रविवार, 2 जून 2019

निर्वात


“मेरी बहन को देखोगे तो पागल हो जाओगे ...एक बार देख तो लो ...चार घर छोड़कर घर है हमारा”।
आठ-नौ साल के बच्चे ने सत्तर साल के बुढ़ऊ की कलायी पकड़कर अपने साथ चलने का आग्रह करते हुये कहा तो बुढ़ऊ ने मुस्कराते हुये पूछा – “ऐसा क्या है तुम्हारी बहन में”?
बच्चे ने व्यावसायिक होते हुये निःसंकोच कहा – “आपकी पसंद की हर चीज है उसके पास”।

पता नहीं बुढ़ऊ ने भरोसा किया बच्चे की बात पर या कि उसकी व्यावसायिकता से प्रभावित हुआ, बहरहाल वह तैयार हो गया बच्चे के साथ जाने के लिये ।
चार घर छोड़कर एक कच्चे घर में मण्डी थी । बच्चे ने ओसारे में पहुँचते ही आवाज़ लगायी – “जिज्जी”।
दरवाजा खोलकर प्रकट हुयी लड़की को बुढ़ऊ ने नीचे से ऊपर तक देखा, एक्स-रे जैसी भेदक दृष्टि से देखकर देह के उतार-चढ़ाव वाले एक-एक चित्र का विश्लेषण किया, मन ही मन काम के तराजू पर रखकर उसकी देह को तौला । बुढ़ऊ ने बच्चे को कुर्ते की जेब से दस का एक नोट निकालकर देते हुये कहा – “माल वाकई जोरदार है”।
दलाल बच्चे की जिज्जी मात्र चौदह-पंद्रह साल की एक किशोरी थी । किशोरी ने बुढ़ऊ को अपने पीछे आने का संकेत दिया और अंदर चली गयी । बच्चे ने चिल्लाकर कहा – “कुछ चाहिये तो माँग लेना” और इसके बाद वहाँ से भाग गया । 
यह बेड़ियों का गाँव है जहाँ अपने ही बेचते हैं अपनों के शरीर । तथाकथित सभ्य समाज में प्रचलित नैतिकता की सीमाओं को धता बताती देहव्यापार की इस घरेलू मण्डी की अपनी सीमायें हैं और अपनी ही परिभाषाएँ । बाजार के विस्तार को रक्त सम्बंध भी बाँध पाने में असमर्थ हो जाते हैं इस गाँव में ।
कच्ची मिट्टी के बने घर, घर के बाहर दीवारों पर छप्पर डालकर बनाये गये काम चलाऊ खुले बरामदे, कच्ची गलियाँ, किसी-किसी घर के सामने उगे नीम के पेड़, अपनी माँ-बहन-भाभी-पत्नी या बेटी की देह का व्यापार करते रक्तसम्बंधियों के समूह ...बहुत कुछ था वहाँ पर पिछले दो घण्टों से मैंने एक भी चित्र नहीं लिया था, कैमरा ऑन करने की भी इच्छा नहीं हुयी । यहाँ तक कि नीम के पेड़ की एक डाल पर बैठे मोर को देखकर भी मेरा मन नहीं मचला ।
मन हुआ कि पास जाकर नीम से पूछूँ ...मोर से पूछूँ ...पूछूँ कि रक्त सम्बंधों में सहज मानवीय भावनाओं का यह निर्वात क्यों?

जिस समय सत्तर साल के बुढ़ऊ एक चौदह साल की किशोरी को खा कर अपनी भूख मिटाने का प्रयास कर रहे थे उस समय मेरी चिर सखी उदासी चुपके से मेरे पास आकर बैठ गयी । मैंने उसके आने और अपने पास बैठने को स्पष्ट अनुभव किया, पूछा – “तुम फिर आ गयीं ...मैं अकेले रहना चाहता हूँ ...और तुम हो कि मुझे कभी अकेला नहीं छोड़तीं । आज मैं बिल्कुल अकेले रहना चाहता हूँ, तुम जाओ यहाँ से”।

