बुधवार, 5 सितंबर 2012

हीरोशिमा दिवस..

हीरोशिमा दिवस..

विकसित सभ्यता के मस्तक पर कलंक का एक दिन

 

सृजन हो ....या संहार..... शक्ति आवश्यक है दोनो के लिये... 
इसीलिये तो ...सुर हों या असुर .....मानव हों या दानव ...शक्ति पाने को आतुर रहते हैं सभी...  
.... किंतु हर किसी का पाना एक जैसा नहीं होता। ‘पाने’ ‘पाने’ में भेद है .....।
पात्रता और संस्कार के भेद से तय होता है कर्ता का लक्ष्य। लक्ष्य से तय होती है उसके कर्म की दिशा ....और कर्म की दिशा से निर्मित होती है सम्भावित परिणामों की रूपरेखा।
..किंतु शक्ति तो सुपात्र के हाथों में पहुँचकर ही गाथा लिख पाती है सृजन की। सभ्यता के विकास के लिये आवश्यक है यह।
सभ्यता का विकास ! क्या है यह ‘सभ्यता’?
.....हमारा कल्याणकारी आचरण ही तो।
...और उसका विकास ?
विकास ......हमारे कल्याणकारी आचरण के परिमार्जन की एक सतत् व ऊर्ध्वमुखी प्रक्रिया....जो अनिवार्य है ... ‘सर्वे भवंतु सुखिनः’ के पवित्र उद्देश्य की प्राप्ति के लिये।
शक्तिवान यदि संस्कार से पोषित न हो तो अहंकार का जन्म होता है ...और मिलता है विनाश को आमंत्रण।  
शक्तिवान यदि संस्कारी भी हो तो विनम्रता और गम्भीरता का जन्म होता है ...और मिलता है सृजन को आमंत्रण । शक्ति-विनम्रता और गम्भीरता से अलंकृत लोग ही बन पाते हैं समाज के ‘प्रकाश स्तम्भ’।
शक्ति और सभ्य आचरण के मध्य एक सुनिश्चित संतुलन का होना आवश्यक है।
राम ने शक्ति की पूजा की थी, रावण ऐसा नहीं कर सका ....इसीलिये वह राम की तरह मर्यादापुरुषोत्तम नहीं बन सका।
शक्ति पर अंकुश आवश्यक है। नियंत्रित शक्ति के ही प्रवाह से हो पाता है सृजन। शक्ति को पाना एक कठिन कार्य है ....और उससे भी कठिन कार्य है उस पर अंकुश रख पाना।
अंकुश में कैसे रखा जाय शक्ति को? ...यह एक ज्वलंत प्रश्न है ....कठिन भी ...पर असम्भव नहीं।
अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति ‘ट्रू मैन’ ने यदि इस असम्भव को सम्भव बनाने का लेश भी प्रयास किया होता तो हीरोशिमा और नागासाकी के लाखों निररपराध लोग ....निरीह पशु-पक्षी और न जाने ऐसे ही कितने और असंख्य जीव-जंतु अनियंत्रित परमाणु ऊर्जा से जल कर इतनी अमानवीय मौत न मरते ...और न ही तब विकसित मानव सभ्यता के स्वरूप पर ऐसा अमिट कलंक लगता।
शक्ति को नियंत्रित करने के लिये एक और शक्ति की आवश्यकता होती है। ...यह शक्ति धर्म की शक्ति है। शक्ति पर यदि धर्म का अंकुश न हो तो विनाश को आमंत्रण मिलते देर नहीं लगती।
शक्ति जब-जब असंस्कारी और अधार्मिक लोगों के हाथों में पहुँची है तब-तब युद्ध के इतिहास रचे गये हैं।
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..पर शक्ति पहुँचती कैसे है ऐसे हाथों में ....? कौन उत्तरदायी है इसके लिये ....?
