सूरज को अस्ताचलगामी हुये लगभग तीन घण्टे
बीत चुके थे । आकाश में छाये नम बादलों ने अँधेरे की चादर को और भी गहरा कर दिया था
। अप्रैल की बेमौसम झमाझम वारिश में दरवाज़े पर किसी गाड़ी के आने की आवाज़ से डॉक्टर
दागी को विस्मय हुआ, सोचने
लगे – इस समय कौन हो सकता है भला!
बाहर निकले तो सामने अपने जिला अधिकारी को
मुस्कराते हुये देखकर और भी विस्मय हुआ, अचानक मुँह से निकला – “सर ! इतनी वारिश में?”
अंदर आते ही जिला अधिकारी डॉक्टर भट्ट ने
“भारत सरकार सेवार्थ” की मोहर वाला एक खुला लिफाफा डॉ. दागी की ओर बढ़ाते हुये कहा –
“यह कार्य भी मेरे ही हाथों से सम्पन्न होना था”।
डॉ. दागी का विस्मय बढ़ता ही जा रहा था ।
प्रमोशन की कोई सम्भावना तो नहीं फिर यह पत्र कैसा कि अधिकारी को स्वयं इतनी वारिश
में घर आना पड़ा । पत्र खोलकर जैसे ही डॉक्टर दागी ने पढ़ा तो उनके पैरों तले की ज़मीन
खिसक गयी । राज्यपाल के आदेशानुसार पचास वर्ष की आयु पूरी होने पर लोकहित में
उन्हें बिना पूर्व सूचना के अनिवार्य सेवा निवृत्त कर दिया गया था ।
डॉक्टर भट्ट ने मुस्कराते हुये एक और कागज़
उनकी ओर बढ़ाते हुये कहा – “इस पर पावती दे दीजिये”।
दागी ने तुरंत हस्ताक्षर कर पावती जिला
अधिकारी की ओर बढ़ायी ही थी कि डायरेक्टर का फ़ोन आ गया । भट्ट ने उल्लसित होते हुये
बताया – “यस सर ! तामीली हो गयी है, पावती भी ले ली है, … नहीं-नहीं कोई दिक्कत नहीं हुयी”।
देशी घी में भुने हुये तालमखाने मुँह में
डालकर चाय का कप उठाते हुये भट्ट ने मुस्करा कर कहा – “अब ऐसे मौके पर चाय तो नहीं
पीनी चाहिये लेकिन बन गयी है तो पी लेता हूँ”।
डॉक्टर दागी उन गिने–चुने डॉक्टर्स में से
एक थे जो झीनी चदरिया को बड़े जतन से दागी होने से बचाने के लिए “सत्यमेव जयते” की
आशा में संघर्ष करते-करते समाज और विभाग की दृष्टि में “बेचारा” की उपाधि से
विभूषित हो चुके थे ।
अपने साथ हुये इस अन्याय से डॉक्टर दागी
तिलमिला उठे, निर्णय किया कि
वे इस फ़रमान के ख़िलाफ़ हाईकोर्ट जायेंगे ।
हाईकोर्ट में सरकारी अधिवक्ता डॉक्टर दागी
को अनिवार्य सेवानिवृत्त किये जाने के संदर्भ में “मूलभूत नियम छप्पन के नियम दो
(क)” की प्रासंगिकता को स्पष्ट नहीं कर पा रहे थे । महाधिवक्ता ने मुख्यमंत्री को
संदेश भिजवाया कि चुनाव सिर पर है और यह निर्णय उनके विरुद्ध जा सकता है ।
विचार-विमर्श के बाद न्यायाधीश ने सरकार को एक अभ्यावेदन समिति बनाकर डॉक्टर दागी
के प्रकरण पर पुनर्विचार करने का आदेश परित किया । अभ्यावेदन समिति में सचिव स्तर के
उच्चाधिकारियों को सम्मिलित किया गया जिन्हें हर स्थिति में साठ दिन के अंदर अपने
निर्णय से हाईकोर्ट को अवगत कराना था । साठ दिन पूरे होने पर भी अभ्यावेदन समिति
कोई निर्णय नहीं कर सकी । अब सिलसिला प्रारम्भ हुआ तारीख़ों पर तारीख़ें खिसकने का ।
