रविवार, 31 जनवरी 2016

बस्तर के संदर्भ में युवा नीति – 2016


पृष्ठभूमि –
बस्तर संभाग की विषम भौगोलिक एवं उग्रवादजन्य विकासप्रतिकूल स्थितियों ने बस्तर के विकास को अवरुद्ध ही नहीं किया प्रत्युत छिन्न-भिन्न  कर दिया है जिससे विकास कार्यों में लगायी जाने वाली पूँजी का एक बड़ा भाग अवरोध निवारक उपायों की ओर प्रतिस्थापित करना पड़ा है । अस्तु, बस्तर की युवानीति बस्तर की परिस्थितियों के अनुरूप निरूपित की जानी चाहिये और ऐसा करते समय हमें जनजातीय परम्पराओं के साथ-साथ उनके सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों का भी सम्मान करना होगा जिसमें जनजातीय कला प्रमुख है । हमें यह सत्य भी स्वीकार करना होगा कि बस्तर की लोकसंस्कृति को साथ लिये बिना बस्तर के विकास की कोई भी अवधारणा सफल नहीं हो सकेगी ।

बस्तर के युवाओं की समस्यायें –
1-    शिक्षा का स्वरूप, शिक्षा की सुविधायें और शिक्षा का स्तर ।
2-    स्वास्थ्यगत् समस्यायें और कुपोषण ।
3-    किशोरी स्वास्थ्य ।
4-    आजीविका के संसाधनों में तकनीकी ज्ञान, कौशल और प्रतिस्पर्धाजन्य अल्पता ।
5-    प्रोत्साहन के अभाव में पारम्परिक कुटीर उद्योगों में दक्षता का अभाव । 
6-    उग्रवाद और तद्जन्य विचलन तथा मुख्यधारा में आने के लिये मानसिक एवं भौतिक पुनर्वास  ।
7-    संस्कृतिक पतन एवं यौन हिंसा की घटनाओं में वृद्धि ।

बस्तर के युवाओं की सहज एवं प्रकृतिप्रदत्त क्षमतायें –
1-    हॉकी एवं फ़ुटवाल खेलने तथा तीव्रधावन के लिये पैरों की प्रकृतिप्रदत्त उपयुक्त शारीररचना ।
2-    प्रतिकूल स्थितियों में भी उपयुक्त अनुकूलन की क्षमता एवं शारीरिक सहनशीलता । 
3-    हस्तशिल्प एवं कलाओं में अभिरुचि ।

बस्तर की अन्य प्राकृतिक विशेषतायें –   
1-    बस्तर की भूमि कृषिउद्यानिकी के लिये उपयुक्त है जहाँ फलों की खेती को प्रोत्साहित किया जा सकता है ।
2-    बस्तर की भूमि सब्जियों, दालों एवं तिलहन के लिये उपयुक्त है जिसे प्रोत्साहित किया जाना चाहिये ।
3-    बस्तर के जंगलों में काली मिर्च, इलायची एवं दालचीनी की खेती के लिये उपयुक्त उर्वरता एवं वातावरण है ।
4-    बस्तर में अनानास, स्ट्राबेरी, प्लम, कीवी, चीकू और लीची की कृषि की अच्छी सम्भावनायें हैं ।   
कुटीर उद्योगों की सम्भावनायें –
1-    फल एवं उद्यानिकी ।
2-    खाद्य एवं वनौषधि प्रसंस्करण ।
3-    रेशम पालन एवं रेशम उद्योग ।
4-    पशुपालन एवं दुग्ध उद्योग ।   

