रविवार, 30 अगस्त 2020

सिम्बियॉसिस ...बोले तो लिव इन रिलेशनशिप

हमारे पास वैक्सीन हैं, दवाइयाँ हैं, निरंतर होते रहने वाले शोध हैं और बीमारियाँ हैं, लिव-इन-रिलेशनशिप में रहते हुए ये सब अपने-अपने किरदार से बहुत ख़ुश हैं ।

हमारे रिश्ते पल्मोनरी ट्युबरकुलोसिस, ह्यूमन ईम्म्यूनोडिफ़ीसिएंसी वायरस, एन्थ्रेक्स और यहाँ तक कि सामान्य से नज़ला-ज़ुख़ाम जैसी संक्रामक बीमारियों से आज भी मज़बूत हैं ।

लिव इन रिलेशनशिप के बाद अब हम एक काले जादू की बात करेंगे ।

काले जादू का खेल...

सूचना – सैनेटायज़र, फ़ेस मास्क और पैथोलॉज़िकल टेस्ट में सिमटा कोरोना मुस्करा रहा है और मैं राजाओं की अट्टहास से भयभीत हो रहा हूँ ।

काले जादू का सिद्धांत – “कोरोना की कोई दवाई नहीं हैं, चिकित्सा का प्रश्न ही नहीं उठता फिर भी कोरोना के संक्रमण से किसी की मृत्यु न हो जाय इसलिए सैनेटायज़र, फ़ेस मास्क और पैथोलॉज़िकल टेस्ट करना आवश्यक है”।

व्याख्या – यह एक ऐसा शब्दजाल है जो औद्योगिक बुद्धि के कालेजादू से बुना गया है और दुनिया भर के लोगों को सम्मोहित करता है, उत्सुकता जगाता है और भयभीत करता है ।

सांख्यिकी की आवश्यकता राजा को होती है, प्रजा को नहीं, इसलिए स्टेटिस्टिक्स का तक़ाज़ा है कि उसे अपनी ज़रूरतों के हिसाब से सजाया जाय । कोरोना के मामले में सैनेटायज़र, फ़ेसमास्क और पैथोलॉज़िकल टेस्ट्स वे उपकरण हैं जिनसे सांख्यिकी को सजाया जाता है । महामारी हो या भुखमरी या कोई अन्य प्राकृतिक आपदा ...सबके लिए अलग-अलग टूल्स बना लिए जाते हैं । ये टूल्स राजा के लिए बहुत उपयोगी होते हैं ...सत्ता पर अपनी पकड़ और मज़बूत करने के लिए इन्हीं टूल्स से युद्ध किया जाता है, प्रजा को लगता है कि प्राकृतिक आपदा से लोगों को मुक्त करने के लिए राजा दिन-रात परिश्रम कर रहा है । राजा के प्रति प्रजा की श्रद्धा अपने चरम पर पहुँचने लगती है । पिछले कई महीनों से दुनिया भर के सत्तातंत्र सैनेटायज़र, फ़ेसमास्क और पैथोलॉज़िकल टेस्ट्स में ही कोरोना को कैद करने का मंचन करने में मशग़ूल हैं । वैक्सीन का स्वप्न इस मंचन में तड़के का काम करता है ।

कोरोना एक ऐसा जैविक आयुध है जो अस्त्र भी है और शस्त्र भी । राजा को भला और क्या चाहिए?

युद्ध प्रारम्भ हुआ ...शारीरिक दृष्टि से कमज़ोर और पहले से बीमार रहे लोग मारे जा रहे हैं, मारे जा रहे लोगों में से कोई भी व्यक्ति इस युद्ध के लिए तैयार नहीं था । सत्ता में बने रहने के लिए आवश्यक है कि प्रजा को कभी भी किसी युद्ध का सामना करने के लिए तैयार न किया जाय । यदि प्रजा तैयार होगी तो राजा की लड़ाई कमज़ोर हो जाएगी और प्रजा जीत जायेगी । किंतु स्क्रिप्ट के अनुसार जीत राजा की होनी है । राजा ने एक कुशल योद्धा बनकर युद्ध की रणनीति तैयार की फिर प्रजावत्सल बनकर युद्ध से मुक्ति का मंचन करना प्रारम्भ कर दिया । दुनिया भर के देशों के राजा एक ही परिवार के सदस्य होते हैं । प्रजा के मामले में उनकी दृष्टि और योजनायें एक जैसी होती हैं ।

कोरोनाकाल में चालू उद्योग धंधे बंद हो गए, लोग घरों में क़ैद हो गए ।

कोरोनाकाल में कुछ नए उद्योग प्रारम्भ हो गए, मैंयूफ़ेक्चरिंग यूनिट्स में काम करने के लिए कुछ लोगों को घरों से आज़ाद करके फ़ैक्ट्रीज़ में क़ैद कर दिया गया । सैनेटायज़र्स, फेसमास्क, पैथोलॉज़िकल टेस्ट किट्स और पर्सनल प्रोटेक्टिव इक्विपमेंट किट्स का धड़ाधड़ उत्पादन होने लगा । एण्टी कोरोना वैक्सीन पर शोध की आँधी चलने लगी । प्लाज़्मा थेरेपी पर ज़ोर आज़माइश होने लगी ।

हमारे किले के सारे दरवाज़े, किले की दीवारें और बुर्ज़ ...सब कुछ जर्जर थे । किले के अंदर सेना पूरी तरह असुरक्षित थी । हमने किले के लिए कभी कोई प्रोटेक्टिव नीति नहीं बनायी बल्कि शत्रु सेना को रोकने के लिए हमने अपने सैनिकों का पैथोलॉज़िकल टेस्ट करना शुरू कर दिया । टेस्ट की रिपोर्ट निगेटिव होने पर हम राहत की साँस लेने लगे जबकि पॉज़िटिव होने पर आगे की किसी मुकम्मल कार्यवाही पर ख़ामोशी ओढ़ लेने लगे ।

टेस्ट हो रहे हैं ..लगातार । राजा का ध्यान टेस्ट पर है, चिकित्सा पर नहीं ...क्योंकि चिकित्सा उपलब्ध ही नहीं है ।

 

