स्वेच्छाचारिता
की वैश्विक स्वीकार्यता
वैश्विकसमाज के पक्षधर वामपंथी
पुरोधाओं द्वारा जे.एन.यू. में छेड़े गये “आज़ादी के लिये बर्बादी” अभियान को
वैश्विक स्वीकार्यता दिलाने के लिये प्रयास प्रारम्भ कर दिये गये हैं । जे.एन.यू.
परिसर और देश के विभिन्न भागों में
विभिन्न आयोजनों के माध्यम से “खण्ड राष्ट्रवाद” और “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के
असीमित विस्तार” जैसे विषयों पर बौद्धिक चर्चाओं का आयोजन प्रारम्भ किया गया है
जिसका उद्देश्य अपने विचारों को न्यायसंगत ठहराते हुये प्रचारित और स्थापित करना
है । वामपंथ का सत्ता पक्ष पर आरोप है कि उसने राष्ट्रवाद का सैन्यीकरण कर
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को समाप्त कर दिया है । उसने देश में युद्ध और आपातकाल
जैसी स्थितियाँ निर्मित कर दी हैं । अस्तु ...इन सभी विषयों पर हमारा दृष्टिकोण
बौद्धिक विमर्श हेतु इस वैश्विक चौपाल पर प्रस्तुत है –
राष्ट्रवाद
की अवधारणा –
राष्ट्रवाद की अभी तक कोई ऐसी परिभाषा सुनिश्चित नहीं की जा सकी है जो पूरे विश्व
में सर्वमान्य हो । राष्ट्रवाद को लेकर लोगों की भिन्न-भिन्न अवधारणायें हैं ।
किसी एक देश की अवधारणा को दूसरे देश पर थोपा नहीं जा सकता । दूसरी ओर यदि हम
राष्ट्रवाद की पश्चिमी अवधारणाओं के दृष्टिकोण से भारतीय राष्ट्रवाद की व्याख्या
करेंगे तो यह एक बहुत बड़ा बौद्धिक छल होगा । वर्तमान सन्दर्भों में राष्ट्रवाद
सांस्कृतिक एकरूपता और लोकनिष्ठा का कम, राजनैतिक महत्वाकांक्षा का अधिक विषय हो कर
रह गया है ।
भारतीय राष्ट्रवाद अपने स्वाभाविक भौगोलिक
विस्तार, विकसित सांस्कृतिक चेतना, भिन्न-भिन्न दार्शनिक सिद्धांतों की
स्वीकार्यता, आध्यात्मिक चिंतन एवं उत्कृष्ट मानवीय मूल्यों की रक्षा के प्रति
सजगता को केन्द्र मान कर स्वाभाविकरूप में विकसित हुआ है । इस राष्ट्रवाद में
सत्तालिप्सा का स्वार्थ नहीं अपितु वैचारिक विरोधाभासों के होते हुये भी एक
स्वाभाविक जनचेतना है । इसमें अपने जीवनमूल्यों के प्रति स्वाभिमान है, लोककल्याण
के प्रति निष्ठा की भावना है और अपनी सांस्कृतिक चेतना के प्रति सम्मान का भाव है
।
अमेरिकी और योरोपीय देशों का राष्ट्रवाद राजनीतिक बाध्यताओं से विकसित होने
के कारण आलोचकों द्वारा कभी सराहा नहीं जा सका । भारत को वहाँ के राष्ट्रवाद के
दृष्टिकोण से नहीं देखा जा सकता । वहाँ तो राष्ट्रों का निर्माण ही भौगोलिक और
प्राकृतिक आधार पर कम बल्कि सत्तालिप्सा के आधार पर अधिक हुआ है । भारत की प्राकृतिक
सीमा रेखायें इसे अद्वितीय बनाती हैं ।
भारत की सांस्कृतिक और आध्यात्मिक
चेतना ने भारत राष्ट्र की अवधारणा के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है ।