बस्तर के लिये शैक्षणिक आवश्यकताओं का चिन्हांकन और निर्धारण – किसी भी समाज की शैक्षणिक आवश्यकतायें देश, काल और परिस्थितियों के अनुरूप अपना आकार ग्रहण करती हैं । ग्रामीण, नगरीय, पर्वतीय, सीमांत और औद्योगिक क्षेत्रों की अपनी विशिष्ट समस्यायें होती हैं जिनके कारण उन क्षेत्रों की आवश्यकतायें भी भिन्न-भिन्न होती हैं । भारत के शैक्षणिक मानचित्र को इन पाँच विशिष्ट क्षेत्रों में विभाजित करते हुये समस्याओं के चिन्हांकन और तदनुरूप आवश्यकताओं के उपयुक्त निर्धारण पर गम्भीरता से कार्य कियेजाने की स्वीकार्यता से दक्षता आधारित शिक्षा सुनिश्चित की जा सकती है । अस्तु, इस क्रम में बस्तर की परिस्थितियों एवं आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुये लाइवलीहुड कॉलेज को और अधिक सक्षम एवं उन्नत किये जाने की आवश्यकता पर विचार किया जाना चाहिये ।
बस्तर की स्थितियों के लिये फ़िनलैण्ड के शिक्षा प्रादर्श पर विचार करते हुये हमें एक नये प्रारूप का निर्माण करना होगा जिसमें भारत की प्राचीन शिक्षा प्रणाली के भी समावेश किये जाने की आवश्यकता है । ब्रिटिश शासन के पूर्व तक भारत की प्राचीन शिक्षा प्रणाली सूचनाप्रधान न होकर औद्योगिक दक्षता प्रधान हुआ करती थी जिसका हस्तांतरण नयी पीढ़ी को परम्परागत तरीके से किया जाता था । यह कहीं अधिक सक्षम और व्यावहारिक प्रणाली है जिसे पुनर्जीवित किये जाने की आवश्यकता है । इस सन्दर्भ में केरल की कन्नाड़ी का उदाहरण देना ही पर्याप्त होगा जिसे तमाम तकनीकी उन्नति के बाद भी अभी तक कोई बनाना नहीं जान सका है और यह पारम्परिक तकनीक अभी भी मात्र कुछ परिवारों तक ही सीमित है । हमें इस प्रकार के उद्योगों को प्रोत्साहित करने के उपयुक्त अवसरों को निर्मित करना होगा ।  
प्रकल्पों का चिन्हांकन –
क्र.सं.
बस्तर के सर्वाङ्गीण विकास की दिशा में
युवा नीति के उद्देश्य
पूर्ति का माध्यम
विभागीय दायित्व
1
वैश्विकग्रामजन्य प्रतिस्पर्धा में सम्पोषणीय व्यक्तिगत् सहभागिता एवं व्यक्तित्व विकास 
न्यूनतम अनिवार्य शिक्षा, के साथ राष्ट्रीय एवं नैतिक शिक्षा, व्यावसायिक शिक्षा, सैद्धांतिक शिक्षा- न्यूनतम एवं उच्चस्तरीय (Natural and Social sciences)  
शिक्षा
2
सन्मार्ग विचलन रोकने के लिये  सामाजिक एवं राष्ट्रीय मूल्य संवर्द्धन । जनजातीय जीवनदर्शन की जड़ों की ओर पुनरावर्तन ।  
कला एवं संस्कृति के माध्यम से सामाजिक, राष्ट्रीय एवं मानवीय मूल्यों का संवर्द्धन और तदाशयिक  उपयुक्त वातावरण का निर्माण । संस्कारघोटुलों की मूलरूप में पुनर्स्थापना ।    
संस्कृति
3
विचलित हुये लोगों को मुख्य धारा में लाने के लिये मानसिक एवं भौतिक पुनर्वास ।
मानसिक पुनर्वास हेतु B.C.C. एवं भौतिक पुनर्वास हेतु I.E.C. तथा कुटीर उद्योग की व्यवस्था ।    
आयुष एवं ग्राम विकास
3
स्वस्थ युवाओं का स्वस्थ समाज निर्माण एवं  शालेयखिलाड़ी स्वास्थ्य (School athlete health) का उन्नयन 
जीवनशैली में सुधार के लिये I.E.C./B.C.C. के माध्यम से लोक-स्वास्थ्य जागरूकता कार्यक्रमों का आयोजन । किशोरावस्थाजन्य समस्यायों के निराकरण हेतु आयुष अभियान । किशोरी आयुष स्वास्थ्य अभियान । शालेयखिलाड़ी आयुष स्वास्थ्य कार्यक्रम ।
आयुष एवं क्रीड़ा विभाग
4
आजीविका के सुअवसरों की उपलब्धता के साथ आत्मनिर्भरता एवं उद्यमिता निर्माण
परम्परागत् व्यवसाय एवं व्यावसायिक प्रशिक्षण की पुनर्स्थापना । आधुनिक तकनीकी कौशल विकास एवं क्षमता वर्द्धन ।  
परिवार, लाइवलीहुड कॉलेज, तकनीकी संस्थान  
5
सामुदायिक सहभागिता
कुटीरउद्योगग्रामों  की स्थापना
ग्राम विकास
6
विकास की अनुकूल परिस्थितियों का निर्माण
विभिन्न प्रणालियों में समन्वयात्मक सम्बन्ध शैली का विकास
प्रशासन

