सोये थे जलकण
लिपटकर
मृदा के कणों से
ओढ़कर चादर
हवा के नन्हें कणों की ।
धरती
हो गयी थी उर्वरा
पाकर इन कणों को ।
छू देता सूरज
जब-जब इन्हें
चहक उठते बीज
माटी में सोये पड़े जो,
भर जाती कोख तब
माँ धरती की
कर देने बाँझ जिसे
अड़ गये हो तुम
लगा कर संयत्र
चुरा रहे जलकण
छीन रहे अधिकार
जंगल के जीवन का ।
मर जायेगा जंगल
तड़पकर प्यास से जिस दिन
बनाओगे जीवन तब
जिस कारखाने में
उसे तो लगाया ही नहीं
आज तक तुमने कहीं
और तुम कहते हो
कि कर लिया है बहुत
तुमने विकास ।
हाँ! सचमुच
कर लिया है बहुत
तुमने विकास
जीवन के मूल्य पर
किंतु
तुम्हें क्या
तुम तो चल दोगे
बनाकर धरती को बाँझ
किसी अन्य ग्रह पर
बनाने
उसे भी बाँझ
करते हुये ऐसा ही विकास ।
बहुत सुंदर सार्थक सृजन...स्वार्थी मनुष्य काश कि समझ पाता स्वयं के विनाश की ओर प्रगति पर है।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद श्वेता जी! हिंदी में इस तरह के तकनीकी विषयों पर साहित्य लेखन प्रायः नहीं हो रहा है । हमारा छोटा सा प्रयास है इस दिशा में । पढ़ने के लिये आभार !
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