एक्टर शहज़ाद ख़ान कहते हैं
कि वे पैसे के लिये एक्ट करते और डायलॉग बोलते हैं इसलिये किसी ताण्डव से होने
वाले विध्वंस से उनका कोई लेना देना नहीं है । अर्थात विध्वंस का सारा दोष पटकथा
लेखक और निर्देशक का होता है । वे धमकी वाले अंदाज़ में बारम्बार यह कहना भी नहीं भूलते
कि माँग तो ली माफ़ी अब क्या फाँसी चढ़ाओगे ।
हम इसे एक बेहद ग़ुस्ताख़ी
भरी मासूमियत मानते हैं ।
चलो माना कि पटकथा लेखक, निर्देशक, कलाकार, सिनेमेटोग़्राफ़र और स्पॉट ब्वाय ....सभी ने
माफ़ी माँग ली । क्या किसी ने यह वादा भी किया कि भविष्य में अब कभी ऐसा दुस्साहस
नहीं किया जायेगा ?
माना कि आपके घर की तरह
हमारा घर भी पुराना और टूटा-फूटा है, किंतु जिस तरह आप हमारे घर का मज़ाक उड़ाते रहे
हैं उसी तरह अपने भी घर का मज़ाक उड़ाने का साहस कर सकेंगे कभी ?
माना कि आप सुधारवादी हैं
और सोशल एण्ड रिलीज़ियस रीफ़ॉर्मेशन के लिये हमें थप्पड़ पर थप्पड़ मारना अपना सोशल
दायित्व मानते हैं किंतु क्या इसी तरह आप अपने आप को भी थप्पड़ मारने के बारे में
कभी सोच पाते हैं ?
आख़िर हर बार सारे निशाने
आप हमारे ऊपर ही क्यों साधते हैं ?
ये वे प्रश्न हैं जिन्हें
सत्तर साल बाद नींद से उठकर आँखे मलते हुये एक वर्ग के लोग दूसरे वर्ग से पूछते
हैं । यहाँ यह बता दें कि भारत की भीड़ ने हमें इतनी आज़ादी नहीं दी है कि हम वर्ग न
लिखकर सीधे-सीधे वर्ग का नाम लिख सकें । हमें इतनी आज़ादी नहीं है कि हम हमारे ऊपर
थप्पड़ बरसाने वाले का नाम साफ-साफ बता सकें ।
ख़ैर! सत्तर साल बाद अब जो
सवाल हम उछालने लगे हैं उनका उत्तर बहुत आलस भरा है । पहले उत्तर सुन लीजिये – कनक
कुम्भ रीतो धरो, ता पै
इतनी ऐंठ । काग बसे विष्टा करे, बस कागा की ही पैठ ॥
वे ग़ुलाब के काँटे दिखाकर
गुलाब को बदनाम करते रहे और गुलाब अपनी कोमल पंखुड़ियों के गर्व में चुपचाप बदनाम
होते रहे ।
ऐसा गर्व किस काम का ?
वे रणभूमि में न जाने
कबसे वार पर वार किये जा रहे हैं और हम सिर्फ़ रो-रोकर कोहराम मचाये जा रहे हैं ।
वे रौद्र ताण्डव ही कर रहे, हम लास्य
ताण्डव भी नहीं कर रहे, फिर पराभव की इतनी पीड़ा क्यों ?
क्या हमारे घर में एक भी
ऐसा पटकथा लेखक नहीं जो अमृतपूरित कनककुम्भ की पटकथा लिख सके ? क्या हमारे घर में एक
भी ऐसा निर्देशक नहीं जो गुलाब की पंखुड़ियों का स्पर्श कर सके ? क्या हमारे घर में एक भी ऐसा कलाकार नहीं जो लास्य तांडव कर सके ?
अब समय नहीं कि हम दूसरों
को दोष दें, हमें
कर्मभूमि में उतरना होगा । रौद्रताण्डव के उत्तर में लास्यताण्डव करना होगा । यही
हमारी आर्ष परम्परा है । यही हमारे अस्तित्व की रक्षा का उपाय है ।
समुद्र जैसा ऊपर से
दिखायी देता है वैसा ही अंदर भी नहीं हुआ करता, उसके अंदर जल-प्रवाह की एक और अंतरधारा होती है...
एक सशक्त जलधारा जो किसी को दिखायी नहीं देती । हम जैसे ऊपर से दिखायी देते हैं
वैसे ही अंदर भी नहीं हुआ करते, हमारे अंदर बहुत कुछ घटित हो
रहा होता है जो ऊपर से किसी को दिखायी नहीं देता । हमें अपने अंदर देखना होगा ।
हमें स्वयं को देखना होगा ।
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