युवानीति के क्रियान्वयन में आयुष(आयुर्वेद) विभाग की भूमिका –   


कार्यकलाप का उद्देश्य
आयुष कार्यकलाप
कार्ययोजना का स्वरूप
वैयक्तिक विकास

स्वच्छता सम्बन्धी आदतों में परिवर्तन ।
Health awareness through BCC 
स्वस्थ जीवनशैली का विकास (Cultivation of healthy life style through health awareness programs and practice of exercise, Yogasan and games etc.)
Health awareness through IEC 
नशीली वस्तुओं के सेवन के प्रति अरुचि उपन्न करने का प्रयास
Health awareness through BCC 
मानव विकास

बच्चों, किशोरियों, गर्भिणियों एवं स्तनपान कराने वाली माताओं के पोषण स्तर में उन्नयन हेतु सुपोषण योजना ।
Awareness; preventive and curative treatment
शाला स्तर पर एथलीट बच्चों की स्वास्थ्य सम्बन्धी काउंसलिंग ।
Awareness; counseling
किशोरावस्था की मनोदैहिक समस्याओं सम्बन्धी काउंसलिंग ।
Awareness; counseling
गृहवाटिका प्रोत्साहन अभियान-(मुनगा,पपीता,केला,नीबू,आँवला)
Awareness and promotion
स्वास्थ्य की दृष्टि से गोधन संवर्द्धन हेतु प्रोत्साहन ।
Awareness and promotion
भौतिक विकास
वनौषधि कृषि प्रोत्साहन एवं प्रसंस्करण
IEC
मानसिक विकास
व्यक्तित्व विकास एवं मानसिक पुनर्वास
Workshop ; counseling and BCC

रविवार, 24 जनवरी 2016

शिक्षकीयदक्षता -- दक्षताआधारित शिक्षा

शोधपत्र -          शिक्षकीयदक्षता -- दक्षताआधारित शिक्षा

संक्षेपिका –    स्वातंत्र्योत्तर विकासशील भारत की सर्वाङ्गीण समृद्धि एवं शांति के लिये शिक्षा में गुणवत्ता एवं शिक्षितों में दक्षता सुनिश्चित करने के उद्देश्य से प्रतिस्पर्धात्मक वैश्विकयुग में सम्पूर्ण शिक्षा व्यवस्था को नया आकार दिये जाने की आवश्यकता है ।
भारत की शैक्षणिक आवश्यकताओं की युक्तियुक्त एवं निर्दुष्टपूर्ति के लिये क्षेत्रीय समस्याओं एवं तदनुरूप तर्कपूर्ण समुचित समाधान के आधार पर भारत के शैक्षणिकमानचित्र को ग्रामीण, नगरीय, पर्वतीय, सीमांत एवं औद्योगिक क्षेत्रों में चिन्हांकित कर वर्गीकृत किया जाना अपेक्षित है । 
सार्थक एवं उद्देश्यपरक शिक्षा के लिये मूलभूत भौतिक संसाधनों की पूर्ति के साथ-साथ भारत की सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के अनुरूप राष्ट्रीय एवं प्रांतीय स्तर पर पाठ्यक्रमों की विषयवस्तु तथा भाषा का निर्धारण, आचार्यदक्षता व विद्यार्थी की सुपात्रता के मापदण्डों की पुनर्रचना से समग्रशिक्षा के उद्देश्यों को प्राप्त किया जा सकना सम्भव है । प्रस्तुत शोधपत्र में वर्तमान शैक्षणिक पतन के व्यावहारिक अवलोकन, व्यक्तिगत एवं सामाजिक अनुभवों, समाचारपत्रों से प्राप्त सूचनाओं, प्राचीन भारत की शैक्षणिक परम्पराओं एवं तर्कशास्त्र को आधार बनाकर की गयी विवेचना से तर्कसंगत परिणाम प्राप्त किये गये हैं ।   
संकेत शब्द शैक्षणिकदक्षता, आचार्य, स्मृति, पक्षपातपूर्णइतिहास, शैक्षणिकमानचित्र

JEL code         : JEL: I    Sub code     : JEL: I21
  
 Teacher competency vs. Competence based education
शिक्षकीयदक्षता -- दक्षताआधारित शिक्षा