इस बीच विधानसभा चुनाव हो गये, सत्तापक्ष
का सूपड़ा साफ हो गया और नयी सरकार का गठन भी हो गया ।
इस बीच एक घटना और भी हुयी, वह यह कि एक दिन अचानक डिप्टी डायरेक्टर
डॉक्टर सत्यव्रत त्यागी ने दागी को फ़ोन पर “शासकीय जीवन” में “व्यावहारिक” बनने का
उपदेश देते हुये परामर्श दिया कि “अस्तित्व की रक्षा के लिए सत्य-निष्ठा ही
पर्याप्त नहीं है । मुद्रा हर किसी की आवश्यकता है और इसके बिना कुछ भी नहीं हो
सकता”।
दागी ने संक्षिप्त सा उत्तर दिया – “न्याय
यदि न्यायिक तरीके से नहीं मिल सकता तो मैं उसे ख़रीदने के पक्ष में नहीं हूँ” ।
“व्यवस्था” में
संलिप्त न होने के हठ पर हुयी कई दौर की चर्चाओं में दागी को अब तक यह अहसास करवा दिया
गया था कि वे एक पापी और अवांछित व्यक्ति हैं जो सामाजिक परम्पराओं को निभाने के विरुद्ध
हैं । उनके जीवन की असफलताओं का एकमात्र कारण उनका थोथा आदर्शवाद है जिसे त्यागे बिना
उनकी मुक्ति सम्भव नहीं है ।
त्यागी ने एक दिन दागी को फ़ोन पर सूचना दी
कि उन्हें सेवा में पुनः बहाल कर दिया गया है । लेकिन किस्टारम जैसे दुर्गम और माओवाद
प्रभावित स्थान में पोस्टिंग से बचने के लिये कुछ “व्यवस्था” करनी होगी ।
इसके
बाद कुछ-कुछ दिनों के अंतराल पर दागी
की स्थिति पर तरस खाते हुये उन्हें समझाने का भरसक प्रयास किया गया किंतु दागी टस
से मस नहीं हुये । तब त्यागी ने एक दिन फोन पर लम्बी समझाइश देते हुये कहा – “आप
एक अच्छे आदमी हैं । मैं आपको बचाना चाहता हूँ । अभ्यावेदन समिति के निर्णय के
अनुसार आपको सेवा में पुनः बहाल किये जाने का आदेश निकलने ही वाला है किंतु
डायरेक्टर साहब आपको चैन से नहीं रहने देंगे । आपको कुछ तो “व्यावहारिक” बनना
पड़ेगा अन्यथा आपको माओवादी गढ़ किस्टारम में फेंक दिया जायेगा । और फिर मंत्रालय
में भी इंसान ही तो बैठे हैं, यह
“व्यवस्था” उनके लिये है, मुझे अपने लिये कुछ भी नहीं चाहिये
। बहाली के बाद आपको इतने दिनों का वेतन भी दिया जायेगा, लाखों
का सवाल है । कुछ तो “पत्रम-पुष्पम” चढ़ाइये”।
डिप्टी डायरेक्टर डॉक्टर सत्यव्रत त्यागी एक
पञ्जीकृत आदर्शवादी थे जो भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने के लिये अहर्निश
चिंतित रहा करते थे । उनकी चिंता आर्यों
की उत्कृष्ट सनातन संस्कृति की रक्षा के लिये भी थी । “त्वदीयाय कार्याय बद्धा
कटीयम् ...” वाला गीत गाते समय वे एक उत्कृष्ट सनातनी और हिंदूधर्म के उद्धारक
प्रतीत हुआ करते थे । दूसरी ओर डॉक्टर दागी थे जो सार्वजनिक और शासकीय जीवन में
“व्यावहारिक” होने के पाखण्ड के धुर विरोधी थे किंतु पत्नी की समझाइश पर
“व्यावहारिक” होने के लिये तैयार हो गये थे । पत्नी ने समझाया था – “आप न्याय को
ख़रीद नहीं रहे बल्कि आपके साथ अन्याय न हो और आपको किस्टारम भेज कर परेशान न किया
