विदेशी धरती
से भारतीय छात्रों द्वारा भारतीय क़ानून का विरोध प्रदर्शन...
2020 का
साल अभी पूरी तरह से अपनी आँखें खोल भी नहीं पाया कि जार में बंद मेढकों की तरह भारत
वंशियों ने विदेशी धरती पर भी अपने कारनामे दिखाने शुरू कर दिये ...बिना इस बात की
परवाह किये कि उनकी इन हरकतों का स्थानीय निवासियों के मन-मस्तिष्क पर क्या प्रभाव
पड़ेगा । बुधवार और गुरुवार को लंदन, न्यू यार्क, पेरिस, वाशिंगटन डी सी, बर्लिन,
जेनेवा, द हाग, बार्सिलोना,
सैन फ़्रांसिस्को, टोक्यो, एम्स्टर्डम और मेलबॉर्न जैसे शहरों में भारतीय छात्र और शिक्षक सड़कों पर आ
गये... किसी ज़श्न के लिये नहीं बल्कि भारत सरकार की नीतियों और निर्णयों के विरोध में,
…उन नीतियों और निर्णयों के विरोध में जो भारत, भारतीयता और मानवता के अस्तित्व की रक्षा के लिये बनाये गये हैं ।
भारतीय नागरिकता
संशोधन कानून, राष्ट्रीय जनसंख्या पंजी और नागरिकता की राष्ट्रीय पञ्जी को लेकर विदेशी धरती
से भारतीय छात्रों द्वारा भारतीय क़ानून के लगातार विरोध प्रदर्शन से हमारा यह भ्रम
टूट गया है कि विख्यात विदेशी विश्व विद्यालयों में पढ़ने वाले छात्र बहुत प्रखर और
सुलझे हुये होते हैं । जब यू.एस. के कोलम्बिया जैसे विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले लगभग
एक सौ भारतीय छात्र यह कहते हुये कि भारतीय नागरिकता संशोधन कानून अल्पसंख्यकों,
विशेषकर मुस्लिमों और दलितों के मौलिक एवं राष्ट्रीय हितों के विरुद्ध
है, विदेशी धरती पर विरोध प्रदर्शन करते हैं और भारतीय नागरिकता
संशोधन कानून की प्रतियाँ फाड़ते हैं तो मुझे संदेह होता है कि ये छात्र देश-दुनिया
और मानवता को अपने जीवन में कभी कुछ दे भी सकेंगे या केवल कागज पर छपी हुयी डिग्रियाँ
ही बटोर सकेंगे ?
पहली नज़र
में लगता है कि भारत में होने वाली गतिविधियाँ इतनी जनविरोधी और दमनकारी हैं कि विदेशियों
से भी चुप नहीं रहा जाता और उन्हें विरोध प्रदर्शन के लिये सड़क पर उतरना पड़ता है ।
प्रदर्शनकारियों द्वारा बनाये गये वीडियो उनकी चुगली के लिये काफी हैं । इन प्रदर्शनों
में भारतवंशियों के चेहरे नज़र आते हैं जिनमें वर्तमान बांग्लादेश और पाकिस्तानी नागरिकों
की संख्या अधिक हुआ करती है । पाकिस्तानी और बांग्लादेशी नागरिकों को लगता है कि घुसपैठ
कर भारत जाकर बस गये उनके भाई-बंधु अब मनमानी नहीं कर पायेंगे । भारत में सरकार विरोधियों
और वामपंथियों की फ़ौज उन्हें पूरा समर्थन देने के लिये हमेशा तैयार रहती है ।
विदेशी विश्वविद्यालयों
में विरोध हो रहा है हमारे कानून का क्योंकि हम ख़ामोश हैं । भारत में अफ़वाहें फैलायी
जा रही हैं जिनसे हिंसा और आगजनी की घटनायें हो रही हैं क्योंकि हम ख़ामोश हैं । यह
सब इसलिये हो रहा है क्योंकि जिन्हें जेल में होना चाहिये वे आज़ाद हैं और जिन्हें बोलना
चाहिये वे ख़ामोश हैं ।
भारत से
बाहर उत्पीड़न के शिकार हो रहे विदेशी हो चुके भारतवंशी अल्पसंख्यकों को भारत में नागरिकता
देने से सम्बंधित संशोधित कानून और सरकार की नीतियों का देश भर में विरोध हो रहा है
। सदन में हार चुका विपक्ष सदन से बाहर युद्ध के लिये ताल ठोंक चुका है । लोग पत्थर