उद्देश्य – भारत की वर्तमान परिस्थितियों एवं आधुनिक आवश्यकताओं के परिप्रेक्ष्य में भारतीय पृष्ठभूमि के अनुरूप उपयुक्त शैक्षणिकदक्षता के समग्रलक्ष्य की सम्भावनाओं को ढूँढना । 

पृष्ठभूमि – अठारहवीं शताब्दी में जहाँ भारत में प्रति तीन हजार की जनसंख्या पर एक विद्यालय, गुरुकुल या मदरसा* हुआ करता था वहीं स्वातंत्र्योत्तर भारत में गुणवत्तायुक्त विद्यालयों में भारी कमी आयी है । हम शिक्षा के महत्वपूर्ण आयामों, दिशाओं एवं मौलिक तत्वों को निर्धारित करने में असफल रहे हैं, जिसके कारण शिक्षा व्यावहारिक जीवन से दूर होती चली गयी । शिक्षकीयदक्षता एवं दक्षताआधारित शिक्षा पर चिंतन करने से पूर्व गवेषणा के अन्य बिन्दुओं पर भी मंथन आवश्यक है ।  भारत की वर्तमान परिस्थितियों एवं आज की आधुनिक आवश्यकताओं के परिप्रेक्ष्य में भारतीय पृष्ठभूमि के अनुरूप उपयुक्त शैक्षणिक दक्षता के लक्ष्य को प्राप्त करने में आने वाली चुनौतियों ने कुछ प्रश्न खड़े किये हैं, यथा –

1-    शिक्षक की योग्यता और दक्षता के साथ-साथ विद्यार्थी की पात्रता का निर्धारण कैसे हो, 
2-    दक्षता आधारित शिक्षा की सुनिश्चितता के निर्दुष्ट उपाय क्या हैं,  
3-    शिक्षा को जीवनमूल्यों से कैसा जोड़ा जाय,  
4-    जीवन के लिये उसकी उपयोगिता को कैसे उत्कृष्ट बनाया जाय,  
5-    पाठ्यक्रम के निर्धारण का आधार क्या और कैसा हो, 
6-    अध्ययन-अध्यापन का माध्यम क्या हो,  
7-    शिक्षा के मूलभूत संसाधनों की उपलब्धता कैसे सुनिश्चित की जाय और
8-    हमारी शैक्षणिक आवश्यकतायें क्या होनी चाहिये ?

सतत अवलोकन, निरीक्षण एवं व्यावहारिक अनुभवों से प्राप्त विचारणीय तथ्य –

1-    पर्याप्त शैक्षणिकसंसाधनों के अभाव एवं निम्नस्तरीय शिक्षासंसाधनों से भारत में शिक्षा की गुणवत्ता प्रभावित हुयी है जिससे शिक्षा का ध्रुवीकरण सुविधासम्पन्न वर्ग की ओर होता जा रहा है ।
2-    वर्तमान शिक्षा ज्ञानमूलक न होकर सूचनामूलक हो गयी है ।
3-    वर्तमान शिक्षा भारतीयमूल्यों के तात्विक समावेश से वंचित है जिससे युवा पीढ़ी में एक प्रकार की अपसंस्कृति विकसित होती जा रही है जो देश की सांस्कृतिक समृद्धता, वैचारिक श्रेष्ठता, जीवनमूल्यों और शांतिपूर्ण समाज की स्थापना के लिये अशुभ है ।
4-    उच्चशिक्षित लोगों के आचरण में व्याप्त भ्रष्टाचार ने शिक्षा के औचित्य पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया है ?
5-    अध्यापनविधि को लेकर विद्यार्थीगण प्रायः संतुष्ट नहीं हो पाते ।
6-    परीक्षा में बढ़ते निरंकुश कदाचार ने शिक्षा की गुरुता और गम्भीरता को भारी क्षति पहुँचायी है और शिक्षाव्यवस्था को परिहास का विषय बना दिया है ।
7-    योग्यता के मूल्यांकन की दूषित एवं त्रुटिपूर्ण विधियाँ प्रचलित हैं जिनके कारण सच्चे विद्यार्थी कुंठा एवं निराशा से ग्रस्त हो रहे हैं ।
8-    स्तरीय शिक्षा के अभाव एवं शिक्षा में व्याप्त भ्रष्टाचार ने समर्थ लोगों को प्रतिभा पलायन के लिये प्रेरित किया है जिससे भारतीय प्रतिभाओं की क्षमताओं-दक्षताओं का लाभ भारत को प्राप्त न होकर पश्चिमी देशों को प्राप्त हो रहा है ।
9-    विद्यार्थी यह समझ पाने में असफल हुये हैं कि आजीविका के साधन के अतिरिक्त उनके जीवन में शिक्षा की और क्या उपादेयता है ?  
10- शिक्षकों का आचरण अनुकरणीय नहीं रहा जिससे वे शिक्षक तो बन गये किंतु आचार्य नहीं बन सके ।
11- शिक्षा की पवित्रता बनाये रखने के लिये भारतीय परम्परा में शिक्षा को ज्ञान-दान का विषय स्वीकार किया गया था, किंतु आज शिक्षा को एक सुस्थापित उद्योग में स्थानांतरित कर दिया गया है जिससे शिक्षा की पवित्रता समाप्त हो गयी है ।

