गुरुवार, 16 मई 2024

लड़की हूँ, लड़ नहीं सकती

        स्त्री शोषण के विरुद्ध किसी पीड़िता स्त्री को न्याय के लिये खुलकर सामने आने का भाषण देना कितना सरल होता है और सामने आना कितना दुश्कर, इसका ज्वलंत उदाहरण है “मुख्यमंत्री के राजप्रसाद में अपनी पिटायी पर स्वाति मालीवाल का मौन”।

        वैशाख शुक्ल सप्तमी, दिन मंगलवार को पुष्य नक्षत्र में जमानती मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के राजप्रासाद में उनकी उपस्थिति में ही महिला आयोग की पूर्व अध्यक्ष और वर्तमान राज्यसभा सांसद स्वाति मालीवाल को बुरी तरह पीट दिया गया। पीटने वाले थे मुख्यमंत्री के मित्र निजी सचिव विभव कुमार।

           मालीवाल ने अपने उत्पीड़न को लेकर पुलिस को कोई परिवाद लिख कर नहीं दिया। केजरीवाल भी अभी तक मौन ही हैं। कल केजरीवाल के मित्र सांसद संजय सिंह ने पत्रकारवार्ता में घटना होने की पुष्टि की किंतु किसी भी पक्ष से कोई पहल नहीं की गयी। घटना के बाद से अभी तक स्वातिमालीवाल अपने दोनों घरों से अनुपस्थित हैं। स्वतः संज्ञान लेने वाले किसी मीलॉर्ड ने भी कोई संज्ञान नहीं लिया। अब लाख टके का प्रश्न यह उठता है कि पीड़ित स्त्रियों को न्याय पाने के लिये पुलिस थाने जाकर परिवाद लिखवाने और अन्याय के विरुद्ध संघर्ष करने के लिये प्रोत्साहित करने वाली स्वाति मालीवाल स्वयं अपने उत्पीड़न पर मौन क्यों हो गयीं?

            इसके उत्तर में दो अनुमान लगाये जा सकते हैं, एक तो यह कि स्वाति मालीवाल ने केजरीवाल और उनके मित्र विभव कुमार को इतना शक्तिशाली स्वीकार कर लिया है कि उन्हें मुँह खोलने के दुष्परिणामों की आशंका है जिसके कारण भयभीत मालीवाल ने मौन धारण करना ही अधिक उचित समझ लिया है। दूसरा यह, कि मालीवाल को वर्तमान व्यवस्था में संघर्ष करना व्यर्थ प्रतीत होता है और उन्हें अपने स्तर पर केजरीवाल से निपटने में अधिक विश्वास है। जो भी हो, दोनों ही बातें लोकतंत्र की निरर्थकता को प्रमाणित करने वाली हैं। प्रधानमंत्री को तानाशाह बताते हुये न थकने वाला मुख्यमंत्री स्वयं इतन बड़ा तानाशाह है कि सिटिंग सांसद भी उनके आगे अन्याय को स्वीकार करने के लिये विवश है। और यदि मालीवाल स्वयं अपने स्तर पर केजरीवाल से निपटने का मन बना चुकी हैं तो यह न्याय व्यवस्था की निरर्थकता को रेखांकित करने वाला और जनसामान्य को अन्याय के विरुद्ध संघर्ष करने के लिये हतोत्साहित करने वाला है।

भ्रष्टाचार के विरुद्ध संघर्ष को राजनीतिक खाद की तरह प्रयुक्त करने वाले केजरीवाल का मौन उसके पापों की ओर संकेत करता है। भारतीय राजनीति को बहुत से नेताओं ने कलंकित किया है पर इतना कलंकित आज तक किसी ने नहीं किया जितना कि निर्लज्ज अरविंद केजरीवाल ने किया है।           

आज लखनऊ में केजरीवाल और अखिलेश यादव एक पत्रकारवार्ता में एक साथ दिखायी दिये तो पत्रकारों ने स्वाति मालीवाल की पिटायी के सम्बंध में केजरीवाल से प्रश्न पूछने प्रारम्भ कर दिये। केजरीवाल निस्पृह भाव से बैठे रहे जबकि स्वस्फूर्त चेतना से अखिलेश यादव ने इस प्रश्न का तुरंत उत्तर दिया – “स्वाति मालीवाल की पिटायी से भी अधिक महत्वपूर्ण कई विषय हैं। मैं लिखकर लाया हूँ। ये भाजपायी किसी के सगे नहीं हैं। ये नेताओं पर झूठे मुकदमे करने वाला गैंग है।“ अखिलेश यादव का यह उत्तर भारत के जन-जन को स्मरण रखना चाहिये।     

चाइना गर्ल और अमेरिका का नर्क

        एल.ए. और फ़िलाडेल्फ़िया संयुक्त राज्य अमेरिका के विख्यात महानगर हैं जो अपनी कई विशेषताओं के बाद भी अमेरिका के नर्क को अपने भीतर समेटे हुये हैं। इस नर्क का नाम है “जॉम्बी ड्रग महामारी”। इस महामारी के उत्पन्न होने में जितना योगदान वैज्ञानिकों और उच्च-शिक्षितों का है उतना ही स्थानीय शासन-प्रशासन का भी रहा है।

