रविवार, 27 अक्तूबर 2024

कोरा कागज

इसोफ़ैगाइटिस की चिकित्सा के लिए कोरबा से लुधियाना तक की यात्रा पर निकले उस ईसाई परिवार से मेरी भेंट उनकी वापसी यात्रा में हुयी । परिवार में पुरुष के अतिरिक्त दो महिलायें और दो बच्चियाँ थीं । बड़ी बच्ची तेरह वर्ष की थी और मिलनसार थी । उसकी माँ ने बताया कि बच्ची को इसोफ़ैजाइटिस था जो छत्तीसगढ़ में किसी डॉक्टर से ठीक नहीं हुआ पर लुधियाना की उस चर्च में प्रार्थना से तुरंत ठीक हो गया । महिला ने बताया कि वहाँ अंधे देखते हैं, बहरे सुनते हैं और लँगड़े दौड़ते हैं । उस चर्च की प्रार्थना अद्भुत है, वहाँ प्रार्थना के शब्द सुनते ही शरीर से शैतान निकलकर तड़पने लगता है और हर तरह की व्याधि प्रभु की प्रार्थना से समाप्त हो जाती है ।  

मूकं करोति वाचालं पंगुं लंघयते गिरिम् । यत्कृपा तमहं वंदे परमानंदं माधवम् ॥ ईश्वरीय कृपा से असम्भव कार्य भी सम्भव हो जाते हैं, कदाचित् यही आशय रहा होगा इस श्लोक का । पर लुधियाना की उस चर्च में तो ऐसा ही हो रहा है, अक्षरशः वैसा ही, श्लोक के स्थूल अनुवाद जैसा ही ।

पञ्जाब और छत्तीसगढ़ में ईसाइयत का बहुत प्रभाव है और उसके अनुयायियों की संख्या निरंतर बढ़ती जा रही है । राजस्थान के बाला जी में भूत-प्रेत की चिकित्सा होती है और दिल्ली की एक पुरानी ऐतिहासिक इमारत में एक मुल्ला जी का झाड़-फूँक चिकित्सालय है जिसमें हर तरह की व्याधि की चिकित्सा से लेकर वशीकरण, खोया प्रेम पाने, सौतन को भगाने से लेकर न्यायालयीन निर्णय अपने पक्ष में करवाने का भी ताबीज मिलता है ।

चमत्कारों के अपने-अपने चौखट हैं, आस्था के अपने-अपने प्रतीक हैं और विशिष्टता के लिए अपने-अपने ईश्वर हैं । अपने-अपने ईश्वर... बस मैं यहीं अटक जाया करता हूँ । इतने सारे ईश्वर मेरे सामने पर्वत से आकर खड़े हो जाते हैं, मार्ग अवरुद्ध हो जाता है, समाधान नहीं बल्कि समस्यायें चारो ओर से मुझे घेर लिया करती हैं और मैं विद्रोही हो उठता हूँ ।   

आधुनिक विचारधारा के प्रगतिशील लोग चर्चों, मजारों और दरगाहों में जाते हैं जबकि पिछड़े और गँवार लोग बालाजी जाकर अपनी समस्यायों से मुक्ति पा लेते हैं । हमने हिन्दुओं में फैले अंधविश्वासों, पाखण्डों, पिछड़ेपन और उनकी मूर्खताओं पर अनवरत भाषण देने वाले पीएच.डी. होल्डर्स, प्रगतिशीलों और वामपंथियों को बड़ी श्रद्धा से चर्चों के सामने खड़े होकर अपनी छाती पर बुदबुदाते हुये  क्रॉस का चिन्ह बनाते, मज़ारों और दरगाहों के सामने हाथ जोड़कर झुकते हुये देखा है ।

उन्हें धर्म के बारे में कुछ भी नहीं पता होता इसलिए वे धर्म का बँटवारा कर देना अधिक तर्कसम्मत और लोकहितकारी मानते हैं । यही लोग धर्म पर प्रवचन देते हैं, गंगा-जमुनी सभ्यता का प्रचार करते हैं, सेक्युलरिज़्म की प्रशंसा करते हैं, संविधान की दुहाई देते हैं और नारा लगाते हैं “यह देश धर्म से नहीं, संविधान से चलेगा” । हम भी कहते हैं – “दुनिया का कोई भी वृक्ष अपनी जड़ों से नहीं, सूखे और टूटे हुये पत्तों की खाद से ही अपना पोषण पायेगा”। यही विज्ञानसम्मत है, यही बुद्धिसम्मत है, और यही लोकतंत्र सम्मत भी है ।

मेरे पास भी एक ईश्वर था, …नहीं, एक ईश्वर था जिसके पास मैं था । उनके पास उनके अपने-अपने ईश्वर हैं, ईश्वर उनके पजेशन में है, वे ईश्वर के पजेशन में नहीं हैं । हर किसी को ईश्वर चाहिये ... अपना-अपना ईश्वर, किंतु यह देश धर्म से नहीं संविधान से चलेगा । ईश्वर और धर्म के ऊपर एक बार फिर जो चढ़ कर बैठ गया है वह मनुष्य है अर्थात् मनुष्य की सत्ता सर्वोपरि है, ईश्वर तो उसका दास है । स्वयं को कृष्ण का वंशज बताने वाला पप्पू यादव गोल टोपी लगाकर और हरी चादर ओढ़कर घोषणा करता है – “एक दिन पूरी दुनिया इस्लाम न अपना ले तो मेरा नाम बदल देना”। लालूपुत्र भी कृष्ण के बंशज हैं जो हिदुओं की ईंट से ईंट बजा देने के लिए कटिबद्ध हो कर खड़े हो गये हैं । स्वयं को श्रीराम का वंशज बताने वाले शादाब चौहान को तो पुनरुद्धारित श्रीराम मंदिर फूटी आँखों भी नहीं सुहाता ।

यह देश संविधान से चलेगा, तो फिर धर्म से क्या चलेगा ? यदि धर्म से कुछ भी नहीं चलेगा तो फिर धर्म की किसी को आवश्यकता ही क्यों है ? तुम्हारे सेक्युलर छल से कोटि गुना अच्छा है “नो रिलीजन कांसेप्ट”। ढहा दो सारे मंदिर, सारे चर्च और सारी मस्ज़िदें ।

हाँ! तो मैं उस बच्ची के बारे में बता रहा था कि वह बहुत अच्छी थी, इसलिए नहीं कि उसने आदिगुरु शंकराचार्य जी की ऐगिरि नंदिनि नंदितमेदिनि विश्वविनोदिनि नंदिनुते... का सस्वर पाठ किया बल्कि इसलिये भी कि वह इन्नोसेंट थी । उसे मेरे पास बैठकर अपने विद्यालय और अपने बारे में बातें बताना अच्छा लगता था । उसने अपने कुछ वीडियोज़ दिखाये जिसमें वह शास्त्रीय नृत्य करती हुयी दिखायी दी ।

कोई एक खिड़की खुली रह गयी थी जहाँ से महिषासुर मर्दिनि स्तोत्र का प्रवाह हो रहा था और शास्त्रीय नृत्य की मुद्रायें एक के बाद एक प्रकट हो रहीं थीं । पता नहीं कब तक खुली रहेगी यह खिड़की! पता नहीं कब तक यूँ ही कोरा बना रहेगा यह अलिखित कागज!