उपयोग में लायी गयी शोध की विधि –
अवलोकन एवं निरीक्षणजन्य तथ्याधारित मनो-सामाजिकविश्लेषण ।

शोध की प्रकृति – सैद्धांतिक परिकाल्पनिक । 

चुनौतियों के सन्दर्भ में निरीक्षण से प्राप्त तथ्यों का मनो-सामाजिक विश्लेषण  –

1-    शिक्षक की योग्यता और दक्षता के साथ-साथ विद्यार्थी की पात्रता का निर्धारण – उत्कृष्ट शिक्षा उपलब्ध ज्ञान में दक्षता प्राप्त करने के व्यावहारिक अभ्यास से प्रारम्भ होकर नवान्वेषण से होती हुई संस्कारवर्धन के लक्ष्य को प्राप्त करती है। ज्ञान की यह एक गुरुतर शिक्षायात्रा है जिसके लिये शिक्षक की अपने विषय में दक्षता तो आवश्यक है ही विद्यार्थी की पात्रता भी उतनी ही आवश्यक है। स्वामी विवेकानन्द को भी अपने लिये गुरु की खोज करनी पड़ी थी । कई सूक्ष्म निरीक्षण-परीक्षण के पश्चात् ही वे स्वामी रामकृष्ण परमहंस को अपना गुरु चयनित कर सके थे । चरक संहिता – विमान स्थान के अष्टम अध्याय में गुरु की दक्षता और शिष्य की पात्रता पर गम्भीरता से चिंतन करते हुये निर्देशित किया गया है कि ज्ञानप्राप्त करने के इच्छुक विद्यार्थियों की सुपात्रता का भलीभांति निर्धारण किया जाना चाहिये, यथा –

अध्यापने कृतबुद्धिराचार्यः शिष्यमेवादितः परीक्षेत तद्यथा – प्रशांतमार्यप्रकृतिकमक्षुद्रकर्माणमृजुचक्षुर्मुखनासावंशं तनुरक्तविशदजिह्वमविकृत दंतौष्ठममिन्मिनं धृतिमन्तमनहङ्कृतं  मेधाविनं वितर्कस्मृतिसंपन्नमुदारसत्वं तद्विद्यकुलजमथवा तद्विद्यवृतं तत्वाभिनिवेशिनमव्यङ्गमव्यापन्नेन्द्रियं निभृतमनुद्धतमर्थतत्वभावकमकोपनमव्यसनिनं शीलशौचाचारानुरागदाक्ष्य प्रादक्षिण्योपपन्नमध्ययनाभिकाममर्थविज्ञाने कर्मदर्शने चानन्यकार्यमलुब्धमनलसंसर्वभूतहितैषैणिमाचार्यसर्वानुशिष्टिप्रतिकरमनुरक्तं च, एवंगुणसमुदितमध्याप्यमाहुः । - (चरक-विमानस्थान, अध्याय-8, सूत्र- 8) **

वहीं शिष्य को भी अपने लिये निर्दुष्ट एवं अविकलज्ञान प्रदान करने वाले योग्य एवं दक्षगुरु का भलीभांति परीक्षण करने का परामर्श दिया गया है  –

ततोऽनंतरमाचार्यं परीक्षेत तद्यथा – पर्यवदातश्रुतं परिदृष्टकर्माणं दक्षं दक्षिणं शुचिं जितहस्तमुपकरणवन्तं सर्वेंद्रियोपपन्नं प्रकृतिज्ञं प्रतिपत्तिज्ञमनुपस्कृतविद्यमन- हङ्कृतमनसूयकमकोपनं क्लेशक्षमं शिष्यवत्सलमध्यापकं ज्ञापनसमर्थं चेति । - (चरक-विमानस्थान, अध्याय-8, सूत्र- 4) **