दुर्भाग्य से एक ही सांस्कृतिक पृष्ठभूमि वाले लोगों में जब व्यक्तिगत स्वार्थों
और सत्तालिप्सा के कारण टकराव होता है तो राष्ट्र खण्डित होता है । भारत ने इस
विखण्डन की त्रासदी को बारबार भोगा है ।
विश्व के अन्य क्षेत्रों में
राष्ट्रों के विघटन और निर्माण में धर्म की भी एक महत्वपूर्ण भूमिका रही है ।
यद्यपि भारतीय परम्परा में धार्मिक मूल्यों के प्रति सहिष्णुता और सद्भाव ने भी
राष्ट्रवाद के स्वरूप को विकसित किया है तथापि भारतीय उपमहाद्वीप भी धर्म आधारित
राष्ट्रनिर्माण की त्रासदी से बच नहीं सका । पाकिस्तान और बांग्लादेश का निर्माण
इसका उदाहरण है जिसकी नींव ही धार्मिक असहिष्णुता के कठोर धरातल पर रखी गयी । मध्य
एशियायी देशों में राष्ट्रों की सीमायें बनाने और बिगाड़ने में धर्म को साधन बनाया
जाता रहा है । वहाँ राष्ट्रवाद की परिभाषा और मर्यादा भारतीय अवधारणा के अनुरूप
विकसित नहीं हो सकी ।
पश्चिमी विचारकों के एक वर्ग ने तो
राष्ट्रवाद को ही कटघरे में खड़ा कर दिया है । उनकी दृष्टि में राष्ट्रवाद “सत्ता
और शोषण को पोषित करने के लिये” गढ़ा गया एक छल है जो जनता को बेवकूफ़ बनाता है ।
हाँ ! पश्चिमी परिदृष्य में इसमें सत्यता हो सकती है किंतु भारतीय उपमहाद्वीप के
परिदृष्य में यह अप्रासंगिक है । जे.एन.यू. में होने वाली परिचर्चाओं और
व्याख्यानों में यदि पश्चिमी राष्ट्रवाद और भारतीय राष्ट्रवाद को एक ही दृष्टि से
देखा जायेगा तो यह प्रज्ञापराध ही हो सकता है । कोई भी एकदेशज या एकांगी सिद्धांत
सार्वदेशज और व्याप्त नहीं हो सकता ।
महाद्वीप और राष्ट्र
महाद्वीपों की संरचना राजनीतिक नहीं प्राकृतिक है जिनकी
सीमायें समुद्रों और पर्वतों से प्रकृति द्वारा निर्धारित की गयी हैं । आधुनिक युग
में भारत एक उपमहाद्वीप के रूप में जाना जाता है किंतु इससे पहले इसकी पहचान एक
राष्ट्र के रूप में हुआ करती थी । पश्चिम में राष्ट्र की अवधारणा जो भी रही हो
किंतु प्राचीन काल में समुद्र और पर्वतों से सीमांकित एक विशाल भूभाग, जिसकी एक
विशेष सांस्कृतिक पहचान थी, विभिन्न रजवाड़ों और उनके पारस्परिक युद्धों के बाद भी
एक प्राकृतिक भौगोलिक राष्ट्र के रूप में जाना जाता था । जम्बूद्वीप के आर्यावर्त
या भारत के निर्माण में प्राकृतिक भौगोलिक सीमाओं का बहुत बड़ा योगदान रहा है ।
जहाँ तक संस्कृति और सभ्यता की बात है तो ये वे घटक हैं जो किसी भूभाग में एक बड़े
समुदाय द्वारा संस्कारित और विकसित किये जाते हैं । एक ही संस्कृति और सभ्यता वाले
समुदाय में पारस्परिक सहयोग और नैकट्य एक स्वाभाविक स्थिति है । सामुदायिक विकास
और समृद्धि के लिये यह स्वाभाविक स्थिति न केवल वरदान है बल्कि राष्ट्रीय एकता के
लिये भी सहयोगी है । संस्कृति और सभ्यता मनुष्य के वे गुण हैं जिन्हें वह स्वयं