        कुछ दशक पहले परड्यू फ़ार्मेसी के मालिक रिचर्ड सैकलर ने पीड़ा-निवारण के लिए सिंथेटिक ऑपियोइड से Oxicodone नामक एक औषधि बनायी जो बाद में OxyContin एवं Roxicodone के ब्रांड नाम से बाजार में प्रस्तुत की गयी। रिसर्च ट्रायल में 82% लोगों को इसके कई साइड-इफ़ेक्ट्स का सामना करना पड़ा जिसे फ़ार्मेसी के मालिकों और वैज्ञानिकों द्वारा छिपाया ही नहीं गया बल्कि इसकी भूरि-भूरि प्रशंसा भी की गयी। बाजार में उतारने के लिए प्रारम्भ में 500 डॉक्टर्स के साथ फार्मेसी के लोगों द्वारा मीटिंग की गयी जिसमें से केवल 380 डॉक्टर्स ही इसे प्रिस्क्राइब करने के लिए तैयार हुए, पर शीघ्र ही इस औषधि ने बाजार में अपने पैर पसार लिए। यह बहुत ही हानिकारक पीड़ाशामक सिद्ध हुयी क्योंकि इसके सेवन से लोग इसके अभ्यस्त होने लगे थे।

        आगे चलकर जब इस औषधि पर प्रतिबंध लगाया गया तो इसके अभ्यस्त हो चुके लोगों ने हेरोइन और मॉर्फ़ीन लेना प्रारम्भ कर दिया। फ़िर आयी ज़ाइलाज़िन जिसके बाद तो लॉस-एंजेल्स और फ़िलाडेल्फ़िया के लोग झुके हुये स्टेच्यू होने लगे। जॉम्बी-ड्रग-महामारी इसी ज़ाइलाज़िन का परिणाम है।   

        सिंथेटिक ओपियोइड बनाने में अग्रणी चीन ने चाइना गर्ल के नाम से फ़ेंटानिल का उत्पादन किया जिसे अमेरिकी लोगों ने पसंद किया। चाइना गर्ल इस ओपियोइड का छद्म नाम है जो मॉर्फ़ीन से एक-सौ गुना और हेरोइन से पचास गुना अधिक मादक होता है। भारत में भी युवाओं को नर्क में धकेलने के लिए मारीजुआना और कोकीन का प्रचलन रहा है। उड़ता पञ्जाब अफीम और सुरा के लिये कुख्यात रहा है जबकि तेलंगाना में अल्प्राज़ोलम वहाँ के युवाओं की पसंद मानी जाती है।

        तुरंत प्रभाव के लिये जिस पीड़ाशामक औषधि की खोज की गयी उसने निर्माताओं और डॉक्टर्स को मालामाल किया किंतु युवाओं को नर्क में धकेल दिया। अब तनिक बाबा रामदेव प्रकरण में मीलॉर्ड के वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर भी विचार कर लिया जाय। मीलॉर्ड मानते हैं कि कई रोगों का चिकित्सा जगत में कोई उपचार नहीं है जबकि बाबा उनके उपचार का आश्वासन देते हैं, यह बाबा का भ्रामक प्रचार है जिसके लिये चार बार क्षमायाचना करने पर भी मीलॉर्ड ने उन्हें क्षमा का पात्र नहीं माना। मीलॉर्ड जी! आप तो एलोपैथी और आयुर्वेद के विद्वान हैं, पर आपने वही स्वीकार किया जो एलोपैथी वालों ने आपको बताया है। एलोपैथी वालों ने अमेरिका को यह बता कर कि ऑक्सीकोन्टिन बहुत अच्छी और प्रभावकारी पीड़ाशामक औषधि है, युवाओं को जॉम्बी-ड्रग-महामारी में धकेल दिया। जबकि आयुर्वेद का तो सिद्धांत ही है “प्रयोगः शमेद् व्याधिं योऽन्यमन्यमुदीर्येत्” अर्थात् वही चिकित्सा प्रशस्त है जो व्याधि का तो शमन करे पर किसी अन्य व्याधि को उत्पन्न न करे।

अर्ध-मूर्च्छित समाज व्यवस्था

        राजतंत्र बहुत अच्छा हो सकता है या फिर बहुत बुरा, जबकि लोकतंत्र न तो बहुत अच्छा होता है और न बहुत बुरा। साम्यवादी क्रांतियों में धनसम्पन्न लोगों की क्रूरतापूर्वक हत्या और उसके बाद की सत्ताव्यवस्था से दुनिया ने बहुत कुछ सीखा है। चीन के साम्यवादी शासन में वैयक्तिक स्वतंत्रता की प्रतिदिन किसी न किसी रूप में हत्या कर दी जाती है, सोवियत संघ का विघटन हम देख ही चुके हैं। भारत और अमेरिका जैसे देशों के सत्ताधीश इन क्रांतियों से भयभीत हैं और इनकी पुनरावृत्ति नहीं चाहते।

        रक्तसंघर्ष से बचने के लिए शासनव्यवस्था को बहुत अच्छा बनाना होगा जो राजतंत्र में तो सम्भव है पर लोकतंत्र में बिल्कुल भी नहीं। तो क्या अमेरिका और भारत का जन-असंतोष किसी रक्तक्रांति का कारक हो सकता है!