दुर्भाग्य से, आधुनिक भारत में उसके प्राचीन शैक्षणिक दिशानिर्देशों की निरंतर उपेक्षा के साथ “दक्षता” के स्थान पर आरक्षण व्यवस्थाजन्य “दक्षताशिथिलता” के राजनीतिक हठ से उपजी गुणवत्ताविहीन शिक्षा व्यवस्था का प्रचलन प्रारम्भ किया गया जिनके परिणामों से सभी लोग परिचित हैं । यहाँ प्रकृति के सामान्य नियमों की हठपूर्वक पूर्ण उपेक्षा की गयी है । योग्यता और दक्षता के मूल्यांकन के मापदण्ड कठोर होते हैं उनके साथ किसी प्रकार की शिथिलता या समझौता समाजमनोवैज्ञानिक सिद्धांतों के प्रतिकूल होने से अन्यायपूर्ण, अमानवीय, निन्दनीय और वर्ज्य  है । 
शारीरक्रिया के आधुनिक वैज्ञानिक सिद्धांतों के अनुसार “पूर्ति प्रतिलोम प्रतिक्रिया” शरीर की सहज कार्यक्षमता को शिथिल करते हुये अंततः निष्क्रियता का कारण बनती है । मनुष्य के व्यवहार में यह “पूर्ति प्रतिलोम प्रतिक्रिया” अकर्मण्यता के रूप में प्रकट होती है । इसका सबसे अच्छा उदाहरण मधुमेह के रोगियों में सूचीवेध से दिये गये इंसूलिन के प्रभाव से अग्न्याशय की बीटा कोशिकाओं में होने वाली निष्क्रियता है । मनुष्य के शरीर एवं स्वभाव में बाह्याहूत पूर्तिजन्यशिथिलता एवं उदारता अकर्मण्यता को जन्म देती है।      
यह सुनिश्चित् तथ्य है कि दक्षता और पात्रता के मध्य समवाय स्वरूप का एक वैज्ञानिक सम्बन्ध है जिसकी उपेक्षा के परिणामस्वरूप ही उच्चशिक्षा प्राप्त लोग भी चारित्रिक व नैतिक पतन के चरमगर्त में प्रायः गिरते हुये पाये जाते हैं । शिक्षा के क्षेत्र में इस समवाय सम्बन्ध का सम्मान करते हुये शिक्षक  की “दक्षतावर्धन” एवं विद्यार्थी की “सुपात्रता” के नैतिक एवं बौद्धिक मापदण्डों का पुनर्निर्धारण आज की अपरिहार्य आवश्यकतायें हैं ।
विद्यार्थी में ज्ञान की पिपासा का होना और शिक्षक का आचार्य होना दक्षतापूर्णशिक्षा के लिये अपरिहार्य है । स्वातंत्र्योत्तर भारत के शिक्षक प्रायः “सूचनाज्ञापक” की भूमिका में अधिक हैं आचार्य की भूमिका में बहुत कम । हमें “सूचनाज्ञापक” और “आचार्य” की भूमिकाओं को समझना होगा । सूचनाज्ञापक की भूमिका शिक्षासत्र तक ही सीमित होती है जबकि आचार्य की भूमिका शिक्षासत्र के उपरांत भी जीवनभर चलती है । आचार्य वह है जिसकी दी हुयी सूचनायें और जीवनवृत्त विद्यार्थी के लिये उसके नित्यजीवन में आचरणीय हों । जो शिक्षक आचरणीय नहीं हो पाता वह आचार्य नहीं होता, आचार्य होना जीवन की सतत साधना का सात्विक परिणाम है ।
2-    दक्षता आधारित शिक्षा की मूलभूत आवश्यकतायें – समग्र शैक्षणिक दक्षता के लिये शिक्षकों की दक्षता के साथ-साथ दक्षता आधारित शिक्षा की भी आवश्यकता है । शिक्षा के ये दोनो ही महत्वपूर्ण स्तम्भ हैं जिनकी युति अत्यावश्यक है ।
स्वातंत्र्योत्तर भारत में शिक्षा को लेकर निरंतर प्रयोग होते रहे हैं जो अद्यावधि अपनी निष्फल निरंतरता बनाये हुये हैं । हम एक प्रदूषित जलाशय में मोती खोजने का कुशलप्रदर्शन करने की चेष्टा में तल्लीन हैं बिना यह विचार किये हुये कि मोती की उपलब्धता की सहज शर्तें क्या हैं ! हम अभी तक शिक्षा की मौलिक आधारभूमि का भी निर्माण नहीं कर सके हैं । इसके लिये हमें निम्न तथ्यों पर गम्भीरता से मंथन करना होगा –
2-1-       शिक्षा को जीवनमूल्यों से जोड़ने का क्रियान्वयन – आज की शिक्षा का स्वभाव तकनीकी होता जा रहा है, उसमें शिक्षा के प्राणतत्व का सर्वथा अभाव ही दृष्टिगोचर होता है । शिक्षा की जीवंतता और चेतना समाप्त हो गयी है जो एक गम्भीर सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक समस्या है । आधुनिक शिक्षा को भारतीय जीवनमूल्यों से जोड़ पाना बिना दृढ राजनीतिक संकल्प के सम्भव नहीं है। प्राचीन भारतीय आर्षसाहित्य, पुराणेतिहास, संहिताओं और स्मृतियों आदि के रूप में हमारे पास जीवनमूल्यों की अमूल्य निधि उपलब्ध है जिसका व्यावहारिकअनुवाद हमारे आचरण में किये जाने की आवश्यकता है ।
