शोषण और भ्रष्टाचार में लिप्त हमारी पतित व्यवस्थाओं
के विरोधस्वरूप उत्पन्न विद्रोहपूर्ण विचारधारा से प्रारम्भ होकर एक जन-आन्दोलन के
रूप में विकसित होते हुये आतंक के पर्याय बने नक्सलवाद ने बंगाल से लेकर सम्पूर्ण
भारत में आज अपने पैर पसार लिये हैं। इस लम्बी यात्रा के बीच इस विदोह के जनक कनु
सान्याल ने विकृतावस्था को प्राप्त हुयी अपनी विचारधारा के हश्र से निराश होकर
आत्महत्या भी कर ली। यह कटु सत्य है कि भ्रष्टव्यवस्था और पतित नैतिकमूल्यों के
प्रतिकार से अस्तित्व में आये नक्सलवाद को आज भी वास्तविक पोषण हमारी व्यवस्था
द्वारा ही मिल रहा है। व्यवस्था, जिसमें हम सबकी भागीदारी है ...सरकार की भी और
समाज की भी। कई बार तो ऐसा प्रतीत होता है जैसे कि हमारी व्यवस्था की रुचि नक्सलवाद
को समाप्त करने के स्थान पर उसे बनाये रखने में ही अधिक है। यही कारण है कि किसी
भी स्तर पर जन असंतोष और बढ़ती विषमताओं पर अंकुश लगाने के लिये कोई सार्थक प्रयास
नहीं किये जा रहे हैं।
व्यवस्थायें
आंकड़ों से चल रही हैं और आंकड़े कागज पर होते हैं, ज़ाहिर है कि हक़ीक़त भी ज़मीन पर
नहीं कागज पर है। लूटमार के निर्लज्ज आखेट में हम सबने अपना-अपना नक्सलवाद विकसित
कर लिया है। पूरे राष्ट्र की व्यवस्था में भ्रष्टाचार का वायरस एड्स का रूप ले
चुका है। भ्रष्टाचार की खुली प्रतियोगिता में एक भृत्य से लेकर हमारा सम्पूर्ण
नीतिनिर्धारक तंत्र और विधानसभा एवं संसद के माननीय महोदय तक सभी अपनी-अपनी सक्रिय
भागीदारी पूरी ईमानदारी से निभा रहे हैं। जब थैलियों के मुंह खुलते हैं तो बाकी
सबके मुंह बन्द हो जाते हैं। थैलियों से सम्पन्न लोग अच्छी-खासी प्रतिभाओं को पीछे
छोड़कर मेडिकल कॉलेज में दाख़िले से लेकर लोकसेवा आयोग की प्रतिष्ठापूर्ण
प्रतियोगिताओं में भी अपना वर्चस्व बना लेते हैं ...वह भी सारी व्यवस्था को अंगूठा
दिखाते हुये। सड़कें बनती हैं तो पहली वर्षा में बह जाती हैं, भवन बनते हैं तो
अधिग्रहण के पहले ही खण्डहर होने की सूचना देने लगते हैं। खनिज और वनसम्पदा से
भरपूर बस्तर जैसे क्षेत्र सरकारी अधिकारियों और व्यापारियों की चारागाह बन चुके
हैं। सम्पन्न बस्तर आज भी लंगोटी लगाये खड़ा है। आतंकपूर्ण नक्सलवाद पनपने के लिये
इतने कारण पर्याप्त नहीं हैं क्या?
