तारों से
अब रोशनी
नहीं मिलती,
गर्मी बहुत
है फ़िज़ाँ में,
पता नहीं
क्यों फिर भी
इस मुल्क
में
अब बर्फ़
नहीं गलती ।
वे कलाकार
थे
अब सौदागर
हो गये हैं
कला भी बेचते
हैं
और आदर्श
भी
मौका मिले
तो मुल्क
भी बेच देंगे
वे सौदागर
हैं
सिर्फ़ सौदागर
।
अप्सराएँ
भी कब नाची हैं भला
किसी गाँव
की चौपाल पर
वे तो आरक्षित
हैं
केवल देवलोक
में नाचने के लिए ।
अप्सराओं
से क्या आशा
वे थीं ही
कब हमारी
जो अब होंगी
।
शादी होनी
थी, नागरिकता संशोधन कानून की
रिश्ता तय
हुआ ही था
कि कुछ उटकाने
वाले आ गये
उटकाने लगे
रिश्ता
...करने
लगे
यहाँ वहाँ
दंगे ।
कुछ आगजनी
हुयी
कुछ मौतें
हुयीं
कुछ घर तबाह
हुये
कुछ मुल्क
तबाह हुआ
हल्ला हुआ
तो निकल
आये मौसमी मेढक
जो निकलते
हैं हरबार
सिर्फ़
अपने मतलब
के मौसम में ही ।
टर्राने
लगे मेढक
...एक ही
राग में
...ले के
रहेंगे आज़ादी ।
नागरिकता
कानून फेक दिया नेपथ्य में
...सामने
ले आये अ-नागरिकता कानून
...फैलाने
लगे अ-राजकता
गाने लगे
लाल सलाम लाल सलाम ।
बहुत पढ़े
लिखे हैं
मेढक मेरे
देश के
...कुछ विद्वान
हैं
...कुछ गंधर्व
हैं
ये अपने
ही मौसम को जानते हैं,
ये अपने
ही राग को गाते हैं
ये नहीं
मानते
भारत के
छह मौसम,
ये नहीं
गाते राग पहाड़ी
चीखते हैं
सिर्फ़
गंगा-जमुनी
तहज़ीब
...जो नहीं
होती कोई तहज़ीब ।
किंतु मैं
शिकायत करूँ
भी तो किससे?
धधक उठे
हैं चिराग
घर के ही
कुछ कोनों में ।
आओ! हम आग
बुझाएँ
अँधेरों
से तो बाद में भी निपट लेंगे,
पहले घर
तो बचाएँ ।
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