        भारत जैसे लोकतंत्र में साम्प्रदायिक हिंसा तो हो सकती है पर रक्तसंघर्ष नहीं। बोल्शेविक क्रांति के परिणामों से डरते हुये लोकतांत्रिक देशों के सत्ताधीशों ने एक ऐसी क्रूर व्यवस्था विकसित कर ली है जिसमें वे गण को न जीने देते हैं, न मरने देते हैं। यह व्यवस्था अपनी प्रजा को अर्धमूर्छित बनाये रखने में विश्वास रखती है, इसके लिए अमेरिका के सत्ताधीशों ने अपनी प्रजा को ज़ाइलाज़िन और फ़ेंटालिन जैसी औषधियों के मादक प्रभाव का अभ्यस्त और युवाओं को बेरोजगारी भत्ता देकर अकर्मण्य बनाया तो भारत के सत्ताधीशों ने आरक्षण, कर्ज माफ़ी, दानवितरण और सुरा के माध्यम से अपनी प्रजा को अर्धमूर्छित कर दिया है। जनता इस मूर्छना की अभ्यस्त हो चुकी है और अब इसे बदलने की बात सोचना भी जन-असंतोष उत्पन्न कर सकता है। भारत के सभी राजनीतिक दल इस बात पर एकमत रहते हैं कि सत्ता में बने रहने के लिए गण को अर्धमूर्छित अवस्था में बनाये रहना आवश्यक है। लोकतंत्र वास्तव में एक प्रतिस्पर्धा-तंत्र है जहाँ हर किसी को अपनी आसुरी या दैवीय शक्तियों के साथ अपने-अपने वर्चस्व के लिये संघर्ष करते रहना होता है। भारत की प्रजा इस प्रतिस्पर्धा में पराजित हो चुकी है, एलिट क्लास और सत्ताधीश बिजयी होते जा रहे हैं।   

        आरक्षण और दान-वितरण किसी भी समाज को अपंग बनाने के लिये मीठे विष की तरह प्रभावकारी होते हैं । आरक्षण से प्रतिभाओं की हत्या की जाती है और दान-वितरण से लोगों को अकर्मण्य बना दिया जाता है। अब संसाधनों की लूटमार के स्थान पर उत्पादों की लूटमार होने लगी है। उपभोक्ता वस्तुओं का दान-वितरण एक तरह से साम्यवादी सिद्धांतों वाली लूटमार है जिसे कुछ कर्मठ लोगों से छीनकर अकर्मण्य लोगों में बाँट दिया जाता है। बची-खुची कमी कर्जमाफ़ी से पूरी कर दी जाती है। ये वे स्थितियाँ हैं जो कर्मठता, प्रतिस्पर्धा और कुशलता को अपने पास भी नहीं आने देतीं। भारत में निजी क्षेत्र के शिक्षण संस्थान और उद्योग न होते तो अब तक यह देश पूर्ण अपंगों का देश हो चुका होता।

        भारत में लोक अर्धमूर्छित है और सत्ता लोक को अर्धमूर्छित बनाये रखने के उपायों के लिए सजग है । यह सब इसलिए क्योंकि हमने पश्चिम की देखा-देखी धर्म के अंकुश को अपने जीवन के सभी क्षेत्रों से निकालकर बाहर फेक दिया है। धर्म को पूजा-पाठ से जोड़ दिया और धर्म से सामाजिक शुचिता और मानवीय मूल्यों को अलग कर राजनीति से जोड़ दिया जिसका कोई अर्थ ही नहीं है।  

मंगलवार, 14 मई 2024

लोकतांत्रिक हिंसा

        कल मंगलवार के दिन केजरीवाल के मित्र और निजी सचिव विभव कुमार ने जमानती मुख्यमंत्री के वैभवशाली राजप्रासाद में राज्यसभा सांसद स्वाति मालीवाल को पीट दिया। मंगलवार हनुमान जी का दिन माना जाता है, जेल से छूटने के बाद जमानती मुख्यमंत्री भोर होते ही हनुमान जी के दर्शन करने गये थे। आमआदमी के राजप्रासाद के लोग हनुमान भक्ति से ओतप्रोत हैं। केजरीवाल और विभव कुमार की मित्रता उस समय से है जब वे राजनीति में आये भी नहीं थे। राजमहल और लोकतंत्र पर विभव का अधिकार और प्रभाव इतना प्रचण्ड है कि वह राज्यसभा सांसद को उनके पदनाम से नहीं, बल्कि स्वाति नाम से पुकारता है। जमानती मुख्यमंत्री जी के निजी सचिव पहले भी दिल्ली के सचिव को पीट चुके हैं, तथापि बात-बात पर स्वतः संज्ञान लेने वाले मीलॉर्ड की दृष्टि में केजरीवाल का कभी कोई आपराधिक इतिहास नहीं रहा है।  

        महिला आयोग की पूर्व अध्यक्ष और वर्तमान राज्यसभा सांसद के नश्वर शरीर पर हाथ-पाँव चलाकर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रदर्शन के समय जमानती मुख्यमंत्री भी राजप्रासाद में उपस्थित थे। यदि यह प्रकरण किसी मीलॉर्ड के न्यायालय में कभी पहुँचा तो जमानती मुख्यमंत्री बड़े भोलेपन से कह देंगे कि राजप्रासाद इतना बड़ा है कि उन्हें तो कुछ पता ही नहीं किस कोने में कब क्या हो गया। मीलॉर्ड को इस उत्तर से संतुष्ट होना ही होगा, लोकतंत्र का यही नियम है। श्रीलाल शुक्ल ने रागदरबारी में शनीचरा की आह को यूँ ही नहीं गा दिया था, उन्होंने न जाने कितने शनीचरा लोगों को न्याय के लिये भटकते हुये देखा, तब जाकर रागदरबारी की उत्पत्ति हुयी। मीलॉर्ड लोगों को शनीचरा के किसी भी तर्क से संतुष्ट नहीं होना चाहिये, लोकतंत्र का यही नियम है। इसीलिये यशस्वी जमानती मुख्यमंत्री दहाड़ते हुये कहते हैं कि वे मोदी की तानाशाही का अंत करने और संविधान बचाने के लिए हनुमान जी की कृपा से जेल से छोड़े गये हैं। अस्तु! दिल्ली, पंजाब और हरियाणा के मतदाताओ! जमानती मुख्यमंत्री की पार्टी को भारी बहुमत से जिताइये और महिलाओं को राजप्रासाद में पीटे जाने का मार्ग प्रशस्त कीजिये।