बस्तर
में नक्सलियों की समानांतर सरकार चल रही है, कश्मीर में उग्रवादियों की ..., प्रदेशों
में बाहुबलियों की और देश में अंतर्राष्ट्रीय माफ़ियाओं की समानांतर अंतर्सरकारें
चल रही हैं। ये अंतर्सरकारें कबीलाई व्यवस्था का रूपांतरण हैं।
अमेरिका
कहीं भी आक्रमण करके अपनी सरकार चलाने लगता है। भारत के विभिन्न प्रांतों में चीन
द्वारा प्रायोजित आज के नक्सली जो भी कर रहे हैं उसे उन्होंने सामाजिक विद्रोह का
छद्म नाम दिया है जबकि यह विद्रोह नहीं है अपितु स्पष्टतः सत्ता प्राप्ति के लिये
किया जा रहा गुरिल्ला युद्ध है। सत्ता के मूल में हिंसा है, इसे नकारा नहीं जा
सकता। विश्व के सभी युद्धों का सत्य यही है। कहीं तो यह हिंसा दिखायी दे जाती है
और कहीं पर नहीं। जहाँ दिखायी नहीं पड़ती वहाँ भी सत्ता के मूल में हिंसा ही है।
केवल हत्या ही तो हिंसा नहीं है, कई रूप हैं उसके, हत्या से भी अधिक निर्मम और वीभत्स।
नक्सलियों
ने अब माओवाद का नक़ाब ओढ़ लिया है, उन्हें सत्ता चाहिए, वह भी हिंसा से। पर
विचारणीय यह भी है कि लोकतंत्र का नक़ाब ओढ़कर देश में होने वाले चुनाव भी तो हिंसा से
ही जीते जा रहे हैं। कहीं मतदान स्थल पर आक्रमण करके, कहीं मतदान दल को नज़रबन्द
करके, कहीं मतदाता को डरा-धमका कर, तो कहीं उसे शराब और पैसे बाँटकर। भ्रष्टाचार
के आरोपी नेताओं को दिखावे के लिये टिकट नहीं दी जाती किंतु उनकी पत्नियों को टिकट
देकर पति के अपराध का पुरस्कार प्रदान कर दिया जाता है। शातिर अपराधी पत्नियों की
आड़ में राज चला रहे हैं। कोई सज्जन व्यक्ति आज सत्ता में क्यों नहीं आना चाहता, यह
देश के समक्ष एक विराट प्रश्न है। नक्सलवाद केवल कुछ क्षेत्रों में ही नहीं बल्कि
पूरे देश में फैल चुका है। किसी भी प्रकार की हिंसा करके या दूसरों के अधिकार के
अपहरण से कुछ भी पाने का प्रयास करने वाला हर व्यक्ति मानसिक रूप से नक्सलीआतंकवादी
है क्योंकि ऐसे ही लोग उग्रवाद के अघोषित जनक होते हैं।
नक्सलियों
से भी अधिक हिंसक और निर्मम तो हमारा तंत्र है जिसमें बैठा हर व्यक्ति जनता को
जीने न देने की कसम खाये बैठा है। इस तंत्र द्वारा की गयी हिंसायें बहुआयामी होती
हैं, प्राण भर नहीं जाते इसलिये दिखायी नहीं पड़तीं। निर्मम और अमानवीय शोषण की अनवरत
श्रंखला पर चढ़कर वैभव एवं सत्ता पाने वाले भी तो हिंसा ही करते हैं। हमारे ही बीच का
कोई साधारण सा या कोई ग़रीब किंतु तिकड़मी व्यक्ति चुनाव में अनाप-शनाप पैसा खर्च
करके चुनाव जीतता है, जीतने के कुछ ही वर्षों बाद कई नगरों और महानगरों में फैली करोड़ों
की सम्पत्ति का मालिक बन जाता है। यह सर्वविदित होकर भी रहस्य ही बना रहता है कि
उस ग़रीब के पास चुनाव में पानी की तरह बहाने के लिये इतना धन आख़िर आता कहाँ से है?