2-2-       जीवन के लिये शिक्षा की उपयोगिता को उत्कृष्ट एवं व्यावहारिक बनाये जाने के उपाय – महात्मा गांधी ने शिक्षा को जीवन की दैनिक आवश्यकताओं में सहायक बनाने की दृष्टि से कृषिप्रधान भारत के तत्कालीन उपलब्ध संसाधनों के अनुरूप “बुनियादी तालीम” की परिकल्पना की थी जो आज के नये परिवेश में “कौशल विकास” के रूप में पुनः प्रकट हुयी है । कौशल विकास योजना यदि निष्ठापूर्वक क्रियान्वयित की जा सकी तो इसके परिणाम भारत में कुटीर उद्योग को न केवल पुनर्जीवित करने वाले होंगे बल्कि युवाओं को आजीविका के अवसर उपलब्ध कराने में भी सहायक होंगे । यहाँ आवश्यकता निष्ठा की है ।
2-3-       पाठ्यक्रम के स्वरूप और तत्वों का औचित्यपूर्ण निर्धारण – राजनीतिक महत्वाकाक्षाओं ने भारत के विद्यालयों और महाविद्यालयों के पाठ्यक्रमों को नकारात्मक ढंग से प्रभावित किया है । ऐसी नकारात्मकता से सर्वाधिक प्रभावित होने वाले विषय हैं इतिहास और साहित्य । इतिहास और साहित्य यदि विकृत, अप्रासंगिक या अनुपयुक्त हों तो विद्यार्थियों की ऐसी पीढ़ी तैयार होती है जो स्वाभिमानशून्य, हीनभाव से ग्रस्त और अपनी साहित्यिक-सांस्कृतिक-वैज्ञानिक-ऐतिहासिक परम्पराओं एवं उपलब्धियों से अनभिज्ञ होती है । यह तय किया जाना चाहिये कि भारत के विद्यार्थियों को क्या पढ़ाया जाना चाहिये और क्यों ? विषय की उपादेयता और औचित्य पर गम्भीर मंथन किये बिना कुछ भी पढ़ाया जाना “तमसोमा ज्योतिर्गमय” की भारतीय आदर्श अवधारणा के प्रतिकूल है । यही कारण है कि कोई चिकित्सा या अभियांत्रिकी का छात्र वर्ड्सवर्थ, कीथ, शेक्सपियर, चेतनभगत और अरुन्धती राय को तो जानता है किंतु कालिदास, भवभूति, दण्डी, अग्निवेश, पुनर्वसु आत्रेय, रत्नाकर, जयशंकर प्रसाद और हजारीप्रसाद द्विवेदी का नाम लेते ही इधर-उधर ताकने लगता है । भारतीय समाज के लिये शेक्सपियर की उपयुक्तता उतनी औचित्यपूर्ण नहीं हो सकती जितनी कि भवभूति या जयशंकर प्रसाद की है । यही स्थिति इतिहास की है । दूरदर्शी दुर्भावना से ग्रस्त होकर लिखे गये पक्षपातपूर्णइतिहास ने भारत की वर्तमान पीढ़ी को इतिहास के वास्तविक तथ्यों से वंचित कर उसे भारत के मिथ्या अतीत की कुंठा में झोंकने का कार्य किया है । आज इतिहास के निष्पक्ष पुनर्लेखन की अनिवार्य आवश्यकता है ।
2-4-       अध्ययन-अध्यापन का माध्यम – यह सुविदित और सुस्थापित तथ्य है कि सूचनाओं के माध्यम से दिया जाने वाला ज्ञान तभी सुग्राह्य और सुबोध हो पाता है जब उसका भाषायी माध्यम स्थानीय हो । भारत में इस वैज्ञानिक सत्य की निरंतर उपेक्षा होती रही है जिसपर अब विराम लगना ही चाहिये ।
2-5-       शिक्षा के मूलभूत संसाधनों की उपलब्धता – शिक्षक, शिक्षक की दक्षता, विद्यालय-भवन की उपलब्धता, भवन की उपयुक्त संरचना, पुस्तकालय, प्रयोगशाला एवं अध्ययन सामग्री की उपलब्धता जैसे मूलभूत संसाधनों के अभाव या न्यूनता ने शिक्षा को गुणवत्ताविहीन बनाने में भूमिका निभायी है । शिक्षा के क्षेत्र में औद्योगिक घरानों के प्रवेश ने संसाधनयुक्त शिक्षा को आम विद्यार्थियों से दूर कर दिया है । इस समस्या के समाधान के लिये भारत की प्राचीन गुरुकुलकालीन व्यवस्था के पुनरावलोकन से कोई दिशा प्राप्त की जा सकती है । इस सन्दर्भ में बौद्धकाल से लेकर अठारहवीं शताब्दी के प्रारम्भ तक भारत की शिक्षा व्यवस्था के श्रेष्ठ और व्यावहारिक होने के कारणों की विवेचना समीचीन होगी ।
2-6-       हमारी शैक्षणिक आवश्यकताओं का चिन्हांकन और निर्धारण – किसी भी समाज की शैक्षणिक आवश्यकतायें देश, काल और परिस्थितियों के अनुरूप अपना आकार ग्रहण करती हैं । ग्रामीण, नगरीय, पर्वतीय, सीमांत और औद्योगिक क्षेत्रों की अपनी विशिष्ट समस्यायें होती हैं जिनके कारण उन क्षेत्रों की आवश्यकतायें भी भिन्न-भिन्न होती हैं । भारत के शैक्षणिक मानचित्र को इन पाँच विशिष्ट क्षेत्रों में विभाजित करते हुये समस्याओं के चिन्हांकन और तदनुरूप आवश्यकताओं के उपयुक्त निर्धारण पर गम्भीरता से कार्य कियेजाने की स्वीकार्यता से दक्षता आधारित शिक्षा सुनिश्चित की जा सकती है ।

