शनिवार, 20 अप्रैल 2024

आयुर्वेदिक औषधियों की जाँच

 

जगदलपुर, छत्तीसगढ़ से प्रकाशित होने वाली “बस्तर पाती” पत्रिका के सम्पादक सनत जैन न्यायाधीशों से जानना चाहते हैं कि “आयुर्वेदिक औषधियों की गुणवत्ता की जाँच एलोपैथिक औषधियों की जाँच में प्रयुक्त होने वाली आधुनिक पद्धतियों से कैसे सम्भव है?” मूलतः इंजीनियर सनत जी व्यक्तिगत चर्चा में पूछते हैं –“धोती-कुर्ते के साथ गले में टाई लटकाने का क्या औचित्य है? भारतीय ज्ञान-विज्ञान के मूल्यांकन में किन मानदंडों का व्यवहार अधिक वैज्ञानिक, उपयोगी और व्यावहारिक होना चाहिये?

सनत जी के प्रश्न सैद्धांतिक हैं जिन पर विमर्श होना ही चाहिये। हमें ज्ञान और विज्ञान के अंतर को भी समझना होगा। ज्ञान अनंत है जबकि विज्ञान भौतिक होने के कारण सीमित है। विज्ञान विनाशकारी हो सकता है पर ज्ञान सदा रचनात्मक ही होता है।

आम जनता को भी यह समझना होगा कि एलोपैथिक और आयुर्वेदिक एवं यूनानी औषधियों की निर्माण विधि और उनके घटक द्रव्यों में मौलिक अंतर है जिसके कारण इनकी सम्यक जाँच आधुनिक पद्धतियों से पूरी तरह सम्भव नहीं है । एलोपैथिक औषधियों में जहाँ किसी एक या दो रसायनों के सम्मिश्रण या किसी जड़ी-बूटी के एक्टिव प्रिंसिपल्स से औषधियों का निर्माण होता है वहीं आयुर्वेदिक और यूनानी औषधियों में विभिन्न प्रकार की कई जड़ी-बूटियों या रसायनों या दोनों के सम्मिश्रण से औषधियों का निर्माण होता है जिसके कारण आधुनिक पद्धतियों के मानदंडों के अनुसार उनका मानकीकरण सम्भव नहीं हो पा रहा है। भारतीय दर्शन, सनातन विज्ञान और सनातन धार्मिक मूल्यों के मौलिक स्तम्भों पर विकसित एवं स्थापित आयुर्वेद में नैतिक मूल्यों के प्रति निष्ठावान रहते हुये औषधि निर्माण को प्राथमिकता दी जाती रही है। लोग पूर्ण विश्वास के साथ आयुर्वेदिक औषधियों का सेवन करते रहे हैं। आधुनिक काल में जहाँ हम सब पतन की ओर अग्रसर हैं, प्राचीन भारतीय मूल्यों के पालन में भी हुये पतन ने आयुर्वेदिक औषधियों की गुणवत्ता पर प्रश्नचिन्ह लगा दिये हैं । मूल्यों के पतन की स्थिति में किसी भी भौतिक संसाधन को अपनाकर सुधार की अपेक्षा नहीं की जा सकती।

आयुर्वेद में औषधिनिर्माण को “संस्कार” माना जाता रहा है। औषधि संस्कार का अपघटन हमारे नैतिक मूल्यों के पतन का परिणाम है। आधुनिक विद्वानों (?) ने आयुर्वेद के लिए भी एलोपैथिक मानदण्डों को अपनाते हुये इनकी अवसान तिथि (एक्स्पायरी डेट) निर्धारित कर दी है जो कि पूरी तरह अवैज्ञानिक और भ्रष्टाचार को बढ़ाने वाली ही सिद्ध होती जा रही है। एलोपैथिक औषधियों की भी अवसान तिथि के विषय पर वैज्ञानिकों में मतभेद हैं। औद्योगिक कारणों से दशकों पहले अमेरिका के डिफ़ेंस विभाग की एक शाखा में अवसान तिथि को लेकर हुये शोध के निष्कर्षों को प्रचारित नहीं किया गया जिसमें यह बात उजागर हुयी कि एक्स्पायर्ड औषधियों में अधिकांश औषधियाँ अनुपयोगी नहीं हुआ करतीं, कुछ ही औषधियाँ हैं जो एक्स्पायर्ड होने के बाद अनुपयोगी हो जाती हैं । अधिकांश औषधियाँ की गुणवत्ता कम हो जाती है जिसकी पूर्ति के लिए उनकी उपयोग मात्रा में वृद्धि करके वांछित लाभ लिया जा सकता है। दूसरी ओर आयुर्वेदिक और यूनानी औषधियों के लिए अवसान तिथि निर्धारित करने का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। घटिया रख-रखाव और अवैज्ञानिक पैकिंग के कारण फफूँद लगने या ऑक्सीडाइज़्ड हो जाने से ये औषधियाँ निर्धारित की गयी आधुनिक अवसान तिथि से पहले भी अनुपयोगी ही नहीं हानिकारक भी हो सकती हैं। स्पष्ट है कि घटिया रख-रखाव और अवैज्ञानिक पैकिंग की जाँच की जानी चाहिए न कि औषधि की अवसानतिथि निर्धारित करके समस्या से मुक्ति पाने का भ्रम सुस्थापित कर दिया जाना चाहिये!

आप नये चावल और गेहूँ की अपेक्षा पुराने चावल और गेहूँ को अधिक उपयोगी मानते आये हैं, पुरानी से पुरानी शराब को अधिक प्रभावी मानते आये हैं । इन सबकी और जड़ी-बूटियों की प्रकृति एक ही है, क्या आप इनकी भी अवसानतिथि निर्धारित कर देंगे?

आयुर्वेदिक और यूनानी औषधियों के निर्माण में नैतिकता का पालन करते हुये निर्धारित घटक द्रव्यों, निर्धारित संस्कार विधि और निर्धारित तापमान का ही संयोग अपेक्षित है जिसके अभाव में उच्च गुणवत्तायुक्त औषधि का निर्माण सम्भव ही नहीं है। औषधि की अवसानतिथि निर्धारित करने की अपेक्षा उनके निर्माण की आयुर्वेदोक्त संस्कारविधि को अपनाये जाने की आवश्यकता है। 

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