जब उंगली उठती है तो निर्धन से अनायास ही सम्पन्न बना वह व्यक्ति चीखने-चिल्लाने लगता
है कि सवर्णों को एक ग़रीब और दलित का सत्ता में आना बर्दाश्त नहीं हो पा रहा है। क्या
यह ग़ुस्ताख़ी भी दोहरी हिंसा नहीं? निर्लज्जता की सारी सीमायें तो तब टूट जाती हैं
जब वह करोड़पति-अरबपति बनने के बाद भी स्वयं को ग़रीब, दलित और आदिवासी ही घोषित
करता रहता है।
भारत
में सभी समर्थों की केवल एक ही आति और एक ही धर्म है, इसे भी समझने की आवश्यकता
है। यह एक ऐसा नक्सलवाद है जिससे होने वाली हिंसा से मृत्यु एक बारगी न होकर
तिल-तिल कर अंतहीन दुःखों को सहते हुये होती है। पूरे देश में व्याप्त इन
अत्याचारों का समुचित निदान किये बिना नक्सलवाद के उन्मूलन की कल्पना भी बेमानी
है।
श्रीलंका में गृहयुद्ध, म्यांमार में दमन चक्र, नेपाल में माओवादी हिंसा,
भारत में नक्सलवाद एवं पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित आतंकवाद के पीछे भी केवल सत्ता
की ही आदिम भूख ही छिपी हुयी है। मानव समाज विकास की किसी भी स्थिति में क्यों न
रहा हो वह अपने प्रभुत्व और सत्ता के लिये हिंसायें करता रहा है। किंतु इस सबके
बाद भी “सत्ता के लिये हिंसा” को किसी मान्य सिद्धांत का प्रशस्तिपत्र नहीं दिया
जा सकता। सत्ताधारियों की अरक्त हिंसा ही नक्सलियों की रक्तहिंसा को जन्म देती है।
हमारी राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक नीतियाँ इन्हें पोषण देती हैं। यदि हमारी
व्यवस्थायें सबको जीने एवं विकास करने का समान अवसर प्रदान कर दें तो नक्सली या
किसी भी उग्रवादी हिंसा को पोषण मिलना बन्द हो जायेगा और ये विचारधारायें दम तोड़
देंगी।
सभ्यमानव
समाज तो आत्मशासित होना चाहिये, जहाँ किसी शासन की आवश्यकता ही न हो। हो पायेगा
ऐसा? सम्भवतः अभी तो नहीं। आरक्षण के बटते कटोरों, राजनीतिक भ्रष्टाचार, बौद्धिक
विकास हेतु अनुर्वरक स्थितियाँ, सरकारी नौकरियों तथा पदोन्नतियों की खुलेआम
निर्लज्ज ख़रीद-फ़रोख़्त, त्रुटिपूर्ण कृषिनीतियाँ, कुटीर उद्योगों की हत्या एवं
असंतुलित आर्थिक उदारीकरण आदि ऐसे पोषक तत्व हैं जो नक्सलवाद को मरने नहीं देंगे,
कम से कम अभी तो नहीं।
तमाम सरकारी व्यवस्थाओं, भारी भरकम बजट, पुलिस और सेना के जवानों की मौत,
रेल संचालन पर नक्सली नियंत्रण से उत्पन्न आर्थिक क्षति, स्थानीय बाज़ारों एवं
आवागमन पर यदा-कदा लगने वाले नक्सली कर्फ़्यू से आम जनता को होने वाली अनेक प्रकार
की क्षतियों और बड़े-बड़े रणनीतिकारों की मंहगी बैठकों के बाद भी नक्सली समस्या में
निरंतर होती जा रही वृद्धि एक राष्ट्रीय चिंता का विषय है।
भारत में नक्सलवाद के कारण :-
1- अनधिकृत भौतिक महत्वाकांक्षाओं के अनियंत्रित
ज्वार :- महत्वाकांक्षी होने में कोई दोष नहीं पर बिना
श्रम के या कम से कम श्रम में अधिकतम लाभ लेने की प्रवृत्ति ही सारी विषमताओं का