परिणाम – कोरोना ने दुनिया को कुछ नए उद्योगों और कुछ नई अनावश्यक आवश्यकताओं के लिए तैयार कर लिया है । इनफ़ॉर्मेशन टेक्नोलॉज़ी ने अपनी व्यापकता को एक नया आयाम दे दिया है । दुनिया का अर्थतंत्र नया आकार ग्रहण कर रहा है । सैनेटायज़र्स के अंधाधुंध प्रयोग से होने वाले कॉम्प्लीकेशन्स से कुछ और नई बीमारियाँ अस्तित्व में आने वाली हैं, उद्योग की गति में कुछ और वृद्धि होगी । उद्योगपति ख़ुशहाल होंगे, मज़दूर हम्रेशा की तरह मज़दूर रहेंगे  ...उद्योगधंधों में काम करने के लिए ।

 

तत्वज्ञान – भय सत्ता का भोजन है और समाधान उसका शत्रु ।

धर्म अफ़ीम भी धर्म कोरामीन भी

-      स्वीडन जलने लगा, दुनिया के बहुत से देश पहले से ही जल रहे हैं ।

-      धर्म जला रहा है हमें या यूँ कहिए कि धर्म की आड़ में हम ख़ुद ही जला रहे हैं दुनिया को । बात को समझना होगा ।

-      जब तक इंसान के रचे धर्म रहेंगे इस दुनिया में, ख़ून बहता रहेगा ।

-      जब कोई धर्म नहीं होगा तब इंसानियत का धर्म होगा, हमें उसी की ज़रूरत है ।

-      तो मैं मानता हूँ कि दुनिया भर में वे सारे धर्म ख़त्म हो जाने चाहिये जिन्हें हमने और आपने बनाया ।

-      इंसान के बनाए धर्मों को राजनीतिज्ञों ने हाईजैक करके फ़ोर्टीफ़ाइ कर लिया है । वे फ़ोर्टीफ़ाइड धर्म का प्रयोग अफ़ीम की तरह जनता को पिन्नक में बनाये रखने के लिए करते हैं ।

-      राजनीति युद्ध से प्रारम्भ होती है और उसका अंत किसी न किसी सभ्यता के अंत से होता है ।

मैं इज़्रेल में आर्यों को देखता हूँ...

इस धरती पर इज़्रेल ही एक ऐसा देश है जो हमें सम्मोहित करता है । मैं इज़्रेल को एक बलिष्ठ और दृढ़ इच्छाशक्ति वाले युवक के रूप में देखता हूँ । शायद आर्यावर्त के आर्य भी कभी ऐसे ही कैरेक्टेरिस्टिक्स वाले होते रहे होंगे ।

और हाँ ! इज़्रायल को इज़्रेल कहना मैंने तेल अबीव की एक युवा लड़की से सीखा है ।     

प्रतीक्षित वैक्सीन का सत्य

यदि हमने आश्वासनों पर भरोसा किया होता तो अब तक दुनिया के कम से कम पाँच देश – चीन, इज़्रेल, अमेरिका, रूस और भारत कोरोना की वैक्सीन मार्केट में परोस चुके होते । तो क्या अब वैज्ञानिक भी आश्वासन देने लगे हैं ?

सार्स समूह के सदस्य कोरोना का वर्तमान स्ट्रेन अभी तक अपनी विश्वविजय यात्रा पर अजेय आगे बढ़ता जा रहा है । हमारे सारे किले उसे देखते ही ढहने लगते हैं ....क्योंकि हमारी रणनीति पूरी तरह दोषपूर्ण और अप्राकृतिक है । ध्यान रहे ...जो अप्राकृतिक है वह अवैज्ञानिक भी है ।

...तो क्या अब समय नहीं आ गया है कि हमें अपनी रिसर्च मेथॉडोलॉज़ी और लक्ष्यों पर पुनः चिंतन करना चाहिये?

कोरोना वैक्सीन की राह में खड़ी समस्याएँ –

1-    अन्य RNA पोलीमरेज़ेस की तरह कोरोना वायरस के मामले में भी प्रोटीन प्रूफ़रीडिंग की क्षमता नहीं होती जिसके कारण इसकी म्यूटेशन दर यानी रूप बदलने की क्षमता बहुत अधिक होती है । इसका यही गुण वैक्सीन की सफलता पर बहुत बड़ा प्रश्न चिन्ह खड़ा करता है ।

2-    कोरोना वायरस “पॉज़िटिव सेंस सिंगल स्ट्रेण्ड” यानी चौथे समूह का आर.एन.ए. वायरस है जो स्वभाव से ही बहुत अधिक संक्रामक होता है । इसका ज़ेनोम साइज़ भी 26 से 32 किलोबेसेज़ का है जो इस समूह में सबसे अधिक है ।

3-    यद्यपि पॉज़िटिव सेंस आर.एन.ए. वायरस बहुत अधिक संक्रामक होते हैं किंतु इसी कारण से इनका आर.एन.ए. वैक्सीन बनाने के लिए कहीं अधिक सरल है, तो भी अमेरिका की MODERNA लैब पिछले कई दशकों से RNA पर ही काम कर रही है और आज तक उसे एक बार भी सफलता नहीं मिल सकी है ।

किस्मत अपने-अपने कोटे की...

कोरोना वायरस का एक अद्भुत गुण यह भी है कि यह भिन्न-भिन्न प्राणियों के प्रति भिन्न-भिन्न व्यवहार प्रदर्शित करता है । मनुष्यों के प्रति भी इसके व्यवहार में बड़ी भिन्नता देखी जा रही है ।

मनुष्यों में अपने शिकार के पहले से बीमार फेफड़ों के प्रति इस वायरस का व्यवहार कहीं अधिक क्रूर और घातक है जबकि स्वस्थ व्यक्तियों के प्रति इसका व्यवहार अपेक्षाकृत रिस्पेक्टिव और रस्मी है जिसका स्पष्ट उदाहरण कोरोना संक्रमितों के एसिम्प्टोमैटिक केसेज़ में देखने को मिल रहा है ।

कस्तूरी कुण्डल बसै मृग़ ढूँढय वन माहिं...