विकसित करता है और जिसके विकास में कई युगों का समय अपेक्षित होता है ।
प्राकृतिक सीमाओं से आबद्ध किसी भी राष्ट्र को खण्डित कर पृथक
राष्ट्र का निर्माण एक विशुद्ध राजनैतिक आवश्यकता है । इस प्रकार से निर्मित हुये
खण्डित राष्ट्र पारस्परिक संघर्षों में उलझकर रह जाते हैं । आर्यावर्त को खण्डित
कर बनाये गये नेपाल, भूटान, अफ़गानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश इसके उदाहरण हैं
। इन सभी देशों की एक जैसी सांस्कृतिक पहचान भी इन्हें संगठित नहीं रख सकी । आज ये
सभी कृत्रिम राष्ट्र पारस्परिक संघर्षों में अपनी शक्ति को ही क्षीण करने में लगे
हुये हैं । सत्ता की लिप्सा ने ... केवल सत्ता की लिप्सा ने एक राष्ट्र को
खण्ड-खण्ड कर दिया । किंतु संतोष अभी भी नहीं है, कश्मीर, पञ्जाब, बंगाल, असम,
केरल, आदि सभी राज्यों को पृथक राष्ट्र बनाने का संघर्ष प्रारम्भ हो चुका है । यह
सब लोककल्याण के लिये नहीं वरन सत्ता लिप्सा के लिये है । लोककल्याण के लिये स्वयं
को लोक के लिये समर्पित करने की आवश्यकता होती है और इसके लिये किसी नये राष्ट्र
की आवश्यकता नहीं होती । क्या भारत को पुनः खण्डित करने की विचारधारा सन् उन्नीस
सौ सैंतालीस से पूर्व के भारत को पुनर्जीवित करने करने का स्वप्न देख रही है ?
क्या इसके पीछे पुराने रजवाड़ों की छिन्न शक्ति भी अपना कोई खेल रचा रही है ?
प्राकृतिक संसाधनों पर आधिपत्य के लिये पूरी दुनिया में होते
रहने वाले सतत संघर्षों के परिप्रेक्ष्य में भी राष्ट्रवाद को देखा जाना चाहिये ।
कावेरी, गंगा, सिंधु, ब्रह्मपुत्र आदि नदियों के जलविवाद को भी घरेलू विवाद मानकर
छोड़ा नहीं जा सकता । राजनीतिक लिप्साओं ने लोककल्याण की चिंता की ही कब है ?
और आज, जबकि खण्डित भारतीय उपमहाद्वीप के और भी खण्ड किये
जाने की माँग की जा रही है, हमें यह भी विचार करना होगा कि यदि ऐसा हो भी जाय तो
क्या प्राकृतिक संसाधनों के बटवारों को लेकर आगे अब और कोई संघर्ष नहीं होंगे ?
क्या सभी खण्डित देशों के विकास की दर में वृद्धि होने लगेगी ? क्या सर्वहारा वर्ग
अपने लक्ष्य को पा सकेगा ? क्या वर्गभेद समाप्त हो जायेगा ? क्या सत्तायें
लोककल्याण के प्रति निष्ठावान हो जायेंगी ? क्या शोषणमुक्त समाज का स्वप्न सच हो
जायेगा ? वास्तविकता तो यह है कि तब ये सारे संघर्ष और भी बढ़ जायेंगे । नये
राष्ट्रों की शक्ति क्षीण होगी और एक नये प्रकार की अराजक स्थिति का जन्म होगा ।
तो क्या किया जाय ?
निश्चित् ही वर्तमान व्यवस्था से अराजक तत्वों, ताजनीतिज्ञों
और अवसरवादियों के अतिरिक्त कोई संतुष्ट नहीं है । किंतु प्रश्न यह है कि व्यवस्था
में सुधार किया जाना चाहिये या व्यवस्था की हत्या कर दी जानी चाहिये ?