कारण है। सारा उद्योग जगत इसी विषमता की प्राणवायु से फलफूल रहा है। आर्थिक विषमता
से उत्पन्न विपन्नता की पीड़ा वर्गसंघर्ष की जनक है।
2- मौलिक अधिकारों के हनन पर नियंत्रण का अभाव :- अनियंत्रित महत्वाकाक्षाओं के ज्वार ने आम
नागरिकों के मौलिक अधिकारों पर डाका डालने की प्रवृत्ति में असीमित वृद्धि की है।
नक्सलियों द्वारा जिस वर्गसंघर्ष की बात की जा रही है उसमें समर्थ और असमर्थ ही
मुख्य घटक हैं, दलित या आदिवासी जैसे शब्द तो केवल भोले-भाले लोगों को बरगलाने के
लिये हैं। समर्थ होने की होड़ में हर कोई शामिल है। मनुष्य की इस आदिम लोलुपता पर
अंकुश लगाने के लिये वर्तमान में हमारे पास कोई वैधानिक उपाय नहीं है। मौलिक
अधिकारों के हनन में नक्सलवादी भी अब पीछे नहीं रहे, शायद इसी कारण कनु सान्याल को
आत्महत्या करनी पड़ी।
3- शोषण की पराकाष्ठायें :- सामान्यतः आम मनुष्य सहनशील प्रवृत्ति का
होता है, वह हिंसक तभी होता है जब शोषण की सारी सीमायें पार हो चुकी होती हैं।
नक्सलियों के लिये शोषण की पराकाष्ठायें पोषण का काम करती हैं। शोषितों को एकजुट
करने और व्यवस्था के विरुद्ध हिंसक विद्रोह करने के लिये अपने समर्थक बनाना
नक्सलियों के लिये बहुत आसान हो जाता है।
4- सामाजिक विषमता :- सामाजिक विषमता ही वर्गसंघर्ष की जननी है। आज़ादी
के बाद भी इस विषमता में कोई कमी नहीं आयी। नक्सलियों के लिये यह एक बड़ा मानसिक हथियार
है।
5- जनहित की योजनाओं की मृगमरीचिका :- शासन की जनहित के लिए बनने वाली योजनाओं के
निर्माण एवं उनके क्रियान्वयन में गंभीरता, निष्ठा व पारदर्शिता का अभाव रहता है जिससे
वंचितों को भड़काने और नक्सलियों की नयी पौध तैयार करने के लिये इन माओवादियों को
अच्छ बहाना मिल जाता है।
6- राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव :- आमजनता को अब यह समझ में आने लगा है कि
सत्ताधीशों में न तो सामाजिक विषमतायें समाप्त करने, न भ्रष्टाचार को प्रश्रय देना
बन्द करने और न ही नक्सली समस्या के उन्मूलन के प्रति लेश भी राजनीतिक इच्छाशक्ति है।
आर्थिक घोटालों के ज्वार ने नक्सलियों को देश में कुछ भी करने की मानसिक
स्वतंत्रता प्रदान कर दी है।
7- लचीली कानून व्यवस्था, विलम्बित न्याय एवं
कड़े कानून का अभाव :- अपराधियों के प्रति कड़े कानून के अभाव,
विलम्ब से प्राप्त होने वाले न्याय से उत्पन्न जनअसंतोष एवं हमारी लचीली कानून व्यवस्था
ने नक्सलियों के हौसले बुलन्द किये हैं।
8- आजीविकापरक शिक्षा का अभाव एवं महंगी शिक्षा :- रोजगारोन्मुखी शिक्षा के अभाव, उद्योग में
परिवर्तित होती जा रही शिक्षा के कारण आमजनता के लिये महंगी और दुर्लभ हुयी शिक्षा,
अनियंत्रित मशीनीकरण और कुटीर उद्योंगो के अभाव में आजीविका के दुर्लभ होते जा रहे
साधनों से नक्सली बनने की प्रेरणा इस समस्या का एक बड़ा नया कारण है।
