मंगलवार, 18 नवंबर 2014

संत का स्वाङ्ग – राक्षस की विवशता


          सीता के अपहरण के लिये रावण को संत का स्वाङ्ग करने के लिये विवश होना पड़ा था । लंकाधिपति रावण ने अपनी इस असांस्कृतिक विरासत से लंका को तो मुक्त रखा किंतु भारत को यह विरासत दे गया । अपनी इस निकृष्ट विरासत के माध्यम से दशानन रावण राम के वंशजों से आज भी बदला ले रहा है । रावण की आत्मा यह सब देख-देख कर अट्टहास कर रही है, कलियुग में राम के वंशजों ने राम की मर्यादा को धता बताते हुये रावण की विरासत को स्वीकार कर लिया है ।

           अब भारत के आधुनिक इतिहास में लिखा जायेगा – “ .........धीरे-धीर यह परम्परा भारतीय समाज में लोकप्रिय होती गयी और इक्कीसवीं शताब्दी के द्वितीय दशक में तो भारत के कई राक्षसों ने संतों के स्वाङ्ग को बड़ी सहजता से अपना लिया था । भारत का लोकतंत्र इन राक्षसों के आगे नतमस्तक था । आपराधिक मानसिकता वाले लोगों के एक बड़े वर्ग में “बाबाओं” का स्थान ईश्वर से भी ऊपर स्वीकार कर लिया गया था” ।       

         नौकरी से टर्मिनेट किया जा चुका, लगभग 22 महीने जेल में रह चुका, एक संगठित गुण्डा संत का चोला ओढ़कर धर्म के नाम पर अपराध किये जा रहा है । सारी दुनिया इतने दिनों से तमाशा देख रही है । दूरदर्शन में दिखाये जा रहे विज़ुअल्स से सब कुछ स्पष्ट और प्रमाणित हो चुका है कि रामपाल नामक एक अपराधी धर्म और जनता को ढाल बनाकर सरकार पर अपना आतंक कायम रखने में कामयाब हुआ है । चाहे-अनचाहे शातिर अपराधियों को एक संदेश पहुँचा दिया गया है कि धर्म की ढाल उन्हें अभेद्य कवच उपलब्ध कराती है जिसके आगे लोकतंत्र भी गिड़गिड़ाने के लिये विवश हो जाता है ।
        