*स्वतः संज्ञान में भी पक्षपात*

        राज्यसभा की महिला सांसद को मुख्यमंत्री निवास में मुख्यमंत्री की उपस्थिति में मुख्यमंत्री के मित्र व निजी सचिव द्वारा कल बुरी तरह पीट दिया गया। हम जानते हैं, तानाशाही मानसिकता और भ्रष्टआचरण वाले मुख्यमंत्री को जमानत देने वाले किसी मीलॉर्ड को अपने निर्णय पर ग्लानि नहीं हुयी होगी। यदि तनिक भी ग्लानि हुयी होती तो स्वाति मालीवाल की पिटायी पर अब तक उन्होंने स्व-संज्ञान ले लिया होता। स्वतः संज्ञान लेना मीलॉर्ड के विवेकाधिकार क्षेत्र में आता है, इसके लिये कोई सीमा नहीं है किंतु देश की जनता को नैतिकता और अनैतिकता की सीमाओं का बड़ा सूक्ष्मज्ञान होता है।   

        मीलॉर्ड लोग केजरीवाल को जमानत देने के लिये बड़े व्यथित थे। वे मानते थे कि अपनी हर प्रतिज्ञा को तोड़ देने में कुशल और हर आश्वासन के प्रतिकूल आचरण करने वाले मुख्यमंत्री का कोई आपराधिक इतिहास नहीं रहा है इसलिए उन्हें लोकसभा चुनावप्रचार के लिये जमानत दे दी जानी चाहिये। कुछ प्रतिबंधों के साथ उन्हें जमानत दे भी दी गयी। किन्तु किसी प्रतिबंध को ऐसे ढीठ लोग मानते ही कब हैं, लालू प्रसाद इसके प्रत्यक्ष उदाहरण रहे हैं!

        न्यायाधीश महोदय के प्रतिबंध की धज्जियाँ उड़ाते हुये जमानती मुख्यमंत्री ने पहला काम तो यह किया कि अपनी जमानत के बारे में तथ्यों को छिपाते हुये पूरा दारोमदार हनुमान जी की कृपा पर डाल दिया और संविधान पर संकट छा जाने के मिथ्या भय का दुष्प्रचार प्रारम्भ कर दिया। संविधान और लोकतंत्र की धज्जियाँ उड़ाने वाला व्यक्ति संविधान बचाने, लोकतंत्र बचाने और तानाशाही समाप्त करने का दुष्प्रचार कर रहा है। यह सब देख-सुनकर मीलॉर्ड संतुष्ट हुये होंगे कि उन्होंने सचिव और महिला सांसद को पिटवाने वाले एक तानाशाह को जमानत देकर दिल्ली की जनता पर बहुत परोपकार किया है।

        देश की जनता भारत की न्यायालयीन व्यवस्था से असंतुष्ट और विकृत-न्याय से दुःखी रही है किंतु अब लोग आक्रोशित भी होने लगे हैं। दंडनायकों के प्रति जनता का बढ़ता अविश्वास, अश्रद्धा और आक्रोश चिंताजनक है। नीतिनिर्माताओं को अपारदर्शी हो चुके कॉलीजियम सिस्टम के औचित्य पर एक न एक दिन विचार करना ही होगा।      

रविवार, 12 मई 2024

मतदान

 आज मंथन गहन करने

फिर ये अवसर आ गया है ।

राष्ट्रहित में कठिन निर्णय

का ये अवसर आ गया है ॥

यह लोकसत्ता पंचवर्षी

हम किसे अर्पित करें ।

धर्म के औचित्य पर अब

हम पुनः निर्णय करें॥

विवश होकर देश में ही

क्यों देश शरणागत हुआ ।

कोई कैसे राष्ट्रद्रोही

राष्ट्र में निर्भय हुआ ॥

आग है हर ओर धधकी

दम धुयें से घुट रहा ।

रोटियाँ सिकती हैं उनकी

देश पूरा लुट रहा ॥

सारथी का स्वाँग रच

हैं राजमद वो सब पिये ।

क्या वो जानें हम गरल के

कुंड पीकर भी जिये ॥

नेतृत्व जयचंदों ने छीना

स्वप्न सब धूमिल हुये ।

देश की छल अस्मिता

जयचंद कब अपने हुए !!

