीं रहे जबकि स्वतंत्रता के बाद उन सभी राज्यों का एन-केन-प्रकारेण भारत संघ या पाकिस्तान में विलय किया गया था।  

यदि सम्भव हो तो सड़े हुये लोकतंत्र, जो अब निरंकुशतंत्र में बदल चुका है, को हटाकर भारत में पुनः एक विशाल राजतंत्र स्थापित किया जाना चाहिए। याद कीजिये, ईसापूर्व 321 में चंद्रगुप्त ने नंद वंश के घनानंद को हराकर तत्कालीन गणतांत्रिक व्यवस्था समाप्त करते हुये मौर्य वंश की राजतंत्रात्मक व्यवस्था स्थापित की थी।

रविवार, 21 अगस्त 2022

समुद्र गुप्त और इस्लाम

        यू-ट्यूब पर “आलमी जंक्शन” ने बताया कि गुप्तवंश के सम्राट चंद्रगुप्त (कार्यकाल 319 ईसवी से 335 ईसवी) के पुत्र महाराजाधिराज समुद्रगुप्त (जन्म 318-अवसान 380 ईसवी, कार्यकाल 335-375 ईसवी) का मोहम्मद साहब से रिश्ता था। किस्सा यूँ बताया गया कि सम्राट चंद्रगुप्त का विवाह एक पारसी बादशाह ख़ुशरू परवेज़ की बेटी मेहरबानो से हुआ था। विवाह के बाद मेहरबानो का नाम बदलकर चंद्रलेखा रख दिया गया। इस विवाह से चंद्रगुप्त को जो बेटा हुआ उसका नाम समुद्रगुप्त रखा गया। बादशाह ख़ुशरू परवेज़ की एक और बेटी थी जिसका नाम था शहरबानो। मोहम्मद साहब के नवासे इमाम हुसैन ने ईरान पर हमला करके बादशाह और उसकी बेटी को कैद करके मदीना भेज दिया और ईरान में इस्लाम की हुकूमत स्थापित की। बाद में इमाम हुसैन ने बादशाह की बेटी शहरबानो से शादी कर ली जिससे एक बेटा हुआ, नाम रखा गया “अली-अकबर-इब्न-ए-इमाम-हुसैन” (कहीं-कहीं इस नाम के स्थान पर अली-इब्न-हुसैन-ज़ैनल-आबिदीनभी लिखा हुआ मिलता है)। तो इस तरह समुद्रगुप्त और अली-अकबर-इब्न-ए-इमाम-हुसैन आपस में मौसेरे भाई हुये।

आलमी जंक्शन ने किस्से को आगे बढ़ाते हुये बताया कि जब कर्बला का युद्ध हुआ तो इमाम हुसैन ने समुद्रगुप्त को पत्र लिखकर सेना भेजने का संदेश दिया। समुद्रगुप्त ने राहिब दत्त नामक ब्राह्मण की अगुआई में एक सैन्य टुकड़ी ईराक की ओर भेज दी। समुद्रगुप्त की सैन्यटुकड़ी जब ईराक में कर्बला के मैदान तक पहुँची तब तक युद्ध समाप्त हो चुका था और इमाम हुसैन को मारा जा चुका था। ब्राह्मण सेनापति राहिब दत्त को मोहम्मद साहब के नवासे की हत्या से गहरा दुःख हुआ और उन्होंने उम्मैयद ख़लीफ़ यज़ीद पर हमला करके बदला ले लिया। बाद में उस भारतीय सैन्य टुकड़ी के लोग वहीं बस गये और हुसैनी ब्राह्मण के नाम से प्रसिद्ध हो गये।

तो आलमी जंक्शन के अनुसार यह किस्सा है हुसैनी ब्राह्मणों का। बताया जाता है कि पञ्जाब और उसके आसपास पाये जाने वाले दत्त लोग अपने पूर्वज राहिब दत्त की स्मृति में स्वयं को हुसैनी ब्राह्मण मानने लगे हैं।

 

“आलमी जंक्शन” का यह किस्सा मज़ेदार लगता है किंतु इस किस्से पर भरोसा करने से पहले इसका ऐतिहासिक विश्लेषण आवश्यक है।