घर का बटवारा क्यों ? इसीलिये न कि अपने हिस्से वाले घर की
व्यवस्था अपने अनुसार की जा सके ! किंतु हम मानते हैं कि पृथक राष्ट्र का स्वप्न
देखने की अपेक्षा हमें अपने अन्दर की कमियों को दूर करने का प्रयास इसी घर में कर
लेना चाहिये । किसी पूर्णत्रुटिविहीन आदर्श राज्य की स्थापना की कल्पना कभी पूरा न
होने वाला स्वप्न है किंतु हम आपेक्षिक सुधार के लिये निष्ठापूर्वक प्रयास कर सकते
हैं ।
जहाँ तक समाज और उसकी संतुष्टि की बात है तो समाज का हर
व्यक्ति किसी भी व्यवस्था से पूर्ण संतुष्ट कभी नहीं हो पाता । मनुष्य समाज का यही
इतिहास रहा है । स्थापित व्यवस्था के विरुद्ध नयी व्यवस्था के लिये क्रांति की
घटनाओं से विश्व इतिहास भरा पड़ा है । हर क्रांति के बाद आयी नयी व्यवस्था ने ऐसा
क्या कुछ नया किया जो उसे स्थायी रख सकने के लिये पर्याप्त हो सका ?
पाकिस्तान और बांग्लादेश ने पृथक होकर अपनी नयी व्यवस्था
लागू की । कश्मीर की व्यवस्था पृथक है । क्या ये सभी सुखी राष्ट्र बन गये ? क्या
वहाँ का सर्वहारावर्ग संतुष्ट हो गया ? संतुष्ट कौन हुआ ? केवल मुट्ठी भर लोग ।
सोवियत रूस खण्डित हो गया, सबने अपनी-अपनी व्यवस्था से अपने-अपने देश को चलाने का
सपना पूरा कर लिया, किंतु क्या अब वहाँ कोई समस्या नहीं रही ?
एक ओर पृथकदेश का स्वप्न और दूसरी ओर वैश्विकसमाज एवं
वैश्विकसंस्कृति का आदर्श ! क्या यह वैचारिक विरोधाभास और सरासर धोखा नहीं है ?
यह निर्णय कौन करेगा
कि कौन सही है और गलत कौन ?
हमारे बीच राष्ट्रवाद और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की
अपनी-अपनी परिभाषायें और सीमायें हैं, जिनमें परस्पर टकराव है । एक पक्ष दूसरे
पक्ष के विचार को थोपा हुआ निर्णयात्मक विचार मानता है । सर्वोच्चन्यायालय का निर्णय
अन्यायपूर्ण मान लिया गया है । क्या यह एक समानांतर सर्वोच्चन्यायालय की महत्वाकांक्षा
की ध्वनि नहीं है ? जब विधि द्वारा स्थापित स्वीकार्यता समाप्त हो जाय और
असहिष्णुता ही क्रांति का पर्याय बन जाय तो किसी भी विवाद का निर्णय कौन कर सकेगा
? जब यह पहले से तय हो जाय कि दूसरे का विचार त्रुटिपूर्ण और हमारा ही विचार
एकमात्र सत्य और पूर्ण है तब निर्णय कौन करेगा ? कहाँ से वह न्यायाधीश लाया जायेगा
जिसका निर्णय दोनो पक्षों को स्वीकार्य हो ? निश्चित ही यह एक अंतहीन विवाद है जो
केवल और केवल संघर्ष को ही जन्म दे सकता है ।
वह क्या है जो किसी राष्ट्र के अस्तित्व के लिये आवश्यक है
?
वह है सहिष्णुता, समान विचार, समृद्धि के लिये परस्पर सहयोग,
सुनिश्चित् सुरक्षा, सद्भाव, समानता और देशप्रेम ।
वह क्या है जो किसी राष्ट्र को विखण्डित करता है ?
वह है स्वाधीनसत्ता की लिप्सा, भीरुजनता की अवसरवादी
उदासीनता और राष्ट्रीय एकता का अभाव ।
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " "सठ सन विनय कुटिल सन प्रीती...." " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
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