आज निर्णय की घड़ी में

नेक निष्ठा ले के चलना ।

कंटकों की और सुमनों

की तनिक पहचान करना ॥

देश किसके हाथ में

है सौंपना, पहचान कर ले ।

हो न जाये चूक फिर से

हो सजग मतदान कर ले ॥

लोकसत्ता पंचवर्षी

हम जिसे अर्पित करें ।

ले चले जो रथ सुपथ पर

सारथी ऐसा चुनें ॥

भाग्य के हम ही विधाता

हैं आज पल भर के लिये ।

फिर न कहना, फिर छलेगा

पाँच वर्षों के लिये ॥

सोमवार, 6 मई 2024

राष्ट्रधर्म

            सनातनराष्ट्र की रक्षा ही जिनके लिये सर्वोपरि धर्म रहा उन्हीं राजपूतों के एक संगठन ने भाजपा को हराने की शपथ लेकर स्पष्ट कर दिया है कि वे उन राजनीतिक दलों के साथ खड़े हैं जिन्हें न राष्ट्र की कोई समझ है और न किसी धर्म की । राजपूतों का यह संगठन उन लोगों के साथ खड़ा हो गया है जिनके पूर्वजों ने लोकतंत्र की हत्या करके स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पद की शपथ ली, अपनी मान्यताओं और सुविधाओं के लिये संविधान में इतनी बार परिवर्तन किये कि संविधान उन लोगों की स्वार्थपूर्ति का माध्यम बन कर रह गया जो देश के विभाजन के लिये उत्तरदायी थे । उनकी रीतियों-नीतियों ने बहुसंख्यक सनातनी हिन्दुओं को भारत के द्वितीय श्रेणी के नागरिक बना कर रख दिया जिससे बहुसंख्यक वर्ग के लोग बेचारे बनकर रह गये । आज हिन्दू अपने ही देश में भयभीत होकर रहने के लिये विवश है । यह कैसा संविधान है जिसके होते हुये भी आज किसी हिन्दू का सर तन से जुदा करने का फतवा निकाल दिया जाता है, किसी हिन्दू स्त्री (नूपुर शर्मा) के साथ यौनहिंसा करने की खुलेआम घोषणा कर दी जाती है, किसी भी हिन्दू की सरेआम हत्या कर दी जाती है, किसी भी हिन्दू लड़की को निकाह या यौनशोषण के लिए उठा लिया जाता है, कहीं भी राष्ट्रीय और निजी सम्पत्तियों को आग लगा दी जाती है।

            ऐसा क्यों हुआ कि भारतविभाजन के लिये वोट करने वाले लोग भारत में ही बस गये और अब वही लोग पूरे भारत को इस्लामिक मुल्क बना देने के लिये तैयार हो चुके हैं। सोचिये! साम्प्रदायिक हिंसाओं और सैनिकों पर आक्रमण करने के स्थान पर यदि हम सब केवल देश के विकास के लिए काम करते तो आज हम विश्व की सर्वश्रेष्ठ अर्थव्यवस्था के स्वामी होते, किंतु दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो सका। हमारी जो ऊर्जा और धन देश के विकास में लगना चाहिये था वह दंगों और आतंकी आक्रमणों से जूझने में व्यय हो रहा है।

            हम सब जानते हैं कि मँहगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार के लिये हम सब भी उतने ही दोषी और उत्तरदायी हैं जितने कि राजनेता। हाँ! यही सच है, इसलिये यह रोना मत रोइये, तुम जिस दिन चाहोगे उसी दिन से यह सब समाप्त हो जायेगा। भारत में रामराज्य लाने की इच्छाशक्ति हम लोगों में ही नहीं है। हम सब निजी स्वार्थों के लिये अवसरों की तलाश में रहते हैं, भूखे भेड़ियों की तरह। किंतु... अब स्थितियाँ बहुत विषम हो चुकी हैं। क्या आप भारत को पाकिस्तान बना देना चाहते हैं? क्या आप उन सनातन मूल्यों और आदर्शों की बलि चढ़ा देने के लिये तैयार हैं जिनकी प्रशंसा पूरा विश्व करता रहा है?

            आज सुबह शेयर बाजार ऊपर उठकर खुलने वाला था पर ऐसा नहीं हुआ, जानते हैं क्यों? महाराष्ट्र से समाचार आया कि वहाँ भाजपा के विरोधी प्रबल हो रहे हैं। समाचार सुनते ही लोगों में घबराहट फैल गयी कि यदि मोदी दोबारा सत्ता में नहीं आये तो यह देश बिक जायेगा। दूसरी ओर ब्रिटेन में ऋषि सुनक की कंजरवेटिव पार्टी के सामने मुस्लिम बहुल लेबर पार्टी भारी पड़ने लगी है। बस इसी घबराहट में भारतीय और विदेशी निवेशकों ने शेयर बाजार में बिकवाली शुरू कर दी। आप कहेंगे कि आपको शेयर बाजार से क्या लेना देना! यह शेयर बाजार ही है जो किसी भी देश के अर्थतंत्र की औद्योगिक साँस है और देश की आर्थिक दिशा को समृद्धि की ओर ले जाता है।

                देश के नेता को जाति-धर्म से ऊपर उठकर सर्वकल्याण की भावना से काम करना चहिये। सनातन आदर्शों का यह एक मुख्य मंत्र है । किंतु दुर्भाग्य से अल्पसंख्यक ग़ैर हिन्दू ऐसा नहीं सोचते । उन्हें अपने लिए एक ऐसा राष्ट्र चाहिये जहाँ हर काफिर उनका दास बनकर रह सके । हिन्दूराष्ट्र की व्यवस्था में इस तरह की कभी कोई संकीर्णता नहीं रही, आगे भी नहीं रहेगी, किंतु तब इसके लिए यह आवश्यक है कि हम सब हिन्दू और उनकी विभिन्न शाखाओं के लोग संगठित हों और विश्व में एक हिन्दूराष्ट्र की स्थापना करें जहाँ हिन्दू निर्भय होकर अपनी सनातनी मान्यताओं और मूल्यों के साथ रह सकें, …जहाँ मुसलमान, ईसाई और पारसी भी अपनी-अपनी मान्यताओं के साथ राष्ट्रीय उत्थान के भागी बन सकें न कि साम्प्रदायिक हिंसा से देश को कलंकित करें और दूसरों के अस्तित्व को ही समाप्त करने वाले कृत्य करें!

