शनिवार, 5 मार्च 2016

J.N.U. में “गांधी का देश”

भाषण का विषय – “गांधी का देश” ; वक्ता – दिल्ली वि.वि. में हिंदी के प्रोफ़ेसर अपूर्व आनन्द ; मंच संचालन – जानकी नायक । संचालिका के संबोधन की भाषा – अंग्रेज़ी ; हिंदी प्रोफ़ेसर की भाषा – नेहरूइक हिन्दुस्तानी
स्थान – जे.एन.यू. परिसर ; दिनांक – 4 मार्च 2016 ; भाषण की कुल अवधि 1 घण्टा 15 मिनट ; जानकी नायक ने अपूर्वानन्द का परिचय देते हुये बड़े गर्व से बताया कि उन्होंने उमर ख़ालिद का “हार्ट टचिंग इण्टरव्यू” लिया था ।

हिंदी के प्रोफ़ेसर अपूर्वानन्द ने उर्दू ज़ुबान में अपनी तक़रीर पेश करने से पहले बताया कि उन्होंने कुछ लोगों की चिंता में 11 दिन 11 रातें कुछ लोगों के साथ गुज़ारी हैं तब उन्हें अचानक पता चला कि कन्हैया को ज़मानत मिल गयी है जिससे उन्हें ख़ुशी से ज़्यादा राहत का अहसास हुआ । व्यंग्य के धनुष पर कटाक्ष के बाण छोड़ते हुये
अपूर्वानन्द की तक़रीर के तरीके और विषय ने मेरे मन में गुरु की गुरुता पर सवाल खड़े किये । ख़ैर, जब सारे तीर चलाये जा चुके तो शरविहीन हुये गुरु जी ने गांधी का पोस्टमार्टम करना शुरु किया । हम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान करते हुये गुरु जी के भाषण का स्वागत करते हैं इस प्रतिफल की आशा में कि वे भी हमारी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को स्वीकार कर लेंगे । प्रस्तुत हैं अपूर्वानन्द के कुछ तीर आप सबके लिये –

भाषण का प्रारम्भ कन्हैया और उसकी ज़मानत के किस्से से हुआ । गुरु जी ने कन्हैया पर लगाये गये आरोपों को “बौद्धिकता और विवेक पर हमला” निर्णीत किया । कार्ल मार्क्स के हवाले से कह गया कि उन्होंने “भौतिक यथार्थ को एक ख़्याल में तब्दील करने” की बात की थी इसलिये जे.एन.यू. को एक ख़्याल में तब्दील हो जाना चाहिये क्योंकि यही ख़्याल दुनिया को बदल कर रख सकता है ।

गुरु जी ने कन्हैया को ज़मानत देने वाली जज साहिबा पर शरसन्धान करते हुये फरमाया कि जब उन्होंने कुछ विद्वानों से अंतरिम ज़मानत के बारे में जानकारी चाही तो उनके एक जजमित्र द्वारा इसे “इन्नोवेशन” बताते हुये ज़ूडिशियरी में इस नितांत नयी पहल के लिये कन्हैया को मुबारकवाद देने का सुझाव दिया गया । जज महोदया का जमकर परिहास बनाते हुये गुरु जी ने यह प्रमाणित कर दिया कि उनके पास अभिव्यक्ति की पूरी आज़ादी है और वे न्यायपालिका का सम्मान न करने के लिये भी स्वतंत्र हैं । उनकी आज़ादी देखकर हमको यह समझने में बड़ी कठिनाई हुयी कि वह कौन सी आज़ादी है जो उनके पास नहीं है और वे किस आज़ादी के लिये जंग जारी रखना चाहते हैं ?
कटाक्षसत्र जब कुछ मद्धिम हुआ और तक़रीर में गम्भीरता के पुट का प्रवेश हुआ तो दिसम्बर 1931 में प्रेमचन्द के प्रकाशित एक आलेख का उल्लेख करते हुये इलाहाबाद और लख़नऊ वि.वि. के दीक्षांत समारोहों में सी.वी. रमन और राधाकृष्णन के भाषणों के प्रमाण प्रस्तुत किये गये जिसमें राष्ट्र, क्रांति और छात्रधर्म के बारे में इन दोनो वक्ताओं के परस्पर विरोधी वक्तव्यों का पोस्टमार्टम किया गया । बताया गया कि गांधी बहुत ईमानदार राष्ट्रीय नेता थे जिन्हें आग से खेलने और बहुत सारे आश्रम खोलने का शौक था और यह भी कि गांधी की मुस्कराहट दुष्टता से भरी हुयी होती थी । गांधी के हवाले से भारत के लोगों द्वारा “पाकिस्तान ज़िन्दाबाद” का नारा लगाने में कोई हर्ज़ न होने की वकालत की गयी । इतिहास को खंगालते हुये जे.एन.यू. के शोधार्थियों को बताया गया कि गांधी के अनुसार एक ही नारा ऐसा था जो सबके लिये अनिवार्य होना चाहिये था और वह था “आल्लाह-हो-अकबर” किंतु “वन्दे मातरम” और “भारत माता की जय” जैसे नारों के लिये गांधी ने सोच कर निर्णय करने की बात कही थी जबकि अपने अगले नारे “हिंदू-मुसलमान की जय” के लिये वे पूरी तरह सहमत थे ।
राष्ट्र के बारे में गांधियन थॉट की झलक प्रस्तुत करते हुये गुरु जी द्वरा बताया गया कि गांधी राष्ट्र की भावना से परे “देस” और “वतन” के लिये लड़ रहे थे । गांधी की व्यवस्था में स्पष्ट कहा गया था कि आज़ाद भारत में मुसलमानों के सरपरस्त हिंदू नहीं रहेंगे । जबकि ज़िन्ना के हवाले से यह स्पष्ट किया गया कि “मुस्लिम का प्रतिनिधित्व केवल मुस्लिम ही” कर सकता है । गांधी ने अफ़्रीका में रहते समय अपने किसी मित्र से यह ज्ञान प्राप्त किया था कि जब शक़ की बात हो तो हमेशा अल्पसंख्यक का ही पक्ष लेना चाहिये बहुसंख्यक का नहीं । गांधी कहते थे कि भारत में हिंदू मुसलमानों के बड़े भाई नहीं हैं, दोनो के समान अधिकार हैं । गांधी की हत्या करने वाला व्यक्ति ब्राह्मण वर्ण से सम्बन्धित है और गांधी ने भारत में गोवध पर प्रतिबन्ध लगाये जाने को अनुचित माना था ।  


हमारी प्रतिक्रिया – हम कुछ नहीं कहेंगे सिवाय इसके कि जब देश इतने बड़े वैचारिक संकट से गुज़र रहा हो तो किसी प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय के शिक्षक से व्यंग्य और कटाक्ष के स्थान पर हमें गम्भीर चिंतन की अपेक्षा थी । यह इसलिये भी आवश्यक है कि इस उत्तेजनापूर्ण वातावरण में व्यंग्य और कटाक्ष से स्थिति को और भी अनियंत्रित करने में तो मदद मिलती है किंतु किसी सकारात्मक समाधान की बिल्कुल भी नहीं । क्या हम नई पीढ़ी को “सीख” के नाम पर यही सब देना चाहते हैं ? 

2 टिप्‍पणियां:

टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.