हम सब कोरोना के पीछे पड़ गये हैं जबकि हमें स्वयं के पीछे पड़ना चाहिए था । यदि हम अपना सारा ध्यान छलिया और महादुष्ट स्वभाव वाले चीन और पाकिस्तान की प्रकृति को बदलने की ओर केंद्रित कर देंगे तो हमारी अन्य रचनात्मक गतिविधियाँ और विकास कार्य बाधित हो जायेंगे । किसी फ़ॉरेन इनफ़िल्ट्रेशन से बचने के लिए हमें हमारे ही बीच के गद्दारों से निपटना होगा और अपने सुरक्षा तंत्र को सुदृढ़ करना होगा । कभी-कभी हमारे शरीर में भी कुछ कोशिकायें गद्दार की तरह काम करने लगती हैं । वैज्ञानिकों को कोरोना शिकार के एसिम्प्टोमैटिक केसेज़ पर अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिये । ये वे दीपक हैं जो अँधेरे में रोशनी दे रहे हैं और हममे से कोई भी उस रोशनी को देखना ही नहीं चाहता बल्कि हम ...द सो काल्ड साइंटिस्ट्स, केवल अँधेरों की ओर दौड़ते चले जा रहे हैं ।

कोई केस एसिम्प्टोमैटिक क्यों होता है, कैसे होता है ? जब चारों ओर आग लगी हो तो कुछ लोग पूरी तरह सुरक्षित कैसे हैं, क्यों हैं? क्या हमारे शोध की दिशा इस ओर नहीं होनी चाहिये ?  

...और आज की अंतिम बात यह कि हम पता नहीं कबसे RNA वायरस समूहों से घिरे हुये हैं, हमारी तमाम कोशिशों के बाद भी हम उनसे मुक्त नहीं हो सके हैं । हम आज भी HIV, HCV, Ebola, Zika, respiratory syncytrial Virus, Influenza, Yellow fever Virus, Dengue, Rhinovirus और Human T-lymphotropicvirus type-1 जैसे न जाने कितने घातक वायरस समूहों के साथ रह रहे हैं । क्या हम इनके लिए आज तक भी कोई वैक्सीन बना सके? आप पोलियो और टीबी की बात कहेंगे । टीवी तो जाकर फिर वापस आ गया और पोलियो वायरस अपने किस नए रूप में आने की तैयारी कर रहा है ...किसी को नहीं पता । कई बार मुझे लगता है कि हम अपनी सभ्यता को निहायत मूर्खता के साथ क्रूर अंत की ओर ले जा रहे हैं ।

अब हमें वायरस से मुक्ति यानी टोटल इरेडीकेशन के यूटोपियन ख़्वाब से निकलकर बाहर आना होगा और प्रकृतिप्रदत्त अपने शारीरिक सुरक्षातंत्र को सुदृढ़ करने के लिए अपनी जीवनशैली में आमूल-चूल परिवर्तन करने होंगे ।

सोमवार, 24 अगस्त 2020

सद्गुरु की भूमिका में कोरोना

प्रकृति और उसके अंग-उपांग मनुष्य के लिए सदा से गुरु की भूमिका निभाते रहे हैं । हमने अभी तक जो भी सीखा और त्रुटियों में सुधार किया उस सबमें प्रकृति की भूमिका सर्वोपरि रही है । कोरोना भी प्रकृति का एक उपांग है जिससे आज हम सब इतने भयभीत हैं । वास्तव में शनि ग्रह की तरह कोरोना भी हमें हमारे कर्मों का यथोचित परिणाम देने के मामले में बहुत ही कठोर सिद्ध हुआ है । कुछ उपलब्धियाँ क्या मिल गयीं हमने उनके अहंकार में डूबकर अपना बहुत कुछ खो दिया । प्रकृति हमें चेतावनी देती है, सुधरने का अवसर देती है और फिर भी हम न मानें तो हमें कठोर दण्ड देती है । 

पैसा और पद के आकर्षण की दीवानगी में हम पूर्वजों के संचित ज्ञान को विस्मृत करते रहे और अपने अर्जित ज्ञान की उपेक्षा करते रहे । परिणामतः हमारी जीवनशैली पूरी तरह अप्राकृतिक और अवैज्ञानिक होती चली गयी । हम वह सब करते रहे जो वर्ज्य और हमारे स्वास्थ्य के लिए घातक है ।

कोरोना संक्रमण से पहले तक हम किसी की नहीं सुनते थे, संक्रमण काल के प्रारम्भिक महीनों में भी नहीं सुनते थे किंतु मृत्यु के तांडव ने हमें बाध्य कर दिया कि हम सुनें भी, सोचें भी और जीवनशैली को बदलें भी । अभी तक हमने फ़िज़िकल डिस्टेंसिंग के बार में ही सोचा है वह भी पक्षपातपूर्ण ढंग से, लेकिन अब हमें जंकफ़ूड और खाने में प्रयुक्त होने वाले अखाद्य तेलों और रंगों के बारे में भी गम्भीरता से सोचना होगा । आप पूछ सकते हैं कि भला कोरोना से इसका क्या सम्बंध ?

कोरोना ने जिन लोगों को क्षति पहुँचाई है उनमें मुख्यरूप से वे लोग सम्मिलित हैं जिनकी रोगप्रतिरोध क्षमता कम है या जो पहले से टीवी या फेफड़ों के अन्य इन्फ़ेक्शन, डायबिटीज, हृदय रोग, मोटापा और लिवर डिसऑर्डर जैसी गम्भीर व्याधियों से पीड़ित रहे हैं । स्पष्ट है कि कोरोना ने तो एक दण्डनायक की तरह सामने आकर हमारी विकृत हो चुकी जीवनशैली का हमें दण्ड देना प्रारम्भ किया है । मैं बारबार कहूँगा कि कोरोना ने तो उन अवसरों का लाभ उठाया है जो हमने उसे जाने-अनजाने उपलब्ध करवा दिये हैं ।

भारत दुनिया में डायबिटीज, हृदय रोग और मुँह के कैंसर के मामले में अग्रणी देश की भूमिका में है । रिफ़ाइण्ड तेल, जंकफ़ूड, इंजेक्शन वाला दूध और सब्जियाँ, जेनेटिकली मोडीफ़ाइड अनाज, कपूरी तमाख़ू और गुटखा जैसी अखाद्य चीजों ने हमारी इच्छाओं और आवश्यकताओं पर अपना अधिकार कर लिया है । वैज्ञानिक उपलब्धियों के मूर्खतापूर्ण दुरुपयोग ने सब कुछ बदल कर रख दिया है । हमने हवा, पानी, मिट्टी, दूध, और खाद्य-पेय पदार्थों को विषाक्त कर दिया है, इस सबके बाद भी हमें कोरोना या इसी तरह के किसी अन्य विषाणु या जीवाणु से यह उम्मीद क्यों करनी चाहिये कि वह हमें अपार्चुनिस्टिक इनफ़ेक्शन का शिकार नहीं बनायेगा जबकि हमने ख़ुद ही उसे सारी सुविधाएं उपलब्ध करवा दी हैं और उसे आमंत्रणपत्र भी भेज दिया है!

