आज दिनांक १६ अगस्त की भोर से ही भारत और विश्व की दृष्टि अन्ना और सरकार की गतिविधियों पर लगी रही. अन्ना और उनके दो सहयोगियों को उनके आवासों से बंदी बना लिया गया. दोपहर बाद तिहाड़ कारागार में भेज दिया और सूर्य डूबते-डूबते वापस उनके घर......और इस तरह एक राजकीय नाटक की यवनिका अगली भोर तक के लिए गिरा दी गयी.
अब कल सुबह नाट्यगृह के पट खुलने पर नवीन दृश्य की सभी को प्रतीक्षा है. चलिए, इस बीच हम कुछ आवश्यक बातें कर लें. प्रारम्भ करते हैं अन्ना के पूर्व समर्थक रहे और अब विरोधी विश्वबन्धु गुप्त से. वे भरपूर कुपित हैं अन्ना, किरण बेदी, पिता-पुत्र युगल अधिवक्ता और अरविंद केजरीवाल से. उनके अनुसार ये सभी लोग स्वयं लोकपाल बनने के स्वप्नदर्शी हैं ......नौकरी पाना चाहते हैं पर इसके लिए उन्हें जब विज्ञापन निकले तभी आवेदन करना चाहिए . उनके कुपित होने का एक कारण यह भी है कि "जाहिल" केज़रीवाल, अछूत राष्ट्रीय स्वयमसेवक संघ और सरकारी दलाल स्वामी अग्निवेश अन्ना को अपना समर्थन दे रहे हैं. अर्थात सच किसे बोलना है ...सत्य का समर्थन किसे करना है यह सब गुप्त जी तय करेंगे. हर व्यक्ति को सत्य बोलने का अधिकार नहीं है क्योंकि इससे लोकतंत्र की मर्यादा भंग होती है.
गुप्त जी और बहुत से अन्य बुद्धिजीवियों के मत से लोकपाल बिल बनाने का अधिकार मात्र प्रजा द्वारा ईमानदार उम्मीदवारों के अभाव की विवशता में निर्वाचित शासन के निकम्मे सांसदों को ही है, स्वयं प्रजा को नहीं. प्रजा जनहित के अनुरूप किसी विधि निर्माण के लिए शासन पर दबाव नहीं डाल सकती...यह अलोकतांत्रिक है. समाजसेवी और स्तंभकार शबनम हाशमी ( जो कि साम्प्रदायिक हिंसा अधिनियम के लिए संघर्षरत हैं ) और भ्रष्टाचार विरोधी मंच के संस्थापक डॉक्टर पुरुषोत्तम मीणा के विचार भी कुछ इसी तरह के हैं. अन्ना विरोधी अभियान से दो प्रमुख बातें उभर कर सामने आयी हैं जो कि अत्यधिक चिंतनीय हैं ...और उन पर पूरे राष्ट्र के जनमानस को गंभीर चिंतन करने की आवश्यकता है.
पहली बात है दक्षिणपंथियों के प्रति अछूत जैसी मानसिकता में निरंतर वृद्धि. यह कितनी विचित्र बात है, जो लोग लोकतंत्र की दुहाई देते नहीं थकते वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, भारतीय जनता पार्टी और इसके साथ ही भारतीयता, सनातन धर्म, भारतीय संस्कृति, प्राचीन भारतीय आर्ष साहित्य, भारतीय दर्शन आदि की चर्चा या इनकी उपस्थिति का आभास होते ही इनके साथ अछूत जैसा व्यवहार करने लगते हैं. आप मानवीय मूल्यों की स्थापना की बात करिए या भ्रष्टाचार के विरोध की ...यदि आप "अहिंदू" हैं या "छद्म" धर्मनिरपेक्षतावादी हैं तभी अन्य लोगों द्वारा आपकी बात स्वीकार्य है अन्यथा नहीं. शबनम हाशमी और विश्व बन्धु गुप्त के ये तर्क कि अन्ना का आन्दोलन आर.एस.एस. द्वारा समर्थित या प्रायोजित होने के कारण समर्थन योग्य नहीं है ...बड़े ही विचित्र लगते हैं. अभिप्राय यह कि सत्य मार्ग पर चलने का अधिकार या न्याय की बात करने का अधिकार केवल वामपंथियों और छद्म धर्मनिरपेक्षतावादियों को ही है अन्यों को नहीं........सनातनधर्मियों को तो कदापि नहीं. भारतीयता के प्रति अस्पृश्यता का यह व्यवहार इस देश को रसातल में ले जाए बिना नहीं छोड़ने वाला. इस अस्पृश्यता के दुर्भाव का उन्मूलन आवश्यक हो गया है अब.
