जितना है गहन तम
शक्ति भी उतनी प्रबलतम
कृष्ण विवरों से भला
जीती है कब किरण!
आँखें भी सहती हैं
तमस,
नहीं
प्रखर किरणों को।
हो गया प्रकाशित
जो कुछ भी आसपास
उसे ही भर लें अंक में
हो पाता उतना भी कहाँ?
तमस से व्यथित हैं फिर भी
प्रकाश को
सहते हैं कब नयन?
चौदह
वर्ष तक जंगलों में क्यों भटकते रहे राम? अग्निपरीक्षा के बाद भी सीता को क्यों
होना पड़ा निर्वासित? कृष्ण को मथुरा से क्यों करना पड़ा पलायन? सत्य क्यों होता है
पुनःपुनः अपमानित? आध्यात्मिक देश भारत में क्यों पल्लवित-पुष्पित होते हैं पापों
के जंगल? क्यों होते हैं बलात्कार उन कन्यायों से जो शक्ति के रूप में पूज्यनीय
स्वीकृत हैं भारत में? स्त्रियाँ क्यों वंचित हैं मानवीय अधिकारों से जो घोषित हैं
देवी के रूप में? श्रम क्यों रहता है निर्धन जो स्वयं उत्पादक है मुद्रा का?
देववाणी संस्कृत क्यों चली गयी नेपथ्य में? क्यों बारबार पराधीन होता है आर्यों का
देश? क्यों संकुचित होती जा रही हैं आर्यावर्त की सीमायें? ....और तम क्यों
घिर-घिर आता है हर बार?
सहते हैं कब नयन?
कृष्ण विवरों से भला
जीती है कब किरण!
इन
प्रश्नों ने मुझे सदा ही व्यथित किया है। समाधान की आशा में कहाँ-कहाँ नहीं भटका
हूँ। भटकाव से मुक्त नहीं हो सका, अभी भी पथ में ही हूँ।
भारत
ऐसा देश है जहाँ यात्रा के प्रारम्भ में ही तीक्ष्ण पाषाणों से भरे दुर्गम पर्वतों
का सामना करना पड़ता है संसारी को। गहन अन्धकार में एक दीर्घ और क्लांत कर देने
वाली यात्रा .....
और
मैं ......
कभी
थका ...कभी हारा ...कभी विद्रोही हुआ .....कभी पलायन करने का मन हुआ ....कभी
समाधान की आशा दिखी .....कभी आशा ने निराशा को फिर आगे कर दिया ....
नुकीले
पत्थरों ने कहा –“ हमारी तीक्ष्णता बाह्य है ...अन्दर झाँक कर देखोगे तो सुगम आकाश
पा लोगे। दुर्गमता वह पराकाष्ठा है जहाँ से सुगमता को प्रारम्भ होना ही पड़ता है।”
किंतु
ठोस पत्थरों के भीतर झाँक पाना इतना सरल है क्या?
सर्वविदित
है कि पश्चिम के लोग भौतिकवादी हैं। इसे इस तरह भी कहा जा सकता है कि पश्चिम के
लोग सांसारिक उपलब्धियों का उपभोग करने में प्रवीण हैं। पूर्व के लोग भौतिकता के
उपभोग में वानर वृत्ति से मुक्त नहीं हो सके। वानर लोभी होता है ...उसकी लिप्सायें
अनियंत्रित होती हैं ...उसके उपभोग की प्रक्रिया अव्यवस्थित होती है, उसमें
प्रवीणता का अभाव होता है।
वे
पुनर्जन्म में विश्वास नहीं करते इसलिये इस जीवन को भरपूर जीने और जीने देने का
प्रयास करते हैं। हम पुनर्जन्म में विश्वास तो करते हैं किंतु स्वयं भर जीना चाहते
हैं ...दूसरों का जीना संकट में डालते हुये।
लोग
कहते हैं कि पश्चिम के लोग हमारे जितने आध्यात्मिक नहीं होते। पर जितने प्रश्न
हमारे पास होते हैं उतने प्रश्न उनके पास नहीं हुआ करते।
पश्चिम
से प्रतिभायें पलायन नहीं किया करतीं ...सूर्य की किरणें विश्राम पाती हैं वहाँ।
भारत से प्रतिभाओं को सदा ही पलायन करने को विवश होना पड़ा है ...सूर्य की किरणों
को अपनी यात्रा पूर्व से ही प्रारम्भ करनी पड़ती है ...पश्चिम की ओर।
दीपक
अपने आधार को कब प्रकाशित कर सका है भला!