 

आवश्यक हो गया है मेडिकल क्रिटिक भी...

 

यह क्रिटिक का युग हैतो फ़्रीडम ऑफ़ एक्स्प्रेशन का लाभ उठाते हुये हमें दर्शन, अध्यात्म, राजनीति और सांस्कृतिक मूल्यों पर तीर चलाने के साथ-साथ अपनी जीवनशैली और मेडिकल साइंस को भी क्रिटिक के निशाने पर रखना चाहिये । ध्यान रहे, विज्ञान के लिए क्रिटिक अपरिहार्य है, उसके बिना विज्ञान की कोई गति सम्भव नहीं अन्यथा फिर वह एक रूढ़ि मात्र हो कर रह जायेगा ।   

पिछले आठ महीनों से लगभग हर दिन कोरोना के सम्बंध में रंग बदलती मेडिकल अवधारणाओं (और तदनुरूप फ़तवाओं) ने वैज्ञानिक चिंतन की पद्धतियों और कार्यप्रणालियों का मज़ाक बना कर रख दिया है । ताजा फ़तवा यह है कि यद्यपि कोरोना का सोशल ट्रांसमिशन प्राम्भ हो चुका है किंतु बच्चों को फ़ेस्क मास्क की आवश्यकता नहीं है । यद्यपि कोरोना दिन-ब-दिन गम्भीर होता जा रहा है फिर भी शादी-बारातों में मेहमानों की संख्या पर से प्रतिबंध हटा लिया गया है । यद्यपि कोरोना दो मीटर से अधिक दूर तक भी पहुँच कर संक्रमण फैला सकता है तथापि लॉक-डाउन में और छूट देने पर विचार किया जा रहा है । वर्ष 2021 में एण्टी कोरोना वैक्सीन आने की सम्भावना है यद्यपि इसकी सफलता के बार में अभी पूरी तरह से कुछ कहा नहीं जा सकता । यद्यपि कोरोना की कोई स्पेसिफ़िक दवाई उपलब्ध नहीं है फिर भी हम रोगियों के इलाज़ में लाखों रुपये वसूल कर रहे हैं ।

ताले और चाबी की तरह कोई वैक्सीन किसी ख़ास किस्म के वायरस या बैक्टीरिया के लिए ही उपयोगी होता है, अतः इस बात की कोई गारण्टी नहीं कि जब तक एण्टी कोरोना वैक्सीन आम आदमी के लिए उपलब्ध होगी तब तक कोरोना वायरस के स्ट्रेन में कोई परिवर्तन नहीं हो जायेगा । मैंने अपने पूरे जीवन में मेडिकल साइंस को इतना विरोधाभासी और अनिश्चितताओं से भरा हुआ इससे पहले कभी नहीं पाया ।

अब यह आम आदमी को तय करना है कि उसे अपनी जीवनशैली में सुधार करना है या एण्टी कोरोना वैक्सीन और स्पेसिफ़िक दवाइयों के आने की प्रतीक्षा करनी है ।      

मंगलवार, 18 अगस्त 2020

ज़िहाद का नया ठिकाना...

यूनाइटेड नेशन्स ने भारत को बाख़बर किया है कि केरल में आइसिस के ज़िहादियों ने अपनी जड़ें पुख़्ता कर ली हैं । बीजारोपण से लेकर अंकुर फूटने, जड़ों के फैलने और फिर उनके पुख़्ता होने में एक लम्बा समय लगता है । इस लम्बे समय में पूर्वनियोजित रणनीति के अंतर्गत षड्यंत्रों को अंजाम दिया जाता रहा, केरल को कश्मीर का विकल्प बना दिया गया और हम बाख़बर होते हुए भी बेख़बर बने रहने का नाटक करते रहे । हम केरल की वामपंथी सरकार को इसके लिए दोषी नहीं ठहरा सकते । वामपंथी सरकार अपने आयातित उद्देश्यों और दुर्नीतियों के पथ पर आगे बढ़ती रही है, यही उसका धर्म है । यह दायित्व हमारा है कि हम भारत की अखण्डता के विरुद्ध हो रहे षड्यंत्रों को निर्मूल करने का प्रयास करते जो हमने नहीं किया । हमें विदेशी सूचनातंत्रों से सूचनायें मिलती हैं, तब हम बेशर्मों की तरह जागते हैं । यानी विदेशी सूचना तंत्र हल्ला न करे तो हम कभी न जागने के लिए दृढ़ संकल्पित बैठे हैं । यह कैसा राष्ट्रप्रेम है ? यह कैसा अखण्ड भारत का स्वप्न है ? क्या हमारा राष्ट्रप्रेम प्रदर्शन केवल एक पाखण्ड है ?

दोष हमारा-आपका कहीं अधिक है । हम कभी किसी पापाचार का विरोध नहीं करते, सोचते हैं कि यह सब राजनीतिक दलों का काम है । जे.एन.यू. में अफ़ज़ल गुरु की बरसी को लेकर कन्हैया और उमर ख़ालिद आदि के द्वारा मचाये गये हंगामे के समय मैंने प्रयास किया कि हमारे शहर में भी बुद्धिजीवियों की ओर से इस सबका तथ्यात्मक और तर्कसम्मत विरोध करने के लिए एक कार्यक्रम आयोजित किया जाय । लेकिन हम अपने शहर से एक भी बुद्धिजीवी को इसके लिए तैयार नहीं कर सके । यहाँ तक कि तथाकथित राष्ट्रप्रेमी संस्थाओं को भी नहीं ।

