है
निशा यह सजी, बल्ब भी हैं जले
पर
बिना नेह-बाती दिशा ना मिले ।
है
दिशा को छला आज फिर बल्ब ने लो
हुयीं
धूमिल दिशायें, काँपती दीप की लौ ।
कुछ
इस तरह बल्ब उनके जले
कि
हो गयीं आज ओझल सारी दिशायें ।
रक्त
का एक दीपक रखा द्वार पर
और
इधर ही चलीं आज सारी हवायें ।
रौशनी
की तरफ़ जो उठायीं निगाहें
लगीं
बदली-बदली सी सारी फ़िज़ायें ।
अमावस
की ही निशा क्यों सजे
चाँदनी
रूपसी क्यों सिसकती रहे ।
भटकती
दिशायें, सूर्य खण्डित हुये
पग
बढ़ाती अमावस बिहंसते हुये ।
रात
काली सदा मान पाती रही
और
पूनम को होली जलती रही ।
नेह-बाती
बिना बल्ब इतने जले
ढक
गयी है धरा बल्बों के तले ।
नेह
किसने चुराया, कहाँ बाती छिपायी
कहाँ
गंध सोंधी दियों की हिरायी ।
मेंहदी
लगे हाथ से कोई परस दे
आके
रूठे दिये को कोई तो मनाये ।
दे
ओट आँचल की ममता उड़ेले
जब
कोई रूठा दिया टिमटिमाये ।
मुझे
माटी का ही दिया चाहिये
नेह-ममता
भरा ही हिया चाहिये ।
दीप
हो एक ही पर वो ऐसा जले
काँप जाये अँधेरा सदा को टले ।