हमने
स्वयं को आध्यात्मिक तो घोषित कर दिया पर आध्यात्मिकता में भी अपनी भौतिक लिप्साओं
को ही अन्वेषित करते रहने के अभ्यस्त हो गये हैं।
अपने
आसपास की अनियंत्रित अव्यवस्थाओं, जड़ हो गयी कुरीतियों, स्वीकृत हो चुके
भ्रष्टाचार, निरंकुश होते अत्याचार, स्वतंत्र संत्रास और पल्लवित हो रहे पाप से
जूझते-जूझते हर बार यही प्रतीत हुआ है कि प्रकाश स्थायी कब हो पाया है .....जो
स्थायी है वह तो अन्धकार ही है। ब्रह्माण्ड में अन्धकार ही अधिक है ...प्रकाश बहुत
कम। प्रकाश के स्रोत भी अस्थायी हैं ...व्याप्त तो अन्धकार है।
पश्चिम
में सूरज उगता भी है तो कभी-कभी। वहाँ अन्धकार इतना घना नहीं होता ...इतना प्रकाश
भी नहीं होता ...इसलिये वहाँ के लोग धुंधलके में जीने के अभ्यस्त हैं।
भारत
में प्रखर प्रकाश है तो गहन अन्धकार भी। किंतु हम अन्धकार में जीने के अभ्यस्त हैं
...तभी तो प्रार्थना करते हैं ...”तमसोमा ज्योतिर्गमय”।
हम
क्रांति तो करते हैं पर क्रांति के परिणाम अवसरवादियों को हस्तांतरित कर देते हैं।
एक सुविचार जैसे ही किसी परिणाम में परिवर्तित होता है दूसरा विरोधी विचार उस पर
अपना पारम्परिक अधिकार कर लेता है और संपूर्ण परिस्थितियाँ पुनः विसंगतियों और
विरोधाभासों से भर जाती हैं।
जटिलतायें
इतनी अधिक हैं कि समाधान की भूमिका निर्मित करने में ही पूरा जीवन चुक जाता है।
धुंधलके में जिया जा सकता है पर गहन अन्धकार तो जीवन की सारी गतिविधियों को बन्दी
बना लेता है।
जीना
है तो प्रकाश का संधान करना ही होगा ...तीक्ष्ण पाषाणों से भरे अन्धेरे अपथ पर
यात्रा प्रारम्भ कर आगे बढ़ते हुये ...विद्रोह के झंझावातों से जूझते हुये
....प्रकाश का अनुसंधान करना ही होगा।
प्रकाश
की ओर बढ़ने की प्रक्रिया ही आध्यात्मिक यात्रा की प्रक्रिया है। यह अनुपलब्धियों
से उपजी उपलब्धि है। यह घोर अशांति से उपजी शांति की यात्रा है। यह पाप के अवश
कुण्ड का प्रबल विस्फोट है। यह न सुलझ पाने वाली विकट समस्यायों का व्यक्तिगत
समाधान है। यह निर्बल का सबल होना है। यह पराजित की विजय यात्रा है। यह व्याप्त
हुये कोलाहल की एकांत शांत प्रस्तावना है। यह चरम दुःखों का अंतिम विसर्जन है। यह
गहन अन्धकार से विस्फोटित हुआ तीव्र प्रकाश है।
यही
कारण है कि भारत में अध्यात्मिक ज्ञान के प्रकाश की तीव्रता इतनी अधिक हो सकी। यह
तीव्रता इतनी अधिक है कि लोगों की आँखें चौंधिया गयी हैं।
चकाचौंध
को हमारी आँखें कब सह पायी हैं भला!
काश!
भारत के पास ऐसी आँखें होतीं जो तीव्र प्रकाश को भी सह पातीं।
विचारणीय लेख ...आभार
जवाब देंहटाएं