राजा दाहिर के युग से लेकर अब तक हम निरंतर पतन की ओर ही बढ़ते रहे हैं । हमने कुछ भी अच्छा नहीं सीखा सिवाय घटिया बातों, मक्कारियों और गद्दारी के । हमने हर चीज में केवल व्यापार को देखा और अब हम भ्रष्टाचार की प्रतिमूर्ति बन चुके हैं ।

कुछ साल पहले जब केरल से "किस फ़ॉर लव" आंदोलन की शुरुआत हुयी थी उसके बाद केरल में आइसिस के लोगों की सक्रियता की बात सामने आयी थी । किंतु भारत के अन्य प्रांतों को इसकी पहली ख़बर भारतीय ख़ुफ़िया संस्थाओं से नहीं बल्कि विदेशी संस्थाओं से मिली । सूचना मिलने के बाद भी हमने कभी ध्यान नहीं दिया ...ज़रूरत ही नहीं समझी । “कोऊ नृप होय हमहिं का हानी” हमारा शुतुर्मुर्गियाना आदर्श सिद्धांत रहा है ।

पिछले कुछ सालों से समय-समय पर केरल में आइसिस के झण्डे लहराने की ख़बरें भी आती रही थीं । सीरिया युद्ध के समय केरल से आइसिस में शामिल होने के लिए गये लोगों की ख़बरें भी आई थीं । ...हम फिर भी सोते रहे, भारत की केंद्रीय और प्रांतीय सरकारों के सभी कर्णधार सोते रहे ।

हम निहायत बेशर्म कुम्भकर्ण बन गये हैं । यदि आम नागरिक जाग्रत नहीं हुआ तो एक दिन हम केरल को खो देंगे । 


गुरुवार, 13 अगस्त 2020

मगध से टकराने का दुस्साहस शिवसेना को बहुत भारी पड़ेगा...

सत्ता ही सत्य को छिपाने लगे तो अपराधियों का दुस्साहस और बढ़ता है । 

एक बार वज्जीसंघ के निरंकुश और स्वेच्छाचारी राजकुमारों ने अपने राज्य के एक साधारण से सैनिक की बेटी को अपनी उद्दाम यौनापूर्ति का साधन बनाया । अनाथ हो चुकी ब्राह्मण कन्या को विश्व के प्रथम लोकतांत्रिक अट्टकुल राजाओं से न्याय की आशा थी किंतु सत्ता ने राजकुमारों का पक्ष लिया और आम्रपाली को न्याय से सदा के लिए वंचित कर दिया । न्यायवंचिता ब्राह्मण नगरवधू ने मगध की तत्कालीन सत्ता से किस तरह बदला लिया यह सर्वविदित है ।  

इस बार मगध के एक नागरिक को महाराष्ट्र की सत्ता ने न्याय से वंचित करने का प्रयास किया है । सत्ता के मद में बड़ी निर्लज्जता के साथ सुशांत सिंह राजपूत की मृत्यु का सच छिपाया जा रहा है, वह सच जो अब धीरे-धीरे प्याज की हर पर्त के साथ आँखों को कष्ट देने लगा है । यह न्याय के साथ सत्ता का बलात्कार है । इस सारे घटनाक्रम ने मुझेउद्वेलित किया है । सुशांत सिंह की मृत्यु के दुःख को अब मेरे गुस्से ने रिप्लेस करना शुरू कर दिया है । मगध के नागरिक से टकराने वाली महाराष्ट्र की शिवसेना सरकार का भी एक दिन सत्ता से वंचित होना तय है ।

राष्ट्रवाद पर रविश चिंतन से आगे...

आज की चर्चा गम्भीर है इसलिए Socio-philosophical ‘isms’ पर चर्चा करने से पहले एक पुराना गाना गुनगुना लिया जाय – 

कस्मे वादे प्यार वफ़ा सब, वादे हैं वादों का क्या

“वाद” में लिपटे वादे झूठे, वादों पे भरोसा करना क्या

“क्रिटिक अच्छा, क्रिटिकवाद नहीं; समालोचना अच्छी पर अंध-आलोचना नहीं अन्यथा अव्याप्तिदोष को रोका नहीं जा सकेगा । सत्य की प्रकृति व्याप्त होने की है, अव्याप्ति और एकांगी होने की नहीं । समूह में हम सब एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं इसलिए समालोचना सामूहिक जीवन की अनिवार्य माँग है” । - मिसिर जी ॥

पटना से प्रकाशित होने वाले आर्यावर्त्त समाचार पत्र के सम्पादन विभाग से 1984 में स्तीफ़ा देने के बाद बक्सर में रामरेखाघाट पर गंगाजी के शांत प्रवाह को देखते हुये एक दिन मिसिर जी को यह बोध प्राप्त हुआ था । उन दिनों पटना शहर में साम्यवादियों का बोलबाला हुआ करता था और शहर की आमजनता हँसिया-हथोड़ा वालों को ख़ुशी-ख़ुशी वोट दिया करती थी । मिसिर जी पुर्णिया से सीपीएम के विधायक अजित सरकार से तो प्रभावित थे किंतु पार्टी की विचारधारा और कार्यप्रणाली उन्हें प्रभावित नहीं कर सकी । मिसिर जी के वज़नदार तर्कों में एक यह भी हुआ करता – औषधि से अस्वस्थ व्यक्ति की प्राणरक्षा होती है किंतु उससे पेट की भूख नहीं मिटायी जा सकती । कठिन स्थितियों में कॉर्टीज़ोन से रोगी की प्राणरक्षा सम्भव है इसलिए अब साम्यवादियों की ज़िद है कि वे पूरी दुनिया के लोगों को केवल कॉर्टीज़ोन ही खिलायेंगे, वह भी भर पेट” ।

