गुरुवार, 18 अगस्त 2011


सावन 

सबहिं कहत सखि सावन आये
पुलकित मन, तन खिल-खिल जाए. 
सुन रे सखी घन भेद करत ये
कभी मन भाये कभी अगन लगाए .

श्याम-श्याम घन तोहे मन भावन 
घन घिर आये सखि मोहे न सावन.
गरजत बरसत घनन छनन घन
तड़पत हूँ ज्यों दामिनि छन-छन.

आज सखी क्यों केश  सँवारे 
आवत क्या घनश्याम तुम्हारे. 
रहस छिपावत मन अकुलावत  
चितचोर बने क्यों नयन तुम्हारे.

6 टिप्‍पणियां:

  1. डॉक्टर साहब

    दो गरमागरम प्रविष्टियों के बाद सावन की झड़ी सुहानी लगी है … :)
    सबहिं कहत सखि सावन आये
    पुलकित मन, तन खिल-खिल जाए

    अति सुंदर ! मनभावन ! बधाई इस रचना के लिए



    हार्दिक मंगलकामनाओं सहित
    -राजेन्द्र स्वर्णकार

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  2. कमाल की सांस्कृतिक रचना है डॉक्टर साहब!! एकदम वर्त्तमान से अतीत में ले गए आप!!

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  3. आपकी इस कविता से अपनी शुरूआती कविता की कुछ पंक्तियाँ याद आ गई ...

    दूर कहीं पपीहा बोले .....
    कानों में मधुर रस घोले ...

    सावन की आई ठंडी फुहार
    लाई मोरे जियरा में खुमार
    झुनक-झुनक पैजनियाँ बोले
    दूर कहीं पपीहा बोले .....

    और दो गरमागरम प्रविष्टियों के बाद सावन की झड़ी सुहानी लगी
    कमाल की सांस्कृतिक रचना है डॉक्टर साहब......!!

    :))

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टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.