उनकी ज़िद थी
कि हाइकु सुना के मानेंगे...
हमने हाँ कह दी,
वे सुनाने लगे...
जब तक हम समझ पाते
हाइकु का ओर-छोर
हाइकु ख़त्म हो गयी।
हमसे शिकायत करने लगे
लम्बा आलाप सुनने के अभ्यस्त
हमारे ही कान
“यह क्या मज़ाक है मियाँ!”
हमने अपनी गुवाहाटी वाली दादी जी से पूछा
ये कट चाय स्टाइल की कविता का
हिंदुस्तान में क्या काम !
वहीं रहने देतीं न इसे जापान में !
दादी जी को हाइकु बहुत पसंद थे
गोया
चिली सॉस के साथ गरम-गरम मोमो
दादी जी बोलीं ....
जिउंदा रे पुत्तर
पाँच-सात-पाँच की खेप में
चाहो तो बड़ा भी कर सकते हो
हाइकु को खींचकर
यानी
ऊँटों के क़ाफ़िले की तरह
एक के पीछे एक हाइकु
जापान से चीन तक
नन्हें-नन्हें मोमो खाते हुये
(ख़बरदार जो समोसे का नाम लिया
साइज़ तो देखो पहले समोसे का) ।
अब समझ में आया
इतना कम क्यूँ हो गया है
हिंदुस्तान में क़व्वाली का चलन।