एक समय वह भी था जब मोतीहारी वाले मिसिर जी को भी कॉर्टीज़ोन ने बहुत आकर्षित किया था । यह तब की बात है जव वे युवा थे और माओ की लाल किताब की साम्यवादी दुनिया में खोये हुये थे । चीन, ज़र्मनी, फ़्रांस और रूस के साम्यवादी दर्शन से प्रभावित मिसिर जी का ज़ल्दी ही साम्यवाद से मोह भंग हो गया और उन्हें कम्युनिज़्म के काले जादू से मुक्ति मिल गयी । फिर उससे आगे की यात्रा ने मिसिर जी को इण्डियन कामरेड से भारत का सनातनी आर्य बना दिया । मिसिर जी आज भी मानते हैं कि युवाओं को अपनी चिंतन यात्रा साम्यवाद से प्रारम्भ कर क़्वांटम फ़िज़िक्स और टाओइज़्म से होते हुये कणाद के वैशेषिक, कपिल के सांख्य, पतंजलि के योग, गौतम के न्याय, जैमिनि के मीमांसा और बादरायण के वेदांत दर्शन की ओर करनी चाहिये । चिंतन यात्रा का यह पथ वैचारिक भटकाव को रोकता है और जिज्ञासु को हर तरह के वादों (Socio-philosophical isms) से मुक्त रखता है ।   

वास्तव में हम सब विभिन्न सम-विषम परिस्थितियों, मानसिकताओं, विचारों, निहित स्वार्थों और मर्यादाओं के जटिल समुच्चय में जीने के लिए बाध्य हैं । इस समुच्चय का सामना करने के लिए एक ऐसे लचीलेपन की आवश्यकता होती है जो मर्यादाओं के अनुशासन में प्रवाहित हो सके । कट्टरता और वादों की जड़ता हमें आगे नहीं बढ़ने देती । मोतीहारी वाले क्रिटिकवादी रविश पाण्डे जे.एन.यू. और ओस्मानिया यूनीवर्सिटी के छात्रों को तो प्रभावित कर लेते हैं पर मोतीहारी के ही मिसिर जी को कभी प्रभावित नहीं कर सके ।   

यदि हम विभिन्न वादों (Socio-philosophical isms) से मुक्त नहीं हैं तो हम संघर्षों को आमंत्रित करते हैं । जब हम राष्ट्रवादी बनते हैं तो अशोक बनते हैं और जब मानवतावादी बनते हैं तो बुद्ध बनते हैं । आम आदमी इनमें से कुछ भी नहीं बन पाता । चीनी राष्ट्राध्यक्ष राष्ट्रवादी हैं जो अपने राष्ट्र की मीमाओं के विस्तार में ही राष्ट्रवाद देख पाते हैं । भारत में ऐसे राष्ट्रवाद के लिए कभी कोई स्थान नहीं रहा । हम राष्ट्रवादी नहीं बल्कि राष्ट्रभक्त हैं, हम मानवतावादी नहीं बल्कि मानवताप्रेमी हैं । 

मिसिर जी मानते हैं कि युद्ध में शत्रु की हत्या करना राष्ट्रीय कर्तव्य है, पर घायल शत्रु की रक्षा करना मानवता है । जीवन ऐसी ही विसंगतियों और विरोधाभासों से भरा है । हमें बड़ी सावधानी से एक ऐसे मध्यपथ का निर्माण करना होता है जो बहुजनसुखाय हो । “सर्वे भवंतु सुखिनः” की कामना हमारा आदर्श है जो मुण्डे-मुण्डे मतिर्भिन्ना के कारण कभी यथार्थ नहीं बन पाता इसलिए सर्वजनसुखाय की कामना एक ऐसी कल्पना है जिसका कोई वास्तविक अस्तित्व नहीं होता । वास्तविक अस्तित्व होता तो आज कोई दुःखी नहीं होता, आज कोई रोगी नहीं होता, किसी को अपने अकल्याण की चिंता नहीं होती और धरती सर्वविकार रहित होती । किंतु हम जानते हैं कि यह सब सम्भव नहीं है, इसीलिए हमें प्रतिपल अपने लिए पथनिर्माण की आवश्यकता बनी रहती है । हम जीवन भर शोषण और शोषण के विरुद्ध होने वाले संघर्षों के शिकार बने रहते हैं इसीलिए पथिकभाव भारत के आर्यजीवन का यथार्थ रहा है ।  

शनिवार, 8 अगस्त 2020

राष्ट्रवाद पर रविश चिंतन


आपको याद होगा, जिस समय जे.एन.यू. में क्रिटिकसिद्धांतप्रेमी उमर ख़ालिद, कन्हैया कुमार, डी. अपराजिता राजा, शेहला रशीद शोरा और उनके कई क्रिटिकल प्रोफ़ेसर्स भारतीय संसद पर हमला करने वाले अफ़ज़ल गुरु की बरसी मनाने की तैयारी में रायता फैला बैठे तब बहुत से साहित्यकारों, कलाकारों, राजनीतिज्ञों और चिंतकों को राष्ट्रवाद की शल्यचिकित्सा का अवसर मिल गया था । महीनों तक राष्ट्रवाद की व्याख्यायें होती रहीं और अंत में राष्ट्रवाद को फासीवाद का एक आतंकी चोला पहना कर मरखने साँड़ की तरह नई पीढ़ी के पीछे छोड़ दिया गया था । तब, अवध नरेश श्रीराम, विक्रमादित्य और हर्षवर्द्धन जैसे आर्यावर्त के महान सम्राटों के राष्ट्रवंशज हैरान होकर जे.एन.यू. रचित मोडीफ़ाइड राष्ट्रवाद की इस बहस को सुनते रहे ।  

आज श्रीराम मंदिर के पुनर्निर्माण के अवसर पर एक बार फिर बहुचर्चित टीवी सम्पादक, रचनात्मक साहित्यकार, यथार्थवादी चिंतक तथा लेखन एवं पत्रकारिता में कई पुरस्कारों से सम्मानित किए जा चुके रविश कुमार को राष्ट्रवाद के साथ-साथ मंदिरों के औचित्य पर भी बहस परोसने का अवसर प्राप्त हो गया ।

रविश कुमार ने अपनी चर्चा में “टैगोर के राष्ट्रवाद”, “सुभाष के राष्ट्रवाद”, “नैतिक राष्ट्रवाद” और मानवतावादी राष्ट्रवाद” जैसे शब्दों का भरपूर प्रयोग करते हुये अपने जिस “वाद” को प्रस्तुत किया उसे मैं “रविश कुमार का धरातलवाद” कहना चाहूँगा ।  

