अपना और
अपने समूह का वर्चस्व बनाये रखने के लिये अन्य लोगों और उनके समूहों के विरुद्ध
षड्यंत्र, कूटरचनायें एवं हिंसात्मक संघर्ष करना शक्तिशाली लोगों का आदिम स्वभाव
रहा है। जब हम पीड़ित और निर्बल होते हैं तो न्याय, समानता, प्रेम, करुणा और संगठन
की बात करते हैं किंतु जैसे ही हम संगठित हो कर शक्तिशाली हो जाते हैं हमारी
प्रवृत्तियाँ अपने वर्चस्व के लिये छटपटाने लगती हैं। मानव के इस विचित्र स्वभाव
ने भारतीय मनीषा को चिंतित किया और तब विश्वबन्धुत्व की एक परिकल्पना सामने आयी।
युद्धों
और पारस्परिक संघर्षों के प्रतिषेध एवं विश्वबन्धुत्व का भाव संचारित करने के
उद्देश्य से वसुधैव कुटुम्बकम भारत का आदर्श रहा है। सहचारिता एवं सह अस्तित्व का यह
एक उच्चतम आदर्श है किंतु इसके शुभ परिणामों के लिये वैश्विक स्तर पर इसके पालन की
अपेक्षा की जाती रही है। यदि कोई देश या देश के भीतर का कोई समुदाय इस सिद्धांत की
उपेक्षा करता है तो अन्य लोगों को अपनी सुरक्षा और अस्तित्व के लिये कुछ उपाय करना
ही होगा। स्वातंत्र्योत्तर भारत के प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू अहिंसा और
विश्वबन्धुत्व का अतिवादी स्वरूप अपनाते समय दूरदृष्टि से भारतीय समाज को देख पाने
में असमर्थ रहे जबकि यह वो समय था जब
अतिवादी संगठनों की निरंतर चुनौतियों, धार्मिक कट्टरता और राजनैतिक महत्वाकाक्षाओं
ने देश विभाजन की क्रूर त्रासदी से पूरे भारत को पहले ही चेतावनी दे दी थी।
दूरदृष्टि के इस अभाव ने भारत-चीन युद्ध और युद्ध में भारत की पराजय को सुनिश्चित्
कर दिया था। इतना ही नहीं, कश्मीर को लेकर जो नीतियाँ बनायी गयीं उनमें की गयीं
भयानक त्रुटियों ने देश को एक अनवरत हिंसा की आग में झोंक दिया। विदेशनीति और देश
में गंगा-जमुनी तहज़ीब की स्थापना के सम्बन्ध में नेहरू की अदूरदर्शिता, दूरदर्शी
राजनेताओं और चिंतकों की बात न मानने के हठ और स्वयं को सर्वश्रेष्ठ मानने के
पूर्वाग्रह ने भारत को आज जिस सामाजिक संघर्ष, असमानता, नैतिक पतन और गृहयुद्ध
जैसी स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया है उसका दूर-दूर तक कहीं कोई समाधान दिखायी नहीं
देता।
आज भारत
के भीतर और भारत के बाहर भी सनातनधर्मियों के अस्तित्व के विरुद्ध जिस तरह लोग
संगठित हो षड्यंत्रों और कूटनीतियों की रचना कर रहे हैं वह चिंताजनक है। हमें अपनी
रक्षा के लिये, अपनी संस्कृति और सभ्यता की रक्षा के लिये संगठित होना होगा। इस संगठन
का उद्देश्य अपने अस्तित्व की रक्षा के साथ-साथ वर्चस्व संघर्ष का निषेध करना भी
है अन्यथा आर्यों की संस्कृति को समाप्त होने से कोई नहीं रोक सकेगा। सनातनधर्मियों
से हम जिस संगठन की अपेक्षा करते हैं वह युद्ध के लिये नहीं बल्कि सांस्कृतिक एकता,
वैचारिक दृढ़ता, राष्ट्रप्रेम और आचरण में आयी शिथिलताओं के परिमार्जन के लिये है।
अन्य संगठनों की परम्पराओं के विपरीत यह संगठन किसी का विरोध नहीं करेगा, किसी को
क्षति नहीं पहुँचायेगा, कोई हिंसा नहीं करेगा ...प्रत्युत अपने को इतना सबल और
समर्थ बनायेगा कि अन्य लोग उसके अस्तित्व के लिये संकट बनने का विचार भी मन में न ला
सकें। आइये, हम नये भारत का ...सबल और समर्थ भारत का निर्माण करें।