सच
तलाशने की नौटंकी में मशगूल यह दुनिया हक़ीक़त से कितनी दूर जा चुकी है यह हमें अपनी
रोज़मर्रा की ज़िंदगी में पल-पल देखने को मिल जाया करता है । गवाहों और सबूतों की
दुनिया में कागज़ पर लिखी इबारत का महत्व सर्वोपरि होता जा रहा है और ख़ुश्बू से
ज़्यादा महत्व कागज़ के फूलों का हो गया है
।
समाज के
तथाकथित सम्भ्रांत परिवारों की शिक्षित या उच्चशिक्षित लड़कियाँ नारी स्वतंत्रता के
स्वच्छंद प्रयोग के लिये मुक्त होती जा रही हैं और नारी देह के व्यापार के लिये
अशिक्षा एवं ग़रीबी ही अब एकमात्र कारण नहीं रह गया है । भरी जवानी में तीन-तीन पति
बदलने वाली इंद्राणी मुखर्जी अपनी बेटी की हत्या के आरोप में जिस वक़्त पुलिस की
हिरासत में सवालों का सामना कर रही थी ठीक उसी वक़्त मैं एक ऐसी बस्ती में खड़ा था
जहाँ ज़िस्मफरोशी एक ख़ानदानी पेशा माना जाता है । यहाँ ग़रीबी है, अशिक्षा
है, कुछ
सपने हैं और हैं कागज़ पर गढ़े हुये कुछ मामूली से ख़ास रिश्ते ।
इस
बस्ती की रेशमा से इंद्राणी मुखर्जी की तुलना करने पर एक उभय बात जो सामने आती है
वह है सपने । इन सपनों के आकार-प्रकार में फ़र्क़ हो सकता है, बल्कि
हो नहीं सकता, फ़र्क़ है
। इंद्राणी के पास अपेक्षाकृत मज़बूत रिश्ते हैं, बेशुमार
दौलत है, शिक्षा
है और वह सब कुछ है जिसके लिये लोग अपनी ज़िंदग़ी का न जाने कितना समय संघर्षों में
गुजार दिया करते हैं । रेशमा के पास इंद्राणी जैसा कुछ भी नहीं है सिवाय एक जरा से
सपने के कि चौबीस घण्टों में इतने ग्राहक मिल जायं जिससे परिवार का खर्च आसानी से
चल जाय ।
जाने
किन क्षणों में इस व्यापार ने जन्म लिया होगा जिसे ख़त्म किये जाने की ज़रूरत सहस्रों
वर्षों से महसूस किये जाते रहने पर भी आज तक ख़त्म नहीं किया जा सका । ज़िस्मफ़रोशी
का बाज़ार हमेशा अपने शबाब पर रहा है क्योंकि इसके ग्राहक हर क्षण उपलब्ध रहते हैं
। स्त्री ख़ुद को बेच रही है क्योंकि पुरुष ने एक सुव्यवस्थित बाज़ार इस ख़रीद-फरोख़्त
के लिये बहुत पहले ही ईज़ाद कर लिया था । स्त्री को अपना परिवार चलाने के लिये पैसा
चाहिये जो बहुतेरे पुरुषों के पास इफ़रात है ।
शिल्पा
के सपने रेशमा के सपनों से कुछ ऊँचे हैं, अधिक
नहीं, बस इतने
ही कि उसकी दोनो बेटियाँ पढ़-लिख कर किसी सम्मानजनक नौकरी में लग जायं । “सम्मानजनक”
बस यही तो वह शब्द है जिसकी इस बस्ती में सख़्त ज़रूरत है ।
बहादुर
के तीनो बच्चे तब्बू, प्रह्लाद
और हरीश स्थानीय सरकारी स्कूलों में पढ़ रहे हैं । नौवीं कक्षा की छात्रा तब्बू के
बातचीत के तौरतरीकों में पारिवारिक प्रोफ़ेशन की छाप है जो ओमनारायण की बेटी करीना
में नहीं है । वह स्कूल के अन्य बच्चों की तरह ही सामान्य व्यवहार करती है । दोनो
बच्चियों के दाँत फ़्लोराइड से प्रभावित हैं और वे दोनो पढ़-लिखकर शिक्षिका बनना
चाहती हैं । राधे की बेटी संजना को टायफ़ायड हो गया है इसलिये आज वह स्कूल नहीं आयी, वहीं
उसकी दूसरी बेटी प्रियंका को कुछ दिन पहले पुलिस पकड़ ले गयी थी । प्रियंका अभी
नारी निकतन में है लेकिन कुछ अन्य युवतियाँ जेल में हैं ।
बबूल के
कंटीले झुरमुटों के बीच बसी इस बस्ती में माँ हो या बेटी सब पैसा कमाना जानती हैं
। इस बस्ती में मर्द भी हैं जो स्त्रियों की कमायी के पैसों से शराब पीना जानते
हैं । पुरुषों की तुलना में स्त्रियों के पास अपेक्षाकृत बहुत से काम होते हैं, धंधे से
लेकर रोटी बनाने और बच्चे पैदा करने तक घर-गृहस्थी के ढेरों काम । स्त्रियों को
संरक्षण देने के नाम पर पुरुष उनकी कमायी से मौज़ करते हैं और चाहते हैं कि यह धंधा
यूँ ही बरकरार रहे ।
बबूल की
छाया में लगे हैण्डपम्प के पास खड़े एक युवक का पक्काघर सामने ही है । छत पर डीटीएच
की छतरी और दीवारों पर देवी-देवताओं के चित्रों के साथ शुभलाभ और स्वस्तिक के
चिन्ह बने हुये थे । मैंने युवक से पूछा – आपकी माँ, बहनें
और बुआ धंधे में हैं और आप उनके लिये ग्राहक तलाशते हैं, क्या
आपको नहीं लगता कि ज़िंदगी कुछ बेहतर होनी चाहिये ।
युवक ने
मुस्करा कर कहा – नौकरी दिला दो, छोड़
देंगे धंधा ।
-
कहाँ तक
पढ़े हो ?