रविश कुमार पांडे अपने एकांगी तर्कों के साथ जब धरातल की बात करते हैं तो उनकी बातें भारत की नयी पीढ़ी को बहुत प्रभावित करती हैं । रविश कुमार के इस धरातलवाद को समझना इसलिए भी बहुत आवश्यक है क्योंकि इसके ऊपर कोई शून्याकाश नहीं होता । वैक्यूम, चूँकि अध्यात्मिक ऊर्जा की तरह दिखायी नहीं देता इसलिए यथार्थवादियों की दृष्टि में उसका कोई महत्व नहीं होता । वह बात अलग है कि भौतिकशास्त्रियों और इंजीनियर्स ने इसी अदृष्टव्य वैक्यूम का उपयोग करके न जाने कितने भारी भरकम भौतिक कार्यों को करने में सफलता पायी है । आज दुनिया का कोई भी भौतिकशास्त्री और इंजीनियर भौतिक जगत में वैक्यूम के महत्व को नकार सकने की स्थिति में नहीं है । रविश कुमार जैसे भौतिकवादी अदृश्य होने के कारण शून्याकाश को स्वीकार नहीं कर सकते इसीलिए अध्यात्म जैसे तत्व भी उनके लिए अर्थहीन और औचित्यहीन ही रहते हैं । यही कारण है कि जब अयोध्या में राममंदिर के पुनर्निर्माण का शिलान्यास किया जाता है तो वे कोरोना, भूख, बाढ़, मौत और कोरोनापीड़ितों के उपेक्षित शवों की बात करते हुये मंदिरों के निर्माण के औचित्य पर प्रश्न खड़े करते हैं । यहाँ मैं यह समझ पाने में असमर्थ रहा कि यदि किसी कोरोनापीड़ित व्यक्ति की मृत्यु के बाद उसके स्वजन शव की उपेक्षा करने लगे हैं तो इसमें शासन-प्रशासन और व्यवस्थाओं का क्या दोष!    

मोतीहारी के ब्राह्मण रविश कुमार पांडे मंदिर के औचित्य पर प्रश्न उठाने के साथ जब रविंद्रनाथ ठाकुर के मानवतावादी दृष्टिकोण को सामने लाते हैं और उसे राष्ट्रवाद के ऊपर प्रतिष्ठित करने का प्रयास करते हैं तो एक अधूरी बहस को एक बार फिर थोड़ी सी गति मिल जाती है । शायद यह बहस कभी पूरी होगी भी नहीं, तथापि इसे यूँ ही अधर में छोड़ा भी नहीं जा सकता ।

राष्ट्रवाद, नैतिकतावाद, मानवतावाद और अध्यात्मवाद इनमें से किसी भी तत्व को अनुशासन के बिना देख पाने में मैं सदा ही असमर्थ रहा हूँ । रविश कुमार का मन-हृदय राष्ट्रवाद को फासीवाद के रूप में देख पाता है और इसीलिए “राष्ट्रमुक्त वैश्विक साम्यवाद” उनका प्रिय स्वप्न बन जाता है । रविश कुमार को भारतीय राष्ट्रवाद में अनुशासनिक तत्व का समावेश पसंद नहीं है, वे उसे स्वार्थ, फासीवाद और अमानवीय मानते रहे हैं । रविश को स्वतंत्रता चाहिये, ऐसी स्वतंत्रता जहाँ अनुशासन जैसे किसी तत्व का कोई अस्तित्व नहीं है । यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि मैं किसी भी “वाद” को उस लौहपाश के रूप में देख पाता हूँ जो नैतिकता, मानवता और अध्यात्म जैसे महान और व्यापक आयाम वाले तत्वों की व्यापकता को सीमित करता है और उनके स्वरूप को एकांगी बनाकर प्रस्तुत करता है । वास्तव में, मैं किसी भी वाद को तोड़ते हुये आगे बढ़ने में विश्वास रखता हूँ । वाद हमारे दृष्टिकोण को सीमित करते हैं, जबकि हमें अपने चिंतन को हर तरह के “वाद” से मुक्त रखना होगा ।

विकृति मनुष्य को आकर्षित करती है, प्रकृति उसे सचेत करती है । मानव इतिहास के तमाम कालखण्डों में ऐसे ही चक्रों की भरमार है जिनसे जूझते हुये आज हम यहाँ तक आ पहुँचे हैं । रविश कुमार पांडे की मान्यता है कि मंदिर एक व्यर्थ का वैभव है जिसका मनुष्य जीवन के लिए कोई अर्थ नहीं होता । भारत में ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो यह मानते हैं कि मंदिरों में पाखण्ड होते हैं और वे आम लोगों को बेवकूफ़ बनाते हैं । धर्मनिरपेक्षता के नाम पर ऐसे लोग चर्चों और मस्ज़िदों के निर्माण पर कभी कोई टिप्पणी नहीं करते । मैं मानता हूँ कि हमारी सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकता रोटी, कपड़ा, मकान और सुरक्षा है । हम मनुष्य जीवन के अब तक के इतिहास में इन्हीं चीजों के उत्पादन, वितरण और सुलभ उपलब्धता के लिए संघर्ष करते रहे हैं । यह संघर्ष अभी तक चल ही रहा है, जब तक यह संघर्ष समाप्त न हो जाय तब तक कोई और काम करने की आवश्यकता से वामपंथियों और धरातलवादियों का सदा विरोध रहा है । तब मैं जानना चाहता हूँ कि इन संघर्षों के पूर्ण हुये बिना ऐश-ओ-आराम की अन्य तमाम चीजों की भी क्या आवश्यकता है ? महँगी फ़्लाइट्स में यात्रा करने, महँगे होटलों में बुद्धिविलास के सेमिनार आयोजित करने, महँगी शराब पीने और आमोद-प्रमोद के लिए सिनेमा-थिएटर्स पर भी पैसा ख़र्च करने की क्या आवश्यकता ?

शराब यदि तुम्हारी आवश्यकता है तो मंदिर हमारी आवश्यकता है । जो रोटी हमें शारीरिक शक्ति देती है, उसी रोटी को नैतिक अनुशासन के साथ अर्जित करने की मानसिक शक्ति हमें मंदिरों से मिलती है । एक बार फिर कह रहा हूँ कि मैं न तो रोटीवाद के पक्ष में हूँ और न मंदिरवाद के पक्ष में । रही बात राष्ट्रवाद की, तो क्रिटिक के लिए यह रविश का एक प्रिय शब्द हो सकता है, मेरे लिये तो वाद रहित राष्ट्र ही महत्वपूर्ण है । वैश्विक साम्यवाद, सीमाविहीन देश और धर्मविहीन समाज जैसी यूटोपियन अवधारणायें बुद्धिविलास के विषय हो सकते हैं, किंतु वास्तव में यथार्थ के धरातल पर इनका कोई अस्तित्व सम्भव नहीं है ।  

गुरुवार, 6 अगस्त 2020

हागिया सोफ़िया भी एक प्रमाण है तोड़फोड़ के इतिहास का...