फेंक रहे हैं, पुलिस वालों को पीट रहे हैं, सरकारी और निजी सम्पत्तियों
को तोड़ रहे हैं या उनमें आग लगा रहे हैं । अतिबुद्धिजीवी लोग बे-सिर-पैर की बातें करके
आम जनता को भड़का रहे हैं । पूरे देश में अराजकता उत्पन्न करने की सारी कोशिशें की जा
रहीं । विरोधप्रदर्शनकारियों में ऐसे अतिबुद्धिजीवियों की संख्या बहुत ज़्यादा है जिन्हें
यह भी पता नहीं होता कि वे किस बात का विरोध करने सड़क पर पत्थरबाजी कर रहे हैं या पत्थरबाजों
का समर्थन कर रहे हैं ।
भारत में
कुछ ऐसे भी मुद्दे हैं जिन पर कभी हंगामा नहीं हुआ और जिन्हें हमेशा नेपथ्य में धकेला
जाता रहा । उन्नीस सौ सत्तर, अस्सी और नब्बे के दशक में कश्मीर
घाटी से कश्मीरी पंडितों का हिंसक निर्वासन होता रहा, उनकी बेटियों
से यौनदुष्कर्म होते रहे, पुरुषों और बच्चों की हत्यायें होती
रहीं, घोषणा करके खुले आम उनकी सम्पत्तियों को लूटा जाता रहा
तब इसी भारत में कोई हंगामा नहीं हुआ ।
पिछले कई
दशकों से असम के कई जिलों में बांग्लादेशी मुसलमानों की घुसपैठ होती रही । कुछ जिलों
में तो इस घुसपैठ के कारण वहाँ अल्पसंख्यक हो गये हिंदुओं की ज़िंदगी नारकीय होती रही, उनकी बेटियों
से छेड़छाड़ और यौनदुष्कर्म होते रहे तब इसी भारत में कोई हंगामा नहीं हुआ । सब कुछ नेपथ्य
में जाकर विलीन होता रहा । क्या ये सारी स्थितियाँ भारत और भारत के हिंदुओं के लिये
आत्मघाती नहीं हैं ?
...और आज
जब घुसपैठियों पर लगाम कसने के लिये कानूनी उपाय किये जा रहे हैं तो भारत के ही विपक्षी
दल भारत के ख़िलाफ़ एक गैरज़रूरी जंग के लिये उठकर खड़े हो गये हैं ।
नागरिकता
संशोधन कानून पर बरपा हंगामा हमें यह सोचने पर मज़बूर करता है कि यदि अभिव्यक्ति की
आज़ादी का यही अर्थ है तो क्या वास्तव में भारत के लोगों को यह आज़ादी मिलनी चाहिये ? मैं पूरी
दृढ़ता से कह सकता हूँ कि ...बिल्कुल नहीं । इस तरह की हिंसक और विघटनकारी आज़ादी की
अपेक्षा प्रतिबंधों की लगाम कहीं अधिक रचनात्मक और सर्वहारा के लिये कल्याणकारी है
।
नागरिकता
संशोधन कानून पर सदन में हार चुके राजनीतिक दल अफ़वाहों के सहारे तूफ़ान लाने की तैयारी
में जुट गये हैं । हर बात पर विरोध और हंगामा करना विपक्ष का धर्म बन चुका है । मैं
अक्सर सोचता हूँ कि क्या पक्ष और विपक्ष दोनों को चुनावों के बाद एक साथ मिलकर देश
की बेहतरी के लिये काम नहीं करना चाहिये! क्या विपक्ष का धर्म केवल विरोध करना ही है, और क्या
वे अपनी सारी ऊर्जा विघटनकारी हरकतों में ही नष्ट करना सीख सके हैं । आख़िर सभी राजनैतिक
दलों द्वारा मिलजुल कर देशसेवा की अवधारणा को अभी तक विकसित क्यों नहीं किया जा सका?
विपक्ष के होने का उद्देश्य क्या केवल सत्ता पाने के लिये संघर्षरत रहना
ही रह गया है ?
...और इन
सारे हंगामों के बीच यह ख़बर भी है कि रूस, यूके, यू
एस ए, फ़्रांस और इज़्रेल ने अपने नागरिकों को भारत यात्रा न करने
के लिये आगाह कर दिया है । भारत की इस अमंगलकारी छवि के लिये दोषी कौन है? भारत में होने वाली गतिविधियों को लेकर विदेशी धरती पर होने वाली प्रतिक्रियाओं
के पीछे कौन है?
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