शनिवार, 7 जून 2025

हत्यारे को न्यायाधीश का दायित्व

 “मानवीय सभ्यता के उत्कर्षकाल (?) में वैश्विक स्तर पर युद्ध और आतंकवाद को प्रश्रय देने जैसी गतिविधियों के प्रसंग में विवेकशून्यता और अनैतिकमूल्यों की पराकाष्ठा ने यह विचार करने के लिये विवश कर दिया है कि हम सभ्य होते जा रहे हैं या असभ्य ?” – मोतीहारी वाले मिसिर जी : ज्येष्ठ शुक्ल १२, विक्रम संवत् २०८२ (ईसवी दिनांक ०७.०६.२०२५)

अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा बनाये रखने के लिये उत्तरदायी “संयुक्तराष्ट्र सुरक्षा परिषद्” में पाकिस्तान को एक माह के लिये “तालिबान प्रतिबंध समिति” का अध्यक्ष एवं “आतंकवादरोधी समिति” का उपाध्यक्ष नियुक्त किया गया है । ये नियुक्तियाँ वर्णमालाक्रमानुसार एक माह के लिये की जाती हैं और पदाधिकारी देशों के पास किसी को दंड देने या मनमाने तरीके से कोई नीतिगत निर्णय लेने का अधिकार नहीं होता किंतु एक “वैश्विक आतंकवादी देश” को आतंक और तालिबान रोधी समिति का उत्तरदायित्व देना क्या मक्षिका स्थाने मक्षिका एवं नियम के नाम पर जड़ता का विवेकहीन अनुकरण जैसा नहीं लगता ! हमने कैसेबियांका की पितृभक्ति और धौम्य शिष्य आरुणि की गुरुभक्ति की कहानियाँ पढ़ी हैं पर वहाँ कुपात्रता जैसी कोई बात नहीं थी । पाकिस्तान तो पूरी तरह अपात्र ही नहीं कुपात्र भी है । कलियुग का यह वह समय है जब पाकिस्तान का वैश्विक बहिष्कार किये जाने के लिये पूरे विश्व को एकजुट होना चाहिये जबकि विश्वकोष से आर्थिक सहायता और अमेरिका से संहारक आयुध प्रदाय जैसे निर्णय पाकिस्तान को आतंकवाद के लिये प्रोत्साहित ही करते हैं । माना कि सुरक्षापरिषद् की दो समितियों में अध्यक्ष और उपाध्यक्ष होकर पाकिस्तान कोई तीर नहीं मार पायेगा पर उसका मनोबल तो बढ़ेगा ही । सभ्यता के इस शीर्षकाल में हम निरंतर असभ्यता और विवेकहीनता का प्रदर्शन करने की होड़ में क्यों हैं? यदि महाशक्तियाँ इतनी ही विवेकहीन बनी रहीं तो वह दिन भी दूर नहीं जब चीन, फ़्रांस, रूस, ब्रिटेन और अमेरिका के बाद पाकिस्तान को भी संयुक्तराष्ट्र सुरक्षा परिषद् का स्थायी सदस्य बना दिया जायेगा ।

हत्या करते रहने के अभ्यस्त क्रूर हत्यारे को ही न्यायाधीश बना देने से उसके समक्ष न्याय के प्रति चिंतन की बाध्यताजैसी स्थिति उत्पन्न करना इसका एक दूसरा पक्ष हो सकता है किंतु पाकिस्तान के लिये इसकी सम्भावना अत्यंत क्षीण है । थप्पड़ खाकर अगले कई और थप्पड़ खाने के लिये बार-बार दूसरा गाल आगे कर देने वाला यूटोपियन सिद्धांत कितना व्यावहारिक हो सका है!   

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