1-    किस्से के अनुसार कर्बला का युद्ध इस्लामिक उत्तराधिकार के लिए उम्मैयद ख़लीफ़ यज़ीद प्रथम और हुसैन-इब्न-अली के बीच लड़ा गया। तारीख़ थी 10 अक्टूबर 680 ईसवी। जबकि गुप्तवंश के सम्राट चंद्रगुप्त (319-335) के पुत्र समुद्रगुप्त का कार्यकाल है - 335-375 ईसवी, अर्थात सम्राट समुद्रगुप्त की मृत्यु के तीन सौ पाँच साल बाद कर्बला का युद्ध लड़ा गया था जिसमें समुद्रगुप्त के सैन्यसहयोग का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। समुद्रगुप्त और हुसैन-इब्न-अली के किस्से को इतिहास की तारीख़ों ने गवाही देने से बिल्कुल मना कर दिया है तो भी इस किस्से के अगले हिस्से का विश्लेषण अभी शेष है।

2-    इतिहास के अनुसार ईसवी सन 680 में उम्मैयद ख़लीफ़ यज़ीद प्रथम ने पैगम्बर मोहम्मद के नवासे हुसैन-इब्न-अली की कर्बला के मैदान में हत्या कर दी और अगले तीन साल तक यानी 683 में अपनी मृत्यु के अंतिम क्षण तक हुकूमत की। “आलमी जंक्शन” के अनुसार (कर्बलायुद्ध के तीन साल बाद 683 में) समुद्रगुप्त के ब्राह्मण सेनापति राहिब दत्त ने उम्मैयद ख़लीफ़ यज़ीद को युद्ध में मारकर इमाम हुसैन की मौत का बदला लिया और वहीं बस गये। अद्भुत, भारतीय सेना ने विदेशी धरती पर तीन साल तक प्रवास करते हुये हुसैन का बदला लेने के लिए प्रतीक्षा की!   

3-    यदि यह मान भी लिया जाय कि समुद्रगुप्त की सेना के सेनापति राहिब दत्त ने उम्मैयद ख़लीफ़ यज़ीद को मारकर हुसैन की मौत का बदला लिया तो भी भारतीय सेना का यज़ीद से इमाम हुसैन का बदला लेने के लिए तीन साल तक ईराक में प्रवासी बनकर रहना किसी भी दृष्टि से व्यावहारिक प्रतीत नहीं होता।

4-    ऐतिहासिक अभिलेखों के अनुसार समुद्रगुप्त को लिच्छवि दौहित्र भी कहा जाता था जिसका अर्थ है “लिच्छवियों का नाती”। वास्तव में, चंद्रगुप्त का विवाह ईरानी बादशाह ख़ुशरू परवेज़ की बेटी मेहरबानो से नहीं बल्कि लिच्छवि राजकुमारी “कुमार देवी” के साथ हुआ था जिनके संयोग से लिच्छवि दौहित्र समुद्रगुप्त का जन्म हुआ था।

5-    पर्शिया के सासानियन बादशाह ख़ुशरू परवेज़ का शासनकाल ईसवी सन् 590 से 628 ईसवी तक रहा है। ईरान में ख़ुशरू नाम का एक और राजा हुआ है जिसका जन्म हुआ था 512 ईसवी में और मृत्यु हुयी थी 579 ईसवी में, उसने ईरान पर 531 से 579 तक राज्य किया था किंतु शहरबानो और मेहरबानो नाम की उसकी किसी शहज़ादी का नाम इतिहास में नहीं मिलता।

6-    इतिहास गवाही देता है कि हुसैन-इब्न-अली की पत्नियों में से एक शहरबानो सासानिद साम्राज्य के अंतिम राजा यज़्देज़र्द तृतीय की बेटी थी जिनसे अली-अकबर-इब्न-ए-इमाम-हुसैनया “अली-इब्न-हुसैन-ज़ैनल-आबिदीन” का जन्म हुआ था। पर्शिया के अंतिम सासानियन राजा यज़्देगर्द तृतीय का कार्यकाल ईसवी सन् 632 से 651 तक रहा है। किंतु इतिहास में मेहरबानो नाम की इनकी किसी बेटी का कोई उल्लेख नहीं मिलता। वास्तव में, हुसैन-इब्न-अली के बेटे अली-इब्न-हुसैन-ज़ैनल-आबिदीन का जन्म राजा यज़्देज़र्द-तृतीय की बेटी शहरबानो से हुआ था न कि राजा ख़ुशरू परवेज़ की किसी बेटी से। 