विषय –

इतिहास को नष्ट करने की परम्परा उनके आचरण का एक अहम हिस्सा है ।

संदर्भ –

-      आल इण्डिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड – “आप राम मंदिर बनाइये, हम उसे फिर गिरा देंगे

-      इरफ़ान हबीब लोन – “काला कपड़ा दिखाकर राम मंदिर का विरोध करना मेरा लोकतांत्रिक अधिकार है

-      असदुद्दीन ओवैसी – “बाबरी मस्ज़िद थी, है और रहेगी, इंशा-अल्लाह

 

सवाल जिसका ज़वाब कोई नहीं देगा –

The only question – “Are these people and such organizations Indians?”

 

सिद्धांत –

यदि जीवन का लक्ष्य अनधिकृत विस्तार हो, आतंक ही धर्म हो, आक्रमण और लूटमार ही कर्म हो तो शांति की स्थापना का आश्वासन एक धूर्ततापूर्ण छलावा के अतिरिक्त और कुछ नहीं हो सकता ।

 

प्राचीन इमारतों से छेड़छाड़ कर उनके बलात् रूपांतरणों पर ऐतिहासिक संदर्भों के आलोक में चर्चा –

दुनिया के पास राम मंदिर जैसे न जाने कितने मंदिरों, गिरिजाघरों और अन्य पूजा स्थलों को मस्ज़िदों में बदले जाने का एक दीर्घ इतिहास है । इसी साल, यानी सन् 2020 में टर्की की सुप्रीम कोर्ट ने संग्रहालय में बदले जा चुके इस्तांबुल के हागिया सोफ़िया चर्च को एक बार फिर मस्ज़िद में बदलने का आदेश दे दिया है ।

टर्की के कॉन्स्टेन्टिनोपल (इस्तान्बुल) में स्थित ग्रीक ऑर्थोडॉक्स चर्च हागिया सोफ़िया” (Sophia=wisdom) भी इस्लामिक विजेताओं की मोनूमेंट मॉडीफ़िकेशन स्कीमका शिकार होता रहा है । ग्रीक वास्तुविदों द्वारा निर्मित Byzantine स्थापत्य कला के प्रतीक हागिया सोफ़िया चर्च का मूल नाम Magna Ekklesia है जिसे चर्च के रूप में 15 फ़रवरी सन् 360 को जनता के लिए अर्पित किया गया था । दुर्भाग्य से इस चर्च को राजनीतिक और धार्मिक विवादों के कारण विद्रोहियों के द्वारा अपने निर्माण से अब तक दो बार, पहले सन् 404 में और फिर सन् 532 में आग के हवाले किया जा चुका है । सम्राट कॉन्स्टेन्टाइन प्रथम ने अपने विरुद्ध हुयी बगावत Nika riots को कुचलने के बाद सन् 537 में चर्च का पुनर्निर्माण करवाया और इसे ईस्टर्न Orthodox church में रूपांतरित किया । हागिया सोफ़िया कैथेड्रल का यह तीसरी बार पुनर्निमाण किया गया था । सन् 1453 में मुस्लिम विजेता Ottoman सम्राट Mehmat usman ने टर्की पर आक्रमण किया और इसे जीतने के बाद चर्च की वास्तुकला में भी परिवर्तन करते हुये इसे ओट्टोमन मस्ज़िद में बदल दिया । यह वही मुस्लिम विजेता मेहमत है जिसने कॉन्स्टेन्टिनोपल का नाम बदलकर नया नाम इस्तान्बुल रख दिया था । हागिया सोफ़िया को लेकर होने वाले क्रिस्टो-इस्लामिक विवाद को समाप्त करने के उद्देश्य से मुस्तफ़ा क़माल अतातुर्क ने सन् 1935 में विवादास्पद मस्ज़िद को राष्ट्रीय संग्रहालय में रूपांतरित कर दिया लेकिन अब सन् 2020 में टर्की की सुप्रीम कोर्ट के आदेश से इसे एक बार फिर मस्ज़िद में रूपांतरित कर दिया गया है ।

आल इण्डिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड ने हागिया सोफ़िया की नज़ीर पेश करते हुये अयोध्या राम मंदिर को फिर से मस्ज़िद में बदल देने का संकल्प प्रस्तुत कर दिया है जिसके समर्थन में असदुद्दीन ओवैसी ने भी बाबरी मस्ज़िद थी, है और रहेगी, इंशा अल्लाहका ऐलान कर दिया है ।

आक्रामक विजेता मुसलमानों की यह ज़िद रही है कि वे जहाँ खड़े होते हैं वहीं से और ठीक उसी वक़्त से दुनिया शुरू होती है । दुनिया न उसके पहले होती है और न उसके बाद, यही कारण है कि वे अपनी सामरिक विजय के ठीक पहले क्षण तक के इतिहास को नष्ट करके एक नया इतिहास शुरू करते हैं । मुस्लिम आक्रांताओं की यही परम्परा उन्हें पूरी दुनिया में बुल्ली और विवादास्पद बनाती है ।

धार्मिक स्थलों की आवश्यकता –

मैं, जन-आस्था के सभी आराधनास्थलों को शक्ति के ऐसे अद्भुत केंद्र के रूप में स्वीकार करता हूँ जो आस्थावानों को, उनकी क्षमता व पात्रता के अनुरूप, जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में संघर्ष के लिए असीम शक्तियाँ प्रदान करते हैं । 

राममंदिर विरोध पर केरल के राज्यपाल के वक्तव्य पर एक वक्तव्य –

“मैं पं. आरिफ़ मोहम्मद ख़ान को एक जलता हुआ दिया मानता हूँ । इस दिए की रोशनी की ज़रूरत हर किसी को है । काश! हमारे बीच कुछ और पंडित आरिफ़ मोहम्मद ख़ान होते” ।