शोध के निष्कर्ष – प्रतिस्पर्धात्मक वैश्विक युग में भारत की समृद्धि एवं शांति के लिये शिक्षा की गुणवत्ता एवं दक्षता सुनिश्चित करने के उद्देश्य से सम्पूर्ण शिक्षा व्यवस्था को नया आकार दिये जाने की आवश्यकता है । यह नया आकार संसाधनों के रूप में स्थूल है जबकि वैचारिक रूप में सूक्ष्म गुणात्मक और सतत विश्लेषणात्मक है । 
गुणवत्तायुक्त शिक्षा की समग्रता के लिये क्षेत्रीय आवश्यकताओं के अनुरूप शैक्षणिक मानचित्र का चिन्हांकन एवं तदनुरूप समाधान हेतु उपयुक्त भौतिक संसाधनों की पूर्ति, भारतीय सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के अनुरूप पाठ्यक्रमों व भाषा का निर्धारण, शिक्षक दक्षता व विद्यार्थी की सुपात्रता के मापदण्डों की पुनर्रचना अपेक्षित है ।

संदर्भग्रंथ सूची –
* – Dharampal – ‘The Beautiful tree: Indigenous Indian Education in the Eighteenth Century’ Volume 3,  – Published by Other India Press Mapusa 403 507, Goa, India 
**– Dr. Ram Karan Sharma and Vaidya Bhagwan dashचरक संहिताVolume –2, First edition, Chowkhamba Sanskrit Series Office Publication, Varanasi, U.P.