सावन
सबहिं कहत सखि सावन आये
पुलकित मन, तन खिल-खिल जाए.
सुन रे सखी घन भेद करत ये
कभी मन भाये कभी अगन लगाए .
श्याम-श्याम घन तोहे मन भावन
घन घिर आये सखि मोहे न सावन.
गरजत बरसत घनन छनन घन
तड़पत हूँ ज्यों दामिनि छन-छन.
आज सखी क्यों केश सँवारे
आवत क्या घनश्याम तुम्हारे.
रहस छिपावत मन अकुलावत
चितचोर बने क्यों नयन तुम्हारे.
बहुत सुन्दर ..भावप्रवण रचना
जवाब देंहटाएंbahot achchi lagi......
जवाब देंहटाएंडॉक्टर साहब
जवाब देंहटाएंदो गरमागरम प्रविष्टियों के बाद सावन की झड़ी सुहानी लगी है … :)
सबहिं कहत सखि सावन आये
पुलकित मन, तन खिल-खिल जाए
अति सुंदर ! मनभावन ! बधाई इस रचना के लिए
हार्दिक मंगलकामनाओं सहित
-राजेन्द्र स्वर्णकार
मेरी ताज़ा रचना भी आपकी प्रतिक्रिया की राह देख रही है-
जवाब देंहटाएंमेरी ख़िदमत के लिए मैंने बनाया ख़ुद इसे
घर का जबरन् बन गया मालिक ; जो चौकीदार है
काग़जी था शेर कल , अब भेड़िया ख़ूंख़्वार है
मेरी ग़लती का नतीज़ा ; ये मेरी सरकार है
समय निकाल कर पूरी रचना पढ़ने आइएगा …
कमाल की सांस्कृतिक रचना है डॉक्टर साहब!! एकदम वर्त्तमान से अतीत में ले गए आप!!
जवाब देंहटाएंआपकी इस कविता से अपनी शुरूआती कविता की कुछ पंक्तियाँ याद आ गई ...
जवाब देंहटाएंदूर कहीं पपीहा बोले .....
कानों में मधुर रस घोले ...
सावन की आई ठंडी फुहार
लाई मोरे जियरा में खुमार
झुनक-झुनक पैजनियाँ बोले
दूर कहीं पपीहा बोले .....
और दो गरमागरम प्रविष्टियों के बाद सावन की झड़ी सुहानी लगी
कमाल की सांस्कृतिक रचना है डॉक्टर साहब......!!
:))