        वैचारिक प्रदूषण फैलाने वाले एक दुष्ट अपराधी को मीडिया अभी भी “संत” संबोधित कर रहा है जिसका मैं विरोध करता हूँ । हरियाणा के डी.जी.पी. ने साहस करके रामपाल को अभियुक्त संबोधित किया है जो प्रशंसनीय है । दूसरी ओर डी.जी.पी. ने कहा है कि वे नहीं चाहते कि निर्दोषों को किसी प्रकार की क्षति हो । वे एक गुण्डे के समर्थकों को निर्दोष मानते हैं, वे गुण्डे जो पुलिस पर पेट्रोल बम फेक रहे हैं और पुलिस वालों पर गोली चला रहे हैं । कदाचित, डी.जी.पी. के अनुसार पुलिस वाले निर्दोषों की श्रेणी में नहीं आते ।
        हरियाणा पुलिस एक अपराधी को सम्मन तामील नहीं करवा सकी । हरियाणा पुलिस अपराधी के सहयोगियों को लाठी लेकर मार्च करते हुये देखती रहती है । हरियाणा पुलिस के सामने अपराधी के अड्डे में लोगों की भीड़ एकत्र होती रहती है और अस्लाहों का एकत्रीकरण होता रहता है । हरियाणा पुलिस ख़ामोश रहकर तमाशा देखती रहती है किंतु इसी तमाशे को पूरी दुनिया को दिखाने के लिये जब “चौथा स्तम्भ” अपने धर्म का पालन करता है तो पुलिस बर्बरतापूर्वक उन पर टूट पड़ती है । वह पुलिस, जो इतने दिनों से एक अपराधी की माँद में नहीं घुस पा रही थी, अपराधी के सहयोगियों के सामने विवश थी, अचानक सक्रिय हो जाती है और निर्दोष लोगों पर टूट पड़ती है । उसी पुलिस के डी.जी.पी. महोदय अपराधी रामपाल के गुण्डों को निर्दोष मानते हैं और मीडियाकर्मियों को अपराधी, ...तभी तो चौथे स्तम्भ पर पुलिस ने आज हिंसक आक्रमण कर दिया या यूँ कहिये कि सैन्य कार्यवाही की है ।
यह कैसा लोकतंत्र है जहाँ अपराधियों के आगे सारा तंत्र नाक रगड़ता सा प्रतीत होता है और उसका मूल्य चुकाने के लिये अपना नैतिक धर्म निभाने वालों को हिंसा का शिकार होना पड़ता है ?
किसी स्थान विशेष में अशांति फैलने की आशंका होने पर स्थानीय प्रशासन द्वारा प्रतिबन्धात्मक कार्यवाही किये जाने का प्रावधान है । रामपाल के मामले में उसके सहयोगी ( मैं उन्हें अनुयायी कहने की धृष्टता नहीं कर सकता) एक स्थान पर एकत्र होते रहे, किलाबन्दी करते रहे और प्रशासन अपंग बना रहा । अर्थात् समस्या उत्पन्न होती रही, स्थिति अनियंत्रित होती रही, रामपाल के कमाण्डो लाठी लेकर मार्च करते रहे, गुण्डों की सेना पुलिस और प्रशासन के सामने अपना शक्ति प्रदर्शन करती रही और पूरा देश लोकतंत्र को असहाय होता देखता रहा ।
भारत में “धर्म” का छद्म आवरण गुण्डों की ढाल बनता जा रहा है । इक्कीसवीं शताब्दी की भारतीय जनता धर्म और धर्म के आवरण में अंतर कर पाने में असमर्थ है । हम भारतीय लोग धर्म, आध्यात्म, आदर्श, मर्यादा, विकास, उन्नति, समानता आदि शब्दों के साथ खिलवाड़ करने के अभ्यस्त हो चुके हैं । राक्षसवाद से ग्रस्त भारत की बौद्धिक प्रतिभाओं के पलायन को, भला कौन सी शक्ति रोक सकेगी ?

भारत की जनता यदि चिटफण्ड कम्पनियों के जाल में बारबार फसती रहती है, बाहुबलियों और अपराधी नेताओं के पक्ष में मतदान करती है, किसी अपराधी नेता को न्यायालय से होने वाली सजा का विरोध करने के लिये आत्मदाह और आन्दोलनों पर उतारू हो जाती है, बाबाओं को ईश्वर मानने लगती है, गुण्डा और संत में अंतर कर पाने में असमर्थ रहती है, अधार्मिक कृत्यों को धर्म मानती है, व्यक्ति विशेष को ईश्वर से श्रेष्ठ प्रतिपादित करती है, किसी अपराधी को बचाने के लिये ढाल बनकर सामने आ जाती है, आत्मा-परमात्मा की बातें करने वाली पाखण्डी भीड़ क्रूर हिंसा पर उतारू हो जाती है तो यह मान लेना चाहिये कि समाज का एक बड़ा वर्ग लोकतांत्रिक मर्यादाओं में विश्वास नहीं रखता । यह विशाल वर्ग एक असभ्य कबीला है जो लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिये चुनौती है । आसाराम, नारायण साई और रामपाल जैसे अपराधियों ने न केवल भारतीय समाज का बहुत बड़ा अहित किया है अपितु “सनातन धर्म” के नाम को भी कलंकित किया है । जब-जब ऐसे वञ्चकों और पापियों का प्रभाव बढ़ा है तब-तब धर्म “अफ़ीम” बनती रही है और समाज अधिक से अधिक विकृत और विचलित होता रहा है । 

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