दूसरी बात है यह कथन कि " अन्ना और उनके सहयोगी कौन होते हैं सरकार से अपने बनाए क़ानून को लागू कराने वाले ? ये सरकार को ब्लैकमेल कर रहे हैं. इनकी सारी प्रक्रियाएं अलोकतांत्रिक हैं ".......इसलिए इनके शांतिपूर्ण आन्दोलन को अवैध और अलोकतांत्रिक घोषित करते हुए होने ही नहीं देना चाहिए. - यह बात सरकार, वामपंथियों और भारत विरोधी मानसिकता वाले लोगों के समूहों द्वारा प्रचारित की जा रही है. निर्विवादित रूप से ये लोग परम्परावादी और यथास्थितिवादी हैं. विचारणीय बात यह है कि जिस देश में सुशासन के लिए लोक द्वारा निर्वाचित कर अधिकृत किये गए लोगों द्वारा ही यदि निर्लज्ज लूटमार की परम्परा स्थापित कर दी जाय, चुनाव प्रक्रिया ही दूषित हो और योग्य लोग चुनाव में खड़े होने के लिए अघोषित रूप से अयोग्य स्वीकार कर लिए गए हों तो फिर निरीह लोक के पास अपनी रक्षा और मूल्यों की स्थापना के लिए और क्या उपाय रह जाता है ? अन्ना ने एक सात्विक माँग रखी है.....उस माँग का प्रस्ताव दिया है कि इसे विधि द्वारा स्थापित किया जाय. अन्ना स्वयं विधि निर्माण नहीं कर रहे हैं...जिन्हें करना चाहिए वे कर नहीं रहे हैं और न ही उनकी कुछ करने की मानसिकता है ...उन्हीं के द्वारा कराये जाने का एक लोकतान्त्रिक आग्रह है अन्ना का. इसमें अनैतिक क्या है ? राजा जब प्रजा के हित के विरुद्ध कार्य करने वाला हो तो उसे रास्ते पर लाने या अपदस्थ करने का नैतिक और नैसर्गिक अधिकार प्रजा का होता है यह एक सुस्थापित ऐतिहासिक तथ्य है जिसकी अवहेलना करना आत्मघाती होगा.
हम भविष्यवक्ता नहीं हैं और न अन्तर्यामी ....पर अभी की स्थितियों में अन्ना और किरण वेदी की नियति पर संदेह का लेश भी कारण दिखाई नहीं देता. ये दोनों ही व्यक्ति शासकीय सेवा से स्वेच्छया सेवा निवृत्ति ले चुके हैं ..............क्या इसलिए कि लोकपाल बनने की आकाशवाणी उन्हें वर्षों पूर्व सुनायी दे गई थी ? इस देश का लोक यह जानना चाहता है कि विश्वबन्धु गुप्त की दिव्यदृष्टि में लोकपाल के लिए ( जिसके बिल का ही अभी कोई पता ठिकाना नहीं है, सूत न कपास कोरी संग लठी-लठा ) किरण वेदी और अन्ना से अधिक राष्ट्रभक्त और ईमानदार व्यक्ति और कौन है जिसे वे लोकपाल के रूप में देखना चाहते हैं ? किरण वेदी की नियति पर संदेह करने वाले गुप्त जी को यह देश कभी क्षमा नहीं कर सकेगा...उनका अपराध अक्षम्य है.