9- स्थानीय लोगों में प्रतिकार की असमर्थता :- निर्धनता, शैक्षणिक पिछड़ेपन, राष्ट्रीयभावना
के अभाव, नैतिक उत्तरदायित्व के प्रति उदासीनता और पुलिस संरक्षण के अभाव में
स्थानीय लोग नक्सली हिंसाओं का सशक्त विरोध नहीं कर पाते जिसके कारण नक्सली और भी
निरंकुश होते जा रहे हैं।
10- पर्वतीय दुर्गमता का भौगोलिक संरक्षण :- देश के जिन भी राज्यों में भौगोलिक
दुर्गमता के कारण आवागमन के साधन विकसित नहीं हो सके वहाँ की स्थिति का लाभ उठाते
हुये नक्सलियों ने अपना आतंक स्थापित करने में सफलता प्राप्त कर ली है और अब वे इस
अनुकूलन को बनाये रखने के लिये आवागमन के साधनों के विकास में बाधा उत्पन्न कर रहे
हैं। यद्यपि, अब तो उनका बौद्धिक तंत्र नगरों और महानगरों में भी अपनी पैठ बना
चुका है।
11- पड़ोसी देशों के उग्रवाद को भारत में प्रवेश
की सुगमता :- विदेशों से आयातित उग्रविचारधारा को भारत में
प्रवेश करने से रोकने के लिये सरकार के पास राजनैतिक और कूटनीतिक उपायों का अभाव
है जिसके कारण विचार और हथियार दोनो ही भारत में सुगमता से प्रवेश पाने में सफल
रहते हैं।
नक्सलवाद की समस्या का समाधान :-
जन असंतोष के कारणों पर नियंत्रण और विकास के
समान अवसरों की उपलब्धता की सुनिश्चितता के साथ-साथ कड़ी दण्ड प्रक्रिया नक्सली
समस्या के उन्मूलन का मूल है। अधोलिखित उपायों पर ईमानदारी से किये गये प्रयास
नक्सलवाद की समस्या के स्थायी उन्मूलन का मार्ग प्रशस्त करते हैं।
ü
नक्सली
समस्या के उन्मूलन के प्रति दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति का विकास – क्योंकि बिना दृढ़
संकल्प के किसी भी उपलब्धि की आशा नहीं की जा सकती।
ü
आम
नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा के उपायों से विकास के समान अवसरों की
उपलब्धता की सुनिश्चितता।
ü
शासकीय
योजनाओं का समुचित क्रियान्वयन एवं उनमें पारदर्शिता की सुनिश्चितता – जिससे भ्रष्टाचार
पर अंकुश लग सके।
ü
समुचित
एवं सहयोगपूर्ण कानून व्यवस्था- जिससे स्थानीय लोग नक्सलवादियों का प्रतिकार कर
सकें और उन्हें जीवनोपयोगी आवश्यक चीजें उपलब्ध न कराने के लिये साहस जुटा सकें।
ü
कानून
व न्याय व्यवस्था में सुधार की आवश्यकता पर बल – जिससे लोगों को सहज और समय पर
न्याय मिलने की सुनिश्चितता हो सके।
ü
आजीविकापरक
एवं सर्वोपलब्ध शिक्षा की व्यवस्था – जिससे सामाजिक विषमताओं पर अंकुश लग सके।
ü
कुटीर
उद्योगों को पुनर्जीवित करने के समुचित प्रयास – जिससे वर्गभेद की सीमायें
नियंत्रित की जा सकें।
ü
राष्ट्र
के विकास की मुख्यधारा में नक्सलियों को लाने और उनके पुनर्व्यवस्थापन के लिये
रोजगारपरक विशेष पैकेज की व्यवस्था।
ü
चीन और
पाकिस्तान से नक्सलियों को प्राप्त होने वाले हर प्रकार के सहयोग को रोकने के लिये
दृढ़ राजनीतिक और सफल कूटनीतिक उपायों पर गम्भीरतापूर्वक चिंतन और तद्विषयक
प्रयासों का वास्तविक क्रियान्वयन।