ताडमोर
की पथिकशाला
अब रही
वैसी कहाँ !
मिलते
थे
चीन-भारत-सीरिया
कभी यहाँ
चहल-पहल
पथिकशाला
में रहती थी यहाँ
बजती थीं
कभी
बेल-मन्दिर
में घण्टियाँ
थीं
बुलाती दूर से
ताडमोर
की पहाड़ियाँ
मेजबान मुकुटधारी
ताड़ और खजूर
मन्द-मन्द
मुस्कराते
कहते, आइये
हुज़ूर !
मिटती थी
थकान
सुरा-आसव-अरिष्ट
पी
भरते जल
उदर में
कारवां
के उष्ट्र भी
उगलती
रहती धुआँ
पथिकशाला
की रसोयी
स्वामिनी
सराय की
क्या
पता कब से न सोयी
कारवां प्रिय
का न जाने
क्यों न
आया अब तलक
मिलते
थे प्रेम से
चीन-भारत-ग्रीस
भी
सुनाते
थे किस्से ख़ूब, गाते थे गीत भी ।
किंतु
शत्रु प्रेम के
रहते कब
चुप भला
भग्न
किये मन्दिर-मठ
नष्ट कर
दी कला
रेशम पथ
की सराय
उदास
हुयी बार-बार
भग्न
मूर्ति पथ खण्डित
मर्यादा
हुयी तार-तार ।
कहते
हैं लिखा किसी
आसमानी
किताब में
तोड़ दो
बुत, मन्दिर और मठ
ढहा दो
किले-महल
मिटा दो
हर गौरव पुराना
मिटा दो
इतिहास
लिखा
नबी से पहले वो सब
जला दो
हर क़िताब, शेष रहे बस क़ुरान
मिटा दो
हर आस्था, रहे बस नबी की शान
मचा दो
ताण्डव
उठा लो
खींच कर
लड़कियाँ
जो भी मिलें
कर दो
तार-तार
तन और
मन उनका
नोच लो
जो भी मिले, लूट लो जो भी मिले
बहा दो
रक्त सबका राह में जो भी मिले
ख़ूब ख़ुश
होगा ख़ुदा
मिलेगी
जन्नत और रीझेंगी हूर भी
वाह-वाह
तेरा ख़ुदा !
क्या
बात है तेरा ख़ुदा !
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ब्लॉग बुलेटिन - भारत कोकिला से हिन्दी ब्लॉग कोकिला और विश्व रेडियो दिवस में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
जवाब देंहटाएंapki post achhi lgi
जवाब देंहटाएंself book publishing company in delhi