                हमारी चिंता में जातिगत संकीर्णता का कोई स्थान नहीं होना चाहिये । हम सवर्णों, पिछड़ों, दलितों या वनवासियों आदि की बात करने के स्थान पर मनुष्य और वंचित की बात क्यों नहीं करते? हमारी चिंता इन संकीर्णताओं के स्थान पर केवल उन मूल्यों के लिए है जो उदार हैं, जो सर्वग्राही हैं, जो सहिष्णु हैं और जो सर्वे भवंतु सुखिनः के सिद्धांत के साथ सबको साथ लेकर चलने में विश्वास रखते हैं। हमें स्वामी विवेकानंद और बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर के चिंतन के अनुरूप इस देश को बनाने के लिए मतदान से पहले इन सभी बातों पर विचार करना ही होगा।     

शनिवार, 4 मई 2024

*मुसलमानों को नहीं स्वीकार हैदर शेख से हरि नारायण*

इंदौर में २७ अप्रैल को हैदर शेख ने सपरिवार सनातन विचारधारा को स्वीकार कर लिया। हैदर शेख से हरि नारायण बनना पड़ोसी पुसलमानों को स्वीकार नहीं है, उन्होंने पहले तो हत्या कर देने की धमकियाँ दीं फिर हरिनारायण के घर पर पथराव कर दिया। हरिनारायण ने धमकी की सूचना पुलिस को दी थी पर पुलिस और सेना पर पथराव करने वाले निडर हुआ करते हैं। मुस्लमीन के नेता असदुद्दीन इस्लाम की घटती साख से चिंतित हैं। विश्वहिन्दू परिषद इसे धर्मांतरण नहीं बल्कि घर वापसी मानता है। विधिक दृष्टि से भारत में धर्मांतरण पर प्रतिबंध नहीं है, प्रतिवर्ष न जाने कितने गैरमुसमान लोग मुसलमान बन जाते हैं, जिसे इस्लामिक नेता शुभ अवसर मानते हैं। यह सर्वविदित है कि गैरमुसलमानों को मुसलमान बनाने के कई अभियान दुनिया भर में चलाये जा रहे हैं जिसे वे इस्लामिक आदेश मानते हैं और इसके लिए मानवता की किसी भी सीमा को तोड़ने के लिए सदैव तैयार रहते हैं। ब्रिटेन और फ़्रांस जैसे देश इस बात को लेकर चिंतित होते रहे हैं।

हैदर शेख ने अपने पूर्वजों के धार्मिक विचारों, आदर्शों और समाज एवं राष्ट्र के प्रति अपनी सनातन प्रतिबद्धताओं में स्वेच्छा से विश्वास व्यक्त किया और घर वापसी की जिसे धर्मांतरण नहीं माना जा सकता। वास्तव में धर्मांतरण जैसा कुछ होता ही नहीं है, हम या तो धार्मिक होते हैं या फिरअधार्मिक।

सैद्धांतिक रूप से भी धर्मांतरण एक रूढ़ शब्द है जिसका कोई तात्विक अर्थ न होकर वाचिक अर्थ भर है, और यह है एक सम्प्रदाय से दूसरे सम्प्रदाय में विचारांतरण, जैसा कि राखी सावंत करती रही हैं। उन्होंने हिन्दूआदर्शों एवं सिद्धांतों का परित्याग कर पहले ईसाई आदर्शों एवं सिद्धांतों को और फिर उनका भी त्याग करके इस्लामिक आदर्शों एवं सिद्धांतों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता व्यक्त की है।

राजनेता और मीडिया जिसे “धर्मांतरण” कहते हैं और विश्वहिन्दू परिषद के लोग “घर वापसी” कहते हैं, वास्तव में वह मानवता, जीवनशैली, समाज और राष्ट्र के प्रति विचारांतरण है। दुनिया भर में, विशेषकर भारत में नयी पीढ़ी के कुछ मुसलमानों ने “पूर्व मुसलमान” के रूप में अपनी पहचान बना ली है। ऐसे लोग स्कैंडिनेवियंस की तरह किसी साम्प्रदायिक प्रतिबद्धता से बँधने की अपेक्षा मानवतामुखी विचारों और सिद्धांतों के प्रति प्रतिबद्ध होने का प्रयास करते हैं। वे लोग भले ही इसे “नो रिलीजन” कहते हों पर वास्तव में यही तो वह सार्वकालिक धर्म है जो सनातन है। इसके अतिरिक्त तस्लीमा नसरीन और नाजिया इलाही जैसे भी न जाने कितने मुसलमान हैं जिनकी प्रतिबद्धतायें मुस्लिम प्रतिबद्धताओं से अलग हैं। साम्प्रदायिक प्रतिबद्धताओं को लेकर भारतीय पारसियों ने बड़े ही अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किये हैं, उनकी जीवनशैली भले ही पारसी हो पर भारत के प्रति उनकी रचनात्मक प्रतिबद्धताओं ने उन्हें सम्मान के शीर्ष स्थान पर पहुँचा दिया है।

तथाकथित धर्मांतरणों को लेकर भारत में साम्प्रदायिक क्रूरहिंसा होती रही है इसलिये नेताओं और मीडिया को धर्मांतरण जैसे अतात्विक और संवेदनशील शब्दों को गढ़ने एवं प्रचारित करने से पहले इनके दूरगामी और नकारात्मक परिणामों पर गम्भीरता से चिंतन करना चाहिये। भारत विभाजन के समय हुयी साम्प्रदायिक हिंसा के व्रण अश्वत्थामा के माथे के व्रण की तरह मानवता के व्रण बन चुके हैं। स्वतंत्र भारत में जब-जब साम्प्रदायिक घटनायें होंगी तब-तब हमें हठी मोहनदास के यूटोपियन थॉट्स व्यथित करते रहेंगे।   

बुधवार, 1 मई 2024

कलारों वाला बाग

 


