उद्योगपति, मंत्री,
सचिव, कलेक्टर, विश्वविद्यालयों
के प्रशासनिक अधिकारी, प्रोफ़ेसर्स, डॉक्टर्स,
इंजीनियर्स, पत्रकार, साहित्यकार,
कलाकार... कौन है बलात्कारी ? क्या ! इनमें से कोई नहीं ? तो क्या ये सब महान आदर्शवादी हैं
? क्या केवल गरीब और अशिक्षित ही करते हैं बलात्कार ?
क्या पुलिस इन्हें पकड़ने में कोई पक्षपात करती है ?
यदि हम जघन्य
सामूहिक बलात्कारों को रोकना चाहते हैं तो हमें इन प्रश्नों के उत्तर बड़ी ईमानदारी
से देने होंगे । इन प्रश्नों के उत्तरों में ही छिपा है इस समस्या का समाधान ।
यौनेच्छा
की माँग और पूर्ति की व्यवस्थित आवश्यकता हमारी सभ्यता को सदा से प्रभावित करती रही
है । आदिम यौन स्वच्छंदता के युग से निकलकर भारतीय सभ्यता में विवाह की एक आदर्श व्यवस्था
विकसित हुयी तो वैकृतिक स्थितियों में चाहे-अनचाहे चकलाघर भी विकसित हुये । एक प्रश्न
यह भी उठता है कि जब नैतिक मर्यादाओं का उल्लंघन कर चकलेघर की वैकल्पिक व्यवस्था बन
ही गयी तो लोग यौनापूर्ति के लिए जघन्य अपराध क्यों करते हैं ?
हम आगे बढ़ें
उससे पहले यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि विवाहेतर यौन सम्बंध एक नैतिक-चारित्रिक
दुर्बलता है जिसका विश्वविद्यालयीन शिक्षा एवं उच्च पद आदि से कोई सम्बंध नहीं है ।
ऐसे अनैतिक सम्बंधों को ढकने के लिए चतुर लोगों द्वारा कुछ उपाय खोज लिए गये हैं ।
पारस्परिक सहमति से लेकर देह-मण्डी तक के रास्ते इसी खोज की देन हैं । स्पष्ट है कि
इस तरह की दुर्बलता समाज के सभी वर्गों में न्यूनाधिक रूप में व्याप्त है फिर भी चतुर
चामचोर सुरक्षित विकल्पों की ही शरण में जाता है । जो चतुर नहीं हैं, या जो
सुरक्षित विकल्पों के लिए आर्थिक रूप से समर्थ नहीं हैं किंतु अपने चारो ओर अहर्निश
व्याप्त कामोद्दीपनों से प्रभावित होते रहते हैं वे अपनी यौनेच्छाओं और विभिन्न कुंठाओं
की मिश्रित मनःस्थिति के साथ जीने के लिए बाध्य होते हैं । कामोद्दीपक परिस्थितियाँ
उन्हें उत्तेजित करती हैं और फिर वे अवसर की टोह लेना प्रारम्भ करते हैं । अवसर मिलते
ही ऐसे लोगों की अतृप्त कामेच्छायें विस्फ़ोटित होती हैं और वे स्त्री को एक वस्तु की
तरह स्तेमाल करने के लिए उद्यत हो उठते हैं ।
आप कल्पना
कीजिए बड़े शहरों का कोई बस ड्राइवर और उनका खलासी, होटल का कोई कामगार,
कोई ग़रीब पल्लेदार, बेकरी में काम करने वाला कोई
मज़दूर, स्लम में रहने वाला मरीन ड्राइव का कोई फुटपाथिया खोमचेवाला,
साहब के घर में काम करने वाला कोई नौकर… आदि लोग
दिन-रात अपने चारो ओर क्या देखते हैं ? वे किन स्थितियों से रू-ब-रू
होते रहते हैं ?
वे देखते
हैं सम्पन्न घरों के युवा जोड़ों को । उनकी स्वच्छंदता, उनकी जीवनशैली,
उनकी सम्पन्नता, उनके रंग-ढंग, उनकी देह का सौंदर्य, उनका वह सब कुछ जो कामोद्दीपक है
उन्हें आकर्षित करता है । वे उनके जैसा ही जीवन जीना चाहते हैं किंतु वहाँ कई प्रकार
की विवशतायें उन्हें ऐसा करने से रोकती हैं । पार्कों में या वर्ली सी फ़ेस पर आपस में
लिपटते युग्म और गोराई बीच पर कामकेलिरत युगलों के प्रत्यक्ष दर्शन के बाद जब कोई ग़रीब
दिहाड़ी मज़दूर वापस घर आता है तो टीवी के विज्ञापन भी उसे एक रंगीन कल्पनालोक में ले
जाते हैं । उसकी अवसर टोहने की प्रक्रिया और तीव्र हो उठती है । रही–सही कसर पोर्न
और शराब से पूरी हो जाती है । अब उसे कोई आसान सा शिकार चाहिए । यह शिकार तीन साल की
अबोध बच्ची भी हो सकती है, और सत्तर साल की निर्बल वृद्धा भी
। यह शिकार एकांत में मिली कोई लड़की भी हो सकती है और पार्टी से नशे में धुत्त होकर
लौट रही कोई किशोरी भी ।
निर्बुद्धि
अपराधी तो ऐसे कृत्यों के लिए दोषी है ही किंतु क्या उन सारी परिस्थितियों का उसके
अपराध में कोई योगदान नहीं ?
अब हम स्त्री
स्वतंत्रता को इन अपराधों के सदर्भ में देखने और निर्बुद्धि अपराधी को पुरुष मानसिकता
का प्रतिनिधि प्रतिबिम्ब मानते हुये उससे निग़ाहों का पर्दा करने और अपनी छोटी मानसिकता
को विस्तृत करने का नैतिक उपदेश देकर अपराधरहित समाज की अपेक्षा करते हैं । क्या हमनें
ऐसी ही नीतिपूर्ण अपेक्षायें आर्थिक और न्यायिक भ्रष्टाचार, घोटालों, और राजनीतिक अपराध आदि के क्षेत्रों के भी शातिर अपराधियों से की हैं कभी
? क्या हम जेनेटिक डिस
ऑर्डर से ग्रस्त रोगी से एक पूर्ण स्वस्थ्य व्यक्ति होने की अपेक्षा नहीं कर रहे हैं
?
मेरा
स्पष्ट अभिमत है कि नारी स्वतंत्रता, नारी
स्वाभिमान और समानाधिकार के अतिवादी पुरुष व्याख्याकारों ने आधी दुनिया को सर्वाधिक
क्षति पहुँचाई है । वे उन उद्दीपक कारणों के व्यवहार का पूरी शक्ति से समर्थन करते
हैं जिनसे एक दुर्बुद्धि को दिन-रात दो-चार होना पड़ता है । वास्तव में व्याख्याकारों
को जघन्य बलात्कारों से कोई लेना-देना नहीं हुआ करता उन्हें तो अपनी ऐंद्रिक तुष्टियों
के लिए एक उत्तेजक संसार को बनाये रखने की चिंता हुआ करती है । पूरी तरह इंद्रियों
के दास हो चुके लोगों से भरे इस विकृत समाज में भ्रष्टाचार से तो मुक्ति की अपेक्षा
नहीं हो पाती दैहिक चरित्र से मुक्ति की क्या अपेक्षा की जा सकती है भला !