जाय इसके लिए त्यागी के आगे आपको झुकना ही होगा, आख़िर वे आपके अधिकारी हैं”।
पत्नी की समझाइश के आगे झुकते हुये दागी
ने त्यागी के आदमी को एक लिफाफे में बीस हजार “भारतीय मुद्रा” रखते हुये वह
प्रमाणपत्र भी थमा दिया जो सेंट्रल विजिलेंस ने “सार्वजनिक जीवन में निष्ठावान”
बने रहने की शपथ लेने पर डॉक्टर दागी को प्रदान किया था ।
महाप्राण नामक यह व्यक्ति त्यागी
का विश्वस्त आदमी था तो दागी की ज़िद को भी
अच्छी तरह जानता था । त्यागी के घर पहुँच कर महाप्राण ने टेबल पर लिफ़ाफ़ा और
प्रमाणपत्र एक साथ रख दिये फिर कहा – “दागी के ज़मीर की हत्या हो गयी है, सेंट्रल विजिलेंस का प्रमाणपत्र भी उसके
ज़मीर की रक्षा नहीं कर सका” । कुछ क्षण रुककर महाप्राण ने अंतिम बात भी कह दी – “वह
कल सुबह हिमालय की ओर कहीं चला जायेगा, पता नहीं वापस आयेगा
भी या नहीं । उसने लिफ़ाफ़ा देते हुये कहा था कि काश वह “व्यावहारिक” बनने की
अपेक्षा रेल के नीचे कट कर मर पाता । मुझे डर है कि कहीं वह सचमुच आत्महत्या न कर
ले”।
त्वदीयाय कार्याय गीत गाने वाले त्यागी ने
टेबल पर रखे प्रमाणपत्र को उठाया, ध्यान
से पढ़ा, कुछ गम्भीर हुये फिर उसे वापस टेबल पर रख कर लिफ़ाफ़ा
उठा लिया । महाप्राण हत्प्रभ हुआ किंतु कुछ कहा नहीं । त्यागी ही बोले – “देखिये महाप्राण जी ! दूध का धुला तो मैं भी नहीं हूँ । ये “व्यवस्थायें”
प्रशासनिक जीवन में आवश्यक हैं । इनके बिना काम नहीं चलता किसी का । दागी को
समझाना कि रेल के नीचे कट कर मत मरे, ज़ल्दी ही सब ठीक हो
जायेगा । मैं देखूँगा कि अब उसे कोई परेशान न करे । मैं उसकी पोस्टिंग भी अच्छी
जगह करवा दूँगा । वैसे, दागी का अगर मन नहीं है तो मैं
लिफ़ाफ़ा वापस कर सकता हूँ किंतु तब उसकी किसी परेशानी के लिये वह स्वयं ही
उत्तरदायी रहेगा, अब निर्णय दागी के हाथ में है । वह जैसा
चाहे”।
बाहर निकलकर महाप्राण ने खिन्न
मन से दागी को फ़ोन लगाया, पूछा – “लिफ़ाफा जीत गया, प्रमाणपत्र हार गया । अब इस हारे हुये प्रमाणपत्र का क्या करूँ? और हाँ! त्यागी ने रेल से कटकर मरने के लिये मना किया है आपको”।
दागी
ने उत्तर दिया – “काश ! मैं इस पाखण्डी दुनिया से विदा हो पाता । अभी तो मैं
हिमालय के लिये प्रस्थान कर चुका हूँ । फ़िलहाल आप सेण्ट्रल विजिलेंस वाले
प्रमाणपत्र का दाह-संस्कार कर दीजिये”।
डॉक्टर
वाणी नटराजन को जब यह सब पता चला तो वे बुदबुदायीं – “तो आख़िर तुम भी मर गये डॉक्टर
! हमने अपना दीपक माना था तुम्हें, आज वह दीपक भी बुझ गया । अब
हम किससे प्रेरणा लेंगे... तुम भी हार कर मुर्दों को रिश्वत दोगे... यह आशा नहीं थी...
।
डॉक्टर
दागी को लोग आज भी अस्पताल आते-जाते देखा करते हैं किंतु डॉक्टर वाणी नटराजन को अच्छी
तरह पता है कि डॉक्टर दागी अब मर चुका है ।