चिर सखी उदासी बैठी ही रही, गयी नहीं । थोड़ी देर बाद मैंने बुढ़ऊ को वापस आते देखा । बुढ़ऊ के चेहरे पर तृप्ति का भाव तिर रहा था । मैं उसे समीप आते देखता रहा । पास आकर उसने मेरे कंधे पर हाथ रखते हुये कहा – “मजा आ गया कमाल का माल है एक बार जाकर तो देखो”।
मैंने कुछ नहीं कहा, आँखें फेर कर हवा में झूमती हुयी नीम की पत्तियों को देखने लगा । बुढ़ऊ ने पूछा – “लेखक हो?”
मैं चुप रहा तो बुढ़ऊ ने ही कहा – “मुझसे घृणा है रही है न! ...तुम लेखक लोग ज़रूरत से ज़्यादा सोचते हो । दुनिया के हर देश में ...हर युग में यह सब होता रहा है”।
मुझे लगा कि बुढ़ऊ के पास कहने के लिये बहुत कुछ है । मैंने पूछ दिया – “सहज रिश्ते इतने निर्वात कैसे हो सकते हैं?
बुढ़ऊ चौंक गये, कुछ देर चुप रहकर बोले – “मतलब?”
“मतलब यह कि कोई पिता या भाई अपनी बेटी, बहन या पत्नी की देह का इतनी निर्लज्जता से सौदा कैसे कर लेता है?”
बुढ़ऊ हँसे, फिर बोले – “हे अर्जुन ! संसार के समर में न कोई पिता है, न कोई पत्नी है ...न कोई भाई-बहन ...सब कुछ मन का भ्रम है ...विकार है । यह जो छोटा सा अबोध बच्चा अपनी जिज्जी की देह का मुझसे सौदा कर रहा था ..उसी से तुम व्यथित हो गये हो न! ...वे दोनों सहोदर हो सकते हैं ...किंतु उनके पिता अलग-अलग हैं ...उसी तरह जैसे हम लोगों के मोहल्ले में सभी बच्चों के पिता अलग-अलग हुआ करते हैं । ...और फिर ...यह तो मन की निर्बंध स्थिति है ...अपने-पराये के भाव से परे”।
मैंने घृणा से भर कर कहा – “बच्चे को छोड़ो ...आप अपनी कहो, उस अबोध बच्ची को कैसे खा सकेआप?”
बुढ़ऊ ने गम्भीर हो कर उत्तर दिया – “खाया वही जाता है जो खाद्य होता है ...अखाद्य को कौन खा सकेगा! आयु को मत देखो ...शरीर को देखो । आयु तुम्हें उलझा सकती है ...शरीर तुम्हें आकर्षित कर सकता है”।
“वह अभी बच्ची है”।
“तो क्या हुआ? भोग्या की आयु तो है न उसकी!”
“और उसका कोमल मन? कच्ची उम्र में उसे औरत बना देना आपको कोई अपराध नहीं लगता?
“भोग्या और औरत में अंतर क्यों करना चाहते हैं आप?”
“यह अंतर आप भी तो कर रहे हैं । अपने घर की किसी किशोरी को क्यों नहीं खा लिया आपने? यहाँ इतनी दूर चलकर आने की ज़रूरत नहीं पड़ती तब
बुढ़ऊ का चेहरा तमतमा गया । उसने मुझ पर हाथ उठा दिया तो आसपास खड़े होकर चुपचाप बहस सुन रहे दलालों ने हाथ पकड़ लिया उसका । एक ने कहा – “तेरा काम हो गया सेठ! अब तू जा यहाँ से ...फालतू की बहस मत कर”।
मैंने कहा – “हे पितामह भीष्म! मुझे ख़ुशी हुयी कि आपको मुझ पर क्रोध आया । यह क्रोध आपके भीतर बैठी चेतना के आहत होने से उत्पन्न हुआ है । इस चेतना को बनाये रखना”।
बुढ़ऊ ने नम आँखों से पूछा – “तुम कौन हो बेटा?”
मैंने कहा –“मुझे नहीं मालुम ... बस इतना जानता हूँ कि हम दोनों की चेतना ने मात्र एक पल के लिये ही सही ...एक-दूसरे को स्पर्श किया है । काश! आपकी यह चेतना कुछ देर पहले जाग्रत हो गयी होती तो आप उस बच्ची में अपनी पोती को पा लेते”।

तीन दिन बाद गाँव के बाहर वाले तालाब में लोगों ने एक वृद्ध की लाश को देखा ।

1 टिप्पणी:

टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.