-
पढ़े
नहीं हैं ।
-
तो फिर
नौकरी कैसे मिलेगी ?
-
तो धंधा
छोड़कर पेट कैसे पालेंगे ?
-
तुम कुछ
और काम कर सकते हो, सब्ज़ी
बेचने का काम कर सकते हो, मज़दूरी
कर सकते हो ......
-
यह
हमारा पुश्तैनी धंधा है ।
- यानी आप
इस धंधे से निकलना नहीं चाहते ?
-
कहा न !
सरकार से कह कर नौकरी दिला दो, छोड़
देंगे धंधा ।
- सरकारी
नौकरी नहीं मिलेगी तो धंधा नहीं छोड़ोगे ?
-
.........
-
कुछ तो
बोलो ।
-
भूखों
थोड़े ही मरना है ।
-
यानी
धंधा चलता रहेगा ।
-
..........
युवक
घूम कर चलता बना । पाँच साल की एक सुंदर सी बच्ची हमारे पास आ गयी । हमने उसे गोद
में उठा लिया । बच्ची तप रही थी । मैं घूम कर चलते बने उस युवक पर पीछे से
चिल्लाया – बच्ची को इतनी तेज़ बुख़ार है, तुमने
इसे डॉक्टर को दिखाया ?
-
नईं
....
युवक ने
बिना घूमे उत्तर दिया ।
मुझे उस
ज़ाहिल पर गुस्सा आया, किंतु
कुछ किया नहीं जा सकता था । इन परिवारों के पुरुष पूरी तरह स्त्रियों की कमायी पर
ज़िंदगी जीने के अभ्यस्त हैं । मैंने उनकी मानसिकता का विश्लेषण करने का प्रयास
किया तो पाया कि वास्तव में इन परिवारों में पारिवारिक रिश्तों का कोई अर्थ नहीं
हुआ करता सिवाय माँ के । वहाँ पति या पत्नी नहीं हुआ करते औरत और आदमी हुआ करते
हैं । बच्चों के पिता नहीं हुआ करते इसलिये घर के पुरुषों का उनसे कोई भावनात्मक
रिश्ता नहीं हुआ करता । रिश्तों के नाम पर सिर्फ़ बच्चे होते हैं और होती है उन्हें
पैदा करने वाली एक औरत जिसे बच्चे माँ कहकर पुकारते हैं । बच्चियाँ बड़ी होकर माँ
के पेशे में उतर जाती हैं और बच्चे बड़े होकर ज़िस्म के सौदागर तलाशने में जुट जाते
हैं । उफ़्फ़ ! मनुष्य के ये कैसे-कैसे रिश्ते हैं ... कितने निष्प्राण ... कितने घृणित
!
और अब जबकि मैं ट्रेन की प्रतीक्षा में प्लेटफ़ॉर्म
पर झूमते एक पेड़ की छाया में बैठकर स्त्री-पुरुष सम्बन्धों के जंगल में भटकने के लिये
स्वतंत्र हूँ, इंद्राणी
मुखर्जी एक बार फिर मेरे सामने आकर खड़ी हो गयी है । उसके साथ ही आकर खड़े हो गये हैं
बहुत से नागफनी के पौधे । इंद्राणी अपने पूरे होश में मदहोश है और भरपूर मुस्करा रही
है, उसकी अधमुंदी
आँखों में अभी और भी सपने हैं जो जन्म लेने के लिये कुलबुला रहे हैं ।
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