अपनी वृद्धावस्था से जूझता यह वृक्ष ... कलारों वाले बाग का एकमात्र शेष सदस्य है जो साक्षी हुआ करता था हर उस लूटमार का जो सूरज डूबते ही राहगीरों के साथ आये दिन हुआ करती थी । कानपुर से बालामऊ जाने वाली पैसेंजर गाड़ी सूरज डूबने के बाद ही दो-तीन मिनट के लिये इस हाल्ट पर आकर खड़ी हुआ करती थी । गाड़ी का समय आज भी वही है पर पहले की तरह राहजनी अब यहाँ नहीं होती । राहजनी, सेंधमारी और डकैती जैसे अपराध आजकल अब होते ही कहाँ हैं! आधुनिक तकनीक ने उन्हें बेदखल कर दिया है और उनका स्थान अब साइबर क्राइम ने ले लिया है ।

मैं उस वृक्ष की बात आपको बता रहा था जो न जाने कितने अपराधों का मौन साक्षी हुआ करता था । अब उसे किसी के आने की प्रतीक्षा नहीं होती, निश्चिंतता ने उसे संसार के प्रति उदासीन बना दिया है । आँधियों ने उसकी शाखायें छीन लीं, उसका रूप-स्वरूप अब पहले जैसा नहीं रहा । सूरज डूब चुका है और गाड़ी भी आने ही वाली है, मैं घूम-घूम कर उस वृक्ष को नीचे से ऊपर तक बार-बार देखता हूँ जिसके पास अपराधों की न जाने कितनी साक्षियाँ हैं ...जिन्हें कोई न्यायालय आज तक देख नहीं सका ।

यहीं कहीं ...या यहाँ से कुछ आगे खिरनी का भी एक पेड़ हुआ करता था जो अब नहीं है । कई दशक बाद एक दिन जॉली बाबा के राजमहल में खिरनी के कुछ वृक्ष देखे थे, पीली-पीली खिरनियों से लदे हुये, जिन्हें देखते ही उछल पड़ा था मैं । हमारे गाँव के बाहर भी खिरनी वाला एक बाग हुआ करता था जो अब नहीं है । एक बार गोराई बीच पर खिरनी बिकते देखी तो मैंने दद्दू से कहा था – “चलो आज खिरनी खाते हैं”। मुझे आश्चर्य हुआ, दद्दू को खिरनियों के बारे में पता ही नहीं था जबकि उनका घर बोरीवली में गोराई समुद्र के पास ही है । जॉली बाबा को भी कहाँ पता था! मैंने एक खिरनी उठाकर मुँह में डाली तो उन्होंने पूछा – “इज़ इट एडिबल?” मैंने कहा – “आप भी खाकर देखिये, आपके विदेशी अतिथियों को बहुत पसंद आयेगी”।

मैंने शिवस्वरूप से पूछा – “खिरनी का पेड़ नहीं दिख रहा कहीं”। उत्तर मिला – “कलारों वाला बाग भी तो कहाँ रहा अब!”

कोविड वैक्सीन और हृदयरोग

     एंटीकोविड वैक्सीन कोवीशील्ड और बाबा रामदेव की इम्युनिटी बूस्टर कोरोनिल औषधि पर वैज्ञानिकों को बिना किसी पूर्वाग्रह के गम्भीर चिंतन की आवश्यकता है। कोरोनिल को लेकर शीर्ष न्यायालय के निर्णय कुछ भी हों (न्यायालय वैज्ञानिक नहीं है) किंतु अब कोरोनिल के घटक द्रव्यों पर क्लीनिकल ट्रायल होने ही चाहिये जिससे बाबा ऑस्टिन जयलाल को यह पता लग सके कि कोरोनिल स्वास्थ्य के लिये कितनी हानिकारजक या लाभदायक है।   

कई वर्षों के बाद एस्ट्रा जेनिका निर्मित कोवीशील्ड से होने वाले घातक कॉम्प्लीकेशंस एक बार फिर चर्चा में हैं। वायरोलॉजी और इम्यूनोलॉजी पढ़ने के बाद मैं अपने छात्र जीवन से ही सैद्धांतिकरूप से वायरसजन्य इन्ड्यूस्ड इम्यूनाइजेशन के पक्ष में नहीं रहा हूँ। यहाँ यह बताना आवश्यक है कि अठारहवीं शताब्दी में जिस समय योरोप में मलेरिया मृत्यु का पर्याय बन चुका था तब भारत में भिंड और बनारस के ब्राह्मण घूम-घूमकर देश भर में इम्यूनाइजेशन किया करते थे जो एक तरह से वैक्सीनेशन का ही तत्कालीन स्वरूप था । भारत की ब्रिटिश सरकार के अधिकारी इस वैक्सीनेशन के विरोधी थे किंतु बाद में उन्होंने इसकी प्रशंसा की और यह जानकारी ब्रिटेन तक पहुँचायी।  

  मैं ही नहीं, विश्वस्तर के कई वैज्ञानिक भी वैक्सीन के मुखर विरोधी रहे हैं । हम इस विषय में फिर कभी चर्चा करेंगे, अभी तो अमेरिका के खाद्य एवं औषधि प्रशासन विभाग के उस एक्ट की बात करते हैं जिसे FALCPA (Food Allergen Labeling and Consumer Protection Act of 2004) के नाम से जाना जाता है । अमेरिका में centre for food safety and applied nutrition जैसी खाद्य सुरक्षा एवं पोषण को लेकर कई संस्थायें बहुत सजग हैं जिनकी रिपोर्ट के आधार पर कुछ खाद्य-पेय पदार्थों को हानिकारक चिन्हित किया गया है । इसके कारणों पर भी विस्तृत चर्चा की जानी चाहिये, फ़िलहाल उन चौदह खाद्य पदार्थों के नाम जान लेना आवश्यक है जिनके सेवन से हमारे शरीर में गम्भीर प्रकार की अनूर्जता (एलर्जी) उत्पन्न हो सकती है । ये खाद्य पदार्थ हैं –