इसका उत्तर तो जनता जनार्दन को ही खोजना होगा। ....यह खोजना होगा कि शक्ति के नियंत्रण का अधिकार किसके पास रहना चाहिये ...।
आज हम अपरिमित शक्तियों के स्वामी बन चुके हैं ....पर दुर्भाग्य से हमारे पास नियंत्रक शक्ति का अभाव है। हम धर्म और सम्प्रदाय के अंतर को विस्मृत कर चुके हैं। हम यह विस्मृत कर चुके हैं कि जो सर्वजनहिताय और सर्वजनसुखाय है ....धर्म उसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है।
शक्ति के सदुपयोग के लिये हमें धर्म को पुनः परिभाषित करना होगा ....और तथाकथित धर्मनिरपेक्षता के राजनैतिक भ्रम से निकलकर  ...जो सर्वकल्याणकारी है उसी का वरण करना होगा।
मनीषियों ने तो पूरे विश्व के समक्ष प्रेम और सहनशीलता को जीवन का श्रेष्ठतम् मंत्र स्वीकार कर लेने का परामर्श प्रस्तुत किया था। ...वसुधैव कुटुम्बकम् के सन्देश का आशय यही तो है।
परंतु सन् 1945 के सत्ताधारियों ने इस सन्देश की उपेक्षा की ....., लोभ और अहंकार ने प्रेम और सहनशीलता का गला घोट दिया ....और प्रारम्भ हुआ द्वितीय विश्वयुद्ध। इस युद्ध के कारण सर्वाधिक क्षति उठानी पड़ी जापान को। परमाणु ऊर्जा से जल कर लाखों मनुष्यों और न जाने कितने जीव-जंतुओं की तड़प-तड़प कर हुयी भयंकर पीड़ादायी मृत्यु के साथ आयुध-युद्ध का तो अंत हो गया पर न जाने कितने और नये जीवन-युद्धों का आरम्भ हो गया।
आयुध-युद्ध समाप्त हुआ ...पर आज इतने वर्षों के बाद भी जापान की त्रासदी अभी तक समाप्त नहीं हुयी। परमाणु विकिरण से हुये जीन-उत्परिवर्तन के अमानवीय परिणामों को भोगने के लिये बाध्य हैं जापान के लोग ...जापान के पशु-पक्षी ....जापान का प्रत्येक जड़-चेतन। प्रकृति के कोप से उत्पन्न जीवन का यह युद्ध अभी तक चल ही रहा है ....  
पूरा विश्व इस भीषण युद्ध का साक्षी रहा ...और कौन है जो इसके भयानक परिणामों से अवगत नहीं हुआ ! ...पर शक्ति पाने की लालसा समाप्त नहीं हो सकी अभी तक। अपनी-अपनी सीमाओं की सुरक्षा के बहाने विनाशक आयुधों की प्रतिस्पर्धा में पूरा विश्व सम्मिलित हो चुका है। राजनेता सर्वशक्तिमान बनने के स्वप्नानन्द में खोये हुये हैं ...। उन्हें इससे क्या प्रयोजन कि उनके देश में भी रहते हैं ऐसे लोग जो भूखे पेट सोने के लिये विवश होते हैं ...उन्हें बम नहीं रोटी चाहिये।  
शक्ति हमें भी चाहिये ...पर आयुधों के रूप में नहीं ...बल्कि उन रूपों में ...जिनसे हमारा विकास हो सके  ...हम सबका समग्र विकास। हमें ऐसी शक्ति चाहिये जो हर किसी को पेट भरने के लिये रोटी दे सके, ...तन ढकने के लिये कपड़ा दे सके, ...सिर छिपाने के लिये घर दे सके, ...खेतों के लिये पानी दे सके, ...उद्योगों के लिये बिजली दे सके .....जीवन में प्रकाश दे सके ....जिससे मिल सके हर किसी को शांति ...और भयमुक्त जीवन।
ॐ शांतिः ! शांतिः !! शांतिः !!!

1 टिप्पणी:

टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.