सावधान! जो लोग मानते हैं कि इतिहास अपने घर की खेती है, जैसा चाहो बो डालो और काट डालो, ऐसे लोगों के दूरदर्शी उद्देश्यों को यदि समय रहते नहीं पहचाना गया तो सभ्यता समाप्त होने में देर नहीं लगेगी, भले ही वह कितनी भी समृद्ध क्यों न हो।

कौन हैं हुसैनी ब्राह्मण

सनातनी हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच महाभारत काल का एक पुराना सम्बंध बताया जाता है। यूँ, यह एक गम्भीर शोध का विषय है कि महाभारत युद्ध में कौरव पक्ष की सेनाओं की पराजय के बाद पराजित राजाओं और उनकी सेनाओं का क्या हुआ? कुछ लोग बताते हैं कि कौरवों के वध के बाद कौरव पक्ष के बहुत से लोग गांधार जा कर बस गये और कुरु कहलाए। कालांतर में गांधार के सनातनियों, जिनमें सभी वर्णों के लोग थे, और कुरुओं ने पश्चिम की ओर प्रस्थान किया और ईराक आदि अरब देशों में यत्र-तत्र बस गये। अरबों की देखा-देखी इन्होंने भी अपने कई कबीले बना लिये और वहाँ के रहन-सहन को अपना लिया। पैगम्बर मोहम्मद का सम्बंध जिस कुरेश कबीले से बताया जाता है वह कुरुवंशियों का ही एक कबीला था यही कारण है कि कुरेश कबीले के लोग अपने पूर्वजों की तरह शिव को अपना आराध्य मानते रहे। बताया जाता है कि कुरेश या कुरेशी लोगों ने अरब में कई शिव मंदिरों की स्थापना की थी, पैगम्बर मोहम्मद के सगे चाचा कई शिवमंदिरों के पुजारी थे। अरब में यत्र-तत्र बसे सनातनियों ने स्थानीय लोगों से अपने सम्बंध स्थापित किये और वहीं की सभ्यता में रच बस गये, इन्हीं में से कुछ लोग स्वयं को हुसैनी ब्राह्मण मानते हैं। दत्त उपनाम वाले इन ब्राह्मणों को मोहियाल भी कहा जाता है जिसका अर्थ है भिक्षाटन करने वाले ब्राह्मण नहीं बल्कि भूस्वामी और योद्धा ब्राह्मण।

एक किस्सा यह भी है कि गुरु द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वत्थामा महाभारत युद्ध में घायल हो गये थे और पराजय की पीड़ा एवं लज्जा के कारण गांधार की ओर पलायन कर गये। उनके वंशज भी कालांतर में अपनी मुख्यभूमि भारत से दूर अरब की ओर ही आगे बढ़ते रहे। इंद्रप्रस्थ और हस्तिनापुर एक तरह से इन सभी के लिए सदा के लिए त्याज्य हो चुके थे। अश्वत्थामा के वंशजों में इंद्रप्रस्थ और हस्तिनापुर के लिए घृणा एवं आक्रोश था यही कारण है कि महाभारत युद्ध के बाद अरब देशों की ओर गये सनातनियों में भारत के प्रति आक्रामक भाव बना रहा। ब्राह्मण होने के कारण अश्वत्थामा के अरबी वंशजों ने कालांतर में हुसैनी ब्राह्मण के रूप में अपनी पहचान बना ली।     

पता नहीं इन किस्सों में कितना इतिहास है, कितना अनुमान है और कितना गल्प! जो भी हो, यह भी एक मज़ेदार किस्सा है, जिसकी पड़ताल आवश्यक है।