1-    Cereals containing gluten – जिनमें गेहूँ, जौं, राई और ओट्स सम्मिलित हैं ।  

2-    Crustaceans – जिनमें केकड़ा, झींगा और झींगा-मछली सम्मिलित हैं ।

3-    Eggs – अंडा (जिसे “संडे हो या मंडे रोज खाओ अंडे” के नारे के साथ बच्चों को खाने के लिए प्रेरित किया जाता रहा है)। 

4-    Fish – मछली जो दुनिया भर में मुख्य मांसाहार माना जाता है।

5-    Peanuts – मूँगफली (बच्चे जिसके दीवाने रहते हैं)। 

6-    Soybeans – सोयाबीन (जिसकी बड़ी से लेकर तेल, दूध और मिठाइयाँ तक बनाई जाती हैं)।

7-    Milk – दूध (भारत में अधिक दूध उत्पादन के लिये श्रीमान् कूरियन की श्वेतक्रांति प्रसिद्ध रही है)।

8-    nuts – सूखे मेवे (almonds, hazelnuts, walnuts, cashews, pecan nuts, brazil nuts, pistachio nuts)

9-    Celery – अजवायन (भारतीय रसोयी का लोकप्रिय मसाला)।  

10- Mustard – (सरसों/ राई)

11- Sesame seeds – (तिल के तेल से लेकर न जाने कितने व्यंजन भारत में लोकप्रिय हैं)

12- Sulpherdioxide and sulphates (at concentration of more than 10 mg /kg or 10 mg/L in terms of total sulpherdioxide) used as a preservative.  

 

इन सभी खाद्य पदार्थों और खाद्य संरक्षकों के गम्भीर साइड-इफ़ेक्ट्स अब सर्व विदित हो चुके हैं । कोवीशील्ड को लेकर चिंतित होने वाली लॉबी को इन खाद्य पदार्थों के लिए भी चिंतित होने की आवश्यकता क्यों नहीं होती है? एक समस्या और भी है, गेहूँ, जौं, सोयाबीन, मूँगफली, तिल, सूखे मेवे, सरसों, अजवायन और दूध जैसे खाद्य पदार्थों का सेवन छोड़ भी दिया जाय तो फिर खाने के लिए बचता ही क्या है?

विदेशों में भारतीय मसालों पर प्रतिबंध

मैं संतुष्ट हूँ कि कुछ भारतीय निर्माताओं के मसालों पर विदेशों में प्रतिबंध लगा दिया गया है । सम्भव है कि अब भारत में भी प्रतिबंध के कारणों को लेकर चर्चा प्रारम्भ हो और लोग अपने स्वास्थ्य के प्रति जागरूक हों ।   

अरब, मिस्र और योरोप के व्यापारियों की पहली पसंद रहे भारतीय मसाले, जिनके कारण भारत दीर्घकाल तक विदेशी दासता में बँधा रहा, अब अपयश के कारण बनने लगे हैं । पहले सिंगापुर एवं हांगकांग और फिर मालदीव ने भी एवरेस्ट और एम.डी.एच. के चार मसाला मिश्रणों को प्रतिबंधित कर दिया है । इन देशों की सरकारों के अनुसार चार प्रकार के इन मसाला मिश्रणों में कैंसर उत्पादक कीटनाशक एथिलीन ऑक्साइड की उच्च मात्रा पायी गयी है ।  

भारत में एवरेस्ट और एम.डी.एच. (महाशियाँ दी हट्टी) के मसाला उत्पाद बहुत लोकप्रिय माने जाते हैं । भारत में स्थानीय स्तर पर मिलने वाले मसाला उत्पादों में आर्सेनिक की मात्रा पाये जाने के समाचारों से हम सब समय-समय पर अवगत होते रहते हैं किंतु उपभोक्ताओं में जिस प्रकार की जागरूकता होनी चाहिये उसका सर्वथा अभाव ही प्रायः देखने को मिलता रहा है ।

घातक कीटनाशक मसालों और अनाजों में ही नहीं अच्छी कम्पनीज़ के मधु में भी पाये जाते रहे हैं । जागरूक उपभोक्ताओं को भारत में कैंसर, मधुमेह और यकृत के रोगियों की बढ़ती संख्या के कारणों पर भी चिंतन-मनन करने की आवश्यकता है । रासायनिक खादों और कीटनाशकों के अंधाधुंध व्यवहार ने वैज्ञानिकों को चिंतित किया है। आम आदमी को इस सबसे कोई लेना देना नहीं होता चाहे वह कृषक हो या उपभोक्ता पर यह तो सरकार का भी दायित्व है कि कृषि में व्यवहृत होने वाले इन घातक रसायनों को प्रतिबंधित करने के लिये कठोर कदम उठाये । जनता की सेवा करके अपार सम्पत्ति के मालिक बन गये मंत्रीगण और रिश्वतखोर अधिकारी तो ऑर्गेनिक मसाले और अनाज का उपयोग कर सकते हैं पर आम ऊपभोक्ता के पास बाजार पर निर्भर रहने के अतिरिक्त और कोई उपाय है भी तो नहीं; इसीलिये मसालों को हम घर पर ही तैयार करने के पक्ष में परामर्श देते रहे हैं, जिसका महिलाओं ने कभी समर्थन नहीं किया । किंतु यह दायित्व महिलाओं का ही नहीं, पुरुषों का भी है । तात्कालिक रूप से इसके अतिरिक्त हमारे पास और कोई विकल्प नहीं है । कम से कम हम प्रोसेस्ड मसालों में मिलाये जाने वाले हानिकारक प्रिज़र्वेटिव्स से तो स्वयं को सुरक्षित रख ही सकते हैं ।